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"मेघदूत के प्रति / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

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महाकवि कालिदास के मेघदूत से साहित्यानुरागी संसार भलिभांति परिचित है, उसे पढ़ कर जो भावनाएँ ह्रदय में जाग्रत होती हैं, उन्हें ही मैंने निम्नलिखित कविता में पद्यबध्द किया है भक्त गंगा की धारा में खड़ा होता है और उसीके जल से अपनी अंजलि भरकर गंगा को समर्पित कर देता है इस अंजलि में उसका क्या रहता है, सिवा उसकी श्रध्दा के? मैंने भी महाकवि की मंदाक्रांता की मंद गति से प्रवाहित होने वाली इस कविता की मंदाकिनी के बीच खड़े हो कर, इसी में कुछ अंजलि उठाकर इसीको अर्पित किया है इसमें भी मेरे अपनेपन का भाग केवल मेरी श्रध्दा ही है --'' '''हरिवंशराय बच्चन'''<br><br><br>
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महाकवि कालिदास के मेघदूत से साहित्यानुरागी संसार भलिभांति परिचित है, उसे पढ़ कर जो भावनाएँ ह्रदय में जाग्रत होती हैं, उन्हें ही मैंने निम्नलिखित कविता में पद्यबध्द किया है भक्त गंगा की धारा में खड़ा होता है और उसीके जल से अपनी अंजलि भरकर गंगा को समर्पित कर देता है इस अंजलि में उसका क्या रहता है, सिवा उसकी श्रध्दा के? मैंने भी महाकवि की मंदाक्रांता की मंद गति से प्रवाहित होने वाली इस कविता की मंदाकिनी के बीच खड़े हो कर, इसी में कुछ अंजलि उठाकर इसीको अर्पित किया है इसमें भी मेरे अपनेपन का भाग केवल मेरी श्रध्दा ही है --'' '''हरिवंशराय बच्चन'''
  
"मेघ" जिस जिस काल पढ़ता,<br>
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"मेघ" जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>
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मैं स्वयं बन मेघ जाता!
  
हो धरणि चाहे शरद की<br>
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हो धरणि चाहे शरद की
चाँदनी में स्नान करती,<br>
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चाँदनी में स्नान करती,
वायु ऋतु हेमंत की चाहे<br>
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वायु ऋतु हेमंत की चाहे
गगन में हो विचरती,<br><br>
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गगन में हो विचरती,
  
हो शिशिर चाहे गिराता<br>
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हो शिशिर चाहे गिराता
पीत-जर्जर पत्र तरू के,<br>
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पीत-जर्जर पत्र तरू के,
कोकिला चाहे वनों में,<br>
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कोकिला चाहे वनों में,
हो वसंती राग भरती,<br><br>
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हो वसंती राग भरती,
  
ग्रीष्म का मार्तण्ड चाहे,<br>
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ग्रीष्म का मार्तण्ड चाहे,
हो तपाता भूमि-तल को,<br>
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हो तपाता भूमि-तल को,
दिन प्रथम आषाढ़ का में<br>
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दिन प्रथम आषाढ़ का में
'मेघ-चर' द्वारा बुलाता<br><br>
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'मेघ-चर' द्वारा बुलाता
  
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>
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मैं स्वयं बन मेघ जाता!
  
भूल जाता अस्थि-मज्जा-<br>
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मांसयुक्त शरीर हूँ मैं,<br>
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मांसयुक्त शरीर हूँ मैं,
भासता बस-धूम्र संयुत<br>
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भासता बस-धूम्र संयुत
ज्योति-सलिल-समीर हूँ मैं,<br><br>
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ज्योति-सलिल-समीर हूँ मैं,
  
उठ रहा हूँ उच्च भवनों के,<br>
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उठ रहा हूँ उच्च भवनों के,
शिखर से और ऊपर,<br><br>
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शिखर से और ऊपर,
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देखता संसार नीचे
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इंद्र का वर वीर हूँ मैं,
  
देखता संसार नीचे<br>
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मंद गति से जा रहा हूँ
इंद्र का वर वीर हूँ मैं,<br><br>
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पा पवन अनुकूल अपने
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संग है वक-पंक्ति, चातक-
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दल मधुर स्वर गीत गाता
  
