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हैं फूल बन कर बिछ सको यदि तुम नहींऔर काँटे मुझको दोनों समानतुम फूल बनो या शूल बन कर भी न फैलो राह मेंचल रहा चलने मुझे दो।परवाह नहीं।
आफतें यों ही हजारों रात-दिनमैंने रवि बन कर शुरू किया जबसे चलनासीस चल रहा तभी से मैं अपने पथ पर गिरतीं हमारे टूट करअब तक;दुनिया की ओर बढ़ाए मैंने हाथ, किन्तु मैं उनको निरन्तर झेलतागीत गा-गाकर स्वरों भर सका न कोई मुझे अंक में भूल कर।आज तलक।
मैं नहीं बाहर गया मन जलती पगडंडी पर ये प्राण अकेले हीअपना तन जला-जलाकर चलते जाते हैं;नभ की व्यथाविश्व जलती छाया में कहने किसी से आज तकहँस-हँस कर दिन भरऔ’ न जाऊँगा कभी, मैं जानता,कौन सुनता है किसी की बात तक।अन्तर का मृदु संगीत सुनाते जाते हैं।
टाल देता है हँसी में अश्रु कीधूप और छाया मुझको दोनों समानबात औरों की सदा संसार यहमैं इसी से मुसकराकर ही स्वयं,पोंछ लेता आँसुओं की धार यह।तुम धूप बनो या छाँह मुझे परवाह नहीं॥1॥
मौन होकर बैठ कर एकान्त में,मैं कई बार ठोकर खा-खाकर गिरा यहाँछेड़ वीणा के सुरीले तार कोयत्न करता भूलने पर हर ठोकर इस जीवन का मैं सदाउत्थान बनी;विश्व के विष से भरे व्यवहार को।चढ़ते-चढ़ते फिसला कितनी ही बार किन्तुसिर्फ इतना चाहता हूँहर फिसलन में मेरी मंजिल आसान बनी।
तार बन झनकार दो यदि तुम नहींमेरे मन का माँझी अपनी जीवन-नौकास्वर विषम बन भी न आओ राग तूफानों मेंही खेने का अभ्यासी है;गा रहा गाने मुझे दो॥1॥तट खींच लायगी तूफानों के बीच स्वयंधारा जीवन की, इसका वह विश्वासी है।
चाहता हूँ मैं कभी भी यह नहीं,स्वर्ग का ऐश्वर्य मेरे पास होइसलिये मुझे तूफान और यह भी कामना मेरी नहींतट हैं समानस्वर्ग का शृंगार मेरा दास हो।तट या कि बनो तूफान मुझे परवाह नहीं॥2॥
चेतना का जागरण जब से हुआजो कुछ दुनियाँ के साथ किया मैंने अब तकबात तब से है यही उर में जमीउसके बदले कुछ मिले मुझे यह चाह नहीं,देवता आता नहीं मैंने केवल अपना कर्तव्य निभाया है स्वर्ग सेदेवता बनता धरा का आदमी।दुनियाँ भूले या याद करे परवाह नहीं।
किन्तु बनना आदमी जितना कठिन,मैं नहीं अमरता का पद पाने को उत्सुकदेवता बनना कहीं उससे सरलकेवल मानव बनने की मुझ में अभिलाषा;धारणा मेरी अरे निश्चित यहीविष से डरता देवत्व, अमृत को लालायितआदमी बनना कठिन पहले पहल।मैं शंकर बन फैले विष पीने का प्यासा।
मानता हूँ जन्म को विष औ’ मृत्यु कोअमृत दोनों ही मुझको हैं समानजिन्दगी की धार के दो कूल मैंबह रहा हूँ खोजने नर-रत्न कोइस धरा के सिन्धु-तट की धूल में।सिर्फ इतना चहता हूँतुम अमृत या विष बनो मुझे परवाह नहीं॥3॥
धार बन कर आ सको यदि तुम नहींउस ऊषा का शृंगार किया जिन फूलों नेबांध बन कर भी न आओ बीच मेंउनको निश्चय ही रे मुरझा जाना होगा;बह रहा बहने मुझे दो॥2॥उस संध्या का शृंगार किया जिन दीपों नेउनको कल निश्चय ही रे बुझ जाना होगा।
प्रात होते ही शुरू चलना कियाजो बसा प्राण का पंछी तन-तरु कोटर मेंचल रहा तब से धरा की राह तन-मरु गिरने परप्रात से रवि बन शुरू चढ़ना कियाचढ़ रहा तब से गगन की राह पर और जीवन की दुपहरी भी हुईपर नहीं उसको उड़ जाना तनिक विश्राम भीहोगा;शून्य में जलता अकेला ही रहा,किन्तु कहने मिट्टी का लिया कब नाम भी! प्यार से अंगार-पथ अपना लियाफिर अरे शृंगार का संसार क्या?विश्व में आधार कुछ पाया नहींमैं स्वयं आधार अपना पा गया। एक यह निज शक्ति औ’ विश्वास लेजिन्दगी तन जिस पर जग की साँझ में मैं ढल रहाइतनी ममतादिवस उसको निश्चित मिट्टी में रवि बन, निशा में दीप बन,मैं गहन तम की शिला पर जल रहा।सिर्फ इतना चाहता हूँ स्नेह बन उर भर सको यदि तुम नहींवायु बन कर भी बहो मत रात मेंजल रहा जलने मुझे दो॥3॥मिल जाना होगा।
इसलिये धूल-शृंगार मुझे दोनों समान
तुम धूल या कि शृंगार बनो परवाह नहीं॥4॥
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