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"बाल काण्ड / भाग ३ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर

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जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
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गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥
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पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
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बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥
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बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
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हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥
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दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥
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अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥
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छं0-दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
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का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥
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सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।
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पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥
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दो0-नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
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छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥101॥
  
<br>चौ०-जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
+
बहु बिधि संभु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥
<br>गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥१॥
+
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥
<br>पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
+
करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
<br>बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥२॥   
+
बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥
<br>बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
+
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥
<br>हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥ ३॥   
+
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥
<br>दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥
+
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेम कछु जाइ न बरना॥
<br>अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥४॥
+
सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥
<br>छं०-दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
+
छं0-जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
<br>का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥
+
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गई॥
<br>सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।
+
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
<br>पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥
+
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥
<br>दो०-नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
+
दो0-चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।
<br>छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥१०१॥
+
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥102॥
<br>
+
 
<br>चौ-बहु बिधि संभु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥
+
तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥
<br>जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥१॥
+
आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥
<br>करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
+
जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
<br>बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥२॥   
+
जगत मातु पितु संभु भवानी। तेही सिंगारु न कहउँ बखानी॥
<br>कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥
+
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
<br>भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥ ३॥
+
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥
<br>पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥
+
तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुर समर जेहिं मारा॥
<br>सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥४॥
+
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥
<br>छं०-जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
+
छं0-जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
<br>फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥
+
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥
<br>जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
+
यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
<br>सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥
+
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥
<br>दो०-चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।
+
दो0-चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।
<br>बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥१०२॥
+
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥103॥
<br>
+
 
<br>चौ०-तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥
+
संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुख पावा॥
<br>आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥१॥
+
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥
<br>जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
+
प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥
<br>जगत मातु पितु संभु भवानी। तेही सिंगारु न कहउँ बखानी॥२॥   
+
अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥
<br>करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
+
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥
<br>हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥३॥
+
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥
<br>तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुर समर जेहिं मारा॥
+
सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
<br>आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥४॥
+
पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥
<br>छं०-जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
+
दो0-प्रथमहिं मै कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
<br>तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥
+
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥104॥
<br>यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
+
 
<br>कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥
+
मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥
<br>दो०-चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।
+
सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥
<br>बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥१०३॥
+
राम चरित अति अमित मुनिसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥
<br>–*–*–
+
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥
<br>
+
सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥
<br>संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुख पावा॥
+
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
<br>बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥१॥
+
प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥
<br>प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥
+
परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥
<br>अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥२॥   
+
दो0-सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद।
<br>सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥
+
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद॥105॥
<br>बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥३॥
+
 
<br>सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
+
हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥
<br>पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥४॥
+
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥
<br>दो०-प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
+
त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥
<br>सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥१०४॥
+
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥
<br>
+
निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठै सहजहिं संभु कृपाला॥
<br>चौ०-मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥
+
कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥
<br>सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥१॥
+
तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥
<br>राम चरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥
+
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥
<br>तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥२॥   
+
दो0-जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
<br>सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥
+
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥106॥
<br>जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥३॥
+
 
<br>प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥
+
बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥
<br>परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥४॥
+
पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु भवानी॥
<br>दो०-सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद।
+
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
<br>बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद॥१०५॥
+
बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥
<br>–*–*–
+
पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
<br>हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥
+
कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी॥
<br>तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥१॥
+
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
<br>त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥
+
चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥
<br>एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥२॥             
+
दो0-प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम॥
         
+
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥107॥
<br>निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठै सहजहिं संभु कृपाला॥
+
 
<br>कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥३॥
+
जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥
<br>तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भ गत हृदय तम हरना॥
+
तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥
<br>भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥४॥
+
जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥
<br>दो०-जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
+
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥
<br>नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥१०६॥
+
प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
<br>
+
सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥
<br>बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥
+
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥
<br>पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु भवानी॥१॥
+
रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥
<br>जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
+
दो0-जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
<br>बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥२॥   
+
देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥108॥
<br>पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
+
 
<br>कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी॥३॥
+
जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
<br>बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
+
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥
<br>चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥४॥
+
मै बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥
<br>दो०-प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम॥
+
तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥
<br>जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥१०७॥
+
अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥
<br>
+
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥
<br>चौ०-जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥
+
तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥
<br>तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥१॥
+
कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥
<br>जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥
+
दो0-बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
<br>ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥२॥   
+
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥109॥
<br>प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
+
 
