भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बाल काण्ड / भाग ४ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=तुलसीदास
 
|रचनाकार=तुलसीदास
 +
|संग्रह=रामचरितमानस / तुलसीदास
 
}}
 
}}
 
{{KKPageNavigation
 
{{KKPageNavigation
पंक्ति 8: पंक्ति 9:
 
|सारणी=रामचरितमानस / तुलसीदास
 
|सारणी=रामचरितमानस / तुलसीदास
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatAwadhiRachna}}
 +
<poem>
 +
सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना॥
 +
जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥
 +
मातु बिबेक अलोकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें ।
 +
बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनति प्रभु मोरी॥
 +
सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ॥
 +
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥
 +
अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ॥
 +
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी॥
 +
सो0-तहँ करि भोग बिसाल तात गउँ कछु काल पुनि।
 +
होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत॥151॥
  
<br>चौ०-सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना॥
+
इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे॥
<br>जो कछु रुचि तुम्हरे मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥१॥
+
अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥
<br>मातु बिबेक अलौकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें ॥
+
जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी॥
<br>बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनती प्रभु मोरी॥२॥
+
आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया॥
<br>सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ॥
+
पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा॥
<br>मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥३॥
+
पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना॥
<br>अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ॥
+
दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला॥
<br>अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी॥४॥
+
समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा॥
<br>सो०-तहँ करि भोग बिसाल तात गएँ कछु काल पुनि।
+
दो0-यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु।
<br>होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत॥१५१॥
+
भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु॥152॥
<br>
+
 
<br>चौ०-इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे॥
+
मासपारायण,पाँचवाँ विश्राम
<br>अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥१॥
+
 
<br>जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी॥
+
सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी॥
<br>आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया॥२॥
+
बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥
<br>पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा॥
+
धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना॥
<br>पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना॥३॥
+
तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥
<br>दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला॥
+
राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही॥
<br>समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा॥४॥
+
अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा॥
<br>दो०-यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु।
+
भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती॥
<br>भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु॥१५२॥
+
जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥
<br>मासपारायण,पाँचवाँ विश्राम
+
दो0-जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस।
<br>
+
प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस॥153॥
<br>
+
 
<br>चौ०-सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी॥
+
नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥
<br>बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥१॥
+
सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥
<br>धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना॥
+
सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा॥
<br>तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥२
+
सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना॥
<br>राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही॥
+
बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई॥
<br>अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा॥३॥
+
जँह तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआई॥
<br>भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती ॥
+
सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हें॥
<br>जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥४॥
+
सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला॥
<br>दो०-जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस।
+
दो0-स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु।
<br>प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस॥१५३॥
+
अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥154॥
<br>
+
 
<br>चौ०-नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥
+
भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई॥
<br>सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥१॥
+
सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी॥
<br>सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा॥
+
सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥
<br>सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना॥२॥
+
गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥
<br>बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई॥
+
भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने॥
<br>जँह तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआईं॥३॥
+
दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना। सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना॥
<br>सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हें॥
+
नाना बापीं कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा॥
<br>सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला॥४॥
+
बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए॥
<br>दो०-स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु।
+
दो0-जँह लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग।
<br>अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥१५४॥
+
बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित अनुराग॥155॥
<br>
+
 
<br>चौ०-भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई॥
+
हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥
<br>सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी॥१॥
+
करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥
<br>सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥
+
चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥
<br>गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥२॥
+
बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥
<br>भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने॥
+
फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥
<br>दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना। सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना॥३॥
+
बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं॥
<br>नाना बापीं कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा॥
+
कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥
<br>बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए॥४॥
+
घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥
<br>दो०-जहँ लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग।
+
दो0-नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु।
<br>बार सहस्र सहस्र नृप किए सहित अनुराग॥१५५॥
+
चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥156॥
<br>
+
 
<br>चौ०-हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥
+
आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥
<br>करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥१
+
तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥
<br>चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥
+
तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा॥
<br>बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥२
+
प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ संग लागा॥
<br>फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥
+
गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥
<br>बड़ बिधु नहिं समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं॥३
+
अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥
<br>कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥
+
कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा॥
<br>घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥४॥
+
अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥
<br>दो०-नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु।
+
दो0-खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत।
<br>चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥१५६॥
+
खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥157॥
<br>
+
 
<br>चौ०-आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥
+
फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥
<br>तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥१॥
+
जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥
<br>तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा॥
+
समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी॥
<br>प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ संग लागा॥२॥
+
गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी॥
<br>गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥
+
रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा॥
<br>अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥३॥
+
तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा॥
<br>कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा॥
+
राउ तृषित नहि सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना॥
<br>अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥४॥
+
उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥
<br>दो०-खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत।
+
दो0 भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ।
<br>खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥१५७॥
+
मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥158॥
<br>
+
 
