भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पलकों के शामियाने में ख़्वाब पल रहे थे / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 15: पंक्ति 15:
 
लेकिन जो थे अभागे वो हाथ मल रहे थे।
 
लेकिन जो थे अभागे वो हाथ मल रहे थे।
  
नाकामयाबियों का इल्जाम किस पे देता
+
नाकामयाबियों का इल्जाम किसको देता
 
मेरे ही कारनामे जब मुझको छल रहे थे।
 
मेरे ही कारनामे जब मुझको छल रहे थे।
  

22:26, 3 जनवरी 2017 के समय का अवतरण

पलकों के शामियाने में ख़्वाब पल रहे थे
घनघोर था अँधेरा जुगुनू मचल रहे थे।

कोमल चरन बताकर सब झूठ बोलते थे
वो पाँव रख रहे थे तो दिल दहल रहे थे।

दरबार से सब उसके होकर निहाल लौटे
लेकिन जो थे अभागे वो हाथ मल रहे थे।

नाकामयाबियों का इल्जाम किसको देता
मेरे ही कारनामे जब मुझको छल रहे थे।

इक संत की तरह वो जीवन बिता रहा था
अफ़़सोस जलने वाले उससे भी जल रहे थे।

दीवार थी कुछ ऊँची, था लक्ष्य उससे ऊँचा
चींटों को मैंने देखा गिर-गिर सँभल रहे थे।