<br>सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥३॥
+
जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
<br>तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥
+
गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥
<br>रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥४॥
+
अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
<br>दो०-जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
+
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥
<br>देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥१०८॥
+
पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
<br>
+
कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥
<br>चौ०-जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
+
बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥
<br>अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥१॥
+
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखलीला॥
<br>मैं बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥
+
दो0-बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
<br>तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥ २॥   
+
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥110॥
<br>अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥
+
 
<br>प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥३॥
+
पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥
<br>तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥
+
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥
<br>कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥४॥
+
औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥
<br>दो०-बंदउँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
+
जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥
<br>बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥१०९॥
+
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥
<br>
+
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥
<br>चौ०-जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
+
हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥
<br>गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥१॥
+
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥
<br>अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
+
दो0-मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
<br>प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥२॥   
+
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥111॥
<br>पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
+
 
<br>कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥३॥
+
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
<br>बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥
+
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥
<br>राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखसीला॥४॥
+
बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
<br>दो०-बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
+
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥
<br>प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥११०॥
+
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
<br>
+
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥
<br>चौ०-पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥
+
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
<br>भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥१॥
+
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी॥
<br>औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥
+
दो0-रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
<br>जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥२॥   
+
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥112॥
<br>तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥
+
 
<br>प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥३॥
+
तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
<br>हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥
+
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥
<br>श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥४॥
+
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
<br>दो०-मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
+
ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥
<br>रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥१११॥
+
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
<br>
+
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥
<br>चौ०-झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
+
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
<br>जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥१॥
+
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥
<br>बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
+
दो0-रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
<br>मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥२॥   
+
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥113॥
<br>करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
+
 
<br>धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥३॥
+
रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥
<br>पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
+
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥
<br>तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी॥४॥
+
राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
<br>दो०-रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
+
जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥
<br>सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥११२॥
+
तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥
<br>
+
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥
<br>चौ०-तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
+
एक बात नहि मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
<br>जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥१॥
+
तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥
<br>नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
+
दो0-कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
<br>ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥२॥   
+
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥114॥
<br>जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
+
 
<br>जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥३॥
+
अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी॥
<br>कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
+
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥
<br>गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥४॥
+
कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
<br>दो०-रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
+
मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥
<br>सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥११३॥
+
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
<br>
+
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥
<br>चौ०-रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥
+
बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
<br>रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥१॥
+
जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन् कर कहा करिअ नहिं काना॥
<br>राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
+
सो0-अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
<br>जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥२॥   
+
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥115॥
<br>तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥
+
 
<br>उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥३॥
+
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
<br>एक बात नहिं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
+
अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥
<br>तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥४॥
+
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
<br>दो०-कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
+
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥
<br>पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥११४॥
+
राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
<br>
+
सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥
<br>चौ०-अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी॥
+
हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
<br>लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥१॥
+
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना॥
<br>कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
+
दो0-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ॥
<br>मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥२॥   
+
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥116॥
<br>जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
+
 
<br>हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥३॥
+
निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥
<br>बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
+
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी॥
<br>जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना॥४॥
+
चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥
<br>सो०-अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
+
उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥
<br>सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥११५॥
+
बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
<br>
+
सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥
<br>चौ०-सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
+
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
<br>अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥१॥
+
जासु सत्यता तें जड माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥
<br>जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
+
दो0-रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि।
<br>जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥२॥  २॥   
+
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥117॥
<br>राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
+
 
<br>सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥३॥
+
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
<br>हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
+
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥
<br>राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना॥४॥
+
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥
<br>दो०-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ॥
+
आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥
<br>रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥११६॥
+
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
<br>
+
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
<br>चौ०-निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥
+
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
<br>जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी॥१॥
+
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥
<br>चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥
+
दो0-जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान॥
<br>उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥२॥   
+
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥118॥
<br>बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
+
 
<br>सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥३॥
+
कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥
<br>जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
+
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥
<br>जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥४॥
+
बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
<br>दो०-रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि।
+
सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥
<br>जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥११७॥
+
राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥
<br>
+
अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥
<br>चौ०-एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
+
सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥
<br>जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥१॥
+
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥
<br>जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥
+
दो0-पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।
<br>आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥२॥  २॥         
+
बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥119॥
<br>बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
+
 