<br>चौ०-फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥
+
गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥
<br>जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥१॥
+
आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥
<br>समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी॥
+
को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें॥
<br>गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी॥२॥
+
चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें॥
<br>रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा॥
+
नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥
<br>तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा॥३॥
+
फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बडे भाग देखउँ पद आई॥
<br>राउ तृषित नहिं सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना॥
+
हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥
<br>उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥४॥
+
कह मुनि तात भयउ अँधियारा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥
<br>दो०-भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ।
+
दो0- निसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान।
<br>मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥१५८॥
+
बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान॥159(क)॥
<br>
+
तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
<br>चौ०-गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥
+
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥159(ख)॥
<br>आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥१॥
+
 
<br>को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें॥
+
भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥
<br>चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें॥२॥
+
नृप बहु भाति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥
<br>नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥
+
पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई॥
<br>फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बडे भाग देखउँ पद आई॥३॥
+
मोहि मुनिस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥
<br>हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥
+
तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुह्रद सो कपट सयाना॥
<br>कह मुनि तात भयउ अँधियारा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥४॥
+
बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥
<br>दो०- निसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान।
+
समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती॥
<br>बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान॥१५९(क)॥
+
सरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥
<br>तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
+
दो0-कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत।
<br>आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥१५९(ख)॥
+
नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेति॥160॥
<br>
+
 
<br>चौ०-भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥
+
कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना॥
<br>नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥१॥
+
सदा रहहि अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥
<br>पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई॥
+
तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि केरें॥
<br>मोहि मुनीस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥२॥
+
तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि संदेहा॥
<br>तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुहृद सो कपट सयाना॥
+
जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी॥
<br>बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥३॥
+
सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥
<br>समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती॥
+
सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई॥
<br>सरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥४॥
+
सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥
<br>
+
दो0-अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु।
<br>दो०-कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत।
+
लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥161(क)॥
<br>नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेत॥१६०॥
+
सो0-तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।
<br>
+
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥161(ख)
<br>चौ०-कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना॥
+
 
<br>सदा रहहि अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥१॥
+
तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥
<br>तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि केरें॥
+
प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥
<br>तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि संदेहा॥२॥
+
तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें॥
<br>जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी॥
+
अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥
<br>सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥३॥
+
जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥
<br>सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई॥
+
देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी॥
<br>सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥४॥
+
नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोले पुनि सिरु नाई॥
<br>दो०-अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु।
+
कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥
<br>लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥१६१(क)॥
+
दो0-आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि।
<br>सो०-तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।
+
नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥162॥
<br>सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥१६१(ख)
+
 
<br>
+
जनि आचरुज करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥
<br>चौ०-तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥
+
तपबल तें जग सृजइ बिधाता। तपबल बिष्नु भए परित्राता॥
<br>प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥१॥
+
तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा॥
<br>तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें॥
+
भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥
<br>अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥२॥
+
करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका॥
<br>जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥
+
उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी॥
<br>देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी॥३॥
+
सुनि महिप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहत तब लयऊ॥
<br>नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोलेउ पुनि सिरु नाई॥
+
कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥
<br>कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥४॥
+
सो0-सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप।
<br>दो०-आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि।
+
मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥163॥
<br>नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥१६२॥
+
 
<br>
+
नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥
<br>चौ०-जनि आचरजु करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥
+
गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥
<br>तपबल तें जग सृजइ बिधाता। तपबल बिष्नु भए परित्राता॥१॥
+
देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई॥
<br>तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा॥
+
उपजि परि ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥
<br>भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥२॥
+
अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं॥
<br>करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका॥
+
सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥
<br>उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी॥३॥
+
कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें॥
<br>सुनि महीप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहन तब लयऊ॥
+
प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी॥
<br>कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥४॥
+
दो0-जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ।
<br>सो०-सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप।
+
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥164॥
<br>मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥१६३॥
+
 
<br>नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥
+
कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥
<br>गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥१॥
+
कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥
<br>देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई॥
+
तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥
<br>उपजि परी ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥२॥
+
जौं बिप्रन्ह सब करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥
<br>अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं॥
+
चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई॥
<br>सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥३॥
+
बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहि कवनेहुँ काला॥
<br>कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें॥
+
हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू॥
<br>प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी॥४॥
+
तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्ब काल कल्याना॥
<br>दो०-जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ।
+
दो0-एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि।
<br>एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥१६४॥
+
मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि॥165॥
<br>
+
 
<br>चौ०-कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥
+
तातें मै तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा॥
<br>कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥१॥
+
छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥
<br>तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥
+
यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा॥
<br>जौं बिप्रन्ह बस करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥२॥
+
आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥
<br>चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई॥
+
सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥
<br>बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहि कवनेहुँ काला॥३॥
+
राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥
<br>हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू॥
+
जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच हमारें॥
<br>तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्ब काल कल्याना॥४॥
+
एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा॥
<br>दो०-एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि।
+
दो0-होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ।
<br>मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि॥१६५॥
+
तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउँ॥166॥
<br>
+
 
