"हल्दीघाटी / एकादश सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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+ | <poem> | ||
+ | '''एकादश सर्ग: सगजग''' | ||
− | + | में जाग्रति पैदा कर दूँ¸ | |
+ | वह मन्त्र नहीं¸ वह तन्त्र नहीं। | ||
+ | कैसे वांछित कविता कर दूँ¸ | ||
+ | मेरी यह कलम स्वतन्त्र नहीं॥1॥ | ||
− | + | अपने उर की इच्छा भर दूँ¸ | |
− | + | ऐसा है कोई यन्त्र नहीं। | |
− | + | हलचल–सी मच जाये पर | |
− | + | यह लिखता हूँ रण षड्यन्त्र नहीं॥2॥ | |
− | अपने उर की इच्छा भर | + | |
− | ऐसा है कोई यन्त्र नहीं। | + | ब्राह्मण है तो आंसूं भर ले¸ |
− | हलचल–सी मच जाये पर | + | क्षत्रिय है नत मस्तक कर ले। |
− | यह लिखता | + | है वैश्य शूद्र तो बार–बार¸ |
− | ब्राह्मण है तो आंसूं भर ले¸ | + | अपनी सेवा पर शक कर ले॥3॥ |
− | क्षत्रिय है नत मस्तक कर ले। | + | |
− | है वैश्य शूद्र तो बार–बार¸ | + | दुख¸ देह–पुलक कम्पन होता¸ |
− | अपनी सेवा पर शक कर | + | हा¸ विषय गहन यह नभ–सा है। |
− | दुख¸ देह–पुलक कम्पन होता¸ | + | यह हृदय–विदारक वही समर |
− | हा¸ विषय गहन यह नभ–सा है। | + | जिसका लिखना दुर्लभ–सा है॥4॥ |
− | यह हृदय–विदारक वही समर | + | |
− | जिसका लिखना दुर्लभ–सा | + | फिर भी पीड़ा से भरी कलम¸ |
− | फिर भी पीड़ा से भरी कलम¸ | + | लिखती प्राचीन कहानी है। |
− | लिखती प्राचीन कहानी है। | + | लिखती हल्दीघाटी रण की¸ |
− | लिखती हल्दीघाटी रण की¸ | + | वह अजर–अमर कुबार्नी है॥ 5॥ |
− | वह अजर–अमर कुबार्नी | + | |
− | सावन का हरित प्रभात रहा | + | सावन का हरित प्रभात रहा |
− | अम्बर पर थी घनघोर घटा। | + | अम्बर पर थी घनघोर घटा। |
− | फहरा कर पंख थिरकते थे | + | फहरा कर पंख थिरकते थे |
− | मन हरती थी | + | मन हरती थी वन–मोर–छटा॥6॥ |
− | पड़ रही फुही झीसी झिन–झिन | + | |
− | पर्वत की हरी वनाली पर। | + | पड़ रही फुही झीसी झिन–झिन |
− | + | पर्वत की हरी वनाली पर। | |
− | तरू–तरू की डाली–डाली | + | 'पी कहाँ' पपीहा बोल रहा |
− | वारिद के उर में चमक–दमक | + | तरू–तरू की डाली–डाली पर॥7॥ |
− | तड़–तड़ बिजली थी तड़क रही। | + | |
− | रह–रह कर जल था बरस रहा | + | वारिद के उर में चमक–दमक |
− | रणधीर–भुजा थी फड़क | + | तड़–तड़ बिजली थी तड़क रही। |
− | था मेघ बरसता झिमिर–झिमिर | + | रह–रह कर जल था बरस रहा |
− | तटिनी की भरी जवानी थी। | + | रणधीर–भुजा थी फड़क रही॥8॥ |
− | बढ़ चली तरंगों की असि ले | + | |
− | चण्डी–सी वह मस्तानी | + | था मेघ बरसता झिमिर–झिमिर |
− | वह घटा चाहती थी जल से | + | तटिनी की भरी जवानी थी। |
− | सरिता–सागर–निझर्र भरना। | + | बढ़ चली तरंगों की असि ले |
− | यह घटा चाहती शोणित से | + | चण्डी–सी वह मस्तानी थी॥9॥ |
− | पर्वत का कण–कण तर | + | |
− | धरती की प्यास बुझाने को | + | वह घटा चाहती थी जल से |
− | वह घहर रही थी घन–सेना। | + | सरिता–सागर–निझर्र भरना। |
− | लोहू पीने के लिए खड़ी | + | यह घटा चाहती शोणित से |
− | यह हहर रही थी | + | पर्वत का कण–कण तर करना॥10॥ |
− | नभ पर चम–चम चपला चमकी¸ | + | |
− | चम–चम चमकी तलवार इधर। | + | धरती की प्यास बुझाने को |
− | + | वह घहर रही थी घन–सेना। | |
− | दोनों दल की ललकार | + | लोहू पीने के लिए खड़ी |
− | वह कड़–कड़–कड–कड़ कड़क उठी¸ | + | यह हहर रही थी जन–सेना॥11॥ |
− | यह भीम–नाद से तड़क उठी। | + | |
− | भीषण–संगर की आग प्रबल | + | नभ पर चम–चम चपला चमकी¸ |
− | बैरी–सेना में भड़क | + | चम–चम चमकी तलवार इधर। |