<br>आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥३॥
+
ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥
<br>तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
+
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ॥
<br>असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥४॥
+
नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥
<br>दो०-जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान॥
+
अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥
<br>सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥११८॥
+
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥
<br>
+
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥
<br>चौ०-कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥
+
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
<br>सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥१॥
+
उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥
<br>बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
+
दो0-हिँयँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान
<br>सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥२॥   
+
बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥120(क)॥
<br>राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥
+
सो0-सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
<br>अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥३॥
+
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड॥120(ख)॥
<br>सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥
+
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
<br>भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥४॥
+
सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ॥120(ग)॥
<br>दो०-पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।
+
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
<br>बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥११९॥
+
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥120(घ॥
<br>
+
 
<br>चौ०-ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥
+
नवान्हपारायन,पहला विश्राम
<br>तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ॥१॥
+
 
<br>नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥
+
मासपारायण, चौथा विश्राम
<br>अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥ २॥   
+
 
<br>प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥
+
सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
<br>राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥३॥
+
हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥
<br>नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
+
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥
<br>उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥४॥
+
तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥
<br>दो०-हियँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान
+
तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥
<br>बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥१२०(क)॥
+
जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥
<br>नवान्हपारायण,पहला विश्राम
+
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
<br>मासपारायण, चौथा विश्राम
+
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा॥
<br>सो०-सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
+
दो0-असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
<br>कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड़॥१२०(ख)॥
+
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥121॥
<br>सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
+
 
<br>सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ॥१२०(ग)॥
+
सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥
<br>हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
+
राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥
<br>मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥१२०(घ॥
+
जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥
<br>
+
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥
<br>चौ०-सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
+
बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
<br>हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥१॥
+
कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥
<br>राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥
+
बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥
<br>तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥२॥   
+
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥
<br>तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥
+
दो0-भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
<br>जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥३॥
+
कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान॥122॥
<br>करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
+
 
<br>तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा॥४॥
+
मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
<br>दो०-असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
+
एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥
<br>जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥१२१॥
+
कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
<br>
+
एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए संसारा॥
<br>चौ०-सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥
+
एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥
<br>राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥१॥
+
संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥
<br>जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥
+
परम सती असुराधिप नारी। तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी॥
<br>द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥२॥   
+
दो0-छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह॥
<br>बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
+
जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥123॥
<br>कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥३॥
+
 
<br>बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥
+
तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
<br>होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥४॥
+
तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥
<br>दो०-भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
+
एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा॥
<br>कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान॥१२२॥
+
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥
<br>
+
नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
<br>चौ०-मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
+
गिरिजा चकित भई सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि॥
<br>एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥१॥
+
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥
<br>कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
+
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥
<br>एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए संसारा॥२॥   
+
दो0- बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
<br>एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥
+
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥124(क)॥
<br>संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥३॥
+
सो0-कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
<br>परम सती असुराधिप नारी। तेहिं बल ताहि न जितहिं पुरारी॥४॥
+
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥124(ख)॥
<br>दो०-छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह॥
+
 
<br>जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥१२३॥
+
हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
<br>
+
आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥
<br>चौ०-तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
+
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥
<br>तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥१॥
+
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥
<br>एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा॥
+
मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह समाना॥
<br>प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥२॥   
+
सहित सहाय जाहु मम हेतू। चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥
<br>नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
+
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
<br>गिरिजा चकित भई सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि॥३॥
+
जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥
<br>कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥
+
दो0-सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
<br>यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥४॥
+
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥125॥
<br>दो०- बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
+
 
<br>जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥१२४(क)॥
+
तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
<br>सो०-कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
+
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा॥
<br>भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥१२४(ख)॥
+
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥
<br>
+
रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना॥
<br>चौ०-हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
+
करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा॥
<br>आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥१॥
+
देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥
<br>निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥
+
काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥
<br>सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥२॥   
+
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू॥
<br>मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह सनमाना॥
+
दो0- सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।
<br>सहित सहाय जाहु मम हेतू। चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥३॥
+
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥126॥
<br>सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
+
 
<br>जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥४॥
+
भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥
<br>दो०-सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
+
नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥
<br>छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥१२५॥
+
मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥
<br>
+
सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥
<br>चौ०-तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
+
तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥
<br>कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा॥१॥
+
मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥
<br>चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥
+
बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं॥
<br>रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना॥२॥   
+
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ॥
<br>करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हिं पानि पतंगा॥
+
दो0-संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
<br>देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥३॥
+
भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥127॥
<br>काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥
+
 