<br>चौ०-तातें मैं तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा॥
+
सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥
<br>छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥१॥
+
अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परंतु एक कठिनाई॥
<br>यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा॥
+
मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥
<br>आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥२॥
+
आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥
<br>सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥
+
जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू॥
<br>राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥३॥
+
सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी॥
<br>जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच हमारें॥
+
बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥
<br>एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा॥४॥
+
जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥
<br>दो०-होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ।
+
दो0- अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल।
<br>तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउ॥१६६॥
+
मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल॥167॥
<br>
+
 
<br>चौ०-सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥
+
जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥
<br>अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परंतु एक कठिनाई॥१॥
+
सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥
<br>मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥
+
अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥
<br>आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥२॥
+
जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥
<br>जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू॥
+
जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई॥
<br>सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी॥३॥
+
अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥
<br>बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥
+
पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ॥
<br>जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥४॥
+
जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू॥
<br>दो०- अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल।
+
दो0-नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।
<br>मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल॥१६७॥
+
मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिंûकरिब जेवनार॥168॥
<br>
+
 
<br>चौ०-जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥
+
एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥
<br>सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥१॥
+
करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा॥
<br>अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥
+
और एक तोहि कहऊँ लखाऊ। मैं एहि बेष न आउब काऊ॥
<br>जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥२॥
+
तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥
<br>जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई॥
+
तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना॥
<br>अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥३॥
+
मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥
<br>पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ॥
+
गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे॥
<br>जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू॥४॥
+
मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचेहउँ सोवतहि निकेता॥
<br>दो०-नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।
+
दो0-मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि।
<br>मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं करिब जेवनार॥१६८॥
+
जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥169॥
<br>
+
 
<br>चौ०-एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥
+
सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥
<br>करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा॥१॥
+
श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥
<br>और एक तोहि कहऊँ लखाऊ। मैं एहि बेष न आउब काऊ॥
+
कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥
<br>तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥२॥
+
परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥
<br>तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परबाना॥
+
तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई॥
<br>मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥३॥
+
प्रथमहि भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे॥
<br>गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे॥
+
तेहिं खल पाछिल बयरु सँभरा। तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा॥
<br>मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचेहउँ सोवतहि निकेता॥४॥
+
जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥
<br>दो०-मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि।
+
दो0-रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।
<br>जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥१६९॥
+
अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥170॥
<br>
+
 
<br>चौ०-सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥
+
तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥
<br>श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥१॥
+
मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥
<br>कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥
+
अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥
<br>परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥२॥
+
परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥
<br>तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई॥
+
कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथे दिवस मिलब मैं आई॥
<br>प्रथमहि भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे॥३॥
+
तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥
<br>तेहिं खल पाछिल बयरु सँभारा। तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा॥
+
भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता॥
<br>जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥४॥
+
नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई॥
<br>दो०-रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।
+
दो0-राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि।
<br>अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥१७०॥
+
लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥171॥
<br>
+
 
<br>चौ०-तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥
+
आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥
<br>मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥१॥
+
जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥
<br>अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥
+
मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी॥
<br>परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥२॥
+
कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥
<br>कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथे दिवस मिलब मैं आई॥
+
गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥
<br>तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥३॥
+
उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा॥
<br>भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता॥
+
जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥
<br>नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई॥४॥
+
समय जानि उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥
<br>दो०-राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि।
+
दो0-नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।
<br>लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥१७१॥
+
बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥172॥
<br>
+
 
<br>चौ०-आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥
+
उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥
<br>जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥१॥
+
मायामय तेहिं कीन्ह रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥
<br>मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी॥
+
बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥
<br>कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥२॥
+
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥
<br>गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥
+
परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥
<br>उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा॥३॥
+
बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू॥
<br>जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥
+
भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥
<br>समय जानि उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥४॥
+
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस आव मुख बानी॥
<br>दो०-नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।
+
दो0-बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
<br>बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥१७२॥
+
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥173॥
<br>
+
 
<br>चौ०-उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥
+
छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥
<br>मायामय तेहिं कीन्ह रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥१॥
+
ईस्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥
<br>बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥
+
संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥
<br>भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥२॥
+
नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥
<br>परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥
+
बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥
<br>बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू॥३॥
+
चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥
<br>भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥
+
तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥
<br>भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस आव मुख बानी॥४॥
+
सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥
<br>दो०-बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
+
दो0-भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।
<br>जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥१७३॥
+
किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥174॥
<br>
+
 
<br>चौ०-छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥
+
अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥
<br>ईस्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥१॥
+
सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिचरत हंस काग किय जेहीं॥
<br>संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥
+
उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई॥
<br>नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥२॥
+
तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए॥
<br>बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥
+
घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होई लराई॥
<br>चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥३॥
+
जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी॥
<br>तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥
+
सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा॥
<br>सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥४॥
+
रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई॥
<br>दो०-भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।
+
दो0-भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम।
<br>किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥१७४॥
+
धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥।175॥
<br>
+
 