− | डग–डग–डग–डग रण के डंके | + | भैरव अमन्द घन–नाद उधर¸ |
− | मारू के साथ भयद बाजे। | + | दोनों दल की ललकार इधर॥12॥ |
− | टप–टप–टप घोड़े कूद पड़े¸ | + | |
− | कट–कट मतंग के रद | + | वह कड़–कड़–कड–कड़ कड़क उठी¸ |
− | कलकल कर उठी मुगल सेना | + | यह भीम–नाद से तड़क उठी। |
− | किलकार उठी¸ ललकार उठी। | + | भीषण–संगर की आग प्रबल |
− | असि म्यान–विवर से निकल तुरत | + | बैरी–सेना में भड़क उठी॥13॥ |
− | अहि–नागिन–सी फुफकार | + | |
− | शर–दण्ड चले¸ कोदण्ड चले¸ | + | डग–डग–डग–डग रण के डंके |
− | कर की | + | मारू के साथ भयद बाजे। |
− | खूनी बरछे–भाले चमके¸ | + | टप–टप–टप घोड़े कूद पड़े¸ |
− | पर्वत पर तोपें गरज | + | कट–कट मतंग के रद बाजे॥14॥ |
− | फर–फर–फर–फर–फर फहर उठा | + | |
− | अकबर का अभिमानी निशान। | + | कलकल कर उठी मुगल सेना |
− | बढ़ चला कटक लेकर अपार | + | किलकार उठी¸ ललकार उठी। |
− | मद–मस्त द्विरद पर | + | असि म्यान–विवर से निकल तुरत |
− | कोलाहल पर कोलाहल सुन | + | अहि–नागिन–सी फुफकार उठी॥15॥ |
− | शस्त्रों की सुन झनकार प्रबल। | + | |
− | मेवाड़–केसरी गरज उठा | + | शर–दण्ड चले¸ कोदण्ड चले¸ |
− | सुनकर अरि की ललकार | + | कर की कटारियाँ तरज उठीं। |
− | हर एकलिंग को माथ नवा | + | खूनी बरछे–भाले चमके¸ |
− | लोहा लेने चल पड़ा वीर। | + | पर्वत पर तोपें गरज उठीं॥16॥ |
− | चेतक का चंचल वेग देख | + | |
− | था महा–महा | + | फर–फर–फर–फर–फर फहर उठा |
− | लड़–लड़कर अखिल महीतल को | + | अकबर का अभिमानी निशान। |
− | शोणित से भर देनेवाली¸ | + | बढ़ चला कटक लेकर अपार |
− | तलवार वीर की तड़प उठी | + | मद–मस्त द्विरद पर मस्त–मान॥17॥ |
− | अरि–कण्ठ कतर | + | |
− | राणा का ओज भरा आनन | + | कोलाहल पर कोलाहल सुन |
− | सूरज–समान चमचमा उठा। | + | शस्त्रों की सुन झनकार प्रबल। |
− | बन महाकाल का महाकाल | + | मेवाड़–केसरी गरज उठा |
− | भीषण–भाला दमदमा | + | सुनकर अरि की ललकार प्रबल॥18। |
− | मेरी प्रताप की बजी तुरत | + | हर एकलिंग को माथ नवा |
− | बज चले दमामे धमर–धमर। | + | लोहा लेने चल पड़ा वीर। |
− | धम–धम रण के बाजे बाजे¸ | + | चेतक का चंचल वेग देख |
− | बज चले नगारे | + | था महा–महा लज्जत समीर॥19॥ |
− | जय रूद्र बोलते रूद्र–सदृश | + | |
− | खेमों से निकले राजपूत। | + | लड़–लड़कर अखिल महीतल को |
− | झट झंडे के नीचे आकर | + | शोणित से भर देनेवाली¸ |
− | जय प्रलयंकर बोले | + | तलवार वीर की तड़प उठी |
− | अपने पैने हथियार लिये | + | अरि–कण्ठ कतर देनेवाली॥20॥ |
− | पैनी पैनी तलवार लिये। | + | |
− | आये खर–कुन्त–कटार लिये | + | राणा का ओज भरा आनन |
− | जननी सेवा का भार | + | सूरज–समान चमचमा उठा। |
− | कुछ घोड़े पर कुछ हाथी पर¸ | + | बन महाकाल का महाकाल |
− | कुछ योधा पैदल ही आये। | + | भीषण–भाला दमदमा उठा॥21॥ |
− | कुछ ले बरछे कुछ ले भाले¸ | + | |
− | कुछ शर से तरकस भर | + | मेरी प्रताप की बजी तुरत |
− | रण–यात्रा करते ही बोले | + | बज चले दमामे धमर–धमर। |
− | राणा की जय¸ राणा की जय। | + | धम–धम रण के बाजे बाजे¸ |
− | मेवाड़–सिपाही बोल उठे | + | बज चले नगारे घमर–घमर॥22॥ |
− | शत बार महाराणा की | + | |
− | हल्दीघाटी के रण की जय¸ | + | जय रूद्र बोलते रूद्र–सदृश |
− | राणा प्रताप के प्रण की जय। | + | खेमों से निकले राजपूत। |
− | जय जय भारतमाता की जय¸ | + | झट झंडे के नीचे आकर |
− | मेवाड़–देश–कण–कण की | + | जय प्रलयंकर बोले सपूत॥23॥ |
− | हर एकलिंग¸ हर एकलिंग | + | |
− | बोला हर–हर अम्बर अनन्त। | + | अपने पैने हथियार लिये |