<br>सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू॥४॥
+
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
<br>दो०- सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।
+
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥
<br>गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥१२६॥
+
एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
<br>
+
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥
<br>चौ०-भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥
+
हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥
<br>नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥१॥
+
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥
<br>मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥
+
काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
<br>सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥२॥   
+
अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥
<br>तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥
+
दो0-रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।
<br>मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥३॥
+
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥128॥
<br>बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥
+
 
<br>तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ॥४॥
+
सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके॥
<br>दो०-संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
+
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥
<br>भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥१२७॥
+
नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
<br>
+
करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥
<br>चौ०-राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
+
बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥
<br>संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥१॥
+
मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मै सोई॥
<br>एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
+
तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥
<br>छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥२॥   
+
श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥
<br>हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥
+
दो0-बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
<br>बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥३॥
+
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥129॥
<br>काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
+
 
<br>अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥४॥
+
बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥
<br>दो०-रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।
+
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥
<br>तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥१२८॥
+
सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥
<br>
+
बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥
चौ०-<br>सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥
+
सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥
<br>ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥१॥
+
करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥
<br>नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
+
मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥
<br>करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥२॥   
+
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥
<br>बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥
+
दो0-आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।
<br>मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मैं सोई॥३॥
+
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥130॥
<br>तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥
+
 
<br>श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥४॥
+
देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥
<br>दो०-बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
+
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥
<br>श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥१२९॥
+
जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥
<br>
+
सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥
<br>चौ०-बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥
+
लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥
<br>तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥१॥
+
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥
<br>सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥
+
करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥
<br>बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥२॥   
+
जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥
<br>सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥
+
दो0-एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।
<br>करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥३॥
+
जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥131॥
<br>मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥
+
 
<br>सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥४॥
+
हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥
<br>दो०-आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।
+
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥
<br>कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥१३०॥
+
बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥
<br>
+
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥
चौ०-<br>देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥
+
अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥
<br>लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥१॥
+
आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥
<br>जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥
+
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
<br>सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥२॥
+
निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥
<br>लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥
+
दो0-जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
<br>सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥३॥
+
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥132॥
<br>करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥
+
 
<br>जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥४॥
+
कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
<br>दो०-एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।
+
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥
<br>जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥१३१॥
+
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
<br>
+
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥
<br>चौ०-हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥
+
निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥
<br>मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥१॥
+
मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि भोरें॥
<br>बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥
+
मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥
<br>प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥२॥
+
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥
<br>अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥
+
दो0-रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
<br>आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥३॥
+
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥133॥
<br>जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
+
 
<br>निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥४॥
+
जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
<br>दो०-जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
+
तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥
<br>सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥१३२॥
+
करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥
<br>
+
रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥
<br>चौ०-कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
+
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥
<br>एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥१॥
+
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥
<br>माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
+
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
<br>गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥२॥
+
मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥
<br>निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥
+
दो0-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
<br>मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बरिहि भोरें॥३॥
+
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥134॥
<br>मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥
+
 
<br>सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥४॥
+
जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि देहि न बिलोकी भूली॥
<br>
+
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥
<br>दो०-रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
+
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥
<br>बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥१३३॥
+
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥
<br>
+
मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥
<br>चौ०-जेहिं समाज बैठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
+
तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥
<br>तहँ बैठे महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥१॥
+
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥
<br>करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥
+
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥
<br>रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥२॥
+
दो0-होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
<br>मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥
+
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥135॥
<br>जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥३॥
+
 
<br>काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
+
पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥
<br>मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥४॥
+
फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदी चले कमलापति पाहीं॥
<br>दो०-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
+
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई॥
<br>देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥१३४॥
+
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥
<br>
+
बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥
<br>चौ०-जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेहि न बिलोकी भूली॥
+
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥
<br>पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥१॥
+
पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥
<br>धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥
+
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु॥
<br>दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥२॥
+
दो0-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।
<br>मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥
+
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥136॥
<br>तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥३॥
+
 
