"हल्दीघाटी / पंचम सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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+ | <poem> | ||
+ | पंचम सर्ग: सगवक्ष | ||
− | + | भरा रहता अकबर का | |
+ | सुरभित जय–माला से। | ||
+ | सारा भारत भभक रहा था | ||
+ | क्रोधानल–ज्वाला से॥1॥ | ||
− | + | रत्न–जटित मणि–सिंहासन था | |
− | + | मण्डित रणधीरों से। | |
− | + | उसका पद जगमगा रहा था | |
− | + | राजमुकुट–हीरों से॥2॥ | |
− | रत्न–जटित मणि–सिंहासन था | + | |
− | मण्डित रणधीरों से। | + | जग के वैभव खेल रहे थे |
− | उसका पद जगमगा रहा था | + | मुगल–राज–थाती पर। |
− | राजमुकुट–हीरों | + | फहर रहा था अकबर का |
− | जग के वैभव खेल रहे थे | + | झण्डा नभ की छाती पर॥3॥ |
− | मुगल–राज–थाती पर। | + | |
− | फहर रहा था अकबर का | + | यह प्रताप यह विभव मिला¸ |
− | झण्डा नभ की छाती | + | पर एक मिला था वादी। |
− | यह प्रताप यह विभव मिला¸ | + | रह रह काँटों सी चुभती थी |
− | पर एक मिला था वादी। | + | राणा की आजादी॥4॥ |
− | रह रह | + | |
− | राणा की | + | कहा एक वासर अकबर ने – |
− | कहा एक वासर अकबर ने – | + | "मान¸ उठा लो भाला¸ |
− | + | शोलापुर को जीत पिन्हा दो¸ | |
− | शोलापुर को जीत पिन्हा दो¸ | + | मुझे विजय की माला॥5॥ |
− | मुझे विजय की | + | |
− | हय–गज–दल पैदल रथ ले लो | + | हय–गज–दल पैदल रथ ले लो |
− | मुगल–प्रताप बढ़ा दो। | + | मुगल–प्रताप बढ़ा दो। |
− | राणा से मिलकर उसको भी | + | राणा से मिलकर उसको भी |
− | अपना पाठ पढ़ा | + | अपना पाठ पढ़ा दो॥6॥ |
− | ऐसा कोई यत्न करो | + | |
− | बन्धन में कस लेने को। | + | ऐसा कोई यत्न करो |
− | वही एक विषधर बैठा है | + | बन्धन में कस लेने को। |
− | मुझको डस लेने | + | वही एक विषधर बैठा है |
− | मानसिंह ने कहा | + | मुझको डस लेने को"॥7॥ |
− | हुकुम सदा सिर पर है। | + | |
− | बिना सफलता के न मान यह | + | मानसिंह ने कहा –"आपका |
− | आ सकता फिरकर | + | हुकुम सदा सिर पर है। |
− | यह कहकर उठ गया गर्व से | + | बिना सफलता के न मान यह |
− | झुककर मान जताया। | + | आ सकता फिरकर है।"॥8॥ |
− | सेना ले कोलाहल करता | + | |
− | शोलापुर चढ़ | + | यह कहकर उठ गया गर्व से |
− | युद्ध ठानकर मानसिंह ने | + | झुककर मान जताया। |
− | जीत लिया शोलापुर। | + | सेना ले कोलाहल करता |
− | भरा विजय के | + | शोलापुर चढ़ आया॥9॥ |
− | उस अभिमानी का | + | |
− | किसे मौत | + | युद्ध ठानकर मानसिंह ने |
− | किसका राज हिला | + | जीत लिया शोलापुर। |
− | लगा सोचने किसे मींजकर | + | भरा विजय के अहँकार से |
− | रज में आज मिला | + | उस अभिमानी का उर॥10॥ |
− | किसे | + | |
− | घन–सा किसै रूला | + | किसे मौत दूँ¸ किसे जिला दूँ¸ |
− | कौन विरोधी है मेरा | + | किसका राज हिला दूँ? |
− | फांसी पर जिसे झुला | + | लगा सोचने किसे मींजकर |
− | बनकर भिक्षुक दीन जन्म भर | + | रज में आज मिला दूँ॥11॥ |
− | किसे झेलना दुख है? | + | |
− | रण करने की इच्छा से | + | किसे हँसा दूँ बिजली–सा मैं¸ |
− | जो आ सकता सम्मुख | + | घन–सा किसै रूला दूँ? |
− | कहते ही यह ठिठक गया¸ | + | कौन विरोधी है मेरा |
− | फिर धीमे स्वर से बोला। | + | फांसी पर जिसे झुला दूँ॥12॥ |
− | शोलापुर के विजय–गर्व पर | + | |
− | गिरा अचानक | + | बनकर भिक्षुक दीन जन्म भर |
− | अहो अभी तो वीर–भूमि | + | किसे झेलना दुख है? |
− | मेवाड़–केसरी खूनी। | + | रण करने की इच्छा से |
− | गरज रहा है निर्भय मुझसे | + | जो आ सकता सम्मुख है॥13॥ |
− | लेकर ताकत | + | |
− | स्वतन्त्रता का वीर पुजारी | + | कहते ही यह ठिठक गया¸ |
− | संगर–मतवाला है। | + | फिर धीमे स्वर से बोला। |
