"मातृभाषा प्रेम पर दोहे / भारतेंदु हरिश्चंद्र" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | + | {{KKGlobal}} | |
− | + | {{KKRachna | |
− | + | |रचनाकार=भारतेंदु हरिश्चंद्र | |
− | + | }} | |
− | + | {{KKCatDoha}} | |
− | + | <poem> | |
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल | निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल | ||
− | + | बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल। | |
− | बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को | + | |
− | + | ||
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन | अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन | ||
− | + | पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन। | |
− | पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के | + | |
− | + | ||
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय | उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय | ||
− | + | निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय। | |
− | निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब | + | |
− | + | ||
निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय | निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय | ||
− | + | लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय। | |
− | लाख उपाय अनेक यों भले करे किन | + | |
− | + | ||
इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग | इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग | ||
− | + | तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग। | |
− | तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता | + | |
− | + | ||
और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात | और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात | ||
− | + | निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात। | |
− | निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की | + | |
− | + | ||
तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय | तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय | ||
− | + | यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय। | |
− | यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं | + | |
− | + | ||
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार | विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार | ||
− | + | सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार। | |
− | सब देसन से लै करहू, भाषा माहि | + | |
− | + | ||
भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात | भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात | ||
− | + | विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात। | |
− | विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध | + | |
− | + | ||
सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय | सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय | ||
− | + | उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय। | |
− | उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन | + | </poem> |
23:41, 23 सितम्बर 2014 के समय का अवतरण
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।
निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय।
इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।
और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।
तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।
भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।
सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।