<br>अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥
+
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥
<br>बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥४॥
+
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥
<br>दो०-होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
+
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥
<br>हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥१३५॥
+
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥
<br>
+
भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥
<br>चौ०–पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥
+
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥
<br>फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं॥१॥
+
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥
<br>देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई॥
+
मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥
<br>बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥२॥
+
दो0-श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।
<br>बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥
+
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥137॥
<br>सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥३॥
+
 
<br>पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥
+
जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
<br>मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु॥४॥
+
तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥
<br>दो०-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।
+
मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥
<br>स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥१३६॥
+
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥
<br>
+
जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा॥
चौ०-परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥
+
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥
<br>भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥१॥
+
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
<br>डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥
+
अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥
<br>करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥२॥
+
दो0-बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान॥
<br>भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥
+
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥138॥
<br>बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥३॥
+
 
<br>कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥
+
हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी॥
<br>मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥४॥
+
अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥
<br>दो०-श्राप सीस धरि हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।
+
हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥
<br>निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥१३७॥
+
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥
<br>
+
निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥
<br>चौ०-जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
+
भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ।
<br>तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥१॥
+
समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥
<br>मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥
+
चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥
<br>मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥२॥
+
दो0-एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।
<br>जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा॥
+
सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥139॥
<br>कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥३॥
+
 
<br>जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
+
एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥
<br>अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥४॥
+
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥
<br>दो०-बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान॥
+
तब तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥
<br>सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥१३८॥
+
बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥
<br>
+
हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
<br>चौ०-हरगन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी॥
+
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
<br>अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥१॥
+
यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥
<br>हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥
+
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी॥सेवत सुलभ सकल दुख हारी॥
<br>श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥२॥
+
सो0-सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल॥
<br>निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥
+
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥140॥
<br>भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ।३॥
+
 
<br>समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥
+
अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥
<br>चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥४॥
+
जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥
<br>दो०-एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।
+
जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥
<br>सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥१३९॥
+
जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥
<br>
+
अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥
<br>चौ०-एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥
+
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥
<br>कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥१॥
+
भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी॥
<br>तब तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥
+
लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥
<br>बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥२॥
+
दो0-सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई॥
<br>हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
+
राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥141॥
<br>रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥३॥
+
 
<br>यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥
+
स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
<br>प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी॥सेवत सुलभ सकल दुख हारी॥४॥
+
दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥
<br>सो०-सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल॥
+
नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू॥
<br>अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥१४०॥
+
लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहि जाही॥
<br>
+
देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥
<br>चौ०-अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥
+
आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥
<br>जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥१॥
+
सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्व बिचार निपुन भगवाना॥
<br>जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥
+
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥
<br>जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥२॥
+
सो0-होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।
<br>अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥
+
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥142॥
<br>लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥३॥
+
 
<br>भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी॥
+
बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
<br>लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥४॥
+
तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥
<br>दो०-सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई॥
+
बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥
<br>राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥१४१॥
+
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥
<br>
+
पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥
<br>चौ०-स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
+
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥
<br>दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥१॥
+
जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥
<br>नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू॥
+
कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना ।
<br>लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहिं जाही॥२॥
+
दो0-द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
<br>देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥
+
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥143॥
<br>आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥३॥
+
 
<br>सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्त्व बिचार निपुन भगवाना॥
+
करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥
<br>तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥४॥
+
पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥
<br>सो०-होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।
+
उर अभिलाष निंरंतर होई। देखअ नयन परम प्रभु सोई॥
<br>हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥१४२॥
+
अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥
<br>
+
नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
<br>चौ०-बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
+
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥
<br>तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥१॥
+
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
<br>बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥
+
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजहि अभिलाषा॥
<br>पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥२॥
+
दो0-एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार।
<br>पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥
+
संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार॥144॥
<br>आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥३॥
+
 
<br>जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥
+
बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ॥
<br>कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना॥४॥
+
बिधि हरि तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥
<br>दो०-द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
+
मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
<br>बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥१४३॥
+
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥
<br>
+
प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
<br>चौ०-करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहि ब्रह्म सच्चिदानंदा॥
+
मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥
<br>पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥१॥
+
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रंध्र होइ उर जब आई॥
<br>उर अभिलाष निंरंतर होई। देखिअ नयन परम प्रभु सोई॥
+
ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥
<br>अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥२॥
+
दो0-श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।
<br>नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
+
बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥145॥
<br>संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥३॥
+
 
