भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"बीता हुआ दिन / शरद कोकास" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शरद कोकास |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> कल का जो दिन बीता बि…) |
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
||
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=शरद कोकास | |रचनाकार=शरद कोकास | ||
− | |संग्रह= | + | |संग्रह=गुनगुनी धूप में बैठकर / शरद कोकास |
}} | }} | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> | ||
कल का जो दिन बीता | कल का जो दिन बीता | ||
− | बिगड़ी हुई मशीन सा था | + | बिगड़ी हुई मशीन-सा था |
कल कितनी प्रतीक्षा थी | कल कितनी प्रतीक्षा थी | ||
हवाओं में फैले गीतों की | हवाओं में फैले गीतों की |
20:36, 1 जुलाई 2016 के समय का अवतरण
कल का जो दिन बीता
बिगड़ी हुई मशीन-सा था
कल कितनी प्रतीक्षा थी
हवाओं में फैले गीतों की
गीतों को पकड़ते सुरों की
और नन्हे बच्चे सी मुस्कराती
ज़िन्दगी की
कल का दिन
बिगड़ी हुई मशीन-सा था
कल राजाओं के
मखमली कपड़ों के नीचे
मेरे और तुम्हारे
उसके और सबके
दिलों की धड़कनें
काँटे मे फँसी मछली-सी
तड़पती थीं
सचमुच प्रतीक्षा थी तुम्हारी
ओ आसमान की ओर बहती हुई हवाओ
तुम्हारी भी प्रतीक्षा थी
लेकिन कल का दिन
बिगड़ी हुई मशीन-सा था
कल का वो दिन
आज फिर उतर आया है
तुम्हारी आँखों में
आज भी तुम्हारी आँखें
भेड़िये की आँखों सी चमकती हुई
कल का खेल
खेल रही हैं ।