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लो फिर आ गया ‘काफल’मेरी इस खेत के बाड़ ने लालसंभाल रखा है बहुत कुछदे रखी है सुरक्षाआवारा डंगरों, मैरुन रंग का कुक्कड़ों ‘छड़ोल्हु’ में सजाऔर उन चोरटे लोगों से भीहर किसी के मुँह में जाने को तैयारजिनकी नजर हमेशा रहती हैहमारी फसल, साग- सब्जीफल और फूलों पर भी
ऊँचे पहाड़ से उतरीनीलू खेत पर सजी इस बाड़ की माँ हर साल लाती गाँठ पर लगी है काफलबेचती मेरी माँ के चादरुऔर पिता के साफे की लीरेंमाँ की स्नेहिल छाया नेदे रखी है उन्हे षहर मजबूती सब लकड़ियों को और मैदान में बसे गाँव पिता की छत्रछाया मेंबाड़ खड़ी है सीना तानहर बाधा से लड़ने को तैयार
लोगों के लिए मात्र यह फल इस बाड़ ने छुपा रखा हैपर नीलू और भी बहुत कुछमेरे नन्हे बेटे की माँ अठखेलियाँबाड़ को बुनते-बुनते जोनिकल आई थी खेत परखेलती रही थीबेटे के लिए साथकुदरत का यह तोहफा सौगात हैगोधूली पलों तकसौगात है खेत की धूल मेंउसके दिलाती रही थी हमें खीझ और उसके परिवार के लिएखुशी साथ-साथ‘केबीसी’ उलझाती रही थी हमेंहर गाँठ के किसी एपीसोड में जीतेकसाव के साथ-साथकम से कम रुपए जितनीबाड़ के पूरा होने तक
डेढ़-दो महीने के इस सीजन बाड़ लगने की खुशी में कमा लेती लाड़ी मेरी कहे बगैर ही पिला रही है चाय बार-बारक्योंकि अब नहीं चढ़नी पड़ेगीं उसे तीन मंजिला घर कीथका देने वाली सीढ़ियाँवह गुजारे लायक सुखाएगी अब कपड़े इसी बाड़ परअपने परिवार रुकी रहेगी उसकी टांगों की पीड़ा भीफूदकेगी चिड़िया भी अब इसी बाड़ परगाएगी मीठे गीत वहहम सबके साथकाकड़ी, कद्दू, करेले, घीए की बेलें बाड़ का हाथ थामेचढ़ पाएगीं अब ऊँचे पेड़ की नाजुक टहनी तकनापेंगी वे भी आसमान की बुलंदीमाँ की ममता और पिता केहौंसले नेजोड़ लेती संभाल रखा है इन रुपयों से अपने सब लकड़ियों को एक साथजैसे ताउम्र संभाला उन्होनेअपना परिवार की जरुरत की चीजेंवे यहाँ भी डटे हैंमुस्तैदी सेऔर बाड़ मेरी गर्व से खड़ीकर रही है वादाहर फूल, फल, फसल और सब्जी सेउनकी सुरक्षा और खुशहाली का।
नीलू की माँ खुश है
इस बार भर गया है जंगल
काफल के दानों से
हर पेड़ हो गया है सुर्ख लाल
इस बार खूब होगी आमदन
जुटा लेगी वह इस बार
अपनी जरुरत का हर सामान
पिछले बर्श की भांति नहीं खलेगीरुपयों की कमीअपने बेटे को ‘ख्योड़’ मेले के लिए देगी वहखुले मन से रुपएपति के लिए लाएगी वहएक बढ़िया-सी व्हील चेयर अपने लिए भी खरीदेगी वह अपनी पसंद का एक बढ़िया-सा सूट वह बेच रही है काफलघर-घरबिना समय गँवाएजानती है वहज्यादा दिन की नहीं है इसकी रौनककुछ ही दिनों में फिर लौट आएगी उसकीपुरानी दिनचर्या जाएगी वह फिरघर-घरमाँजेगी लोगों के जूठे बर्तनधोएगी उनके मैले कपड़ेथकी हुई लौटेगी घर जबनहीं होगी उसके चेहरे पर वह रौनकजो काफल बेचने की थकान के बाद रोज होती थी शाम को जब करती थी वह काफल के दानों का हिसाबनोटों की बढ़ती हर परत को खोलती हुई। '''नोटः-1. ‘काफल’ हिमाचल का एक जंगली फल है जो गर्मी के मौसम में लगता है। लोग इसे बड़े चाव से खाते हैं। जंगल के किनारे रहने वाले गरीब लोग इन दिनों इसे घर-घर बेचकर अपनी आर्थिकी को सहारा देते हैं।2. ‘छड़ोल्हु’- बाँस की बनी हुई टोकरी 3. ‘ख्योड’- हिमाचल के मण्डी जिले का एक प्रसिद्ध पहाड़ी मेलालाड़ी अर्थात पत्नी'''</poem>