− | शत–शत असि के सम्मुख | + | शोलापुर के विजय–गर्व पर |
− | उसका महाकाल भाला | + | गिरा अचानक गोला॥14॥ |
− | धन्य–धन्य है राजपूत वह | + | |
− | उसका सिर न झुका है। | + | अहो अभी तो वीर–भूमि |
− | अब तक कोई अगर रूका तो | + | मेवाड़–केसरी खूनी। |
− | केवल वही रूका | + | गरज रहा है निर्भय मुझसे |
− | निज प्रताप–बल से प्रताप ने | + | लेकर ताकत दूनी॥15॥ |
− | अपनी ज्योति जगा दी। | + | |
− | हमने तो जो बुझ न सके¸ | + | स्वतन्त्रता का वीर पुजारी |
− | कुछ ऐसी आग लगा | + | संगर–मतवाला है। |
− | अहो जाति को तिलांजली दे | + | शत–शत असि के सम्मुख |
− | हुए भार हम भू के। | + | उसका महाकाल भाला है॥16॥ |
− | कहते ही यह ढुलक गये | + | |
− | दो–चार | + | धन्य–धन्य है राजपूत वह |
− | किन्तु देर तक टिक न सका | + | उसका सिर न झुका है। |
− | अभिमान जाति का उर में। | + | अब तक कोई अगर रूका तो |
− | क्या | + | केवल वही रूका है॥17॥ |
− | यदि कलंक अंकुर | + | |
− | एक घड़ी तक मौन पुन: | + | निज प्रताप–बल से प्रताप ने |
− | कह उठा मान गरवीला– | + | अपनी ज्योति जगा दी। |
− | देख काल भी डर सकता | + | हमने तो जो बुझ न सके¸ |
− | मेरी भीषण | + | कुछ ऐसी आग लगा दी॥18॥ |
− | वसुधा का कोना धरकर | + | |
− | + | अहो जाति को तिलांजली दे | |
− | गगन–मही का क्षितिज पकड़ | + | हुए भार हम भू के। |
− | + | कहते ही यह ढुलक गये | |
− | राणा की क्या शक्ति उसे भी | + | दो–चार बूँद आँसू के॥19॥ |
− | रण की कला सिखा | + | |
− | मृत्यु लड़े तो उसको भी | + | किन्तु देर तक टिक न सका |
− | अपने दो हाथ दिखा | + | अभिमान जाति का उर में। |
− | पथ में ही मेवाड़ पड़ेगा | + | क्या विहँसेगा विटप¸ लगा है |
− | चलकर निश्चय कर | + | यदि कलंक अंकुर में॥20॥ |
− | मान रहा तो कुशल¸ नहीं तो | + | |
− | संगर से जी भर | + | एक घड़ी तक मौन पुन: |
− | युद्ध महाराणा प्रताप से | + | कह उठा मान गरवीला– |
− | मेरा मचा रहेगा। | + | देख काल भी डर सकता |
− | मेरे जीते–जी कलंक से | + | मेरी भीषण रण–लीला॥21॥ |
− | क्या वह बचा रहेगा? | + | |
− | मानी मान चला¸ सोचा | + | वसुधा का कोना धरकर |
− | परिणाम न कुछ जाने का। | + | चाहूँ तो विश्व हिला दूँ। |
− | पास महाराणा के भेजा | + | गगन–मही का क्षितिज पकड़ |
− | समाचार आने | + | चाहूँ तो अभी मिला दूँ॥22॥ |
− | मानसिंह के आने का | + | |
− | सन्देश उदयपुर आया। | + | राणा की क्या शक्ति उसे भी |
− | राणा ने भी अमरसिंह को | + | रण की कला सिखा दूँ। |
− | अपने पास | + | मृत्यु लड़े तो उसको भी |
− | कहा | + | अपने दो हाथ दिखा दूँ॥23॥ |
− | मानसिंह अभिमानी। | + | |
− | छल है¸ तो भी मान करो | + | पथ में ही मेवाड़ पड़ेगा |
− | लेकर लोटा भर | + | चलकर निश्चय कर लूँ। |
− | किसी बात की कमी न हो | + | मान रहा तो कुशल¸ नहीं तो |
− | रह जाये आन हमारी। | + | संगर से जी भर लूँ॥24॥ |
− | पुत्र! मान के स्वागत की | + | |
− | तुम ऐसी करो | + | युद्ध महाराणा प्रताप से |
− | मान लिया आदेश¸ स्वर्ण से | + | मेरा मचा रहेगा। |
− | सजे गये दरवाजे। | + | मेरे जीते–जी कलंक से |
− | मान मान के लिये मधुर | + | क्या वह बचा रहेगा?॥25॥ |
− | बाजे मधुर–रव से | + | |
− | जगह जगह पर सजे गये | + | मानी मान चला¸ सोचा |
− | फाटक सुन्दर सोने के। | + | परिणाम न कुछ जाने का। |
− | बन्दनवारों से | + | पास महाराणा के भेजा |
− | घर कोने कोने | + | समाचार आने का॥26॥ |
− | जगमग जगमग ज्योति उठी जल¸ | + | |
− | व्याकुल दरबारी–जन¸ | + | मानसिंह के आने का |
− | नव गुलाब–वासित पानी से | + | सन्देश उदयपुर आया। |
− | किया गया | + | राणा ने भी अमरसिंह को |
− | शीतल–जल–पूरित कंचन के | + | अपने पास बुलाया॥27॥ |