− | हिल गया अचल¸ भर गया तुरंत | + | पैनी पैनी तलवार लिये। |
− | हर हर निनाद से | + | आये खर–कुन्त–कटार लिये |
− | घनघोर घटा के बीच चमक | + | जननी सेवा का भार लिये॥24॥ |
− | तड़ तड़ नभ पर तड़ित तड़की। | + | |
− | झन–झन असि की झनकार इधर | + | कुछ घोड़े पर कुछ हाथी पर¸ |
− | कायर–दल की छाती | + | कुछ योधा पैदल ही आये। |
− | अब देर न थी वैरी–वन में | + | कुछ ले बरछे कुछ ले भाले¸ |
− | दावानल के सम छूट पड़े। | + | कुछ शर से तरकस भर लाये॥25॥ |
− | इस तरह वीर झपटे उन पर | + | |
− | मानों हरि मृग पर टूट | + | रण–यात्रा करते ही बोले |
− | मरने कटने की बान रही | + | राणा की जय¸ राणा की जय। |
− | पुश्तैनी इससे आह न की। | + | मेवाड़–सिपाही बोल उठे |
− | प्राणों की रंचक चाह न की | + | शत बार महाराणा की जय॥26॥ |
− | तोपों की भी परवाह न | + | |
− | रण–मत्त लगे बढ़ने आगे | + | हल्दीघाटी के रण की जय¸ |
− | सिर काट–काट करवालों से। | + | राणा प्रताप के प्रण की जय। |
− | संगर की मही लगी पटने | + | जय जय भारतमाता की जय¸ |
− | क्षण–क्षण अरि–कंठ–कपालों | + | मेवाड़–देश–कण–कण की जय॥27। |
− | हाथी सवार हाथी पर थे¸ | + | हर एकलिंग¸ हर एकलिंग |
− | बाजी सवार बाजी पर थे। | + | बोला हर–हर अम्बर अनन्त। |
− | पर उनके शोणित–मय मस्तक | + | हिल गया अचल¸ भर गया तुरंत |
− | अवनी पर मृत–राजी पर | + | हर हर निनाद से दिग्दिगन्त॥28॥ |
− | कर की असि ने आगे बढ़कर | + | |
− | संगर–मतंग–सिर काट दिया। | + | घनघोर घटा के बीच चमक |
− | बाजी वक्षस्थल गोभ–गोभ | + | तड़ तड़ नभ पर तड़ित तड़की। |
− | बरछी ने भूतल पाट | + | झन–झन असि की झनकार इधर |
− | गज गिरा¸ मरा¸ पिलवान गिरा¸ | + | कायर–दल की छाती धड़की॥29॥ |
− | हय कटकर गिरा¸ निशान गिरा। | + | |
− | कोई लड़ता उत्तान गिरा¸ | + | अब देर न थी वैरी–वन में |
− | कोई लड़कर बलवान | + | दावानल के सम छूट पड़े। |
− | झटके से शूल गिरा भू पर | + | इस तरह वीर झपटे उन पर |
− | बोला भट मेरा शूल | + | मानों हरि मृग पर टूट पड़े॥30॥ |
− | शोणित का नाला बह निकला¸ | + | |
− | अवनी–अम्बर पर धूल | + | मरने कटने की बान रही |
− | + | पुश्तैनी इससे आह न की। | |
− | लिपटे अन्धे जन अन्धों से। | + | प्राणों की रंचक चाह न की |
− | सिर कटकर भू पर लोट लोट | + | तोपों की भी परवाह न की॥31॥ |
− | लड़ गये कबन्ध कबन्धों | + | |
− | अरि–किन्तु घुसा झट उसे दबा¸ | + | रण–मत्त लगे बढ़ने आगे |
− | अपन सीने के पार किया। | + | सिर काट–काट करवालों से। |
− | इस तरह निकट बैरी–उर को | + | संगर की मही लगी पटने |
− | कर–कर कटार से फार | + | क्षण–क्षण अरि–कंठ–कपालों से॥32। |
− | कोई खरतर करवाल उठा | + | हाथी सवार हाथी पर थे¸ |
− | सेना पर बरस आग गया। | + | बाजी सवार बाजी पर थे। |
− | गिर गया शीश कटकर भू पर | + | पर उनके शोणित–मय मस्तक |
− | घोड़ा धड़ लेकर भाग | + | अवनी पर मृत–राजी पर थे॥33॥ |
− | कोई करता था रक्त वमन¸ | + | |
− | छिद गया किसी मानव का तन। | + | कर की असि ने आगे बढ़कर |
− | कट गया किसी का एक बाहु¸ | + | संगर–मतंग–सिर काट दिया। |
− | कोई था सायक–विद्ध | + | बाजी वक्षस्थल गोभ–गोभ |
− | गिर पड़ा पीन गज¸ फटी धरा¸ | + | बरछी ने भूतल पाट दिया॥34॥ |
− | खर रक्त–वेग से कटी धरा। | + | |
− | चोटी–दाढ़ी से पटी धरा¸ | + | गज गिरा¸ मरा¸ पिलवान गिरा¸ |
− | रण करने को भी घटी | + | हय कटकर गिरा¸ निशान गिरा। |
− | तो भी रख प्राण हथेली पर | + | कोई लड़ता उत्तान गिरा¸ |
