"हल्दीघाटी / द्वादश सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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+ | <poem> | ||
+ | '''द्वादश सर्ग: सगनिबर''' | ||
− | + | निर्बल बकरों से बाघ लड़े¸ | |
+ | भिड़ गये सिंह मृग–छौनों से। | ||
+ | घोड़े गिर पड़े गिरे हाथी¸ | ||
+ | पैदल बिछ गये बिछौनों से॥1॥ | ||
− | + | हाथी से हाथी जूझ पड़े¸ | |
− | + | भिड़ गये सवार सवारों से। | |
− | + | घोड़ों पर घोड़े टूट पड़े¸ | |
− | + | तलवार लड़ी तलवारों से॥2॥ | |
− | हाथी से हाथी जूझ पड़े¸ | + | |
− | भिड़ गये सवार सवारों से। | + | हय–रूण्ड गिरे¸ गज–मुण्ड गिरे¸ |
− | घोड़ों पर घोड़े टूट पड़े¸ | + | कट–कट अवनी पर शुण्ड गिरे। |
− | तलवार लड़ी तलवारों | + | लड़ते–लड़ते अरि झुण्ड गिरे¸ |
− | हय–रूण्ड गिरे¸ गज–मुण्ड गिरे¸ | + | भू पर हय विकल बितुण्ड गिरे॥3॥ |
− | कट–कट अवनी पर शुण्ड गिरे। | + | |
− | लड़ते–लड़ते अरि झुण्ड गिरे¸ | + | क्षण महाप्रलय की बिजली सी¸ |
− | भू पर हय विकल बितुण्ड | + | तलवार हाथ की तड़प–तड़प। |
− | क्षण महाप्रलय की बिजली सी¸ | + | हय–गज–रथ–पैदल भगा भगा¸ |
− | तलवार हाथ की तड़प–तड़प। | + | लेती थी बैरी वीर हड़प॥4॥ |
− | हय–गज–रथ–पैदल भगा भगा¸ | + | |
− | लेती थी बैरी वीर | + | क्षण पेट फट गया घोड़े का¸ |
− | क्षण पेट फट गया घोड़े का¸ | + | हो गया पतन कर कोड़े का। |
− | हो गया पतन कर कोड़े का। | + | भू पर सातंक सवार गिरा¸ |
− | भू पर सातंक सवार गिरा¸ | + | क्षण पता न था हय–जोड़े का॥5॥ |
− | क्षण पता न था हय–जोड़े | + | |
− | चिंग्घाड़ भगा भय से हाथी¸ | + | चिंग्घाड़ भगा भय से हाथी¸ |
− | लेकर अंकुश पिलवान गिरा। | + | लेकर अंकुश पिलवान गिरा। |
− | झटका लग गया¸ फटी झालर¸ | + | झटका लग गया¸ फटी झालर¸ |
− | हौदा गिर गया¸ निशान | + | हौदा गिर गया¸ निशान गिरा॥6॥ |
− | कोई नत–मुख बेजान गिरा¸ | + | |
− | करवट कोई उत्तान गिरा। | + | कोई नत–मुख बेजान गिरा¸ |
− | रण–बीच अमित भीषणता से¸ | + | करवट कोई उत्तान गिरा। |
− | लड़ते–लड़ते बलवान | + | रण–बीच अमित भीषणता से¸ |
− | होती थी भीषण मार–काट¸ | + | लड़ते–लड़ते बलवान गिरा॥7॥ |
− | अतिशय रण से छाया था भय। | + | |
− | था हार–जीत का पता नहीं¸ | + | होती थी भीषण मार–काट¸ |
− | क्षण इधर विजय क्षण उधर | + | अतिशय रण से छाया था भय। |
− | कोई व्याकुल भर आह रहा¸ | + | था हार–जीत का पता नहीं¸ |
− | कोई था विकल कराह रहा। | + | क्षण इधर विजय क्षण उधर विजय॥8॥ |
− | लोहू से लथपथ लोथों पर¸ | + | |