− | कलसे थे द्वारों पर। | + | |
− | चम–चम पानी चमक रहा था | + | कहा –"पुत्र! मिलने आता है |
− | तीखी तलवारों | + | मानसिंह अभिमानी। |
− | उदयसिंधु के नीचे भी | + | छल है¸ तो भी मान करो |
− | बाहर की शोभा छाई। | + | लेकर लोटा भर पानी॥28॥ |
− | हृदय खोलकर उसने भी | + | |
− | अपनी श्रद्धा | + | किसी बात की कमी न हो |
− | किया अमर ने धूमधाम से | + | रह जाये आन हमारी। |
− | मानसिंह का स्वागत। | + | पुत्र! मान के स्वागत की |
− | मधुर–मधुर सुरभित गजरों के | + | तुम ऐसी करो तैयारी"॥29॥ |
− | बोझे से वह था | + | |
− | कहा देखकर अमरसिंह का | + | मान लिया आदेश¸ स्वर्ण से |
− | विकल प्रेम अपने मन में। | + | सजे गये दरवाजे। |
− | होगा यह सम्मान मुझे | + | मान मान के लिये मधुर |
− | विश्वास न था सपने | + | बाजे मधुर–रव से बाजे॥30॥ |
− | शत–शत तुमको धन्यवाद है¸ | + | |
− | सुखी रहो जीवन भर। | + | जगह जगह पर सजे गये |
− | झरें शीश पर सुमन–सुयश के | + | फाटक सुन्दर सोने के। |
− | अम्बर–तल से | + | बन्दनवारों से हँसते थे |
− | धन्यवाद स्वीकार किया¸ | + | घर कोने कोने के॥31॥ |
− | कर जोड़ पुन: वह बोला। | + | |
− | भावी भीषण रण का | + | जगमग जगमग ज्योति उठी जल¸ |
− | दरवाजा धीरे से खोला | + | व्याकुल दरबारी–जन¸ |
− | समय हो गया भूख लगी है¸ | + | नव गुलाब–वासित पानी से |
− | चलकर भोजन कर लें। | + | किया गया पथ–सिंचन॥32॥ |
− | थके हुए हैं ये मृदु पद | + | |
− | जल से इनको तर कर | + | शीतल–जल–पूरित कंचन के |
− | सुनकर विनय उठा केवल रख | + | कलसे थे द्वारों पर। |
− | पट रेशम का तन पर। | + | चम–चम पानी चमक रहा था |
− | धोकर पद भोजन करने को | + | तीखी तलवारों पर॥33॥ |
− | बैठ गया आसन | + | |
− | देखे मधु पदार्थ पन्ने की | + | उदयसिंधु के नीचे भी |
− | मृदु प्याली प्याली में। | + | बाहर की शोभा छाई। |
− | चावल के सामान मनोहर | + | हृदय खोलकर उसने भी |
− | सोने की थाली | + | अपनी श्रद्धा दिखलाई॥34॥ |
− | घी से सनी सजी रोटी थी¸ | + | |
− | रत्नों के बरतन में। | + | किया अमर ने धूमधाम से |
− | शाक खीर नमकीन मधुर¸ | + | मानसिंह का स्वागत। |
− | चटनी चमचम कंचन | + | मधुर–मधुर सुरभित गजरों के |
− | मोती झालर से रक्षित¸ | + | बोझे से वह था नत॥35॥ |
− | रसदार लाल थाली में। | + | |
− | एक ओर मीठे फल थे¸ | + | कहा देखकर अमरसिंह का |
− | मणि–तारों की डाली | + | विकल प्रेम अपने मन में। |
− | तरह–तरह के खाद्य–कलित¸ | + | होगा यह सम्मान मुझे |
− | चांदी के नये कटोरे | + | विश्वास न था सपने में॥36॥ |
− | भरे खराये घी से देखे¸ | + | |
− | नीलम के नव | + | शत–शत तुमको धन्यवाद है¸ |
− | पर न वहां भी राणा था | + | सुखी रहो जीवन भर। |
− | बस ताड़ गया वह मानी। | + | झरें शीश पर सुमन–सुयश के |
− | रहा गया जब उसे न तब वह | + | अम्बर–तल से झर–झर॥37॥ |
− | बोल उठा | + | |
− | + | धन्यवाद स्वीकार किया¸ | |
− | सामान सभी सम्मुख है। | + | कर जोड़ पुन: वह बोला। |
− | पर प्रताप का पता नहीं है | + | भावी भीषण रण का |
− | एक यही अब दुख | + | दरवाजा धीरे से खोला –॥38॥ |
− | मान करो पर मानसिंह का | + | |
− | मान अधूरा होगा। | + | समय हो गया भूख लगी है¸ |
− | बिना महाराणा के यह | + | चलकर भोजन कर लें। |
− | आतिथ्य न पूरा | + | थके हुए हैं ये मृदु पद |
− | जब तक भोजन वह न करेंगे | + | जल से इनको तर कर लें।"॥39॥ |
− | एक साथ आसन पर; | + | |
− | तब तक कभी न हो सकता है | + | सुनकर विनय उठा केवल रख |
− | मानसिंह का | + | पट रेशम का तन पर। |
− | अमरसिंह¸ इसलिए उठो तुम | + | धोकर पद भोजन करने को |
− | जाओ मिलो पिता से; | + | बैठ गया आसन पर॥40॥ |
− | मेरा यह सन्देश कहो | + | |