− | वैरी–दल पर चढ़ते ही थे। | + | कोई लड़कर बलवान गिरा॥35॥ |
− | मरते कटते मिटते भी थे¸ | + | |
− | पर राजपूत बढ़ते ही | + | झटके से शूल गिरा भू पर |
− | राणा प्रताप का ताप तचा¸ | + | बोला भट मेरा शूल कहाँ |
− | अरि–दल में हाहाकर मचा। | + | शोणित का नाला बह निकला¸ |
− | भेड़ों की तरह भगे कहते | + | अवनी–अम्बर पर धूल कहाँ॥36॥ |
− | अल्लाह हमारी जान | + | |
− | अपनी नंगी तलवारों से | + | आँखों में भाला भोंक दिया |
− | वे आग रहे हैं उगल | + | लिपटे अन्धे जन अन्धों से। |
− | वे | + | सिर कटकर भू पर लोट लोट |
− | हम दीन सिपाही मुगल | + | लड़ गये कबन्ध कबन्धों से॥37॥ |
− | भयभीत परस्पर कहते थे | + | |
− | साहस के साथ भगो वीरो! | + | अरि–किन्तु घुसा झट उसे दबा¸ |
− | पीछे न फिरो¸ न मुड़ो¸ न कभी | + | अपन सीने के पार किया। |
− | अकबर के हाथ लगो वीरो! | + | इस तरह निकट बैरी–उर को |
− | यह कहते मुगल भगे जाते¸ | + | कर–कर कटार से फार दिया॥38॥ |
− | भीलों के तीर लगे जाते। | + | |
− | उठते जाते¸ गिरते जाते¸ | + | कोई खरतर करवाल उठा |
− | बल खाते¸ रक्त पगे | + | सेना पर बरस आग गया। |
− | आगे थी अगम बनास नदी¸ | + | गिर गया शीश कटकर भू पर |
− | वर्षा से उसकी प्रखर धार। | + | घोड़ा धड़ लेकर भाग गया॥39॥ |
− | थी बुला रही उनको शत–शत | + | |
− | लहरों के कर से | + | कोई करता था रक्त वमन¸ |
− | पहले सरिता को देख डरे¸ | + | छिद गया किसी मानव का तन। |
− | फिर कूद–कूद उस पार भगे। | + | कट गया किसी का एक बाहु¸ |
− | कितने बह–बह इस पार लगे¸ | + | कोई था सायक–विद्ध नयन॥40॥ |
− | कितने बहकर उस पार | + | |
− | मंझधार तैरते थे कितने¸ | + | गिर पड़ा पीन गज¸ फटी धरा¸ |
− | कितने जल पी–पी ऊब मरे। | + | खर रक्त–वेग से कटी धरा। |
− | लहरों के कोड़े खा–खाकर | + | चोटी–दाढ़ी से पटी धरा¸ |
− | कितने पानी में डूब | + | रण करने को भी घटी धरा॥41॥ |
− | राणा–दल की ललकार देख¸ | + | |
− | अपनी सेना की हार देख। | + | तो भी रख प्राण हथेली पर |
− | सातंक चकित रह गया मान¸ | + | वैरी–दल पर चढ़ते ही थे। |
− | राणा प्रताप के वार | + | मरते कटते मिटते भी थे¸ |
− | व्याकुल होकर वह बोल उठा | + | पर राजपूत बढ़ते ही थे॥42॥ |
− | + | ||
− | मेवाड़ उड़ा दो तोप लगा | + | राणा प्रताप का ताप तचा¸ |
− | ठहरो–ठहरो फिर से | + | अरि–दल में हाहाकर मचा। |
− | देखो आगे बढ़ता | + | भेड़ों की तरह भगे कहते |
− | बैरी–दल पर चढ़ता | + | अल्लाह हमारी जान बचा॥43॥ |
− | ले लो करवाल बढ़ो आगे | + | |
− | अब विजय–मन्त्र पढ़ता | + | अपनी नंगी तलवारों से |
− | भगती सेना को रोक तुरत | + | वे आग रहे हैं उगल कहाँ। |
− | लगवा दी | + | वे कहाँ शेर की तरह लड़ें¸ |
− | उस राजपूत–कुल–घातक ने | + | हम दीन सिपाही मुगल कहाँ॥44॥ |
− | हा¸ महाप्रलय–सा दिया | + | |
− | फिर लगी बरसने आग | + | भयभीत परस्पर कहते थे |
− | उन भीम भयंकर तोपों से। | + | साहस के साथ भगो वीरो! |
− | जल–जलकर राख लगे होने | + | पीछे न फिरो¸ न मुड़ो¸ न कभी |
− | योद्धा उन मुगल–प्रकोपों | + | अकबर के हाथ लगो वीरो!॥45॥ |
− | भर रक्त–तलैया चली उधर¸ | + | |
− | सेना–उर में भर शोक चला। | + | यह कहते मुगल भगे जाते¸ |
− | जननी–पद शोणित से धो–धो | + | भीलों के तीर लगे जाते। |
− | हर राजपूत हर–लोक | + | उठते जाते¸ गिरते जाते¸ |
− | क्षणभर के लिये विजय दे दी | + | बल खाते¸ रक्त पगे जाते॥46॥ |
− | अकबर के दारूण दूतों को। | + | |
− | माता ने अंचल बिछा दिया | + | आगे थी अगम बनास नदी¸ |
− | सोने के लिए सपूतों | + | वर्षा से उसकी प्रखर धार। |