− | कोई चिल्ला अल्लाह | + | कोई व्याकुल भर आह रहा¸ |
− | धड़ कहीं पड़ा¸ सिर कहीं पड़ा¸ | + | कोई था विकल कराह रहा। |
− | कुछ भी उनकी पहचान नहीं। | + | लोहू से लथपथ लोथों पर¸ |
− | शोणित का ऐसा वेग बढ़ा¸ | + | कोई चिल्ला अल्लाह रहा॥9॥ |
− | मुरदे बह गये निशान | + | |
− | मेवाड़–केसरी देख रहा¸ | + | धड़ कहीं पड़ा¸ सिर कहीं पड़ा¸ |
− | केवल रण का न तमाशा था। | + | कुछ भी उनकी पहचान नहीं। |
− | वह दौड़–दौड़ करता था रण¸ | + | शोणित का ऐसा वेग बढ़ा¸ |
− | वह मान–रक्त का प्यासा | + | मुरदे बह गये निशान नहीं॥10॥ |
− | चढ़कर चेतक पर घूम–घूम | + | |
− | करता मेना–रखवाली था। | + | मेवाड़–केसरी देख रहा¸ |
− | ले महा मृत्यु को साथ–साथ¸ | + | केवल रण का न तमाशा था। |
− | मानो प्रत्यक्ष कपाली | + | वह दौड़–दौड़ करता था रण¸ |
− | रण–बीच चौकड़ी भर–भरकर | + | वह मान–रक्त का प्यासा था॥11॥ |
− | चेतक बन गया निराला था। | + | |
− | राणा प्रताप के घोड़े से¸ | + | चढ़कर चेतक पर घूम–घूम |
− | पड़ गया हवा को पाला | + | करता मेना–रखवाली था। |
− | गिरता न कभी चेतक–तन पर¸ | + | ले महा मृत्यु को साथ–साथ¸ |
− | राणा प्रताप का कोड़ा था। | + | मानो प्रत्यक्ष कपाली था॥12॥ |
− | वह दोड़ रहा अरि–मस्तक पर¸ | + | |
− | या आसमान पर घोड़ा | + | रण–बीच चौकड़ी भर–भरकर |
− | जो तनिक हवा से बाग हिली¸ | + | चेतक बन गया निराला था। |
− | लेकर सवार उड़ जाता था। | + | राणा प्रताप के घोड़े से¸ |
− | राणा की पुतली फिरी नहीं¸ | + | पड़ गया हवा को पाला था॥13॥ |
− | तब तक चेतक मुड़ जाता | + | |
− | कौशल दिखलाया चालों में¸ | + | गिरता न कभी चेतक–तन पर¸ |
− | उड़ गया भयानक भालों में। | + | राणा प्रताप का कोड़ा था। |
− | निभीर्क गया वह ढालों में¸ | + | वह दोड़ रहा अरि–मस्तक पर¸ |
− | सरपट दौड़ा करवालों | + | या आसमान पर घोड़ा था॥14॥ |
− | है यहीं रहा¸ अब | + | |
− | वह वहीं रहा है | + | जो तनिक हवा से बाग हिली¸ |
− | थी जगह न कोई | + | लेकर सवार उड़ जाता था। |
− | किस अरि–मस्तक पर | + | राणा की पुतली फिरी नहीं¸ |
− | बढ़ते नद–सा वह लहर गया¸ | + | तब तक चेतक मुड़ जाता था॥15॥ |
− | वह गया गया फिर ठहर गया। | + | |
− | विकराल ब्रज–मय बादल–सा | + | कौशल दिखलाया चालों में¸ |
− | अरि की सेना पर घहर | + | उड़ गया भयानक भालों में। |
− | भाला गिर गया¸ गिरा निषंग¸ | + | निभीर्क गया वह ढालों में¸ |
− | हय–टापों से खन गया अंग। | + | सरपट दौड़ा करवालों में॥16॥ |
− | वैरी–समाज रह गया दंग | + | |
− | घोड़े का ऐसा देख | + | है यहीं रहा¸ अब यहाँ नहीं¸ |