− | मेवाड़–गगन–सविता | + | देखे मधु पदार्थ पन्ने की |
− | बिना आपके वह न ठहर पर | + | मृदु प्याली प्याली में। |
− | ठहर सकेंगे क्षण भी। | + | चावल के सामान मनोहर |
− | छू सकते हैं नहीं हाथ से¸ | + | सोने की थाली में॥41॥ |
− | चावल का लघु कण | + | |
− | अहो¸ विपत्ति में देश पड़ेगा | + | घी से सनी सजी रोटी थी¸ |
− | इसी भयानक तिथि से। | + | रत्नों के बरतन में। |
− | गया लौटकर अमरसिंह फिर | + | शाक खीर नमकीन मधुर¸ |
− | आया कहा अतिथि | + | चटनी चमचम कंचन में॥42॥ |
− | + | ||
− | तन–मन–धन से आकुल। | + | मोती झालर से रक्षित¸ |
− | प्रभो¸ करें भोजन¸ वह हैं | + | रसदार लाल थाली में। |
− | सिर की पीड़ा से | + | एक ओर मीठे फल थे¸ |
− | पथ प्रताप का देख रहा था¸ | + | मणि–तारों की डाली में॥43॥ |
− | प्रेम न था रोटी में। | + | |
− | सुनते ही वह | + | तरह–तरह के खाद्य–कलित¸ |
− | लग गई आग चोटी | + | चांदी के नये कटोरे |
− | घोर अवज्ञा से ज्वाला सी¸ | + | भरे खराये घी से देखे¸ |
− | लगी दहकने त्रिकुटी। | + | नीलम के नव खोरे॥44॥ |
− | अधिक क्रोध से वक्र हो गई¸ | + | |
− | मानसिंह की | + | पर न वहां भी राणा था |
− | चावल–कण दो–एक बांधकर | + | बस ताड़ गया वह मानी। |
− | गरज उठा बादल सा। | + | रहा गया जब उसे न तब वह |
− | मानो भीषण क्रोध–वह्नि से¸ | + | बोल उठा अभिमानी॥45॥ |
− | गया अचानक जल | + | |
− | + | "अमरसिंह¸ भोजन का तो | |
− | मस्तक की पीड़ा से। | + | सामान सभी सम्मुख है। |
− | थहर उठेगा अब भूतल | + | पर प्रताप का पता नहीं है |
− | रण–चण्डी की क्रीड़ा | + | एक यही अब दुख है॥46॥ |
− | जिस प्रताप की स्वतन्त्रता के | + | |
− | गौरव की रक्षा की। | + | मान करो पर मानसिंह का |
− | खेद यही है वही मान का | + | मान अधूरा होगा। |
− | कुछ रख सका न | + | बिना महाराणा के यह |
− | बिना हेतु के होगा ही वह | + | आतिथ्य न पूरा होगा॥47॥ |
− | जो कुछ बदा रहेगा। | + | |
− | किन्तु महाराणा प्रताप अब | + | जब तक भोजन वह न करेंगे |
− | रोता सदा | + | एक साथ आसन पर; |
− | मान रहेगा तभी मान का | + | तब तक कभी न हो सकता है |
− | हाला घोल उठे जब। | + | मानसिंह का आदर॥48॥ |
− | डग–डग–डग ब्रह्माण्ड चराचर | + | |
− | भय से डोल उठे | + | अमरसिंह¸ इसलिए उठो तुम |
− | चकाचौंध सी लगी मान को | + | जाओ मिलो पिता से; |
− | राणा की मुख–भा से। | + | मेरा यह सन्देश कहो |
− | + | मेवाड़–गगन–सविता से॥49॥ | |
− | जब निकला सिंह गुफा | + | |
− | दक्षिण–पद–कर आगे कर | + | बिना आपके वह न ठहर पर |
− | तर्जनी उठाकर बोला। | + | ठहर सकेंगे क्षण भी। |
− | गिरने लगा मान–छाती पर | + | छू सकते हैं नहीं हाथ से¸ |
− | गरज–गरज कर | + | चावल का लघु कण भी।"॥50॥ |
− | वज`–नाद सा तड़प उठा | + | |
− | हलचल थी मरदानों में। | + | अहो¸ विपत्ति में देश पड़ेगा |
− | पहुंच गया राणा का वह रव | + | इसी भयानक तिथि से। |
− | अकबर के कानों | + | गया लौटकर अमरसिंह फिर |
− | + | आया कहा अतिथि से॥51॥ | |
− | खाना हो तो खाओ। | + | |
− | या बधना का ही शीतल–जल | + | "मैं सेवा के लिए आपकी |
− | पीना हो तो | + | तन–मन–धन से आकुल। |
− | जो रण को ललकार रहे हो | + | प्रभो¸ करें भोजन¸ वह हैं |
− | तो आकर लड़ लेना। | + | सिर की पीड़ा से व्याकुल।"॥51॥ |
− | चढ़ आना यदि चाह रहे | + | |
− | चित्तौड़ वीर–गढ़ | + | पथ प्रताप का देख रहा था¸ |
− | + | प्रेम न था रोटी में। | |
− | मेरा बिगुल बजा था? | + | सुनते ही वह काँप गया¸ |
− | जाति–धर्म के मुझ रक्षक को | + | लग गई आग चोटी में॥53॥ |
− | तुमने क्या समझा | + | |
− | अभी | + | घोर अवज्ञा से ज्वाला सी¸ |
− | रण में क्या उत्तर | + | लगी दहकने त्रिकुटी। |
