"बाल काण्ड / भाग ५ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
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− | + | एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए॥ | |
− | + | निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥ | |
− | + | करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा॥ | |
− | + | बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई॥ | |
− | + | गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता॥ | |
− | + | बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई॥ | |
− | + | इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा॥ | |
− | + | देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी॥ | |
− | + | दो0-देखरावा मातहि निज अदभुत रुप अखंड। | |
− | + | रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड॥ 201॥ | |
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− | + | अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन॥ | |
− | + | काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥ | |
− | + | देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥ | |
− | + | देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥ | |
− | + | तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा॥ | |
− | + | बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥ | |
− | + | अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥ | |
− | + | हरि जननि बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥ | |
− | + | दो0-बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि॥ | |
− | + | अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥ 202॥ | |
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− | + | बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा॥ | |
− | + | कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई॥ | |
− | + | चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥ | |
− | + | परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥ | |
− | + | मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥ | |
− | + | भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥ | |
− | + | कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई॥ | |
− | + | निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥ | |
− | + | धूरस धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए॥ | |
− | + | दो0-भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ। | |
− | + | भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥203॥ | |
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− | + | बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए॥ | |
− | + | जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥ | |
− | + | भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥ | |
− | + | गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥ | |
− | + | जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥ | |
− | + | बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृपलीला॥ | |
− | + | करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥ | |
− | + | जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥ | |
− | + | दो0- कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल। | |
− | + | प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥204॥ | |
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− | + | बंधु सखा संग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई॥ | |
− | + | पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥ | |
− | + | जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे॥ | |
− | + | अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं॥ | |
− | + | जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥ | |
− | + | बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥ | |
− | + | प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥ | |
− | + | आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥ | |
− | + | दो0-ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप। | |
− | + | भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥205॥ | |
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− | + | यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥ | |
− | + | बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहि बिपिन सुभ आश्रम जानी॥ | |
− | + | जहँ जप जग्य मुनि करही। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥ | |
− | + | देखत जग्य निसाचर धावहि। करहि उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥ | |
− | + | गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहि न निसिचर पापी॥ | |
− | + | तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥ | |
− | + | एहुँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौ दोउ भाई॥ | |
− | + | ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मै देखब भरि नयना॥ | |
− | + | दो0-बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार। | |
− | + | करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥206॥ | |
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− | + | मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयऊ लै बिप्र समाजा॥ | |
− | + | करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥ | |
− | + | चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा॥ | |
− | + | बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा॥ | |
− | + | पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी॥ | |
− | + | भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥ | |
− | + | तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥ | |
− | + | केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥ | |
− | + | असुर समूह सतावहिं मोही। मै जाचन आयउँ नृप तोही॥ | |
− | + | अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥ | |
− | + | दो0-देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान। | |
− | + | धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥207॥ | |
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− | + | सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी॥ | |
− | + | चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥ | |
− | + | मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥ | |
− | + | देह प्रान तें प्रिय कछु नाही। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माही॥ | |
− | + | सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाई॥ | |
− | + | कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा॥ | |
− | + | सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥ | |
− | + | तब बसिष्ट बहु निधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा॥ | |
− | + | अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥ | |
− | + | मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥ | |
− | + | दो0-सौंपे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस। | |
− | + | जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥208(क)॥ | |
− | + | सो0-पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन॥ | |
− | + | कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥208(ख) | |
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− | + | अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥ | |
− | + | कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥ | |
− | + | स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्बामित्र महानिधि पाई॥ | |
− | + | प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना। मोहि निति पिता तजेहु भगवाना॥ | |
− | + | चले जात मुनि दीन्हि दिखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥ | |
− | + | एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥ | |
− | + | तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही॥ | |
− | + | जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥ | |
− | + | दो0-आयुष सब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि। | |
− | + | कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि॥209॥ | |
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− | + | प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥ | |
− | + | होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥ | |
− | + | सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥ | |
− | + | बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥ | |
− | + | पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा॥ | |
− | + | मारि असुर द्विज निर्मयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥ | |
− | + | तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया॥ | |
− | + | भगति हेतु बहु कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना॥ | |
− | + | तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई॥ | |
− | + | धनुषजग्य मुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा॥ | |
− | + | आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं॥ | |
− | + | पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥ | |
− | + | दो0-गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर। | |
− | + | चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥210॥ | |
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− | + | छं0-परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही। | |
− | + | देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥ | |
− | + | अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही। | |
− | + | अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥ | |
− | + | धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई। | |
− | + | अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥ | |
− | + | मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई। | |
− | + | राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥ | |
− | + | मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना। | |
− | + | देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना॥ | |
− | + | बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना। | |
− | + | पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥ | |
− | + | जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी। | |
− | + | सोइ पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥ | |
− | + | एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी। | |
− | + | जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी॥ | |
− | + | दो0-अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल। | |
− | + | तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल॥211॥ | |
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− | + | मासपारायण, सातवाँ विश्राम | |
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− | + | चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा॥ | |
− | + | गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥ | |
− | + | तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥ | |
− | + | हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥ | |
− | + | पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥ | |
− | + | बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥ | |
− | + | गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥ | |
− | + | बरन बरन बिकसे बन जाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥ | |
− | + | दो0-सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास। | |
− | + | फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥212॥ | |
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− | + | बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥ | |
− | + | चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥ | |
− | + | धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठ सकल बस्तु लै नाना॥ | |
− | + | चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥ | |
− | + | मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥ | |
− | + | पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता॥ | |
− | + | अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥ | |
− | + | होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥ | |
− | + | दो0-धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति। | |
− | + | सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥213॥ | |
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− | + | सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥ | |
− | + | बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रथ संकुल सब काला॥ | |
− | + | सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥ | |
− | + | पुर बाहेर सर सारित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥ | |
− | + | देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई॥ | |
− | + | कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥ | |
− | + | भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनिबृंद समेता॥ | |
− | + | बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए॥ | |
− | + | दो0-संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति। | |
− | + | चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥214॥ | |
− | + | ||
− | + | कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥ | |
− | + | बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥ | |
− | + | कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥ | |
− | + | तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई॥ | |
− | + | स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥ | |
− | + | उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए॥ | |
− | + | भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता॥ | |
− | + | मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥ | |
− | + | दो0-प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर। | |
− | + | बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥215॥ | |
− | + | ||
− | + | कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥ | |
− | + | ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥ | |
− | + | सहज बिरागरुप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा॥ | |
− | + | ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥ | |
− | + | इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥ | |
− | + | कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥ | |
− | + | ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥ | |
− | + | रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥ | |
− | + | दो0-रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम। | |
− | + | मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥216॥ | |
− | + | ||
− | + | मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्राभाऊ॥ | |
− | + | सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥ | |
− | + | इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥ | |
− | + | सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥ | |
− | + | पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू॥ | |
− | + | म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥ | |
− | + | सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥ | |
− | + | करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥ | |
− | + | दो0-रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु। | |
− | + | बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥217॥ | |
− | + | ||
− | + | लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥ | |
− | + | प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥ | |
− | + | राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हिंयँ हुलसानी॥ | |
− | + | परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥ | |
− | + | नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥ | |
− | + | जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौ॥ | |
− | + | सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥ | |
− | + | धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥ | |
− | + | दो0-जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ। | |
− | + | करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ॥218॥ | |
− | + | ||
− | + | मासपारायण, आठवाँ विश्राम | |
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− | + | नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम | |
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− | + | मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता॥ | |
− | + | बालक बृंदि देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा॥ | |
− | + | पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा॥ | |
− | + | तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी॥ | |
− | + | केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला॥ | |
− | + | सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन॥ | |
− | + | कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं॥ | |
− | + | चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेखा सोभा जनु चाँकी॥ | |
− | + | दो0-रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस। | |
− | + | नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस॥219॥ | |
− | + | ||
− | + | देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥ | |
− | + | धाए धाम काम सब त्यागी। मनहु रंक निधि लूटन लागी॥ | |
− | + | निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥ | |
− | + | जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥ | |
− | + | कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥ | |
− | + | सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥ | |
− | + | बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी॥ | |
− | + | अपर देउ अस कोउ न आही। यह छबि सखि पटतरिअ जाही॥ | |
− | + | दो0-बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख घाम । | |
− | + | अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥220॥ | |
− | + | ||
− | + | कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप निहारी॥ | |
− | + | कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥ | |
− | + | ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा॥ | |
− | + | मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे॥ | |
− | + | स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥ | |
− | + | कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी॥ | |
− | + | गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें॥ | |
− | + | लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥ | |
− | + | दो0-बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि। | |
− | + | आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥221॥ | |
− | + | ||
− | + | देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥ | |
− | + | जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥ | |
− | + | कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने॥ | |
− | + | सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥ | |
− | + | कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता॥ | |
− | + | तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू॥ | |
− | + | जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥ | |
− | + | सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥ | |
− | + | दो0-नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि। | |
− | + | यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥222॥ | |
− | + | ||
− | + | बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबहीं का॥ | |
− | + | कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदुगात किसोरा॥ | |
− | + | सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥ | |
− | + | सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥ | |
− | + | परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥ | |
− | + | सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥ | |
− | + | जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥ | |
− | + | तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मुदु बानी॥ | |
− | + | दो0-हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद। | |
− | + | जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद॥223॥ | |
− | + | ||
− | + | पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥ | |
− | + | अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥ | |
− | + | चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बेठहिं महिपाला॥ | |
− | + | तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा॥ | |
− | + | कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥ | |
− | + | तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥ | |
− | + | जहँ बैंठैं देखहिं सब नारी। जथा जोगु निज कुल अनुहारी॥ | |
− | + | पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥ | |
− | + | दो0-सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात। | |
− | + | तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥224॥ | |
− | + | ||
− | + | सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने॥ | |
− | + | निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥ | |
− | + | राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना॥ | |
− | + | लव निमेष महँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया॥ | |
− | + | भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला॥ | |
− | + | कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन माहीं॥ | |
− | + | जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई॥ | |
− | + | कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआई॥ | |
− | + | दो0-सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ। | |
− | + | गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥225॥ | |
− | + | ||
− | + | निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा॥ | |
− | + | कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥ | |
− | + | मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई॥ | |
− | + | जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥ | |
− | + | तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥ | |
− | + | बारबार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥ | |
− | + | चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥ | |
− | + | पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद जलजाता॥ | |
− | + | दो0-उठे लखन निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान॥ | |
− | + | गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥226॥ | |
− | + | ||
− | + | सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥ | |
− | + | समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥ | |
− | + | भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही लोभाई॥ | |
− | + | लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥ | |
− | + | नव पल्लव फल सुमान सुहाए। निज संपति सुर रूख लजाए॥ | |
− | + | चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥ | |
− | + | मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥ | |
− | + | बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥ | |
− | + | दो0-बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत। | |
− | + | परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत॥227॥ | |
− | + | ||
− | + | चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालिगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन॥ | |
− | + | तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥ | |
− | + | संग सखीं सब सुभग सयानी। गावहिं गीत मनोहर बानी॥ | |
− | + | सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥ | |
− | + | मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता॥ | |
− | + | पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा॥ | |
− | + | एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई॥ | |
− | + | तेहि दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥ | |
− | + | दो0-तासु दसा देखि सखिन्ह पुलक गात जलु नैन। | |
− | + | कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु बैन॥228॥ | |
− | + | ||
− | + | देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए॥ | |
− | + | स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥ | |
− | + | सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा जानी॥ | |
− | + | एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली॥ | |
− | + | जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्ह स्वबस नगर नर नारी॥ | |
− | + | बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥ | |
− | + | तासु वचन अति सियहि सुहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने॥ | |
− | + | चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥ | |
− | + | दो0-सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत॥ | |
− | + | चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥229॥ | |
− | + | ||
− | + | कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥ | |
− | + | मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही॥मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥ | |
− | + | अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥ | |
− | + | भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥ | |
− | + | देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥ | |
− | + | जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥ | |
− | + | सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥ | |
− | + | सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥ | |
− | + | दो0-सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि। | |
− | + | बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥230॥ | |
− | + | ||
− | + | तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥ | |
− | + | पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरइ फुलवाई॥ | |
− | + | जासु बिलोकि अलोकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥ | |
− | + | सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥ | |
− | + | रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥ | |
− | + | मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥ | |
− | + | जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥ | |
− | + | मंगन लहहि न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥ | |
− | + | दो0-करत बतकहि अनुज सन मन सिय रूप लोभान। | |
− | + | मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥231॥ | |
− | + | ||
− | + | चितवहि चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता॥ | |
− | + | जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥ | |
− | + | लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए॥ | |
− | + | देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥ | |
− | + | थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥ | |
− | + | अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥ | |
− | + | लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥ | |
− | + | जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥ | |
− | + | दो0-लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ। | |
− | + | निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ॥232॥ | |
− | + | ||
− | + | सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥ | |
− | + | मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥ | |
− | + | भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥ | |
− | + | बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥ | |
− | + | चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला॥ | |
− | + | मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥ | |
− | + | उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा॥ | |
− | + | सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥ | |
− | + | दो0-केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान। | |
− | + | देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥233॥ | |
− | + | ||
− | + | धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥ | |
− | + | बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥ | |
− | + | सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥ | |
− | + | नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥ | |
− | + | परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहि सभीता॥ | |
− | + | पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥ | |
− | + | गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥ | |
− | + | धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरि अपनपउ पितुबस जाने॥ | |
− | + | दो0-देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि। | |
− | + | निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥ 234॥ | |
− | + | ||
− | + | जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥ | |
− | + | प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥ | |
− | + | परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित भीतीं लिख लीन्ही॥ | |
− | + | गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥ | |
− | + | जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥ | |
− | + | जय गज बदन षड़ानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥ | |
− | + | नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥ | |
− | + | भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥ | |
− | + | दो0-पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख। | |
− | + | महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥235॥ | |
− | + | ||
− | + | सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥ | |
− | + | देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥ | |
− | + | मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥ | |
− | + | कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥ | |
− | + | बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥ | |
− | + | सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥ | |
− | + | सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥ | |
− | + | नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥ | |
− | + | छं0-मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो। | |
− | + | करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥ | |
− | + | एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली। | |
− | + | तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥ | |
− | + | सो0-जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि। | |
− | + | मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥236॥ | |
− | + | ||
− | + | हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥ | |
− | + | राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥ | |
− | + | सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥ | |
− | + | सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भए सुखारे॥ | |
− | + | करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी॥ | |
− | + | बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई॥ | |
− | + | प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥ | |
− | + | बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥ | |
− | + | दो0-जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक। | |
− | + | सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥237॥ | |
− | + | ||
− | + | घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥ | |
− | + | कोक सिकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥ | |
− | + | बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे॥ | |
− | + | सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी॥ | |
− | + | करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥ | |
− | + | बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे॥ | |
− | + | उदउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता॥ | |
− | + | बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥ | |
− | + | दो0-अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन। | |
− | + | जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥238॥ | |
− | + | ||
− | + | नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥ | |
− | + | कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥ | |
− | + | ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥ | |
− | + | उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥ | |
− | + | रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया॥ | |
− | + | तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी॥ | |
− | + | बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥ | |
− | + | नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥ | |
− | + | सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए॥ | |
− | + | जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥ | |
− | + | दो0-सतानंदûपद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ। | |
− | + | चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥239॥ | |
− | + | ||
− | + | सीय स्वयंबरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥ | |
− | + | लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥ | |
− | + | हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥ | |
− | + | पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला॥ | |
− | + | रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई॥ | |
− | + | चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥ | |
− | + | देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी॥ | |
− | + | तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहू सब काहू॥ | |
− | + | दो0-कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि। | |
− | + | उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥240॥ | |
− | + | ||
− | + | राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥ | |
− | + | गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥ | |
− | + | राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥ | |
− | + | जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥ | |
− | + | देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥ | |
− | + | डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥ | |
− | + | रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा॥ | |
− | + | पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥ | |
− | + | दो0-नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप। | |
− | + | जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥241॥ | |
− | + | ||
− | + | बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥ | |
− | + | जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥ | |
− | + | सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥ | |
− | + | जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥ | |
− | + | हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥ | |
− | + | रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥ | |
− | + | उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥ | |
− | + | एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥ | |
− | + | दो0-राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर। | |
− | + | सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥242॥ | |
− | + | ||
− | + | सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥ | |
− | + | सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥ | |
− | + | चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी॥ | |
− | + | कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला॥ | |
− | + | कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥ | |
− | + | भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥ | |
− | + | पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं॥ | |
− | + | रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ॥ | |
− | + | दो0-कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल। | |
− | + | बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥243॥ | |
− | + | ||
− | + | कटि तूनीर पीत पट बाँधे। कर सर धनुष बाम बर काँधे॥ | |
− | + | पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥ | |
− | + | देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥ | |
− | + | हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥ | |
− | + | करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई॥ | |
− | + | जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥ | |
− | + | निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥ | |
− | + | भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥ | |
− | + | दो0-सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल। | |
− | + | मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥244॥ | |
− | + | ||
− | + | प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे॥ | |
− | + | असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥ | |
− | + | बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥ | |
− | + | अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥ | |
− | + | बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी॥ | |
− | + | तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥ | |
− | + | एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥ | |
− | + | यह सुनि अवर महिप मुसकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥ | |
− | + | सो0-सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के॥ | |
− | + | जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥245॥ | |
− | + | ||
− | + | ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥ | |
− | + | सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता॥ | |
− | + | जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥ | |
− | + | सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥ | |
− | + | सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥ | |
− | + | करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥ | |
− | + | अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे॥ | |
− | + | देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥ | |
− | + | दो0-जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई। | |
− | + | चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं॥246॥ | |
− | + | ||
− | + | सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी॥ | |
− | + | उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥ | |
− | + | सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥ | |
− | + | जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥ | |
− | + | गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी॥ | |
− | + | बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही॥ | |
− | + | जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप सोई॥ | |
− | + | सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू॥ | |
− | + | दो0-एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल। | |
− | + | तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥247॥ | |
− | + | ||
− | + | चलिं संग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥ | |
− | + | सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥ | |
− | + | भूषन सकल सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए॥ | |
− | + | रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥ | |
− | + | हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई। बरषि प्रसून अपछरा गाई॥ | |
− | + | पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला॥ | |
− | + | सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा॥ | |
− | + | मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई॥ | |
− | + | दो0-गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि॥ | |
− | + | लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि॥248॥ | |
− | + | ||
− | + | राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥ | |
− | + | सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥ | |
− | + | हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥ | |
− | + | बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु। सीय राम कर करै बिबाहू॥ | |
− | + | जग भल कहहि भाव सब काहू। हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू॥ | |
− | + | एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू॥ | |
− | + | तब बंदीजन जनक बौलाए। बिरिदावली कहत चलि आए॥ | |
− | + | कह नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥ | |
− | + | दो0-बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल। | |
− | + | पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥249॥ | |
− | + | ||
− | + | नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥ | |
− | + | रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥ | |
− | + | सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥ | |
− | + | त्रिभुवन जय समेत बैदेही॥बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥ | |
− | + | सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे॥ | |
− | + | परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्टदेवन्ह सिर नाई॥ | |
+ | तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं॥ | ||
+ | जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥ | ||
+ | दो0-तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ। | ||
+ | मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥250॥ | ||
+ | </poem> |
11:50, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण
एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए॥
निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥
करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा॥
बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई॥
गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता॥
बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई॥
इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा॥
देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी॥
दो0-देखरावा मातहि निज अदभुत रुप अखंड।
रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड॥ 201॥
अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन॥
काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥
देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥
देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥
तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा॥
बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥
अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥
हरि जननि बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥
दो0-बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि॥
अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥ 202॥
बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा॥
कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई॥
चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥
परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥
मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥
भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥
कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई॥
निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥
धूरस धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए॥
दो0-भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।
भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥203॥
बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए॥
जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥
भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥
जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥
बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृपलीला॥
करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥
जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥
दो0- कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।
प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥204॥
बंधु सखा संग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई॥
पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥
जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे॥
अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं॥
जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥
बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥
प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥
आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥
दो0-ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।
भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥205॥
यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहि बिपिन सुभ आश्रम जानी॥
जहँ जप जग्य मुनि करही। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥
देखत जग्य निसाचर धावहि। करहि उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥
गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहि न निसिचर पापी॥
तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥
एहुँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौ दोउ भाई॥
ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मै देखब भरि नयना॥
दो0-बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।
करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥206॥
मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयऊ लै बिप्र समाजा॥
करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥
चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा॥
बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा॥
पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी॥
भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥
तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥
केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥
असुर समूह सतावहिं मोही। मै जाचन आयउँ नृप तोही॥
अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥
दो0-देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥207॥
सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी॥
चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥
मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥
देह प्रान तें प्रिय कछु नाही। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माही॥
सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाई॥
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा॥
सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥
तब बसिष्ट बहु निधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा॥
अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥
दो0-सौंपे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस।
जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥208(क)॥
सो0-पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन॥
कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥208(ख)
अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥
कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्बामित्र महानिधि पाई॥
प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना। मोहि निति पिता तजेहु भगवाना॥
चले जात मुनि दीन्हि दिखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥
तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही॥
जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥
दो0-आयुष सब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि।
कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि॥209॥
प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥
होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥
सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥
बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥
पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा॥
मारि असुर द्विज निर्मयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥
तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया॥
भगति हेतु बहु कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना॥
तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई॥
धनुषजग्य मुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा॥
आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं॥
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥
दो0-गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥210॥
छं0-परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥
अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥
धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।
अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥
मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥
मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।
देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना॥
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥
जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
सोइ पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी॥
दो0-अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल॥211॥
मासपारायण, सातवाँ विश्राम
चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा॥
गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥
तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥
हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥
पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥
बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥
गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥
बरन बरन बिकसे बन जाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥
दो0-सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥212॥
बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥
चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥
धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठ सकल बस्तु लै नाना॥
चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥
मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥
पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता॥
अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥
होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥
दो0-धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।
सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥213॥
सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥
बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रथ संकुल सब काला॥
सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥
पुर बाहेर सर सारित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥
देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई॥
कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥
भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनिबृंद समेता॥
बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए॥