− | चढ़ चेतक पर तलवार उठा | + | वह वहीं रहा है वहाँ नहीं। |
− | रखता था भूतल–पानी को। | + | थी जगह न कोई जहाँ नहीं¸ |
− | राणा प्रताप सिर काट–काट | + | किस अरि–मस्तक पर कहाँ नहीं॥17। |
− | करता था सफल जवानी | + | बढ़ते नद–सा वह लहर गया¸ |
− | कलकल बहती थी रण–गंगा | + | वह गया गया फिर ठहर गया। |
− | अरि–दल को डूब नहाने को। | + | विकराल ब्रज–मय बादल–सा |
− | तलवार वीर की नाव बनी | + | अरि की सेना पर घहर गया॥18॥ |
− | चटपट उस पार लगाने | + | |
− | वैरी–दल को ललकार गिरी¸ | + | भाला गिर गया¸ गिरा निषंग¸ |
− | वह नागिन–सी फुफकार गिरी। | + | हय–टापों से खन गया अंग। |
− | था शोर मौत से बचो¸बचो¸ | + | वैरी–समाज रह गया दंग |
− | तलवार गिरी¸ तलवार | + | घोड़े का ऐसा देख रंग॥19॥ |
− | पैदल से हय–दल गज–दल में | + | |
− | छिप–छप करती वह विकल गई! | + | चढ़ चेतक पर तलवार उठा |
− | क्षण | + | रखता था भूतल–पानी को। |
− | देखो चमचम वह निकल | + | राणा प्रताप सिर काट–काट |
− | क्षण इधर गई¸ क्षण उधर गई¸ | + | करता था सफल जवानी को॥20॥ |
− | क्षण चढ़ी बाढ़–सी उतर गई। | + | |
− | था प्रलय¸ चमकती जिधर गई¸ | + | कलकल बहती थी रण–गंगा |
− | क्षण शोर हो गया किधर | + | अरि–दल को डूब नहाने को। |
− | क्या अजब विषैली नागिन थी¸ | + | तलवार वीर की नाव बनी |
− | जिसके डसने में लहर नहीं। | + | चटपट उस पार लगाने को॥21॥ |
− | उतरी तन से मिट गये वीर¸ | + | |
− | फैला शरीर में जहर | + | वैरी–दल को ललकार गिरी¸ |
− | थी छुरी कहीं¸ तलवार कहीं¸ | + | वह नागिन–सी फुफकार गिरी। |
− | वह बरछी–असि खरधार कहीं। | + | था शोर मौत से बचो¸बचो¸ |
− | वह आग कहीं अंगार कहीं¸ | + | तलवार गिरी¸ तलवार गिरी॥22॥ |
− | बिजली थी कहीं कटार | + | |
− | लहराती थी सिर काट–काट¸ | + | पैदल से हय–दल गज–दल में |
− | बल खाती थी भू पाट–पाट। | + | छिप–छप करती वह विकल गई! |
− | बिखराती अवयव बाट–बाट | + | क्षण कहाँ गई कुछ¸ पता न फिर¸ |
− | तनती थी लोहू | + | देखो चमचम वह निकल गई॥23॥ |
− | सेना–नायक राणा के भी | + | |
− | रण देख–देखकर चाह भरे। | + | क्षण इधर गई¸ क्षण उधर गई¸ |
− | मेवाड़–सिपाही लड़ते थे | + | क्षण चढ़ी बाढ़–सी उतर गई। |
− | दूने–तिगुने उत्साह | + | था प्रलय¸ चमकती जिधर गई¸ |
− | क्षण मार दिया कर कोड़े से | + | क्षण शोर हो गया किधर गई॥24॥ |
− | रण किया उतर कर घोड़े से। | + | |
− | राणा रण–कौशल दिखा दिया | + | क्या अजब विषैली नागिन थी¸ |
− | चढ़ गया उतर कर घोड़े | + | जिसके डसने में लहर नहीं। |