<br>चौ०-अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥
+
काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥
<br>सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिरचत हंस काग किय जेहीं॥१॥
+
दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥
<br>उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई॥
+
भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन बलधामा॥
<br>तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए॥२॥
+
सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू॥
<br>घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होइ लराई॥
+
नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना॥
<br>जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी॥३॥
+
रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे॥
<br>सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा॥
+
कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका॥
<br>रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई॥४॥
+
कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी॥
<br>दो०-भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम।
+
दो0-उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।
<br>धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥।१७५॥
+
तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥176॥
<br>
+
 
<br>चौ०-काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥
+
कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥
<br>दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥१॥
+
गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥
<br>भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन बलधामा॥
+
करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा॥
<br>सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू॥२॥
+
हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें॥
<br>नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना॥
+
एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥
<br>रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे॥३॥
+
पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥
<br>कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका॥
+
जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥
<br>कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी॥४॥
+
सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी॥
<br>दो०-उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।
+
दो0-गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
<br>तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥१७६॥
+
तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु॥177॥
<br>
+
 
<br>चौ०-कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥
+
तिन्हि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥
<br>गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥१॥
+
मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥
<br>करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा॥
+
सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी॥
<br>हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें॥२॥
+
हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई॥
<br>एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥
+
गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी॥
<br>पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥३॥
+
सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनिभवन अपारा॥
<br>जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥
+
भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा॥
<br>सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी॥४॥
+
तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका॥
<br>दो०-गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
+
दो0-खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव।
<br>तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु॥१७७॥
+
कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव॥178(क)॥
<br>
+
हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ।
<br>चौ०-तिन्हहि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥
+
सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ॥178(ख)॥
<br>मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥१॥
+
 
<br>सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी॥
+
रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे॥
<br>हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई॥२॥
+
अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥
<br>गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी॥
+
दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई॥
<br>सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनिभवन अपारा॥३॥
+
देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई॥
<br>भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा॥
+
फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा॥
<br>तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका॥४॥
+
सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी॥
<br>दो०-खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव।
+
जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हे॥
<br>कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव॥१७८(क)॥
+
एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा॥
<br>हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ।
+
दो0-कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ।
<br>सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ॥१७८(ख)॥
+
मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ॥179॥
<br>
+
 
<br>चौ०-रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे॥
+
सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई॥
<br>अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥१॥
+
नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥
<br>दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई॥
+
अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता॥
<br>देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई॥२॥
+
करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा॥
<br>फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा॥
+
जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई॥
<br>सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी॥३॥
+
समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना॥
<br>जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हे॥
+
बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू॥
<br>एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा॥४॥
+
जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई॥
<br>दो०-कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ।
+
दो0-कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।
<br>मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ॥१७९॥
+
एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय॥180॥
<br>
+
 
<br>चौ०-सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई॥
+
कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥
<br>नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥१॥
+
दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥
<br>अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता॥
+
सुत समूह जन परिजन नाती। गे को पार निसाचर जाती॥
<br>करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा॥२॥
+
सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥
<br>जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई॥
+
सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥
<br>समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना॥३॥
+
ते सनमुख नहिं करही लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥
<br>बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू॥
+
तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥
<br>जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई॥४॥
+
द्विजभोजन मख होम सराधा॥सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥
<br>दो०-कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।
+
दो0-छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।
<br>एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय॥१८०॥
+
तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ॥181॥
<br>
+
 
<br>चौ०-कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥
+
मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा॥
<br>दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥१॥
+
जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥
<br>सुत समूह जन परिजन नाती। गनै को पार निसाचर जाती॥
+
तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी॥
<br>सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥२॥
+
एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥
<br>सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥
+
चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी॥
<br>ते सनमुख नहिं करहिं लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥३॥
+
रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥
<br>तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥
+
दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥
<br>द्विजभोजन मख होम सराधा॥सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥४॥
+
पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥
<br>दो०-छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।
+
रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खौजत कतहुँ न पावा॥
<br>तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ॥१८१॥
+
रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥
<br>
+
किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा॥
<br>चौ०-मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा॥
+
ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥
<br>जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥१॥
+
आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥
<br>तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी॥
+
दो0-भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।
<br>एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥२॥
+
मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥182()॥
<br>चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर रवनी॥
+
देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि।
<br>रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥३॥
+
जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि॥182ख॥
<br>दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥
+
 
<br>पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥४॥
+
इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥
<br>रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खोजत कतहुँ न पावा॥
+
प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥
<br>रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥५॥
+
देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥
<br>किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा॥
+
करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥
<br>ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥६॥
+
जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥
<br>आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥७॥
+
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥
<br>दो०-भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।
+
सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न कोई॥
<br>मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥१८२()॥
+
नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना॥
<br>देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि।
+
छं0-जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।
<br>जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि॥१८२(ख)॥
+
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥
<br>
+
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना।
<br>चौ०-इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥
+
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥
<br>प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥१॥
+
सो0-बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।
<br>देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥
+
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥183॥
<br>करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥२॥
+
 