− | विकराल गरजती तोपों से | + | थी बुला रही उनको शत–शत |
− | रूई–सी क्षण–क्षण धुनी गई। | + | लहरों के कर से बार–बार॥47॥ |
− | उस महायज्ञ में आहुति–सी | + | |
− | राणा की सेना हुनी | + | पहले सरिता को देख डरे¸ |
− | बच गये शेष जो राजपूत | + | फिर कूद–कूद उस पार भगे। |
− | संगर से बदल–बदलकर रूख। | + | कितने बह–बह इस पार लगे¸ |
− | निरूपाय दीन कातर होकर | + | कितने बहकर उस पार लगे॥49॥ |
− | वे लगे देखने | + | |
− | राणा–दल का यह प्रलय देख¸ | + | मंझधार तैरते थे कितने¸ |
− | भीषण भाला दमदमा उठा। | + | कितने जल पी–पी ऊब मरे। |
− | जल उठा वीर का रोम–रोम¸ | + | लहरों के कोड़े खा–खाकर |
− | लोहित आनन तमतमा | + | कितने पानी में डूब मरे॥50॥ |
− | वह क्रोध वह्नि से जल भुनकर | + | |
− | काली–कटाक्ष–सा ले कृपाण। | + | राणा–दल की ललकार देख¸ |
− | घायल नाहर–सा गरज उठा | + | अपनी सेना की हार देख। |
− | क्षण–क्षण बिखेरते प्रखर | + | सातंक चकित रह गया मान¸ |
− | बोला | + | राणा प्रताप के वार देख॥51॥ |
− | मत क्षण भर भी अब करो देर। | + | |
− | क्या देख रहे हो मेरा मुख | + | व्याकुल होकर वह बोल उठा |
− | तोपों के | + | "लौटो लौटो न भगो भागो। |
− | बढ़ चलने का सन्देश मिला¸ | + | मेवाड़ उड़ा दो तोप लगा |
− | मर मिटने का उपदेश मिला। | + | ठहरो–ठहरो फिर से जागो॥52॥ |
− | + | ||
− | उन सिंहों को आदेश | + | देखो आगे बढ़ता हूँ मैं¸ |
− | गिरते जाते¸ बढ़ते जाते¸ | + | बैरी–दल पर चढ़ता हूँ मैं। |
− | मरते जाते चढ़ते जाते। | + | ले लो करवाल बढ़ो आगे |
− | मिटते जाते¸ कटते जाते¸ | + | अब विजय–मन्त्र पढ़ता हूँ मैं।"॥53॥ |
− | गिरते–मरते मिटते | + | |
− | बन गये वीर मतवाले थे | + | भगती सेना को रोक तुरत |
− | आगे वे बढ़ते चले गये। | + | लगवा दी भौरव–काय तोप। |
− | राणा प्रताप की जय करते | + | उस राजपूत–कुल–घातक ने |
− | तोपों तक चढ़ते चले | + | हा¸ महाप्रलय–सा दिया रोप॥54॥ |
− | उन आग बरसती तोपों के | + | |
− | + | फिर लगी बरसने आग सतत् | |
− | बैरी–सेना पर तड़प–तड़प | + | उन भीम भयंकर तोपों से। |
− | मानों शत–शत पत्रि छूट | + | जल–जलकर राख लगे होने |
− | फिर महासमर छिड़ गया तुरत | + | योद्धा उन मुगल–प्रकोपों से॥55॥ |
− | लोहू–लोहित हथियारों से। | + | |
− | फिर होने लगे प्रहार वार | + | भर रक्त–तलैया चली उधर¸ |
− | बरछे–भाले तलवारों | + | सेना–उर में भर शोक चला। |
− | शोणित से लथपथ ढालों से¸ | + | जननी–पद शोणित से धो–धो |
− | करके कुन्तल¸ करवालों से¸ | + | हर राजपूत हर–लोक चला।56॥ |
− | खर–छुरी–कटारी फालों से¸ | + | |
− | भू भरी भयानक भालों | + | क्षणभर के लिये विजय दे दी |
− | गिरि की उन्नत चोटी से | + | अकबर के दारूण दूतों को। |
− | पाषाण भील बरसाते। | + | माता ने अंचल बिछा दिया |
− | अरि–दल के प्राण–पखेरू | + | सोने के लिए सपूतों को॥57॥ |
− | तन–पिंजर से उड़ | + | |
− | कोदण्ड चण्ड–रव करते | + | विकराल गरजती तोपों से |
− | बैरी निहारते चोटी। | + | रूई–सी क्षण–क्षण धुनी गई। |
− | तब तक चोटीवालों ने | + | उस महायज्ञ में आहुति–सी |
− | बिखरा दी | + | राणा की सेना हुनी गई॥58॥ |
− | अब इसी समर में चेतक | + | |
− | मारूत बनकर आयेगा। | + | बच गये शेष जो राजपूत |
− | राणा भी अपनी असि का¸ | + | संगर से बदल–बदलकर रूख। |
− | अब जौहर | + | निरूपाय दीन कातर होकर |
+ | वे लगे देखने राणा–मुख॥59॥ | ||
+ | |||
+ | राणा–दल का यह प्रलय देख¸ | ||
+ | भीषण भाला दमदमा उठा। | ||
+ | जल उठा वीर का रोम–रोम¸ | ||