− | क्षण भीषण हलचल मचा–मचा | + | उतरी तन से मिट गये वीर¸ |
− | राणा–कर की तलवार बढ़ी। | + | फैला शरीर में जहर नहीं॥25॥ |
− | था शोर रक्त पीने को यह | + | |
− | रण–चण्डी जीभ पसार | + | थी छुरी कहीं¸ तलवार कहीं¸ |
− | वह हाथी–दल पर टूट पड़ा¸ | + | वह बरछी–असि खरधार कहीं। |
− | मानो उस पर पवि छूट पड़ा। | + | वह आग कहीं अंगार कहीं¸ |
− | कट गई वेग से भू¸ ऐसा | + | बिजली थी कहीं कटार कहीं॥26॥ |
− | शोणित का नाला फूट | + | |
− | जो साहस कर बढ़ता उसको | + | लहराती थी सिर काट–काट¸ |
− | केवल कटाक्ष से टोक दिया। | + | बल खाती थी भू पाट–पाट। |
− | जो वीर बना नभ–बीच फेंक¸ | + | बिखराती अवयव बाट–बाट |
− | बरछे पर उसको रोक | + | तनती थी लोहू चाट–चाट॥27॥ |
− | क्षण उछल गया अरि घोड़े पर¸ | + | |
− | क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर। | + | सेना–नायक राणा के भी |
− | वैरी–दल से लड़ते–लड़ते | + | रण देख–देखकर चाह भरे। |
− | क्षण खड़ा हो गया घोड़े | + | मेवाड़–सिपाही लड़ते थे |
− | क्षण भर में गिरते रूण्डों से | + | दूने–तिगुने उत्साह भरे॥28॥ |
− | मदमस्त गजों के झुण्डों से¸ | + | |
− | घोड़ों से विकल वितुण्डों से¸ | + | क्षण मार दिया कर कोड़े से |
− | पट गई भूमि नर–मुण्डों | + | रण किया उतर कर घोड़े से। |
− | ऐसा रण राणा करता था | + | राणा रण–कौशल दिखा दिया |
− | पर उसको था संतोष नहीं | + | चढ़ गया उतर कर घोड़े से॥29॥ |
− | क्षण–क्षण आगे बढ़ता था वह | + | |
− | पर कम होता था रोष | + | क्षण भीषण हलचल मचा–मचा |
− | कहता था लड़ता मान | + | राणा–कर की तलवार बढ़ी। |
− | मैं कर | + | था शोर रक्त पीने को यह |
− | जिस पर तय विजय हमारी है | + | रण–चण्डी जीभ पसार बढ़ी॥30॥ |
− | वह मुगलों का अभिमान | + | |
− | भाला कहता था मान | + | वह हाथी–दल पर टूट पड़ा¸ |
− | घोड़ा कहता था मान | + | मानो उस पर पवि छूट पड़ा। |
− | राणा की लोहित | + | कट गई वेग से भू¸ ऐसा |
− | रव निकल रहा था मान | + | शोणित का नाला फूट पड़ा॥31॥ |
− | लड़ता अकबर सुल्तान | + | |
− | वह कुल–कलंक है मान | + | जो साहस कर बढ़ता उसको |
− | राणा कहता था बार–बार | + | केवल कटाक्ष से टोक दिया। |
− | मैं | + | जो वीर बना नभ–बीच फेंक¸ |
− | तब तक प्रताप ने देख लिया | + | बरछे पर उसको रोक दिया॥32॥ |
− | लड़ रहा मान था हाथी पर। | + | |
− | अकबर का चंचल साभिमान | + | क्षण उछल गया अरि घोड़े पर¸ |
− | उड़ता निशान था हाथी | + | क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर। |
