भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ज़रा सा क़तरा कहीं / वसीम बरेलवी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
रचनाकार: [[वसीम बरेलवी]]
+
{{KKGlobal}}
[[Category:कविताएँ]]
+
{{KKRachna
[[Category:गज़ल]]
+
|रचनाकार=वसीम बरेलवी
[[Category:वसीम बरेलवी]]
+
}}
 +
{{KKCatGhazal}}
 +
<poem>
 +
जरा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है,
 +
समंदरो ही के लहजे में बात करता है।
  
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
+
खुली छतों के दियें कब के बुझ गये होते,
 +
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है।
  
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है<br>
+
शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं,
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है<br><br>
+
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है।
  
ख़ुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते<br>
+
ये देखना है कि सहरा भी है समुंदर भी,
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है<br><br>
+
वो मेरी तिश्ना-लबी किस के नाम करता है।
  
शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं<br>
+
तुम आ गए हो तो कुछ चाँदनी सी बातें हों,
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है<br><br>
+
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है।
  
ज़मीं की कैसी विक़ालत हो फिर नहीं चलती<br>
+
जमीं की कैसी वकालत हो फिर नहीं चलती,
जब आस्मान से कोई फ़ैसला उतरता है<br><br>
+
जब आसमाँ से कोई फैसला उतरता है।
 
+
</poem>
तुम आ गये हो तो फिर कुछ चाँदनी सी बातें हों<br>
+
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है<br><br>
+

00:12, 29 मई 2016 के समय का अवतरण

जरा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है,
समंदरो ही के लहजे में बात करता है।

खुली छतों के दियें कब के बुझ गये होते,
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है।

शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं,
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है।

ये देखना है कि सहरा भी है समुंदर भी,
वो मेरी तिश्ना-लबी किस के नाम करता है।

तुम आ गए हो तो कुछ चाँदनी सी बातें हों,
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है।

जमीं की कैसी वकालत हो फिर नहीं चलती,
जब आसमाँ से कोई फैसला उतरता है।