− | महामृत्यु के साथ–साथ | + | अधिक क्रोध से वक्र हो गई¸ |
− | जब इधर–उधर | + | मानसिंह की भृकुटी॥54॥ |
− | भभक उठेगी जब प्रताप के | + | |
− | प्रखर तेज की आगी। | + | चावल–कण दो–एक बांधकर |
− | तब क्या | + | गरज उठा बादल सा। |
− | ऐ अम्बर कुल के | + | मानो भीषण क्रोध–वह्नि से¸ |
− | अभी मान से राणा से था | + | गया अचानक जल सा॥55॥ |
− | वाद–विवाद लगा ही¸ | + | |
− | तब तक आगे बढ़कर बोला | + | "कुशल नहीं¸ राणा प्रताप का |
− | कोई | + | मस्तक की पीड़ा से। |
− | + | थहर उठेगा अब भूतल | |
− | अब साहस दिखलाना तुम; | + | रण–चण्डी की क्रीड़ा से॥56॥ |
− | भगो¸ भगो¸ अपने फूफे को | + | |
− | भी लेते आना | + | जिस प्रताप की स्वतन्त्रता के |
− | महा महा अपमान देखकर | + | गौरव की रक्षा की। |
− | बढ़ी क्रोध की ज्वाला। | + | खेद यही है वही मान का |
− | मान कड़ककर बोल उठा फिर | + | कुछ रख सका न बाकी॥57॥ |
− | पहन अiर्च की | + | |
− | + | बिना हेतु के होगा ही वह | |
− | कर लो और करा लो; | + | जो कुछ बदा रहेगा। |
− | बिना विजय के ऐ प्रताप | + | किन्तु महाराणा प्रताप अब |
− | तुम¸ विजय–केतु फहरा | + | रोता सदा रहेगा॥58॥ |
− | पर इसका मैं बदल | + | |
− | अभी चन्द दिवसों में; | + | मान रहेगा तभी मान का |
− | झुक जाओगे भर | + | हाला घोल उठे जब। |
− | जलती ज्वाल नसों | + | डग–डग–डग ब्रह्माण्ड चराचर |
− | ऐ प्रताप¸ तुम सजग रहो | + | भय से डोल उठे जब।"॥59॥ |
− | अब मेरी ललकारों से; | + | |
− | अकबर के विकराल क्रोध से¸ | + | चकाचौंध सी लगी मान को |
− | तीखी तलवारों | + | राणा की मुख–भा से। |
− | ऐ प्रताप¸ तैयार रहो मिटने | + | अहँकार की बातें सुन |
− | के लिए रणों में; | + | जब निकला सिंह गुफा से॥60॥ |
− | हाथों में हथकड़ी पहनकर | + | |
− | बेड़ी निज चरणों | + | दक्षिण–पद–कर आगे कर |
− | मानसिंह–दल बन जायेगा | + | तर्जनी उठाकर बोला। |
− | जब भीषण रण–पागल। | + | गिरने लगा मान–छाती पर |
− | ऐ प्रताप¸ तुम झुक जाओगे | + | गरज–गरज कर गोला॥61॥ |
− | झुक जायेगा | + | |
− | ऐ प्रताप¸ तुम सिहर उठो | + | वज`–नाद सा तड़प उठा |
− | सांपिन सी करवालों से; | + | हलचल थी मरदानों में। |
− | ऐ प्रताप¸ तुम भभर उठो | + | पहुंच गया राणा का वह रव |
− | तीखे–तीखे भालों | + | अकबर के कानों में॥62॥ |
− | + | ||
− | घोड़े को सरपट छोड़ा¸ | + | "अरे तुर्क¸ बकवाद करो मत |
− | पहुंच गया दिल्ली उड़ता वह | + | खाना हो तो खाओ। |
− | वायु–वेग से | + | या बधना का ही शीतल–जल |
− | इधर महाराणा प्रताप ने | + | पीना हो तो जाओ॥63॥ |
− | सारा घर खुदवाया। | + | |
− | धर्म–भीरू ने बार–बार | + | जो रण को ललकार रहे हो |
− | गंगा–जल से | + | तो आकर लड़ लेना। |
− | उतर गया पानी¸ प्यासा था¸ | + | चढ़ आना यदि चाह रहे |
− | तो भी पिया न पानी। | + | चित्तौड़ वीर–गढ़ लेना॥64॥ |
− | उदय–सिन्धु था निकट डर गया | + | |
− | अपना दिया न | + | कहाँ रहे जब स्वतन्त्रता का |
− | राणा द्वारा मानसिंह का | + | मेरा बिगुल बजा था? |
− | यह जो मान–हरण था। | + | जाति–धर्म के मुझ रक्षक को |
− | हल्दीघाटी के होने का | + | तुमने क्या समझा था॥65॥ |
− | यही मुख्य कारण | + | |
− | लगी सुलगने आग समर की | + | अभी कहूँ क्या¸ प्रश्नों का |
− | भीषण आग लगेगी। | + | रण में क्या उत्तर दूँगा। |
− | प्यासी है अब वीर–रक्त से | + | महामृत्यु के साथ–साथ |
− | + | जब इधर–उधर लहरूंगा॥66॥ | |
− | स्वतन्त्रता का कवच पहन | + | |
− | विश्वास जमाकर भाला में। | + | भभक उठेगी जब प्रताप के |
− | कूद पड़ा राणा प्रताप उस | + | प्रखर तेज की आगी। |
− | समर–वह्नि की ज्वाला | + | तब क्या हूँ बतला दूँगा |
+ | ऐ अम्बर कुल के त्यागी।"॥67॥ | ||