− | वह विजय–मन्त्र था पढ़ा रहा¸ | + | वैरी–दल से लड़ते–लड़ते |
− | अपने दल को था बढ़ा रहा। | + | क्षण खड़ा हो गया घोड़े पर॥33॥ |
− | वह भीषण समर–भवानी को | + | |
− | पग–पग पर बलि था चढ़ा | + | क्षण भर में गिरते रूण्डों से |
− | फिर रक्त देह का उबल उठा | + | मदमस्त गजों के झुण्डों से¸ |
− | जल उठा क्रोध की ज्वाला से। | + | घोड़ों से विकल वितुण्डों से¸ |
− | घोड़ा से कहा बढ़ो आगे¸ | + | पट गई भूमि नर–मुण्डों से॥34॥ |
− | बढ़ चलो कहा निज भाला | + | |
− | हय–नस नस में बिजली दौड़ी¸ | + | ऐसा रण राणा करता था |
− | राणा का घोड़ा लहर उठा। | + | पर उसको था संतोष नहीं |
− | शत–शत बिजली की आग लिये | + | क्षण–क्षण आगे बढ़ता था वह |
− | वह प्रलय–मेघ–सा घहर | + | पर कम होता था रोष नहीं॥35॥ |
− | क्षय अमिट रोग¸ वह राजरोग¸ | + | |
− | ज्वर | + | कहता था लड़ता मान कहाँ |
− | था शोर बचो घोड़ा–रण से | + | मैं कर लूँ रक्त–स्नान कहाँ। |
− | कहता हय कौन¸ हवा था | + | जिस पर तय विजय हमारी है |
− | तनकर भाला भी बोल उठा | + | वह मुगलों का अभिमान कहाँ॥36॥ |
− | राणा मुझको विश्राम न दे। | + | |
− | बैरी का मुझसे हृदय गोभ | + | भाला कहता था मान कहाँ¸ |
− | तू मुझे तनिक आराम न | + | घोड़ा कहता था मान कहाँ? |
− | खाकर अरि–मस्तक जीने दे¸ | + | राणा की लोहित आँखों से |
− | बैरी–उर–माला सीने दे। | + | रव निकल रहा था मान कहाँ॥37॥ |
− | मुझको शोणित की प्यास लगी | + | |
− | बढ़ने दे¸ शोणित पीने | + | लड़ता अकबर सुल्तान कहाँ¸ |
− | मुरदों का ढेर लगा | + | वह कुल–कलंक है मान कहाँ? |
− | अरि–सिंहासन थहरा | + | राणा कहता था बार–बार |
− | राणा मुझको आज्ञा दे दे | + | मैं करूँ शत्रु–बलिदान कहाँ?॥38॥ |
− | शोणित सागर लहरा | + | |
− | रंचक राणा ने देर न की¸ | + | तब तक प्रताप ने देख लिया |
− | घोड़ा बढ़ आया हाथी पर। | + | लड़ रहा मान था हाथी पर। |
− | वैरी–दल का सिर काट–काट | + | अकबर का चंचल साभिमान |
− | राणा चढ़ आया हाथी | + | उड़ता निशान था हाथी पर॥39॥ |
− | गिरि की चोटी पर चढ़कर | + | |
− | किरणों निहारती लाशें¸ | + | वह विजय–मन्त्र था पढ़ा रहा¸ |
− | जिनमें कुछ तो मुरदे थे¸ | + | अपने दल को था बढ़ा रहा। |
− | कुछ की चलती थी | + | वह भीषण समर–भवानी को |
− | वे देख–देख कर उनको | + | पग–पग पर बलि था चढ़ा रहा॥40। |
− | मुरझाती जाती पल–पल। | + | फिर रक्त देह का उबल उठा |
− | होता था स्वर्णिम नभ पर | + | जल उठा क्रोध की ज्वाला से। |
− | पक्षी–क्रन्दन का | + | घोड़ा से कहा बढ़ो आगे¸ |
