भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
खुले किवाड़ दिखे तो झाँका भीतर सन्नाटा पसरा था
दीवारें इतिहास बनी थी सपने छत से लटक रहे थे
दस्तक दी तो हिलाडुला हिला डुला कुछ, बुझी हुइ आबाज सी आई
"कौन है भाई?"-बोला कोई
मुझ को भी मालूम कहाँ था कौन हूं मैं