+ | |||
+ | अभी मान से राणा से था | ||
+ | वाद–विवाद लगा ही¸ | ||
+ | तब तक आगे बढ़कर बोला | ||
+ | कोई वीर–सिपाही॥68॥ | ||
+ | |||
+ | "करो न बकझक लड़कर ही | ||
+ | अब साहस दिखलाना तुम; | ||
+ | भगो¸ भगो¸ अपने फूफे को | ||
+ | भी लेते आना तुम।"॥69॥ | ||
+ | |||
+ | महा महा अपमान देखकर | ||
+ | बढ़ी क्रोध की ज्वाला। | ||
+ | मान कड़ककर बोल उठा फिर | ||
+ | पहन अiर्च की माला–॥70॥ | ||
+ | |||
+ | "मानसिंह की आज अवज्ञा | ||
+ | कर लो और करा लो; | ||
+ | बिना विजय के ऐ प्रताप | ||
+ | तुम¸ विजय–केतु फहरा लो॥71॥ | ||
+ | |||
+ | पर इसका मैं बदल लूँगा¸ | ||
+ | अभी चन्द दिवसों में; | ||
+ | झुक जाओगे भर दूँगा जब | ||
+ | जलती ज्वाल नसों में॥72॥ | ||
+ | |||
+ | ऐ प्रताप¸ तुम सजग रहो | ||
+ | अब मेरी ललकारों से; | ||
+ | अकबर के विकराल क्रोध से¸ | ||
+ | तीखी तलवारों से॥73॥ | ||
+ | |||
+ | ऐ प्रताप¸ तैयार रहो मिटने | ||
+ | के लिए रणों में; | ||
+ | हाथों में हथकड़ी पहनकर | ||
+ | बेड़ी निज चरणों में॥74॥ | ||
+ | |||
+ | मानसिंह–दल बन जायेगा | ||
+ | जब भीषण रण–पागल। | ||
+ | ऐ प्रताप¸ तुम झुक जाओगे | ||
+ | झुक जायेगा सेना–बल॥75॥ | ||
+ | |||
+ | ऐ प्रताप¸ तुम सिहर उठो | ||
+ | सांपिन सी करवालों से; | ||
+ | ऐ प्रताप¸ तुम भभर उठो | ||
+ | तीखे–तीखे भालों से॥76॥ | ||
+ | |||
+ | "गिनो मृत्यु के दिन्" कहकर | ||
+ | घोड़े को सरपट छोड़ा¸ | ||
+ | पहुंच गया दिल्ली उड़ता वह | ||
+ | वायु–वेग से घोड़ा॥77॥ | ||
+ | |||
+ | इधर महाराणा प्रताप ने | ||
+ | सारा घर खुदवाया। | ||
+ | धर्म–भीरू ने बार–बार | ||
+ | गंगा–जल से धुलवाया॥78॥ | ||
+ | |||
+ | उतर गया पानी¸ प्यासा था¸ | ||
+ | तो भी पिया न पानी। | ||
+ | उदय–सिन्धु था निकट डर गया | ||
+ | अपना दिया न पानी॥79॥ | ||
+ | |||
+ | राणा द्वारा मानसिंह का | ||
+ | यह जो मान–हरण था। | ||
+ | हल्दीघाटी के होने का | ||
+ | यही मुख्य कारण था॥80॥ | ||
+ | |||
+ | लगी सुलगने आग समर की | ||
+ | भीषण आग लगेगी। | ||
+ | प्यासी है अब वीर–रक्त से | ||
+ | माँ की प्यास बुझेगी॥81॥ | ||
+ | |||
+ | स्वतन्त्रता का कवच पहन | ||
+ | विश्वास जमाकर भाला में। | ||
+ | कूद पड़ा राणा प्रताप उस | ||
+ | समर–वह्नि की ज्वाला में॥82॥ | ||
+ | </poem> |
09:41, 12 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
पंचम सर्ग: सगवक्ष
भरा रहता अकबर का
सुरभित जय–माला से।
सारा भारत भभक रहा था
क्रोधानल–ज्वाला से॥1॥
रत्न–जटित मणि–सिंहासन था
मण्डित रणधीरों से।
उसका पद जगमगा रहा था
राजमुकुट–हीरों से॥2॥
जग के वैभव खेल रहे थे
मुगल–राज–थाती पर।
फहर रहा था अकबर का
झण्डा नभ की छाती पर॥3॥
यह प्रताप यह विभव मिला¸
पर एक मिला था वादी।
रह रह काँटों सी चुभती थी
राणा की आजादी॥4॥
कहा एक वासर अकबर ने –
"मान¸ उठा लो भाला¸
शोलापुर को जीत पिन्हा दो¸
मुझे विजय की माला॥5॥
हय–गज–दल पैदल रथ ले लो
मुगल–प्रताप बढ़ा दो।
राणा से मिलकर उसको भी
अपना पाठ पढ़ा दो॥6॥
ऐसा कोई यत्न करो
बन्धन में कस लेने को।
वही एक विषधर बैठा है
मुझको डस लेने को"॥7॥
मानसिंह ने कहा –"आपका
हुकुम सदा सिर पर है।
बिना सफलता के न मान यह
आ सकता फिरकर है।"॥8॥
यह कहकर उठ गया गर्व से
झुककर मान जताया।
सेना ले कोलाहल करता
शोलापुर चढ़ आया॥9॥
युद्ध ठानकर मानसिंह ने
जीत लिया शोलापुर।
भरा विजय के अहँकार से
उस अभिमानी का उर॥10॥
किसे मौत दूँ¸ किसे जिला दूँ¸
किसका राज हिला दूँ?
लगा सोचने किसे मींजकर
रज में आज मिला दूँ॥11॥
किसे हँसा दूँ बिजली–सा मैं¸
घन–सा किसै रूला दूँ?
कौन विरोधी है मेरा
फांसी पर जिसे झुला दूँ॥12॥
बनकर भिक्षुक दीन जन्म भर
किसे झेलना दुख है?