+ | लोहित आनन तमतमा उठा॥60॥ | ||
+ | |||
+ | वह क्रोध वह्नि से जल भुनकर | ||
+ | काली–कटाक्ष–सा ले कृपाण। | ||
+ | घायल नाहर–सा गरज उठा | ||
+ | क्षण–क्षण बिखेरते प्रखर बाण॥61॥ | ||
+ | |||
+ | बोला "आगे बढ़ चलो शेर¸ | ||
+ | मत क्षण भर भी अब करो देर। | ||
+ | क्या देख रहे हो मेरा मुख | ||
+ | तोपों के मुँह दो अभी फेर।"॥62॥ | ||
+ | |||
+ | बढ़ चलने का सन्देश मिला¸ | ||
+ | मर मिटने का उपदेश मिला। | ||
+ | "दो फेर तोप–मुख्" राणा से | ||
+ | उन सिंहों को आदेश मिला॥63॥ | ||
+ | |||
+ | गिरते जाते¸ बढ़ते जाते¸ | ||
+ | मरते जाते चढ़ते जाते। | ||
+ | मिटते जाते¸ कटते जाते¸ | ||
+ | गिरते–मरते मिटते जाते॥64॥ | ||
+ | |||
+ | बन गये वीर मतवाले थे | ||
+ | आगे वे बढ़ते चले गये। | ||
+ | राणा प्रताप की जय करते | ||
+ | तोपों तक चढ़ते चले गये॥65॥ | ||
+ | |||
+ | उन आग बरसती तोपों के | ||
+ | मुँह फेर अचानक टूट पड़े। | ||
+ | बैरी–सेना पर तड़प–तड़प | ||
+ | मानों शत–शत पत्रि छूट पड़े॥66॥ | ||
+ | |||
+ | फिर महासमर छिड़ गया तुरत | ||
+ | लोहू–लोहित हथियारों से। | ||
+ | फिर होने लगे प्रहार वार | ||
+ | बरछे–भाले तलवारों से॥67॥ | ||
+ | |||
+ | शोणित से लथपथ ढालों से¸ | ||
+ | करके कुन्तल¸ करवालों से¸ | ||
+ | खर–छुरी–कटारी फालों से¸ | ||
+ | भू भरी भयानक भालों से॥68॥ | ||
+ | |||
+ | गिरि की उन्नत चोटी से | ||
+ | पाषाण भील बरसाते। | ||
+ | अरि–दल के प्राण–पखेरू | ||
+ | तन–पिंजर से उड़ जाते॥69॥ | ||
+ | |||
+ | कोदण्ड चण्ड–रव करते | ||
+ | बैरी निहारते चोटी। | ||
+ | तब तक चोटीवालों ने | ||
+ | बिखरा दी बोटी–बोटी॥70॥ | ||
+ | |||
+ | अब इसी समर में चेतक | ||
+ | मारूत बनकर आयेगा। | ||
+ | राणा भी अपनी असि का¸ | ||
+ | अब जौहर दिखलायेगा॥71॥ | ||
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10:38, 12 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
एकादश सर्ग: सगजग
में जाग्रति पैदा कर दूँ¸
वह मन्त्र नहीं¸ वह तन्त्र नहीं।
कैसे वांछित कविता कर दूँ¸
मेरी यह कलम स्वतन्त्र नहीं॥1॥
अपने उर की इच्छा भर दूँ¸
ऐसा है कोई यन्त्र नहीं।
हलचल–सी मच जाये पर
यह लिखता हूँ रण षड्यन्त्र नहीं॥2॥
ब्राह्मण है तो आंसूं भर ले¸
क्षत्रिय है नत मस्तक कर ले।
है वैश्य शूद्र तो बार–बार¸
अपनी सेवा पर शक कर ले॥3॥
दुख¸ देह–पुलक कम्पन होता¸
हा¸ विषय गहन यह नभ–सा है।
यह हृदय–विदारक वही समर
जिसका लिखना दुर्लभ–सा है॥4॥
फिर भी पीड़ा से भरी कलम¸
लिखती प्राचीन कहानी है।
लिखती हल्दीघाटी रण की¸
वह अजर–अमर कुबार्नी है॥ 5॥
सावन का हरित प्रभात रहा
अम्बर पर थी घनघोर घटा।
फहरा कर पंख थिरकते थे
मन हरती थी वन–मोर–छटा॥6॥
पड़ रही फुही झीसी झिन–झिन
पर्वत की हरी वनाली पर।
'पी कहाँ' पपीहा बोल रहा
तरू–तरू की डाली–डाली पर॥7॥
वारिद के उर में चमक–दमक
तड़–तड़ बिजली थी तड़क रही।
रह–रह कर जल था बरस रहा
रणधीर–भुजा थी फड़क रही॥8॥
था मेघ बरसता झिमिर–झिमिर
तटिनी की भरी जवानी थी।
बढ़ चली तरंगों की असि ले
चण्डी–सी वह मस्तानी थी॥9॥
वह घटा चाहती थी जल से
सरिता–सागर–निझर्र भरना।
यह घटा चाहती शोणित से
पर्वत का कण–कण तर करना॥10॥
धरती की प्यास बुझाने को
वह घहर रही थी घन–सेना।
लोहू पीने के लिए खड़ी
यह हहर रही थी जन–सेना॥11॥
नभ पर चम–चम चपला चमकी¸
चम–चम चमकी तलवार इधर।
भैरव अमन्द घन–नाद उधर¸
दोनों दल की ललकार इधर॥12॥
वह कड़–कड़–कड–कड़ कड़क उठी¸
यह भीम–नाद से तड़क उठी।
भीषण–संगर की आग प्रबल
बैरी–सेना में भड़क उठी॥13॥
डग–डग–डग–डग रण के डंके
