"दिल का जख्म / कृष्णभूषण बल / सुमन पोखरेल" के अवतरणों में अंतर
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किस हवा ने उडाया इस तरह | किस हवा ने उडाया इस तरह | ||
− | + | कि सूखे पत्तों की तरह पानी पे तैर रहा हूँ। | |
− | + | जल्दबाज़ी का किस सैलाब ने बहा डाला इस तरह | |
कि अपनों को देखते हुए बह रहा हूँ। | कि अपनों को देखते हुए बह रहा हूँ। | ||
− | छोटी-सी लहर भी बहा | + | छोटी-सी लहर भी बहा सकती है मुझे |
कोई जाल चाहिए ही नहीं ! | कोई जाल चाहिए ही नहीं ! | ||
जो भी लगा सकेगा गर्दन पे काँटे मुझे | जो भी लगा सकेगा गर्दन पे काँटे मुझे | ||
जाल चाहिए ही नहीं ! | जाल चाहिए ही नहीं ! | ||
− | फिर भी | + | फिर भी साजिशों के काले हाथ |
− | गर्दन | + | गर्दन मरोड़ने के लिए तैनात किए हुए हैं |
− | फिर भी उन सभी का | + | फिर भी उन सभी का पहाड़ बना के सुरंग खोदने के लिए |
− | कुछ | + | कुछ नज़रें उठी हुई हैं। |
किस वसन्त पे पतझड़ बुलाकर | किस वसन्त पे पतझड़ बुलाकर | ||
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दिल ही तो है इन्सान का, | दिल ही तो है इन्सान का, | ||
नाजुक है | नाजुक है | ||
− | इसे अब कहाँ ले जा कर रखना होगा? | + | इसे अब कहाँ ले जा कर रखना होगा ? |
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21:12, 25 दिसम्बर 2014 का अवतरण
किस हवा ने उडाया इस तरह
कि सूखे पत्तों की तरह पानी पे तैर रहा हूँ।
जल्दबाज़ी का किस सैलाब ने बहा डाला इस तरह
कि अपनों को देखते हुए बह रहा हूँ।
छोटी-सी लहर भी बहा सकती है मुझे
कोई जाल चाहिए ही नहीं !
जो भी लगा सकेगा गर्दन पे काँटे मुझे
जाल चाहिए ही नहीं !
फिर भी साजिशों के काले हाथ
गर्दन मरोड़ने के लिए तैनात किए हुए हैं
फिर भी उन सभी का पहाड़ बना के सुरंग खोदने के लिए
कुछ नज़रें उठी हुई हैं।
किस वसन्त पे पतझड़ बुलाकर
मुरझाए होंगे वे मेरे निर्दोष फूल
किस राह को भूल कर
चले होंगे वे मेरी उदास नज़रे !
जाने, और कितने दिन परदेश में जीना होगा इस तरह
पहाड़ से गिरा हुआ पत्थर ही होने पे भी
कहीं रुकने की कोई जगह होती शायद।
दिल ही तो है इन्सान का,
नाजुक है
इसे अब कहाँ ले जा कर रखना होगा ?