− | मुख छिपा लिया सूरज ने | + | बढ़ चलो कहा निज भाला से॥41॥ |
− | जब रोक न सका रूलाई। | + | |
− | सावन की अन्धी रजनी | + | हय–नस नस में बिजली दौड़ी¸ |
− | वारिद–मिस रोती | + | राणा का घोड़ा लहर उठा। |
+ | शत–शत बिजली की आग लिये | ||
+ | वह प्रलय–मेघ–सा घहर उठा॥42॥ | ||
+ | |||
+ | क्षय अमिट रोग¸ वह राजरोग¸ | ||
+ | ज्वर सन्निपात लकवा था वह। | ||
+ | था शोर बचो घोड़ा–रण से | ||
+ | कहता हय कौन¸ हवा था वह॥43॥ | ||
+ | |||
+ | तनकर भाला भी बोल उठा | ||
+ | राणा मुझको विश्राम न दे। | ||
+ | बैरी का मुझसे हृदय गोभ | ||
+ | तू मुझे तनिक आराम न दे॥44॥ | ||
+ | |||
+ | खाकर अरि–मस्तक जीने दे¸ | ||
+ | बैरी–उर–माला सीने दे। | ||
+ | मुझको शोणित की प्यास लगी | ||
+ | बढ़ने दे¸ शोणित पीने दे॥45॥ | ||
+ | |||
+ | मुरदों का ढेर लगा दूँ मैं¸ | ||
+ | अरि–सिंहासन थहरा दूँ मैं। | ||
+ | राणा मुझको आज्ञा दे दे | ||
+ | शोणित सागर लहरा दूँ मैं॥46॥ | ||
+ | |||
+ | रंचक राणा ने देर न की¸ | ||
+ | घोड़ा बढ़ आया हाथी पर। | ||
+ | वैरी–दल का सिर काट–काट | ||
+ | राणा चढ़ आया हाथी पर॥47॥ | ||
+ | |||
+ | गिरि की चोटी पर चढ़कर | ||
+ | किरणों निहारती लाशें¸ | ||
+ | जिनमें कुछ तो मुरदे थे¸ | ||
+ | कुछ की चलती थी सांसें॥48॥ | ||
+ | |||
+ | वे देख–देख कर उनको | ||
+ | मुरझाती जाती पल–पल। | ||
+ | होता था स्वर्णिम नभ पर | ||
+ | पक्षी–क्रन्दन का कल–कल॥49॥ | ||
+ | |||
+ | मुख छिपा लिया सूरज ने | ||
+ | जब रोक न सका रूलाई। | ||
+ | सावन की अन्धी रजनी | ||
+ | वारिद–मिस रोती आई॥50॥ | ||
+ | </poem> |
10:43, 12 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
द्वादश सर्ग: सगनिबर
निर्बल बकरों से बाघ लड़े¸
भिड़ गये सिंह मृग–छौनों से।
घोड़े गिर पड़े गिरे हाथी¸
पैदल बिछ गये बिछौनों से॥1॥
हाथी से हाथी जूझ पड़े¸
भिड़ गये सवार सवारों से।
घोड़ों पर घोड़े टूट पड़े¸
तलवार लड़ी तलवारों से॥2॥
हय–रूण्ड गिरे¸ गज–मुण्ड गिरे¸
कट–कट अवनी पर शुण्ड गिरे।
लड़ते–लड़ते अरि झुण्ड गिरे¸
भू पर हय विकल बितुण्ड गिरे॥3॥
क्षण महाप्रलय की बिजली सी¸
तलवार हाथ की तड़प–तड़प।
हय–गज–रथ–पैदल भगा भगा¸
लेती थी बैरी वीर हड़प॥4॥
क्षण पेट फट गया घोड़े का¸
हो गया पतन कर कोड़े का।
भू पर सातंक सवार गिरा¸
क्षण पता न था हय–जोड़े का॥5॥
चिंग्घाड़ भगा भय से हाथी¸
लेकर अंकुश पिलवान गिरा।
झटका लग गया¸ फटी झालर¸
हौदा गिर गया¸ निशान गिरा॥6॥
कोई नत–मुख बेजान गिरा¸
करवट कोई उत्तान गिरा।
रण–बीच अमित भीषणता से¸
लड़ते–लड़ते बलवान गिरा॥7॥
होती थी भीषण मार–काट¸