मंद गति से जा रहा हूँ<br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
पा पवन अनुकूल अपने<br>
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मैं स्वयं बन मेघ जाता!
संग है वक-पंक्ति, चातक-<br>
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दल मधुर स्वर गीत गाता<br><br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>
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झोपडी़, ग्रह, भवन भारी,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>
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महल औ' प्रासाद सुंदर,
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कलश, गुंबद, स्तंभ, उन्नत
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धरहरे, मीनार द्धढ़तर,
  
झोपडी़, ग्रह, भवन भारी,<br>
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दुर्ग, देवल, पथ सुविस्त्तत,
महल औ' प्रासाद सुंदर,<br>
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और क्रीडो़द्यान-सारे,
कलश, गुंबद, स्तंभ, उन्नत<br>
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मंत्रिता कवि-लेखनी के
धरहरे, मीनार द्धढ़तर,<br><br>
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स्पर्श से होते अगोचर
  
दुर्ग, देवल, पथ सुविस्त्तत,<br>
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और सहसा रामगिरि पर्वत
और क्रीडो़द्यान-सारे,<br>
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उठाता शीशा अपना,
मंत्रिता कवि-लेखनी के<br>
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गोद जिसकी स्निग्ध छाया
स्पर्श से होते अगोचर<br><br>
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-वान कानन लहलहाता!
  
और सहसा रामगिरि पर्वत<br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
उठाता शीशा अपना,<br>
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मैं स्वयं बन मेघ जाता!
गोद जिसकी स्निग्ध छाया<br>
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-वान कानन लहलहाता!<br><br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>
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देखता इस शैल के ही
मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>
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अंक में बहु पूज्य पुष्कर,
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पुण्य जिनको किया था
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जनक-तनया ने नहाकर
  
देखता इस शैल के ही<br>
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संग जब श्री राम के वे,
अंक में बहु पूज्य पुष्कर,<br>
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थी यहाँ पे वास करती,
पुण्य जिनको किया था<br>
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देखता अंकित चरण उनके
जनक-तनया ने नहाकर<br><br>
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अनेक अचल-शिला पर,
  
संग जब श्री राम के वे,<br>
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जान ये पद-चिन्ह वंदित
थी यहाँ पे वास करती,<br>
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विश्व से होते रहे हैं,
देखता अंकित चरण उनके<br>
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देख इनको शीश में भी
अनेक अचल-शिला पर,<br><br>
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भक्ति-श्रध्दा से नवाता
  
जान ये पद-चिन्ह वंदित<br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
विश्व से होते रहे हैं,<br>
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मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देख इनको शीश में भी<br>
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भक्ति-श्रध्दा से नवाता<br><br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>
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देखता गिरि की शरण में
मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>
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एक सर के रम्य तट पर
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एक लघु आश्रम घिरा बन
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तरु-लताओं से सघनतर,
  
देखता गिरि की शरण में<br>
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इस जगह कर्तव्य से च्युत
एक सर के रम्य तट पर<br>
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यक्ष को पाता अकेला,
एक लघु आश्रम घिरा बन<br>
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निज प्रिया के ध्यान में जो
तरु-लताओं से सघनतर,<br><br>
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अश्रुमय उच्छवास भर-भर,
  
इस जगह कर्तव्य से च्युत<br>
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क्षीणतन हो, दीनमन हो
यक्ष को पाता अकेला,<br>
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और महिमाहीन होकर
निज प्रिया के ध्यान में जो<br>
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वर्ष भर कांता-विरह के
अश्रुमय उच्छवास भर-भर,<br><br>
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शाप के दुर्दिन बिताता
  
क्षीणतन हो, दीनमन हो<br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
और महिमाहीन होकर<br>
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मैं स्वयं बन मेघ जाता!
वर्ष भर कांता-विरह के<br>
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शाप के दुर्दिन बिताता<br><br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>
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था दिया अभिशाप अलका-
मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>
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ध्यक्ष ने जिस यक्षवर को,
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वर्ष भर का दंड सहकर
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वह गया कबका स्वघर को,
  
था दिया अभिशाप अलका-<br>
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प्रयेसी को एक क्षण उर से
ध्यक्ष ने जिस यक्षवर को,<br>
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लगा सब कष्ट भूला
वर्ष भर का दंड सहकर<br>
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वह गया कबका स्वघर को,<br><br>
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प्रयेसी को एक क्षण उर से<br>
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किन्तु शापित यक्ष
लगा सब कष्ट भूला<br><br>
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महाकवि, जन्म-भरा को!
  