मारू के साथ भयद बाजे।
टप–टप–टप घोड़े कूद पड़े¸
कट–कट मतंग के रद बाजे॥14॥
कलकल कर उठी मुगल सेना
किलकार उठी¸ ललकार उठी।
असि म्यान–विवर से निकल तुरत
अहि–नागिन–सी फुफकार उठी॥15॥
शर–दण्ड चले¸ कोदण्ड चले¸
कर की कटारियाँ तरज उठीं।
खूनी बरछे–भाले चमके¸
पर्वत पर तोपें गरज उठीं॥16॥
फर–फर–फर–फर–फर फहर उठा
अकबर का अभिमानी निशान।
बढ़ चला कटक लेकर अपार
मद–मस्त द्विरद पर मस्त–मान॥17॥
कोलाहल पर कोलाहल सुन
शस्त्रों की सुन झनकार प्रबल।
मेवाड़–केसरी गरज उठा
सुनकर अरि की ललकार प्रबल॥18।
हर एकलिंग को माथ नवा
लोहा लेने चल पड़ा वीर।
चेतक का चंचल वेग देख
था महा–महा लज्जत समीर॥19॥
लड़–लड़कर अखिल महीतल को
शोणित से भर देनेवाली¸
तलवार वीर की तड़प उठी
अरि–कण्ठ कतर देनेवाली॥20॥
राणा का ओज भरा आनन
सूरज–समान चमचमा उठा।
बन महाकाल का महाकाल
भीषण–भाला दमदमा उठा॥21॥
मेरी प्रताप की बजी तुरत
बज चले दमामे धमर–धमर।
धम–धम रण के बाजे बाजे¸
बज चले नगारे घमर–घमर॥22॥
जय रूद्र बोलते रूद्र–सदृश
खेमों से निकले राजपूत।
झट झंडे के नीचे आकर
जय प्रलयंकर बोले सपूत॥23॥
अपने पैने हथियार लिये
पैनी पैनी तलवार लिये।
आये खर–कुन्त–कटार लिये
जननी सेवा का भार लिये॥24॥
कुछ घोड़े पर कुछ हाथी पर¸
कुछ योधा पैदल ही आये।
कुछ ले बरछे कुछ ले भाले¸
कुछ शर से तरकस भर लाये॥25॥
रण–यात्रा करते ही बोले
राणा की जय¸ राणा की जय।
मेवाड़–सिपाही बोल उठे
शत बार महाराणा की जय॥26॥
हल्दीघाटी के रण की जय¸
राणा प्रताप के प्रण की जय।
जय जय भारतमाता की जय¸
मेवाड़–देश–कण–कण की जय॥27।
हर एकलिंग¸ हर एकलिंग
बोला हर–हर अम्बर अनन्त।
हिल गया अचल¸ भर गया तुरंत
हर हर निनाद से दिग्दिगन्त॥28॥
घनघोर घटा के बीच चमक
तड़ तड़ नभ पर तड़ित तड़की।
झन–झन असि की झनकार इधर
कायर–दल की छाती धड़की॥29॥
अब देर न थी वैरी–वन में
दावानल के सम छूट पड़े।
इस तरह वीर झपटे उन पर
मानों हरि मृग पर टूट पड़े॥30॥
मरने कटने की बान रही
पुश्तैनी इससे आह न की।
प्राणों की रंचक चाह न की
तोपों की भी परवाह न की॥31॥
रण–मत्त लगे बढ़ने आगे
सिर काट–काट करवालों से।
संगर की मही लगी पटने
क्षण–क्षण अरि–कंठ–कपालों से॥32।
हाथी सवार हाथी पर थे¸
बाजी सवार बाजी पर थे।
पर उनके शोणित–मय मस्तक
अवनी पर मृत–राजी पर थे॥33॥
कर की असि ने आगे बढ़कर
संगर–मतंग–सिर काट दिया।
बाजी वक्षस्थल गोभ–गोभ
बरछी ने भूतल पाट दिया॥34॥
गज गिरा¸ मरा¸ पिलवान गिरा¸
हय कटकर गिरा¸ निशान गिरा।
कोई लड़ता उत्तान गिरा¸
कोई लड़कर बलवान गिरा॥35॥
झटके से शूल गिरा भू पर
बोला भट मेरा शूल कहाँ
शोणित का नाला बह निकला¸
अवनी–अम्बर पर धूल कहाँ॥36॥
आँखों में भाला भोंक दिया
लिपटे अन्धे जन अन्धों से।
सिर कटकर भू पर लोट लोट
लड़ गये कबन्ध कबन्धों से॥37॥
अरि–किन्तु घुसा झट उसे दबा¸
अपन सीने के पार किया।
इस तरह निकट बैरी–उर को
कर–कर कटार से फार दिया॥38॥
कोई खरतर करवाल उठा
सेना पर बरस आग गया।
गिर गया शीश कटकर भू पर
घोड़ा धड़ लेकर भाग गया॥39॥
कोई करता था रक्त वमन¸
छिद गया किसी मानव का तन।
कट गया किसी का एक बाहु¸
कोई था सायक–विद्ध नयन॥40॥
गिर पड़ा पीन गज¸ फटी धरा¸
खर रक्त–वेग से कटी धरा।
चोटी–दाढ़ी से पटी धरा¸
रण करने को भी घटी धरा॥41॥
तो भी रख प्राण हथेली पर
वैरी–दल पर चढ़ते ही थे।
मरते कटते मिटते भी थे¸
पर राजपूत बढ़ते ही थे॥42॥
राणा प्रताप का ताप तचा¸
अरि–दल में हाहाकर मचा।
भेड़ों की तरह भगे कहते
अल्लाह हमारी जान बचा॥43॥
अपनी नंगी तलवारों से
वे आग रहे हैं उगल कहाँ।
वे कहाँ शेर की तरह लड़ें¸
हम दीन सिपाही मुगल कहाँ॥44॥
भयभीत परस्पर कहते थे
साहस के साथ भगो वीरो!