<br>जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥
+
मासपारायण, छठा विश्राम
<br>जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥३॥
+
 
<br>सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न कोई॥
+
बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥
<br>नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना॥४॥
+
मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥
<br>
+
जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
<br>छं०-जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।
+
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥
<br>आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥
+
गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही॥
<br>अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना।
+
सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥
<br>तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥
+
धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥
<br>
+
निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥
<br>सो०-बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।
+
छं0-सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।
<br>हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥१८३॥
+
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥
<br>मासपारायण, छठा विश्राम
+
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।
<br>
+
जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥
<br>चौ०-बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥
+
सो0-धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु।
<br>मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥१॥
+
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥184॥
<br>जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
+
 
<br>अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥२॥
+
बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥
<br>गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही॥
+
पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥
<br>सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥३॥
+
जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥
<br>धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥
+
तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ॥
<br>निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥४॥
+
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
<br>
+
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥
<br>छं०-सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।
+
अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥
<br>सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥
+
मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना॥
<br>ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।
+
दो0-सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।
<br>जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥
+
अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥185॥
<br>
+
 
<br>सो०-धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु।
+
छं0-जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
<br>जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥१८४॥
+
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता॥
<br>
+
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
<br>चौ०-बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥
+
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥
<br>पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥१॥
+
जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
<br>जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥
+
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥
<br>तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ॥२॥
+
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा।
<br>हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
+
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥
<br>देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥३॥
+
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
<br>अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥
+
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥
<br>मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना॥४॥
+
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।
<br>दो०-सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।
+
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा॥
<br>अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥१८५॥
+
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना।
<br>
+
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥
<br>छं०-जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
+
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।
<br>गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता॥
+
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥
<br>पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
+
दो0-जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह।
<br>जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥१॥
+
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥186॥
<br>जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
+
 
<br>अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥
+
जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥
<br>जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा।
+
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥
<br>निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥२॥
+
कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
<br>जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
+
ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा॥
<br>सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥
+
तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥
<br>जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।
+
नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥
<br>मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुरजूथा॥३॥
+
हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई॥
<br>सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।
+
गगन ब्रह्मबानी सुनी काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना॥
<br>जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥
+
तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा॥
<br>भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।
+
दो0-निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।
<br>मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥४॥
+
बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ॥187॥
<br>दो०-जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह।
+
 
<br>गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥१८६॥
+
गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा ।
<br>
+
जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा॥
<br>चौ०-जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥
+
बनचर देह धरि छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं॥
<br>अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥१॥
+
गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥
<br>कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
+
गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥
<br>ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा॥२॥
+
यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥
<br>तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥
+
अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥
<br>नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥३॥
+
धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति मति सारँगपानी॥
<br>हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई॥
+
दो0-कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।
<br>गगन ब्रह्मबानी सुनी काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना॥४॥
+
पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥188॥
<br>तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा॥५॥
+
 
<br>दो०-निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।
+
एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
<br>बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ॥१८७॥
+
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥
<br>
+
निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥
<br>चौ०-गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा ।
+
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥
<br>जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा॥१॥
+
सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥
<br>बनचर देह धरी छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं॥
+
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥
<br>गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥२॥
+
जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा॥
<br>गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥
+
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥
<br>यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥३॥
+
दो0-तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ॥
<br>अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥
+
परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥189॥
<br>धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति मति सारँगपानी॥४॥
+
 
<br>दो०-कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।
+
तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आई॥
<br>पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥१८८॥
+
अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥
<br>
+
कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥
<br>चौ०-एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
+
कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥
<br>गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥१॥
+
एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥
<br>निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥
+
जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए॥
<br>धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥२॥
+
मंदिर महँ सब राजहिं रानी। सोभा सील तेज की खानीं॥
<br>सृंगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥
+
सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥
<br>भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥३॥
+
दो0-जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
<br>जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा॥
+
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥190॥
<br>यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥४॥
+
 
<br>दो०-तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ॥
+
नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
<br>परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥१८९॥
+
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥
<br>
+
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ॥
<br>तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आईं॥
+
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥
<br>अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥१॥
+
सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना॥
<br>कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥
+
गगन बिमल सकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥
<br>कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥२॥
+
बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥
<br>एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥
+
अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥
<br>जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए॥३॥
+
दो0-सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।
<br>मंदिर महँ सब राजहिं रानी। सोभा सील तेज की खानीं॥
+
जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम॥191॥
<br>सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥४॥
+
 
<br>दो०-जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
+
छं0-भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
<br>चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥१९०॥
+
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
<br>
+
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।
<br>चौ०-नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
+
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥
<br>मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥१॥
+
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
<br>सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ॥
+
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥
<br>बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥२॥
+
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
<br>सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना॥
+
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥
<br>गगन बिमल संकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥३॥
+
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
<br>बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥
+
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै॥
<br>अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥४॥
+
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
<br>दो०-सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।
+
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥
<br>जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम॥१९१॥
+
माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा।
<br>
+
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥
<br>छं०-भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
+
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
<br>हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
+
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥
<br>लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।
+
दो0-बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
<br>भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥१॥
+
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥192॥
<br>कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
+
 