किन्तु शापित यक्ष<br>
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रामगिरि पर चिर विधुर हो
महाकवि, जन्म-भरा को!<br><br>
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युग-युगांतर से पडा़ है,
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मिल ना पाएगा प्रलय तक
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हाय, उसका शाप-त्राता!
  
रामगिरि पर चिर विधुर हो<br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
युग-युगांतर से पडा़ है,<br>
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मैं स्वयं बन मेघ जाता!
मिल ना पाएगा प्रलय तक<br>
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हाय, उसका शाप-त्राता!<br><br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>
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देख मुझको प्राणप्यारी
मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>
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दामिनी को अंक में भर
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घूमते उन्मुकत नभ में
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वायु के म्रदु-मंद रथ पर,
  
देख मुझको प्राणप्यारी<br>
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अट्टहास-विलास से मुख-
दामिनी को अंक में भर<br>
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रित बनाते शून्य को भी
घूमते उन्मुकत नभ में<br>
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जन सुखी भी क्षुब्ध होते
वायु के म्रदु-मंद रथ पर,<br><br>
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भाग्य शुभ मेरा सिहाकर;
  
अट्टहास-विलास से मुख-<br>
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प्रणयिनी भुज-पाश से जो
रित बनाते शून्य को भी<br>
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है रहा चिरकाल वंचित,
जन सुखी भी क्षुब्ध होते<br>
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यक्ष मुझको देख कैसे
भाग्य शुभ मेरा सिहाकर;<br><br>
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फिर न दुख में डूब जाता?
  
प्रणयिनी भुज-पाश से जो<br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
है रहा चिरकाल वंचित,<br>
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मैं स्वयं बन मेघ जाता!
यक्ष मुझको देख कैसे<br>
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फिर न दुख में डूब जाता?<br><br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>
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देखता जब यक्ष मुझको
मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>
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शैल-श्रंगों पर विचरता,
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एकटक हो सोचता कुछ
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लोचनों में नीर भरता,
  
देखता जब यक्ष मुझको<br>
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यक्षिणी को निज कुशल-
शैल-श्रंगों पर विचरता,<br>
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संवाद मुझसे भेजने की
एकटक हो सोचता कुछ<br>
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कामना से वह मुझे उठबार-
लोचनों में नीर भरता,<br><br>
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बार प्रणाम करता
  
यक्षिणी को निज कुशल-<br>
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कनक विलय-विहीन कर से
संवाद मुझसे भेजने की<br>
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फिर कुटज के फूल चुनकर
कामना से वह मुझे उठबार-<br>
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प्रीति से स्वागत-वचन कह
बार प्रणाम करता<br><br>
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भेंट मेरे प्रति चढा़ता
  
कनक विलय-विहीन कर से<br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
फिर कुटज के फूल चुनकर<br>
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मैं स्वयं बन मेघ जाता!
प्रीति से स्वागत-वचन कह<br>
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भेंट मेरे प्रति चढा़ता<br><br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>
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पुष्करावर्तक घनों के
मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>
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वंश का मुझको बताकर,
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कामरूप सुनाम दे, कह
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मेघपति का मान्य अनुचर
  
पुष्करावर्तक घनों के<br>
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कंठ कातर यक्ष मुझसे
वंश का मुझको बताकर,<br>
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प्रार्थना इस भांति करता-
कामरूप सुनाम दे, कह<br>
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'जा प्रिया के पास ले
मेघपति का मान्य अनुचर<br><br>
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संदेश मेरा,बंधु जलधर!
  
कंठ कातर यक्ष मुझसे<br>
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वास करती वह विरहिणी
प्रार्थना इस भांति करता-<br>
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धनद की अलकापुरी में,
'जा प्रिया के पास ले<br>
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शंभु शिर-शोभित कलाधर
संदेश मेरा,बंधु जलधर!<br><br>
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ज्योतिमय जिसको बनाता'
  
वास करती वह विरहिणी<br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
धनद की अलकापुरी में,<br>
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मैं स्वयं बन मेघ जाता!
शंभु शिर-शोभित कलाधर<br>
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ज्योतिमय जिसको बनाता'<br><br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>
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यक्ष पुनः प्रयाण के अनु-
मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>
+
रूप कहता मार्ग सुखकर,
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फिर बताता किस जगह पर,
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किस तरह का है नगर, घर,
  