अतिशय रण से छाया था भय।
था हार–जीत का पता नहीं¸
क्षण इधर विजय क्षण उधर विजय॥8॥
कोई व्याकुल भर आह रहा¸
कोई था विकल कराह रहा।
लोहू से लथपथ लोथों पर¸
कोई चिल्ला अल्लाह रहा॥9॥
धड़ कहीं पड़ा¸ सिर कहीं पड़ा¸
कुछ भी उनकी पहचान नहीं।
शोणित का ऐसा वेग बढ़ा¸
मुरदे बह गये निशान नहीं॥10॥
मेवाड़–केसरी देख रहा¸
केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड़–दौड़ करता था रण¸
वह मान–रक्त का प्यासा था॥11॥
चढ़कर चेतक पर घूम–घूम
करता मेना–रखवाली था।
ले महा मृत्यु को साथ–साथ¸
मानो प्रत्यक्ष कपाली था॥12॥
रण–बीच चौकड़ी भर–भरकर
चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से¸
पड़ गया हवा को पाला था॥13॥
गिरता न कभी चेतक–तन पर¸
राणा प्रताप का कोड़ा था।
वह दोड़ रहा अरि–मस्तक पर¸
या आसमान पर घोड़ा था॥14॥
जो तनिक हवा से बाग हिली¸
लेकर सवार उड़ जाता था।
राणा की पुतली फिरी नहीं¸
तब तक चेतक मुड़ जाता था॥15॥
कौशल दिखलाया चालों में¸
उड़ गया भयानक भालों में।
निभीर्क गया वह ढालों में¸
सरपट दौड़ा करवालों में॥16॥
है यहीं रहा¸ अब यहाँ नहीं¸
वह वहीं रहा है वहाँ नहीं।
थी जगह न कोई जहाँ नहीं¸
किस अरि–मस्तक पर कहाँ नहीं॥17।
बढ़ते नद–सा वह लहर गया¸
वह गया गया फिर ठहर गया।
विकराल ब्रज–मय बादल–सा
अरि की सेना पर घहर गया॥18॥
भाला गिर गया¸ गिरा निषंग¸
हय–टापों से खन गया अंग।
वैरी–समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग॥19॥
चढ़ चेतक पर तलवार उठा
रखता था भूतल–पानी को।
राणा प्रताप सिर काट–काट
करता था सफल जवानी को॥20॥
कलकल बहती थी रण–गंगा
अरि–दल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी
चटपट उस पार लगाने को॥21॥
वैरी–दल को ललकार गिरी¸
वह नागिन–सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो¸बचो¸
तलवार गिरी¸ तलवार गिरी॥22॥
पैदल से हय–दल गज–दल में
छिप–छप करती वह विकल गई!
क्षण कहाँ गई कुछ¸ पता न फिर¸
देखो चमचम वह निकल गई॥23॥
क्षण इधर गई¸ क्षण उधर गई¸
क्षण चढ़ी बाढ़–सी उतर गई।
था प्रलय¸ चमकती जिधर गई¸
क्षण शोर हो गया किधर गई॥24॥
क्या अजब विषैली नागिन थी¸
जिसके डसने में लहर नहीं।
उतरी तन से मिट गये वीर¸
फैला शरीर में जहर नहीं॥25॥
थी छुरी कहीं¸ तलवार कहीं¸
वह बरछी–असि खरधार कहीं।
वह आग कहीं अंगार कहीं¸
बिजली थी कहीं कटार कहीं॥26॥
लहराती थी सिर काट–काट¸
बल खाती थी भू पाट–पाट।
बिखराती अवयव बाट–बाट
तनती थी लोहू चाट–चाट॥27॥
सेना–नायक राणा के भी
रण देख–देखकर चाह भरे।
मेवाड़–सिपाही लड़ते थे
दूने–तिगुने उत्साह भरे॥28॥
क्षण मार दिया कर कोड़े से