रण करने की इच्छा से
जो आ सकता सम्मुख है॥13॥
कहते ही यह ठिठक गया¸
फिर धीमे स्वर से बोला।
शोलापुर के विजय–गर्व पर
गिरा अचानक गोला॥14॥
अहो अभी तो वीर–भूमि
मेवाड़–केसरी खूनी।
गरज रहा है निर्भय मुझसे
लेकर ताकत दूनी॥15॥
स्वतन्त्रता का वीर पुजारी
संगर–मतवाला है।
शत–शत असि के सम्मुख
उसका महाकाल भाला है॥16॥
धन्य–धन्य है राजपूत वह
उसका सिर न झुका है।
अब तक कोई अगर रूका तो
केवल वही रूका है॥17॥
निज प्रताप–बल से प्रताप ने
अपनी ज्योति जगा दी।
हमने तो जो बुझ न सके¸
कुछ ऐसी आग लगा दी॥18॥
अहो जाति को तिलांजली दे
हुए भार हम भू के।
कहते ही यह ढुलक गये
दो–चार बूँद आँसू के॥19॥
किन्तु देर तक टिक न सका
अभिमान जाति का उर में।
क्या विहँसेगा विटप¸ लगा है
यदि कलंक अंकुर में॥20॥
एक घड़ी तक मौन पुन:
कह उठा मान गरवीला–
देख काल भी डर सकता
मेरी भीषण रण–लीला॥21॥
वसुधा का कोना धरकर
चाहूँ तो विश्व हिला दूँ।
गगन–मही का क्षितिज पकड़
चाहूँ तो अभी मिला दूँ॥22॥
राणा की क्या शक्ति उसे भी
रण की कला सिखा दूँ।
मृत्यु लड़े तो उसको भी
अपने दो हाथ दिखा दूँ॥23॥
पथ में ही मेवाड़ पड़ेगा
चलकर निश्चय कर लूँ।
मान रहा तो कुशल¸ नहीं तो
संगर से जी भर लूँ॥24॥
युद्ध महाराणा प्रताप से
मेरा मचा रहेगा।
मेरे जीते–जी कलंक से
क्या वह बचा रहेगा?॥25॥
मानी मान चला¸ सोचा
परिणाम न कुछ जाने का।
पास महाराणा के भेजा
समाचार आने का॥26॥
मानसिंह के आने का
सन्देश उदयपुर आया।
राणा ने भी अमरसिंह को
अपने पास बुलाया॥27॥
कहा –"पुत्र! मिलने आता है
मानसिंह अभिमानी।
छल है¸ तो भी मान करो
लेकर लोटा भर पानी॥28॥
किसी बात की कमी न हो
रह जाये आन हमारी।
पुत्र! मान के स्वागत की
तुम ऐसी करो तैयारी"॥29॥
मान लिया आदेश¸ स्वर्ण से
सजे गये दरवाजे।
मान मान के लिये मधुर
बाजे मधुर–रव से बाजे॥30॥
जगह जगह पर सजे गये
फाटक सुन्दर सोने के।
बन्दनवारों से हँसते थे
घर कोने कोने के॥31॥
जगमग जगमग ज्योति उठी जल¸
व्याकुल दरबारी–जन¸
नव गुलाब–वासित पानी से
किया गया पथ–सिंचन॥32॥
शीतल–जल–पूरित कंचन के
कलसे थे द्वारों पर।
चम–चम पानी चमक रहा था
तीखी तलवारों पर॥33॥
उदयसिंधु के नीचे भी
बाहर की शोभा छाई।
हृदय खोलकर उसने भी
अपनी श्रद्धा दिखलाई॥34॥
किया अमर ने धूमधाम से
मानसिंह का स्वागत।
मधुर–मधुर सुरभित गजरों के
बोझे से वह था नत॥35॥
कहा देखकर अमरसिंह का
विकल प्रेम अपने मन में।
होगा यह सम्मान मुझे
विश्वास न था सपने में॥36॥
शत–शत तुमको धन्यवाद है¸
सुखी रहो जीवन भर।
झरें शीश पर सुमन–सुयश के
अम्बर–तल से झर–झर॥37॥
धन्यवाद स्वीकार किया¸
कर जोड़ पुन: वह बोला।
भावी भीषण रण का
दरवाजा धीरे से खोला –॥38॥
समय हो गया भूख लगी है¸
चलकर भोजन कर लें।
थके हुए हैं ये मृदु पद
जल से इनको तर कर लें।"॥39॥
सुनकर विनय उठा केवल रख
पट रेशम का तन पर।
धोकर पद भोजन करने को
बैठ गया आसन पर॥40॥
देखे मधु पदार्थ पन्ने की
मृदु प्याली प्याली में।
चावल के सामान मनोहर
सोने की थाली में॥41॥
घी से सनी सजी रोटी थी¸
रत्नों के बरतन में।
शाक खीर नमकीन मधुर¸
चटनी चमचम कंचन में॥42॥
मोती झालर से रक्षित¸
रसदार लाल थाली में।
एक ओर मीठे फल थे¸
मणि–तारों की डाली में॥43॥
तरह–तरह के खाद्य–कलित¸
चांदी के नये कटोरे
भरे खराये घी से देखे¸
नीलम के नव खोरे॥44॥
पर न वहां भी राणा था
बस ताड़ गया वह मानी।
रहा गया जब उसे न तब वह
बोल उठा अभिमानी॥45॥
"अमरसिंह¸ भोजन का तो
सामान सभी सम्मुख है।
पर प्रताप का पता नहीं है
एक यही अब दुख है॥46॥
मान करो पर मानसिंह का
मान अधूरा होगा।
बिना महाराणा के यह
आतिथ्य न पूरा होगा॥47॥
जब तक भोजन वह न करेंगे
एक साथ आसन पर;
तब तक कभी न हो सकता है