पीछे न फिरो¸ न मुड़ो¸ न कभी
अकबर के हाथ लगो वीरो!॥45॥
यह कहते मुगल भगे जाते¸
भीलों के तीर लगे जाते।
उठते जाते¸ गिरते जाते¸
बल खाते¸ रक्त पगे जाते॥46॥
आगे थी अगम बनास नदी¸
वर्षा से उसकी प्रखर धार।
थी बुला रही उनको शत–शत
लहरों के कर से बार–बार॥47॥
पहले सरिता को देख डरे¸
फिर कूद–कूद उस पार भगे।
कितने बह–बह इस पार लगे¸
कितने बहकर उस पार लगे॥49॥
मंझधार तैरते थे कितने¸
कितने जल पी–पी ऊब मरे।
लहरों के कोड़े खा–खाकर
कितने पानी में डूब मरे॥50॥
राणा–दल की ललकार देख¸
अपनी सेना की हार देख।
सातंक चकित रह गया मान¸
राणा प्रताप के वार देख॥51॥
व्याकुल होकर वह बोल उठा
"लौटो लौटो न भगो भागो।
मेवाड़ उड़ा दो तोप लगा
ठहरो–ठहरो फिर से जागो॥52॥
देखो आगे बढ़ता हूँ मैं¸
बैरी–दल पर चढ़ता हूँ मैं।
ले लो करवाल बढ़ो आगे
अब विजय–मन्त्र पढ़ता हूँ मैं।"॥53॥
भगती सेना को रोक तुरत
लगवा दी भौरव–काय तोप।
उस राजपूत–कुल–घातक ने
हा¸ महाप्रलय–सा दिया रोप॥54॥
फिर लगी बरसने आग सतत्
उन भीम भयंकर तोपों से।
जल–जलकर राख लगे होने
योद्धा उन मुगल–प्रकोपों से॥55॥
भर रक्त–तलैया चली उधर¸
सेना–उर में भर शोक चला।
जननी–पद शोणित से धो–धो
हर राजपूत हर–लोक चला।56॥
क्षणभर के लिये विजय दे दी
अकबर के दारूण दूतों को।
माता ने अंचल बिछा दिया
सोने के लिए सपूतों को॥57॥
विकराल गरजती तोपों से
रूई–सी क्षण–क्षण धुनी गई।
उस महायज्ञ में आहुति–सी
राणा की सेना हुनी गई॥58॥
बच गये शेष जो राजपूत
संगर से बदल–बदलकर रूख।
निरूपाय दीन कातर होकर
वे लगे देखने राणा–मुख॥59॥
राणा–दल का यह प्रलय देख¸
भीषण भाला दमदमा उठा।
जल उठा वीर का रोम–रोम¸
लोहित आनन तमतमा उठा॥60॥
वह क्रोध वह्नि से जल भुनकर
काली–कटाक्ष–सा ले कृपाण।
घायल नाहर–सा गरज उठा
क्षण–क्षण बिखेरते प्रखर बाण॥61॥
बोला "आगे बढ़ चलो शेर¸
मत क्षण भर भी अब करो देर।
क्या देख रहे हो मेरा मुख
तोपों के मुँह दो अभी फेर।"॥62॥
बढ़ चलने का सन्देश मिला¸
मर मिटने का उपदेश मिला।
"दो फेर तोप–मुख्" राणा से
उन सिंहों को आदेश मिला॥63॥
गिरते जाते¸ बढ़ते जाते¸
मरते जाते चढ़ते जाते।
मिटते जाते¸ कटते जाते¸
गिरते–मरते मिटते जाते॥64॥
बन गये वीर मतवाले थे
आगे वे बढ़ते चले गये।
राणा प्रताप की जय करते
तोपों तक चढ़ते चले गये॥65॥
उन आग बरसती तोपों के
मुँह फेर अचानक टूट पड़े।
बैरी–सेना पर तड़प–तड़प
मानों शत–शत पत्रि छूट पड़े॥66॥
फिर महासमर छिड़ गया तुरत
लोहू–लोहित हथियारों से।
फिर होने लगे प्रहार वार
बरछे–भाले तलवारों से॥67॥
शोणित से लथपथ ढालों से¸
करके कुन्तल¸ करवालों से¸
खर–छुरी–कटारी फालों से¸
भू भरी भयानक भालों से॥68॥
गिरि की उन्नत चोटी से
पाषाण भील बरसाते।
अरि–दल के प्राण–पखेरू
तन–पिंजर से उड़ जाते॥69॥
कोदण्ड चण्ड–रव करते
बैरी निहारते चोटी।
तब तक चोटीवालों ने
बिखरा दी बोटी–बोटी॥70॥
अब इसी समर में चेतक
मारूत बनकर आयेगा।
राणा भी अपनी असि का¸
अब जौहर दिखलायेगा॥71॥