<br>माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥
+
सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आई सब रानी॥
<br>करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
+
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥
<br>सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥२॥
+
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानंद समाना॥
<br>ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
+
परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठत करत मति धीरा॥
<br>मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै॥
+
जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥
<br>उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
+
परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥
<br>कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥३॥
+
गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥
<br>माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
+
अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥
<br>कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥
+
दो0-नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।
<br>सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
+
हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥193॥
<br>यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥४॥
+
 
<br>
+
ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥
<br>दो०-बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
+
सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥
<br>निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥१९२॥
+
बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाई। सहज संगार किएँ उठि धाई॥
<br>
+
कनक कलस मंगल धरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥
<br>चौ०-सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आईं सब रानी॥
+
करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं॥
<br>हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥१॥
+
मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥
<br>दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानंद समाना॥
+
सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥
<br>परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठत करत मति धीरा॥२॥
+
मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥
<br>जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥
+
दो0-गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।
<br>परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥३॥
+
हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद॥194॥
<br>गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥
+
 
<br>अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥४॥
+
कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥
<br>दो०-नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।
+
वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥
<br>हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥१९३॥
+
अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥
<br>
+
देखि भानू जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥
<br>चौ०-ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥
+
अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अभीर मनहुँ अरुनारी॥
<br>सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥१॥
+
मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा॥
<br>बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाईं। सहज सिंगार किएँ उठि धाईं॥
+
भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मूखर समयँ जनु सानी॥
<br>कनक कलस मंगल धरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥२॥
+
कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥
<br>करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं॥
+
दो0-मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।
<br>मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥३॥
+
रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥195॥
<br>सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥
+
 
<br>मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥४॥
+
यह रहस्य काहू नहिं जाना। दिन मनि चले करत गुनगाना॥
<br>दो०-गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।
+
देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥
<br>हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद॥१९४॥
+
औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥
<br>
+
काक भुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥
<br>चौ०-कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥
+
परमानंद प्रेमसुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥
<br>वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥१॥
+
यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥
<br>अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥
+
तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥
<br>देखि भानू जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥२॥
+
गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥
<br>अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अभीर मनहुँ अरुनारी॥
+
दो0-मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहि असीस।
<br>मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा॥३॥
+
सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥196॥
<br>भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मुखर समयँ जनु सानी॥
+
 
<br>कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥४॥
+
कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती॥
<br>दो०-मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।
+
नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥
<br>रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥१९५॥
+
करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा॥
<br>
+
इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥
<br>चौ०-यह रहस्य काहूँ नहिं जाना। दिन मनि चले करत गुनगाना॥
+
जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥
<br>देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥१॥
+
सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥
<br>औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥
+
बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥
<br>काक भुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥२॥
+
जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥
<br>परमानंद प्रेम सुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥
+
दो0-लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।
<br>यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥३॥
+
गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥197॥
<br>तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥
+
 
<br>गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥४॥
+
धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥
<br>दो०-मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहि असीस।
+
मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि तेहिं सुख माना॥
<br>सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥१९६॥
+
बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी॥
<br>
+
भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई॥
<br>चौ०-कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती॥
+
स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥
<br>नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥१॥
+
चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥
<br>करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा॥
+
हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा॥
<br>इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥२॥
+
कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥
<br>जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥
+
दो0-ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।
<br>सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥३॥
+
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद॥198॥
<br>बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥
+
 
<br>जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥४॥
+
काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा॥
<br>दो०-लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।
+
अरुन चरन पकंज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥
<br>गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥१९७॥
+
रेख कुलिस धवज अंकुर सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे॥
<br>
+
कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहि देखा॥
<br>चौ०-धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥
+
भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥
<br>मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥१॥
+
उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा॥
<br>बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी॥
+
कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई॥
<br>भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई॥२॥
+
दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे॥
<br>स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥
+
सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला॥
<br>चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥३॥
+
चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥
<br>हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा॥
+
पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥
<br>कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥४॥
+
रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहि देखा॥
<br>दो०-ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।
+
दो0-सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत।
<br>सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद॥१९८॥
+
दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥199॥
<br>
+
 
<br>चौ०-काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा॥
+
एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥
<br>अरुन चरन पकंज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥१॥
+
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥
<br>रेख कुलिस ध्वज अंकुर सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे॥
+
रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी॥
<br>कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहिं देखा॥२॥
+
जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥
<br>भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥
+
भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही॥
<br>उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा॥३॥
+
मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥
<br>कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई॥
+
एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा॥
<br>दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे॥४॥
+
लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालनें घालि झुलावै॥
<br>सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला॥
+
दो0-प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।
<br>चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥५॥
+
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान॥200॥
<br>पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥
+
</poem>
<br>रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहिं देखा॥६॥
+
<br>दो०-सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत।
+
<br>दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥१९९॥
+
<br>
+
<br>चौ०-एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥
+
<br>जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥१॥
+
<br>रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी॥
+
<br>जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥२॥
+
<br>भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही॥
+
<br>मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥३॥
+
<br>एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा॥
+
<br>लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालनें घालि झुलावै॥४॥
+
<br>दो०-प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।
+
<br>सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान॥२००॥
+