रण किया उतर कर घोड़े से।
राणा रण–कौशल दिखा दिया
चढ़ गया उतर कर घोड़े से॥29॥
क्षण भीषण हलचल मचा–मचा
राणा–कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह
रण–चण्डी जीभ पसार बढ़ी॥30॥
वह हाथी–दल पर टूट पड़ा¸
मानो उस पर पवि छूट पड़ा।
कट गई वेग से भू¸ ऐसा
शोणित का नाला फूट पड़ा॥31॥
जो साहस कर बढ़ता उसको
केवल कटाक्ष से टोक दिया।
जो वीर बना नभ–बीच फेंक¸
बरछे पर उसको रोक दिया॥32॥
क्षण उछल गया अरि घोड़े पर¸
क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर।
वैरी–दल से लड़ते–लड़ते
क्षण खड़ा हो गया घोड़े पर॥33॥
क्षण भर में गिरते रूण्डों से
मदमस्त गजों के झुण्डों से¸
घोड़ों से विकल वितुण्डों से¸
पट गई भूमि नर–मुण्डों से॥34॥
ऐसा रण राणा करता था
पर उसको था संतोष नहीं
क्षण–क्षण आगे बढ़ता था वह
पर कम होता था रोष नहीं॥35॥
कहता था लड़ता मान कहाँ
मैं कर लूँ रक्त–स्नान कहाँ।
जिस पर तय विजय हमारी है
वह मुगलों का अभिमान कहाँ॥36॥
भाला कहता था मान कहाँ¸
घोड़ा कहता था मान कहाँ?
राणा की लोहित आँखों से
रव निकल रहा था मान कहाँ॥37॥
लड़ता अकबर सुल्तान कहाँ¸
वह कुल–कलंक है मान कहाँ?
राणा कहता था बार–बार
मैं करूँ शत्रु–बलिदान कहाँ?॥38॥
तब तक प्रताप ने देख लिया
लड़ रहा मान था हाथी पर।
अकबर का चंचल साभिमान
उड़ता निशान था हाथी पर॥39॥
वह विजय–मन्त्र था पढ़ा रहा¸
अपने दल को था बढ़ा रहा।
वह भीषण समर–भवानी को
पग–पग पर बलि था चढ़ा रहा॥40।
फिर रक्त देह का उबल उठा
जल उठा क्रोध की ज्वाला से।
घोड़ा से कहा बढ़ो आगे¸
बढ़ चलो कहा निज भाला से॥41॥
हय–नस नस में बिजली दौड़ी¸
राणा का घोड़ा लहर उठा।
शत–शत बिजली की आग लिये
वह प्रलय–मेघ–सा घहर उठा॥42॥
क्षय अमिट रोग¸ वह राजरोग¸
ज्वर सन्निपात लकवा था वह।
था शोर बचो घोड़ा–रण से
कहता हय कौन¸ हवा था वह॥43॥
तनकर भाला भी बोल उठा
राणा मुझको विश्राम न दे।
बैरी का मुझसे हृदय गोभ
तू मुझे तनिक आराम न दे॥44॥
खाकर अरि–मस्तक जीने दे¸
बैरी–उर–माला सीने दे।
मुझको शोणित की प्यास लगी
बढ़ने दे¸ शोणित पीने दे॥45॥
मुरदों का ढेर लगा दूँ मैं¸
अरि–सिंहासन थहरा दूँ मैं।
राणा मुझको आज्ञा दे दे
शोणित सागर लहरा दूँ मैं॥46॥
रंचक राणा ने देर न की¸
घोड़ा बढ़ आया हाथी पर।
वैरी–दल का सिर काट–काट
राणा चढ़ आया हाथी पर॥47॥
गिरि की चोटी पर चढ़कर
किरणों निहारती लाशें¸
जिनमें कुछ तो मुरदे थे¸
कुछ की चलती थी सांसें॥48॥
वे देख–देख कर उनको
मुरझाती जाती पल–पल।
होता था स्वर्णिम नभ पर
पक्षी–क्रन्दन का कल–कल॥49॥
मुख छिपा लिया सूरज ने
जब रोक न सका रूलाई।
सावन की अन्धी रजनी
वारिद–मिस रोती आई॥50॥