<br>ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
+
सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥
<br>जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा॥४॥
+
सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥
<br>दो०-एहि बिधि बीते बरष षट सहस बारि आहार।
+
जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥
<br>संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार॥१४४॥
+
जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं॥
<br>
+
जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
<br>चौ०-बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ॥
+
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥
<br>बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥१॥
+
दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
<br>मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
+
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥
<br>अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥२॥
+
दो0-नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
<br>प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
+
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥146॥
<br>मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥३॥
+
 
<br>मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रंध्र होइ उर जब आई॥
+
सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
<br>हृष्टपुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥४॥
+
अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥
<br>दो०-श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।
+
नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की॥
<br>बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥१४५॥
+
भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥
<br>
+
कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥
<br>चौ०-सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥
+
उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥
<br>सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥१॥
+
केहरि कंधर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥
<br>जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥
+
करि कर सरि सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥
<br>जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं॥२॥
+
दो0-तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि॥
<br>जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
+
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि॥147॥
<br>देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥३॥
+
 
<br>दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
+
पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥
<br>भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥४॥
+
बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥
<br>दो०-नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
+
जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥
<br>लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥१४६॥
+
भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥
<br>
+
छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥
<br>चौ०-सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
+
चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥
<br>अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥१॥
+
हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥
<br>नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की॥
+
सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥
<br>भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥२॥
+
दो0-बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
<br>कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥
+
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥148॥
<br>उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥३॥
+
 
<br>केहरि कंधर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥
+
सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
<br>करि कर सरिस सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥४॥
+
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥
<br>दो०-तड़ित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि॥
+
एक लालसा बड़ि उर माही। सुगम अगम कहि जात सो नाहीं॥
<br>नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि॥१४७॥
+
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥
<br>
+
जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥
<br>चौ०-पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥
+
तासु प्रभा जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥
<br>बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥१॥
+
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥
<br>जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥
+
सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥
<br>भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥२॥
+
दो0-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ॥
<br>छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥
+
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥149॥
<br>चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥३॥
+
 
<br>हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥
+
देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
<br>सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥४॥
+
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥
<br>दो०-बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
+
सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे॥
<br>मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥१४८॥
+
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥
<br>
+
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
<br>चौ०-सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
+
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥
<br>नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥१॥
+
अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
<br>एक लालसा बड़ि उर माहीं। सुगम अगम कहि जात सो नाहीं॥
+
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥
<br>तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥२॥
+
दो0-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु॥
<br>जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥
+
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥150॥
<br>तासु प्रभाउ जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥३॥
+
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<br>सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥
+
<br>सकुच बिहाइ मागु नृप मोही। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥४॥
+
<br>दो०-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ॥
+
<br>चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥१४९॥
+
<br>
+
<br>चौ०-देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
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<br>आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥१॥
+
<br>सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे॥
+
<br>जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥२॥
+
<br>प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
+
<br>तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥३॥
+
<br>अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
+
<br>जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥४॥
+
<br>दो०-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु॥
+
<br>सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥१५०॥
+

11:34, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण

जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥
पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥
बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥
दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥
अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥
छं0-दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥
दो0-नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥101॥

बहु बिधि संभु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥
करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेम कछु जाइ न बरना॥
सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥
छं0-जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गई॥
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥
दो0-चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥102॥

तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥
आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥
जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
जगत मातु पितु संभु भवानी। तेही सिंगारु न कहउँ बखानी॥
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥
तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुर समर जेहिं मारा॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥
छं0-जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥
यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥
दो0-चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥103॥

संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुख पावा॥
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥
प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥
अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥
सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥
दो0-प्रथमहिं मै कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥104॥

मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥
राम चरित अति अमित मुनिसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥
सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥
दो0-सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद।
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद॥105॥

हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥
त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥
निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठै सहजहिं संभु कृपाला॥
कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥
तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥
दो0-जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥106॥

बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥
पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु भवानी॥
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥
पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी॥
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥
दो0-प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम॥
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥107॥

जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥
तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥
जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥
प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥
दो0-जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥108॥

जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥
मै बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥
तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥
अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥
तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥
दो0-बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥109॥

जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥
अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥
पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥
बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखलीला॥
दो0-बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥110॥

पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥
औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥
जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥
हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥
दो0-मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥111॥

झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥
बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी॥
दो0-रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥112॥

तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥
दो0-रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥113॥

रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥
राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥
तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥
एक बात नहि मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥
दो0-कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥114॥

अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी॥
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥
कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥
बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन् कर कहा करिअ नहिं काना॥
सो0-अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥115॥

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥
राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥
हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना॥
दो0-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ॥
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥116॥

निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी॥
चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥
उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥
बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता तें जड माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥
दो0-रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥117॥

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥
आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥
दो0-जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान॥
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥118॥

कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥
बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥
राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥
अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥
सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥
दो0-पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।
बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥119॥

ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ॥
नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥
अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥
दो0-हिँयँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान
बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥120(क)॥
सो0-सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड॥120(ख)॥
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ॥120(ग)॥
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥120(घ॥

नवान्हपारायन,पहला विश्राम

मासपारायण, चौथा विश्राम

सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥
तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥
जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा॥
दो0-असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥121॥

सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥
राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥
जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥
बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥
बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥
दो0-भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान॥122॥

मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥
कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए संसारा॥
एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥
संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥
परम सती असुराधिप नारी। तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी॥
दो0-छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह॥
जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥123॥

तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥
एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा॥
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥
नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
गिरिजा चकित भई सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि॥
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥
दो0- बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥124(क)॥
सो0-कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥124(ख)॥

हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥
मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह समाना॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू। चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥
दो0-सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥125॥

तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा॥
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥
रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना॥
करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा॥
देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥
काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू॥
दो0- सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥126॥

भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥
नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥
मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥
सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥
तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥
मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥
बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं॥
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ॥
दो0-संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥127॥

राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥
एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥
हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥
काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥
दो0-रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥128॥

सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके॥
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥
नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥
बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥
मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मै सोई॥
तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥
श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥
दो0-बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥129॥

बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥
सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥
बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥
सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥
करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥
मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥
दो0-आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥130॥

देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥
जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥
सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥
लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥
करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥
जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥
दो0-एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।
जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥131॥

हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥
बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥
अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥
आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥
दो0-जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥132॥

कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥
निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें॥
मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥
दो0-रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥133॥

जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥
करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥
रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥
दो0-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥134॥

जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि देहि न बिलोकी भूली॥
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥
मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥
तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥
दो0-होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥135॥

पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥
फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदी चले कमलापति पाहीं॥
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई॥
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥
बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥
पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु॥
दो0-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥136॥

परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥
भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥
मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥
दो0-श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥137॥

जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥
मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥
जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥
दो0-बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान॥
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥138॥

हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी॥
अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥
हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥
निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥
भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ।
समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥
चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥
दो0-एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।
सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥139॥

एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥
तब तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥
बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥
हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी॥सेवत सुलभ सकल दुख हारी॥
सो0-सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल॥
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥140॥

अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥
जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥
जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥
जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥
अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥
भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी॥
लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥
दो0-सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई॥
राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥141॥

स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥
नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू॥
लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहि जाही॥
देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥
आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥
सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्व बिचार निपुन भगवाना॥
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥
सो0-होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥142॥

बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥
बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥
पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥
जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥
कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना ।
दो0-द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥143॥

करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥
उर अभिलाष निंरंतर होई। देखअ नयन परम प्रभु सोई॥
अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥
नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजहि अभिलाषा॥
दो0-एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार।
संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार॥144॥

बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ॥
बिधि हरि तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥
मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥
प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रंध्र होइ उर जब आई॥
ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥
दो0-श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।
बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥145॥

सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥
सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥
जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥
जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं॥
जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥
दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥
दो0-नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥146॥

सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥
नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की॥
भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥
कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥
उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥
केहरि कंधर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥
करि कर सरि सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥
दो0-तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि॥
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि॥147॥

पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥
बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥
जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥
भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥
छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥
चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥
हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥
सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥
दो0-बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥148॥

सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥
एक लालसा बड़ि उर माही। सुगम अगम कहि जात सो नाहीं॥
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥
जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥
तासु प्रभा जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥
सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥
दो0-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ॥
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥149॥

देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥
सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे॥
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥
अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥
दो0-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु॥
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥150॥