11:46, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण

सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना॥
जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥
मातु बिबेक अलोकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें ।
बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनति प्रभु मोरी॥
सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ॥
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥
अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ॥
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी॥
सो0-तहँ करि भोग बिसाल तात गउँ कछु काल पुनि।
होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत॥151॥

इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे॥
अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥
जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी॥
आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया॥
पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा॥
पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना॥
दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला॥
समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा॥
दो0-यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु।
भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु॥152॥

मासपारायण,पाँचवाँ विश्राम

सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी॥
बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥
धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना॥
तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥
राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही॥
अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा॥
भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती॥
जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥
दो0-जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस।
प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस॥153॥

नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥
सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥
सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा॥
सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना॥
बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई॥
जँह तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआई॥
सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हें॥
सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला॥
दो0-स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु।
अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥154॥

भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई॥
सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी॥
सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥
गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥
भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने॥
दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना। सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना॥
नाना बापीं कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा॥
बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए॥
दो0-जँह लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग।
बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित अनुराग॥155॥

हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥
करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥
चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥
बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥
फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥
बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं॥
कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥
घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥
दो0-नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु।
चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥156॥

आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥
तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥
तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा॥
प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ संग लागा॥
गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥
अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥
कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा॥
अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥
दो0-खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत।
खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥157॥

फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥
जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥
समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी॥
गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी॥
रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा॥
तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा॥
राउ तृषित नहि सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना॥
उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥
दो0 भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ।
मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥158॥

गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥
आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥
को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें॥
चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें॥
नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥
फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बडे भाग देखउँ पद आई॥
हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥
कह मुनि तात भयउ अँधियारा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥
दो0- निसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान।
बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान॥159(क)॥
तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥159(ख)॥

भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥
नृप बहु भाति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥
पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई॥
मोहि मुनिस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥
तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुह्रद सो कपट सयाना॥
बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥
समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती॥
सरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥
दो0-कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत।
नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेति॥160॥

कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना॥
सदा रहहि अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥
तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि केरें॥
तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि संदेहा॥
जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी॥
सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥
सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई॥
सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥
दो0-अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु।
लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥161(क)॥
सो0-तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥161(ख)

तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥
प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥
तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें॥
अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥
जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥
देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी॥
नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोले पुनि सिरु नाई॥
कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥
दो0-आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि।
नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥162॥

जनि आचरुज करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥
तपबल तें जग सृजइ बिधाता। तपबल बिष्नु भए परित्राता॥
तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा॥
भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥
करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका॥
उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी॥
सुनि महिप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहत तब लयऊ॥
कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥
सो0-सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप।
मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥163॥

नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥
गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥
देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई॥
उपजि परि ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥
अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं॥
सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥
कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें॥
प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी॥
दो0-जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ।
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥164॥

कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥
कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥
तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥
जौं बिप्रन्ह सब करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥
चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई॥
बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहि कवनेहुँ काला॥
हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू॥
तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्ब काल कल्याना॥
दो0-एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि।
मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि॥165॥

तातें मै तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा॥
छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥
यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा॥
आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥
सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥
राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥
जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच हमारें॥
एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा॥
दो0-होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ।
तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउँ॥166॥

सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥
अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परंतु एक कठिनाई॥
मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥
आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥
जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू॥
सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी॥
बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥
जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥
दो0- अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल।
मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल॥167॥

जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥
सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥
अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥
जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥
जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई॥
अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥
पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ॥
जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू॥
दो0-नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।
मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिंûकरिब जेवनार॥168॥

एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥
करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा॥
और एक तोहि कहऊँ लखाऊ। मैं एहि बेष न आउब काऊ॥
तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥
तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना॥
मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥
गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे॥
मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचेहउँ सोवतहि निकेता॥
दो0-मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि।
जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥169॥

सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥
श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥
कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥
परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥
तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई॥
प्रथमहि भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे॥
तेहिं खल पाछिल बयरु सँभरा। तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा॥
जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥
दो0-रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।
अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥170॥

तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥
मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥
अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥
परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥
कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथे दिवस मिलब मैं आई॥
तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥
भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता॥
नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई॥
दो0-राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि।
लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥171॥

आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥
जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥
मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी॥
कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥
गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥
उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा॥
जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥
समय जानि उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥
दो0-नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।
बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥172॥

उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥
मायामय तेहिं कीन्ह रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥
बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥
परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥
बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू॥
भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस आव मुख बानी॥
दो0-बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥173॥

छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥
ईस्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥
संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥
नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥
बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥
चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥
तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥
सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥
दो0-भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।
किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥174॥

अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥
सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिचरत हंस काग किय जेहीं॥
उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई॥
तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए॥
घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होई लराई॥
जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी॥
सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा॥
रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई॥
दो0-भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम।
धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥।175॥

काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥
दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥
भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन बलधामा॥
सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू॥
नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना॥
रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे॥
कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका॥
कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी॥
दो0-उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।
तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥176॥

कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥
गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥
करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा॥
हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें॥
एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥
पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥
जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥
सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी॥
दो0-गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु॥177॥

तिन्हि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥
मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥
सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी॥
हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई॥
गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी॥
सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनिभवन अपारा॥
भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा॥
तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका॥
दो0-खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव।
कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव॥178(क)॥
हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ।
सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ॥178(ख)॥

रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे॥
अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥
दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई॥
देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई॥
फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा॥
सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी॥
जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हे॥
एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा॥
दो0-कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ।
मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ॥179॥

सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई॥
नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥
अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता॥
करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा॥
जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई॥
समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना॥
बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू॥
जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई॥
दो0-कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।
एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय॥180॥

कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥
दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥
सुत समूह जन परिजन नाती। गे को पार निसाचर जाती॥
सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥
सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥
ते सनमुख नहिं करही लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥
तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥
द्विजभोजन मख होम सराधा॥सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥
दो0-छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।
तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ॥181॥

मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा॥
जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥
तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी॥
एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥
चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी॥
रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥
दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥
पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥
रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खौजत कतहुँ न पावा॥
रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥
किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा॥
ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥
आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥
दो0-भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।
मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥182(ख)॥
देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि।
जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि॥182ख॥

इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥
प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥
देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥
करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥
जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥
सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न कोई॥
नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना॥
छं0-जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना।
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥
सो0-बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥183॥

मासपारायण, छठा विश्राम

बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥
मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥
जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥
गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही॥
सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥
धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥
निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥
छं0-सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।
जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥
सो0-धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु।
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥184॥

बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥
पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥
जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥
तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ॥
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥
अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥
मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना॥
दो0-सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।
अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥185॥

छं0-जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता॥
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥
जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा।
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा॥
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना।
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥
दो0-जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह।
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥186॥

जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥
कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा॥
तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥
नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥
हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई॥
गगन ब्रह्मबानी सुनी काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना॥
तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा॥
दो0-निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।
बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ॥187॥

गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा ।
जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा॥
बनचर देह धरि छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं॥
गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥
गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥
यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥
अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥
धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति मति सारँगपानी॥
दो0-कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।
पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥188॥

एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥
निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥
सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥
जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा॥
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥
दो0-तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ॥
परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥189॥

तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आई॥
अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥
कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥
कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥
एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥
जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए॥
मंदिर महँ सब राजहिं रानी। सोभा सील तेज की खानीं॥
सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥
दो0-जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥190॥

नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ॥
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥
सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना॥
गगन बिमल सकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥
बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥
अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥
दो0-सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।
जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम॥191॥

छं0-भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥
माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥
दो0-बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥192॥

सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आई सब रानी॥
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानंद समाना॥
परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठत करत मति धीरा॥
जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥
परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥
गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥
अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥
दो0-नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।
हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥193॥

ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥
सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥
बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाई। सहज संगार किएँ उठि धाई॥
कनक कलस मंगल धरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥
करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं॥
मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥
सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥
मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥
दो0-गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।
हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद॥194॥

कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥
वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥
अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥
देखि भानू जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥
अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अभीर मनहुँ अरुनारी॥
मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा॥
भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मूखर समयँ जनु सानी॥
कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥
दो0-मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।
रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥195॥

यह रहस्य काहू नहिं जाना। दिन मनि चले करत गुनगाना॥
देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥
औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥
काक भुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥
परमानंद प्रेमसुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥
यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥
तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥
गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥
दो0-मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहि असीस।
सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥196॥

कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती॥
नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥
करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा॥
इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥
जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥
सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥
बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥
जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥
दो0-लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।
गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥197॥

धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥
मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि तेहिं सुख माना॥
बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी॥
भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई॥
स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥
चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥
हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा॥
कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥
दो0-ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद॥198॥

काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा॥
अरुन चरन पकंज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥
रेख कुलिस धवज अंकुर सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे॥
कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहि देखा॥
भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥
उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा॥
कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई॥
दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे॥
सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला॥
चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥
पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥
रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहि देखा॥
दो0-सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत।
दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥199॥

एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥
रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी॥
जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥
भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही॥
मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥
एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा॥
लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालनें घालि झुलावै॥
दो0-प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान॥200॥