मानसिंह का आदर॥48॥
अमरसिंह¸ इसलिए उठो तुम
जाओ मिलो पिता से;
मेरा यह सन्देश कहो
मेवाड़–गगन–सविता से॥49॥
बिना आपके वह न ठहर पर
ठहर सकेंगे क्षण भी।
छू सकते हैं नहीं हाथ से¸
चावल का लघु कण भी।"॥50॥
अहो¸ विपत्ति में देश पड़ेगा
इसी भयानक तिथि से।
गया लौटकर अमरसिंह फिर
आया कहा अतिथि से॥51॥
"मैं सेवा के लिए आपकी
तन–मन–धन से आकुल।
प्रभो¸ करें भोजन¸ वह हैं
सिर की पीड़ा से व्याकुल।"॥51॥
पथ प्रताप का देख रहा था¸
प्रेम न था रोटी में।
सुनते ही वह काँप गया¸
लग गई आग चोटी में॥53॥
घोर अवज्ञा से ज्वाला सी¸
लगी दहकने त्रिकुटी।
अधिक क्रोध से वक्र हो गई¸
मानसिंह की भृकुटी॥54॥
चावल–कण दो–एक बांधकर
गरज उठा बादल सा।
मानो भीषण क्रोध–वह्नि से¸
गया अचानक जल सा॥55॥
"कुशल नहीं¸ राणा प्रताप का
मस्तक की पीड़ा से।
थहर उठेगा अब भूतल
रण–चण्डी की क्रीड़ा से॥56॥
जिस प्रताप की स्वतन्त्रता के
गौरव की रक्षा की।
खेद यही है वही मान का
कुछ रख सका न बाकी॥57॥
बिना हेतु के होगा ही वह
जो कुछ बदा रहेगा।
किन्तु महाराणा प्रताप अब
रोता सदा रहेगा॥58॥
मान रहेगा तभी मान का
हाला घोल उठे जब।
डग–डग–डग ब्रह्माण्ड चराचर
भय से डोल उठे जब।"॥59॥
चकाचौंध सी लगी मान को
राणा की मुख–भा से।
अहँकार की बातें सुन
जब निकला सिंह गुफा से॥60॥
दक्षिण–पद–कर आगे कर
तर्जनी उठाकर बोला।
गिरने लगा मान–छाती पर
गरज–गरज कर गोला॥61॥
वज`–नाद सा तड़प उठा
हलचल थी मरदानों में।
पहुंच गया राणा का वह रव
अकबर के कानों में॥62॥
"अरे तुर्क¸ बकवाद करो मत
खाना हो तो खाओ।
या बधना का ही शीतल–जल
पीना हो तो जाओ॥63॥
जो रण को ललकार रहे हो
तो आकर लड़ लेना।
चढ़ आना यदि चाह रहे
चित्तौड़ वीर–गढ़ लेना॥64॥
कहाँ रहे जब स्वतन्त्रता का
मेरा बिगुल बजा था?
जाति–धर्म के मुझ रक्षक को
तुमने क्या समझा था॥65॥
अभी कहूँ क्या¸ प्रश्नों का
रण में क्या उत्तर दूँगा।
महामृत्यु के साथ–साथ
जब इधर–उधर लहरूंगा॥66॥
भभक उठेगी जब प्रताप के
प्रखर तेज की आगी।
तब क्या हूँ बतला दूँगा
ऐ अम्बर कुल के त्यागी।"॥67॥
अभी मान से राणा से था
वाद–विवाद लगा ही¸
तब तक आगे बढ़कर बोला
कोई वीर–सिपाही॥68॥
"करो न बकझक लड़कर ही
अब साहस दिखलाना तुम;
भगो¸ भगो¸ अपने फूफे को
भी लेते आना तुम।"॥69॥
महा महा अपमान देखकर
बढ़ी क्रोध की ज्वाला।
मान कड़ककर बोल उठा फिर
पहन अiर्च की माला–॥70॥
"मानसिंह की आज अवज्ञा
कर लो और करा लो;
बिना विजय के ऐ प्रताप
तुम¸ विजय–केतु फहरा लो॥71॥
पर इसका मैं बदल लूँगा¸
अभी चन्द दिवसों में;
झुक जाओगे भर दूँगा जब
जलती ज्वाल नसों में॥72॥
ऐ प्रताप¸ तुम सजग रहो
अब मेरी ललकारों से;
अकबर के विकराल क्रोध से¸
तीखी तलवारों से॥73॥
ऐ प्रताप¸ तैयार रहो मिटने
के लिए रणों में;
हाथों में हथकड़ी पहनकर
बेड़ी निज चरणों में॥74॥
मानसिंह–दल बन जायेगा
जब भीषण रण–पागल।
ऐ प्रताप¸ तुम झुक जाओगे
झुक जायेगा सेना–बल॥75॥
ऐ प्रताप¸ तुम सिहर उठो
सांपिन सी करवालों से;
ऐ प्रताप¸ तुम भभर उठो
तीखे–तीखे भालों से॥76॥
"गिनो मृत्यु के दिन्" कहकर
घोड़े को सरपट छोड़ा¸
पहुंच गया दिल्ली उड़ता वह
वायु–वेग से घोड़ा॥77॥
इधर महाराणा प्रताप ने
सारा घर खुदवाया।
धर्म–भीरू ने बार–बार
गंगा–जल से धुलवाया॥78॥
उतर गया पानी¸ प्यासा था¸
तो भी पिया न पानी।
उदय–सिन्धु था निकट डर गया
अपना दिया न पानी॥79॥
राणा द्वारा मानसिंह का
यह जो मान–हरण था।
हल्दीघाटी के होने का
यही मुख्य कारण था॥80॥
लगी सुलगने आग समर की
भीषण आग लगेगी।
प्यासी है अब वीर–रक्त से
माँ की प्यास बुझेगी॥81॥
स्वतन्त्रता का कवच पहन
विश्वास जमाकर भाला में।
कूद पड़ा राणा प्रताप उस
समर–वह्नि की ज्वाला में॥82॥