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"तुम कभी थे सूर्य / चंद्रसेन विराट" के अवतरणों में अंतर
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+ | वक्त का पहिया किसे कुचले कहाँ कब क्या पता। | ||
+ | थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये॥ | ||
− | + | देख ली सत्ता किसी वारांगना से कम नहीं। | |
+ | जो कि अध्यादेश थे खुद अर्जियों तक आ गये॥ | ||
− | तुम | + | देश के संदर्भ में तुम बोल लेते खूब हो। |
+ | बात ध्वज की थी चलाई कुर्सियों तक आ गये॥ | ||
+ | प्रेम के आख्यान में तुम आत्मा से थे चले। | ||
+ | घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये॥ | ||
− | + | कुछ बिके आलोचकों की मानकर ही गीत को। | |
+ | तुम ॠचाएं मानते थे गालियों तक आ गये॥ | ||
− | देवताओं से | + | सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा। |
+ | देवताओं से शुरू की वहशियों तक आ गये॥ | ||
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03:27, 17 सितम्बर 2016 के समय का अवतरण
तुम कभी थे सूर्य लेकिन अब दियों तक आ गये।
थे कभी मुख्पृष्ठ पर अब हाशियों तक आ गये॥
यवनिका बदली कि सारा दृष्य बदला मंच का।
थे कभी दुल्हा स्वयं बारातियों तक आ गये॥
वक्त का पहिया किसे कुचले कहाँ कब क्या पता।
थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये॥
देख ली सत्ता किसी वारांगना से कम नहीं।
जो कि अध्यादेश थे खुद अर्जियों तक आ गये॥
देश के संदर्भ में तुम बोल लेते खूब हो।
बात ध्वज की थी चलाई कुर्सियों तक आ गये॥
प्रेम के आख्यान में तुम आत्मा से थे चले।
घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये॥
कुछ बिके आलोचकों की मानकर ही गीत को।
तुम ॠचाएं मानते थे गालियों तक आ गये॥
सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा।
देवताओं से शुरू की वहशियों तक आ गये॥