यक्ष पुनः प्रयाण के अनु-<br>
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किस दशा, किस रूप में है
रूप कहता मार्ग सुखकर,<br>
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प्रियतमा उसकी सलोनी,
फिर बताता किस जगह पर,<br>
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किस तरह सूनी बिताती
किस तरह का है नगर, घर,<br><br>
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रात्रि, कैसे दीर्ध वासर,
  
किस दशा, किस रूप में है<br>
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क्या कहूँगा,क्या करूँगा,
प्रियतमा उसकी सलोनी,<br>
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मैं पहुँचकर पास उसके;
किस तरह सूनी बिताती<br>
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किन्तु उत्तर के लिए कुछ
रात्रि, कैसे दीर्ध वासर,<br><br>
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शब्द जिह्वा पर ना आता
  
क्या कहूँगा,क्या करूँगा,<br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं पहुँचकर पास उसके;<br>
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मैं स्वयं बन मेघ जाता!
किन्तु उत्तर के लिए कुछ<br>
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शब्द जिह्वा पर ना आता<br><br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>
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मौन पाकर यक्ष मुझको
मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>
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सोचकर यह धैर्य धरता,
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सत्पुरुष की रीति है यह
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मौन रहकर कार्य करता,
  
मौन पाकर यक्ष मुझको<br>
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देखकर उद्यत मुझे
सोचकर यह धैर्य धरता,<br>
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प्रस्थान के हित,
सत्पुरुष की रीति है यह<br>
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कर उठाकर
मौन रहकर कार्य करता,<br><br>
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वह मुझे आशीष देता-
  
देखकर उद्यत मुझे<br>
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'इष्ट देशों में विचरता,
प्रस्थान के हित,<br><br>
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हे जलद, श्री व्रिध्दि कर तू
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संग वर्षा-दामिनी के,
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हो न तुझको विरह दुख जो
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आज मैं विधिवश उठाता!'
  
कर उठाकर<br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
वह मुझे आशीष देता-<br><br>
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मैं स्वयं बन मेघ जाता!  
 
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'इष्ट देशों में विचरता,<br>
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हे जलद, श्री व्रिध्दि कर तू<br>
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संग वर्षा-दामिनी के,<br>
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हो न तुझको विरह दुख जो<br>
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आज मैं विधिवश उठाता!'<br><br>
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'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>
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मैं स्वयं बन मेघ जाता! <br><br>
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14:13, 4 दिसम्बर 2014 के समय का अवतरण

महाकवि कालिदास के मेघदूत से साहित्यानुरागी संसार भलिभांति परिचित है, उसे पढ़ कर जो भावनाएँ ह्रदय में जाग्रत होती हैं, उन्हें ही मैंने निम्नलिखित कविता में पद्यबध्द किया है भक्त गंगा की धारा में खड़ा होता है और उसीके जल से अपनी अंजलि भरकर गंगा को समर्पित कर देता है इस अंजलि में उसका क्या रहता है, सिवा उसकी श्रध्दा के? मैंने भी महाकवि की मंदाक्रांता की मंद गति से प्रवाहित होने वाली इस कविता की मंदाकिनी के बीच खड़े हो कर, इसी में कुछ अंजलि उठाकर इसीको अर्पित किया है इसमें भी मेरे अपनेपन का भाग केवल मेरी श्रध्दा ही है -- हरिवंशराय बच्चन

"मेघ" जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

हो धरणि चाहे शरद की
चाँदनी में स्नान करती,
वायु ऋतु हेमंत की चाहे
गगन में हो विचरती,

हो शिशिर चाहे गिराता
पीत-जर्जर पत्र तरू के,
कोकिला चाहे वनों में,
हो वसंती राग भरती,

ग्रीष्म का मार्तण्ड चाहे,
हो तपाता भूमि-तल को,
दिन प्रथम आषाढ़ का में
'मेघ-चर' द्वारा बुलाता

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

भूल जाता अस्थि-मज्जा-
मांसयुक्त शरीर हूँ मैं,
भासता बस-धूम्र संयुत
ज्योति-सलिल-समीर हूँ मैं,

उठ रहा हूँ उच्च भवनों के,
शिखर से और ऊपर,
देखता संसार नीचे
इंद्र का वर वीर हूँ मैं,

मंद गति से जा रहा हूँ
पा पवन अनुकूल अपने
संग है वक-पंक्ति, चातक-
दल मधुर स्वर गीत गाता

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

झोपडी़, ग्रह, भवन भारी,
महल औ' प्रासाद सुंदर,
कलश, गुंबद, स्तंभ, उन्नत
धरहरे, मीनार द्धढ़तर,

दुर्ग, देवल, पथ सुविस्त्तत,
और क्रीडो़द्यान-सारे,
मंत्रिता कवि-लेखनी के
स्पर्श से होते अगोचर

और सहसा रामगिरि पर्वत
उठाता शीशा अपना,
गोद जिसकी स्निग्ध छाया
-वान कानन लहलहाता!