दो0-संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।
चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥214॥
कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥
बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥
कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥
तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई॥
स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥
उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए॥
भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता॥
मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥
दो0-प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥215॥
कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥
सहज बिरागरुप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा॥
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥
कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥
ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥
रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥
दो0-रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम।
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥216॥
मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्राभाऊ॥
सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥
इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥
पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू॥
म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥
सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥
करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥
दो0-रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।
बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥217॥
लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥
राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हिंयँ हुलसानी॥
परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥
नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥
जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौ॥
सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥
दो0-जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।
करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ॥218॥
मासपारायण, आठवाँ विश्राम
नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम
मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता॥
बालक बृंदि देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा॥
पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा॥
तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी॥
केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला॥
सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन॥
कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं॥
चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेखा सोभा जनु चाँकी॥
दो0-रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।
नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस॥219॥
देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥
धाए धाम काम सब त्यागी। मनहु रंक निधि लूटन लागी॥
निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥
कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥
बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी॥
अपर देउ अस कोउ न आही। यह छबि सखि पटतरिअ जाही॥
दो0-बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख घाम ।
अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥220॥
कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप निहारी॥
कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥
ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा॥
मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे॥
स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥
कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी॥
गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें॥
लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥
दो0-बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥221॥
देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥
जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥
कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने॥
सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥
कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता॥
तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू॥
जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥
सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥
दो0-नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।
यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥222॥
बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबहीं का॥
कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदुगात किसोरा॥
सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥
सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥
परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥
सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥
जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥
तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मुदु बानी॥
दो0-हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद।
जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद॥223॥
पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥
अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥
चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बेठहिं महिपाला॥
तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा॥
कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥
जहँ बैंठैं देखहिं सब नारी। जथा जोगु निज कुल अनुहारी॥
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥
दो0-सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।
तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥224॥
सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने॥
निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥
राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना॥
लव निमेष महँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया॥
भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला॥
कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन माहीं॥
जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई॥
कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआई॥
दो0-सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।
गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥225॥
निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा॥
कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥
मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥
तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥
बारबार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥
चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद जलजाता॥
दो0-उठे लखन निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान॥
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥226॥
सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥
समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥
भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही लोभाई॥
लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥
नव पल्लव फल सुमान सुहाए। निज संपति सुर रूख लजाए॥
चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥
मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥
बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥
दो0-बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत।
परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत॥227॥
चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालिगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन॥
तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥
संग सखीं सब सुभग सयानी। गावहिं गीत मनोहर बानी॥
सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥
मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता॥
पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा॥
एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई॥
तेहि दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥
दो0-तासु दसा देखि सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।
कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु बैन॥228॥
देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए॥
स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥
सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा जानी॥
एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली॥
जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्ह स्वबस नगर नर नारी॥
बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥
तासु वचन अति सियहि सुहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने॥
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥
दो0-सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत॥
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥229॥
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही॥मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥
देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥
सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥
सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥
दो0-सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि।
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥230॥
तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥
पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरइ फुलवाई॥
जासु बिलोकि अलोकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥
सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥
जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥
मंगन लहहि न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥
दो0-करत बतकहि अनुज सन मन सिय रूप लोभान।
मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥231॥
चितवहि चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता॥
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥
लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए॥
देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥
थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥
लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥
दो0-लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।
निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ॥232॥
सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥
मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥
भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥
बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥
चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला॥
मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥
उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा॥
सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥
दो0-केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥233॥
धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥
सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥
नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥
परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहि सभीता॥
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥
गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥
धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरि अपनपउ पितुबस जाने॥
दो0-देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥ 234॥
जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥
प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित भीतीं लिख लीन्ही॥
गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥
जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥
जय गज बदन षड़ानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥
नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥
दो0-पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥235॥
सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥
मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥
बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥
सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥
छं0-मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥
सो0-जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥236॥
हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥
राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥
सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥
सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भए सुखारे॥
करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी॥
बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई॥
प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥
दो0-जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।
सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥237॥
घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥
कोक सिकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥
बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे॥
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी॥
करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥
बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे॥
उदउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता॥
बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥
दो0-अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।
जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥238॥
नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥
कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥
ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥
उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥
रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया॥
तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी॥
बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥
नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥
सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए॥
जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥
दो0-सतानंदûपद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।
चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥239॥
सीय स्वयंबरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥
लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥
हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥
पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला॥
रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई॥
चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥
देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी॥
तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहू सब काहू॥
दो0-कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥240॥
राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥
गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥
राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥
जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥
देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥
रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा॥
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥
दो0-नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥241॥
बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥
जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥
सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥
रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥
उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥
दो0-राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥242॥
सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥
सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥
चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी॥
कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला॥
कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥
भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥
पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं॥
रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ॥
दो0-कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥243॥
कटि तूनीर पीत पट बाँधे। कर सर धनुष बाम बर काँधे॥
पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥
देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥
हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥
करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई॥
जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥
निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥
दो0-सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥244॥
प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे॥
असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥
बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥
अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥
बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी॥
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥
एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥
यह सुनि अवर महिप मुसकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥
सो0-सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के॥
जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥245॥
ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥
सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता॥
जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥
सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥
सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥
करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥
अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे॥
देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥
दो0-जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई।
चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं॥246॥
सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी॥
उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥
सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥
जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥
गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी॥
बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही॥
जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप सोई॥
सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू॥
दो0-एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥247॥
चलिं संग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥
सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥
भूषन सकल सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए॥
रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥
हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई। बरषि प्रसून अपछरा गाई॥
पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला॥
सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा॥
मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई॥
दो0-गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि॥
लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि॥248॥
राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥
हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु। सीय राम कर करै बिबाहू॥
जग भल कहहि भाव सब काहू। हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू॥
एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू॥
तब बंदीजन जनक बौलाए। बिरिदावली कहत चलि आए॥
कह नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥
दो0-बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।
पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥249॥
नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥
रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥
सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥
त्रिभुवन जय समेत बैदेही॥बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥
सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे॥
परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्टदेवन्ह सिर नाई॥
तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं॥
जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥
दो0-तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥250॥