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

देखता इस शैल के ही
अंक में बहु पूज्य पुष्कर,
पुण्य जिनको किया था
जनक-तनया ने नहाकर

संग जब श्री राम के वे,
थी यहाँ पे वास करती,
देखता अंकित चरण उनके
अनेक अचल-शिला पर,

जान ये पद-चिन्ह वंदित
विश्व से होते रहे हैं,
देख इनको शीश में भी
भक्ति-श्रध्दा से नवाता

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

देखता गिरि की शरण में
एक सर के रम्य तट पर
एक लघु आश्रम घिरा बन
तरु-लताओं से सघनतर,

इस जगह कर्तव्य से च्युत
यक्ष को पाता अकेला,
निज प्रिया के ध्यान में जो
अश्रुमय उच्छवास भर-भर,

क्षीणतन हो, दीनमन हो
और महिमाहीन होकर
वर्ष भर कांता-विरह के
शाप के दुर्दिन बिताता

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

था दिया अभिशाप अलका-
ध्यक्ष ने जिस यक्षवर को,
वर्ष भर का दंड सहकर
वह गया कबका स्वघर को,

प्रयेसी को एक क्षण उर से
लगा सब कष्ट भूला

किन्तु शापित यक्ष
महाकवि, जन्म-भरा को!

रामगिरि पर चिर विधुर हो
युग-युगांतर से पडा़ है,
मिल ना पाएगा प्रलय तक
हाय, उसका शाप-त्राता!

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

देख मुझको प्राणप्यारी
दामिनी को अंक में भर
घूमते उन्मुकत नभ में
वायु के म्रदु-मंद रथ पर,

अट्टहास-विलास से मुख-
रित बनाते शून्य को भी
जन सुखी भी क्षुब्ध होते
भाग्य शुभ मेरा सिहाकर;

प्रणयिनी भुज-पाश से जो
है रहा चिरकाल वंचित,
यक्ष मुझको देख कैसे
फिर न दुख में डूब जाता?

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

देखता जब यक्ष मुझको
शैल-श्रंगों पर विचरता,
एकटक हो सोचता कुछ
लोचनों में नीर भरता,

यक्षिणी को निज कुशल-
संवाद मुझसे भेजने की
कामना से वह मुझे उठबार-
बार प्रणाम करता

कनक विलय-विहीन कर से
फिर कुटज के फूल चुनकर
प्रीति से स्वागत-वचन कह
भेंट मेरे प्रति चढा़ता

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

पुष्करावर्तक घनों के
वंश का मुझको बताकर,
कामरूप सुनाम दे, कह
मेघपति का मान्य अनुचर

कंठ कातर यक्ष मुझसे
प्रार्थना इस भांति करता-
'जा प्रिया के पास ले
संदेश मेरा,बंधु जलधर!

वास करती वह विरहिणी
धनद की अलकापुरी में,
शंभु शिर-शोभित कलाधर
ज्योतिमय जिसको बनाता'

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

यक्ष पुनः प्रयाण के अनु-
रूप कहता मार्ग सुखकर,
फिर बताता किस जगह पर,
किस तरह का है नगर, घर,

किस दशा, किस रूप में है
प्रियतमा उसकी सलोनी,
किस तरह सूनी बिताती
रात्रि, कैसे दीर्ध वासर,

क्या कहूँगा,क्या करूँगा,
मैं पहुँचकर पास उसके;
किन्तु उत्तर के लिए कुछ
शब्द जिह्वा पर ना आता

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

मौन पाकर यक्ष मुझको
सोचकर यह धैर्य धरता,
सत्पुरुष की रीति है यह
मौन रहकर कार्य करता,

देखकर उद्यत मुझे
प्रस्थान के हित,
कर उठाकर
वह मुझे आशीष देता-

'इष्ट देशों में विचरता,
हे जलद, श्री व्रिध्दि कर तू
संग वर्षा-दामिनी के,
हो न तुझको विरह दुख जो
आज मैं विधिवश उठाता!'

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!