"अयोध्या काण्ड / भाग २ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर
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+ | उतरु न देइ दुसह रिस रूखी। मृगिन्ह चितव जनु बाघिनि भूखी॥ | ||
+ | ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी। चलीं कहत मतिमंद अभागी॥ | ||
+ | राजु करत यह दैअँ बिगोई। कीन्हेसि अस जस करइ न कोई॥ | ||
+ | एहि बिधि बिलपहिं पुर नर नारीं। देहिं कुचालिहि कोटिक गारीं॥ | ||
+ | जरहिं बिषम जर लेहिं उसासा। कवनि राम बिनु जीवन आसा॥ | ||
+ | बिपुल बियोग प्रजा अकुलानी। जनु जलचर गन सूखत पानी॥ | ||
+ | अति बिषाद बस लोग लोगाई। गए मातु पहिं रामु गोसाई॥ | ||
+ | मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ। मिटा सोचु जनि राखै राऊ॥ | ||
+ | दो-नव गयंदु रघुबीर मनु राजु अलान समान। | ||
+ | छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान॥51॥ | ||
− | + | रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा॥ | |
− | + | दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि कीन्हे॥ | |
− | + | बार बार मुख चुंबति माता। नयन नेह जलु पुलकित गाता॥ | |
− | + | गोद राखि पुनि हृदयँ लगाए। स्त्रवत प्रेनरस पयद सुहाए॥ | |
− | + | प्रेमु प्रमोदु न कछु कहि जाई। रंक धनद पदबी जनु पाई॥ | |
− | + | सादर सुंदर बदनु निहारी। बोली मधुर बचन महतारी॥ | |
− | + | कहहु तात जननी बलिहारी। कबहिं लगन मुद मंगलकारी॥ | |
− | + | सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई। जनम लाभ कइ अवधि अघाई॥ | |
− | + | दो0- जेहि चाहत नर नारि सब अति आरत एहि भाँति। | |
− | + | जिमि चातक चातकि तृषित बृष्टि सरद रितु स्वाति॥52॥ | |
− | रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ | + | |
− | दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि | + | तात जाउँ बलि बेगि नहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू॥ |
− | बार बार मुख चुंबति माता। नयन नेह जलु पुलकित | + | पितु समीप तब जाएहु भैआ। भइ बड़ि बार जाइ बलि मैआ॥ |
− | गोद राखि पुनि हृदयँ लगाए। स्त्रवत प्रेनरस पयद | + | मातु बचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरु के फूला॥ |
− | प्रेमु प्रमोदु न कछु कहि जाई। रंक धनद पदबी जनु | + | सुख मकरंद भरे श्रियमूला। निरखि राम मनु भवरुँ न भूला॥ |
− | सादर सुंदर बदनु निहारी। बोली मधुर बचन | + | धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी॥ |
− | कहहु तात जननी बलिहारी। कबहिं लगन मुद | + | पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू॥ |
− | सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई। जनम लाभ कइ अवधि | + | आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता॥ |
− | दो0- जेहि चाहत नर नारि सब अति आरत एहि भाँति। | + | जनि सनेह बस डरपसि भोरें। आनँदु अंब अनुग्रह तोरें॥ |
− | + | दो0-बरष चारिदस बिपिन बसि करि पितु बचन प्रमान। | |
− | + | आइ पाय पुनि देखिहउँ मनु जनि करसि मलान॥53॥ | |
− | तात जाउँ बलि बेगि नहाहू। जो मन भाव मधुर कछु | + | |
− | पितु समीप तब जाएहु भैआ। भइ बड़ि बार जाइ बलि | + | बचन बिनीत मधुर रघुबर के। सर सम लगे मातु उर करके॥ |
− | मातु बचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरु के | + | सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी। जिमि जवास परें पावस पानी॥ |
− | सुख मकरंद भरे श्रियमूला। निरखि राम मनु भवरुँ न | + | कहि न जाइ कछु हृदय बिषादू। मनहुँ मृगी सुनि केहरि नादू॥ |
− | धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु | + | नयन सजल तन थर थर काँपी। माजहि खाइ मीन जनु मापी॥ |
− | पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ | + | धरि धीरजु सुत बदनु निहारी। गदगद बचन कहति महतारी॥ |
− | आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन | + | तात पितहि तुम्ह प्रानपिआरे। देखि मुदित नित चरित तुम्हारे॥ |
− | जनि सनेह बस डरपसि भोरें। आनँदु अंब अनुग्रह | + | राजु देन कहुँ सुभ दिन साधा। कहेउ जान बन केहिं अपराधा॥ |
− | दो0-बरष चारिदस बिपिन बसि करि पितु बचन प्रमान। | + | तात सुनावहु मोहि निदानू। को दिनकर कुल भयउ कृसानू॥ |
− | + | दो0-निरखि राम रुख सचिवसुत कारनु कहेउ बुझाइ। | |
− | + | सुनि प्रसंगु रहि मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाइ॥54॥ | |
− | बचन बिनीत मधुर रघुबर के। सर सम लगे मातु उर | + | |
− | सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी। जिमि जवास परें पावस | + | राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू॥ |
− | कहि न जाइ कछु हृदय बिषादू। मनहुँ मृगी सुनि केहरि | + | लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब काहू॥ |
− | नयन सजल तन थर थर काँपी। माजहि खाइ मीन जनु | + | धरम सनेह उभयँ मति घेरी। भइ गति साँप छुछुंदरि केरी॥ |
− | धरि धीरजु सुत बदनु निहारी। गदगद बचन कहति | + | राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू। धरमु जाइ अरु बंधु बिरोधू॥ |
− | तात पितहि तुम्ह प्रानपिआरे। देखि मुदित नित चरित | + | कहउँ जान बन तौ बड़ि हानी। संकट सोच बिबस भइ रानी॥ |
− | राजु देन कहुँ सुभ दिन साधा। कहेउ जान बन केहिं | + | बहुरि समुझि तिय धरमु सयानी। रामु भरतु दोउ सुत सम जानी॥ |
− | तात सुनावहु मोहि निदानू। को दिनकर कुल भयउ | + | सरल सुभाउ राम महतारी। बोली बचन धीर धरि भारी॥ |
− | दो0-निरखि राम रुख सचिवसुत कारनु कहेउ बुझाइ। | + | तात जाउँ बलि कीन्हेहु नीका। पितु आयसु सब धरमक टीका॥ |
− | + | दो0-राजु देन कहि दीन्ह बनु मोहि न सो दुख लेसु। | |
− | + | तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचंड कलेसु॥55॥ | |
− | राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दुहूँ भाँति उर दारुन | + | |
− | लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब | + | जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता॥ |
− | धरम सनेह उभयँ मति घेरी। भइ गति साँप छुछुंदरि | + | जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौं कानन सत अवध समाना॥ |
− | राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू। धरमु जाइ अरु बंधु | + | पितु बनदेव मातु बनदेवी। खग मृग चरन सरोरुह सेवी॥ |
− | कहउँ जान बन तौ बड़ि हानी। संकट सोच बिबस भइ | + | अंतहुँ उचित नृपहि बनबासू। बय बिलोकि हियँ होइ हराँसू॥ |
− | बहुरि समुझि तिय धरमु सयानी। रामु भरतु दोउ सुत सम | + | बड़भागी बनु अवध अभागी। जो रघुबंसतिलक तुम्ह त्यागी॥ |
− | सरल सुभाउ राम महतारी। बोली बचन धीर धरि | + | जौं सुत कहौ संग मोहि लेहू। तुम्हरे हृदयँ होइ संदेहू॥ |
− | तात जाउँ बलि कीन्हेहु नीका। पितु आयसु सब धरमक | + | पूत परम प्रिय तुम्ह सबही के। प्रान प्रान के जीवन जी के॥ |
− | दो0-राजु देन कहि दीन्ह बनु मोहि न सो दुख लेसु। | + | ते तुम्ह कहहु मातु बन जाऊँ। मैं सुनि बचन बैठि पछिताऊँ॥ |
− | + | दो0-यह बिचारि नहिं करउँ हठ झूठ सनेहु बढ़ाइ। | |
− | + | मानि मातु कर नात बलि सुरति बिसरि जनि जाइ॥56॥ | |
− | जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ि | + | |
− | जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौं कानन सत अवध | + | देव पितर सब तुन्हहि गोसाई। राखहुँ पलक नयन की नाई॥ |
− | पितु बनदेव मातु बनदेवी। खग मृग चरन सरोरुह | + | अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना॥ |
− | अंतहुँ उचित नृपहि बनबासू। बय बिलोकि हियँ होइ | + | अस बिचारि सोइ करहु उपाई। सबहि जिअत जेहिं भेंटेहु आई॥ |
− | बड़भागी बनु अवध अभागी। जो रघुबंसतिलक तुम्ह | + | जाहु सुखेन बनहि बलि जाऊँ। करि अनाथ जन परिजन गाऊँ॥ |
− | जौं सुत कहौ संग मोहि लेहू। तुम्हरे हृदयँ होइ | + | सब कर आजु सुकृत फल बीता। भयउ कराल कालु बिपरीता॥ |
− | पूत परम प्रिय तुम्ह सबही के। प्रान प्रान के जीवन जी | + | बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहि जानी॥ |
− | ते तुम्ह कहहु मातु बन जाऊँ। मैं सुनि बचन बैठि | + | दारुन दुसह दाहु उर ब्यापा। बरनि न जाहिं बिलाप कलापा॥ |
− | दो0-यह बिचारि नहिं करउँ हठ झूठ सनेहु बढ़ाइ। | + | राम उठाइ मातु उर लाई। कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई॥ |
− | + | दो0-समाचार तेहि समय सुनि सीय उठी अकुलाइ। | |
− | + | जाइ सासु पद कमल जुग बंदि बैठि सिरु नाइ॥57॥ | |
− | देव पितर सब तुन्हहि गोसाई। राखहुँ पलक नयन की | + | |
− | अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम | + | दीन्हि असीस सासु मृदु बानी। अति सुकुमारि देखि अकुलानी॥ |
− | अस बिचारि सोइ करहु उपाई। सबहि जिअत जेहिं भेंटेहु | + | बैठि नमितमुख सोचति सीता। रूप रासि पति प्रेम पुनीता॥ |
− | जाहु सुखेन बनहि बलि जाऊँ। करि अनाथ जन परिजन | + | चलन चहत बन जीवननाथू। केहि सुकृती सन होइहि साथू॥ |
− | सब कर आजु सुकृत फल बीता। भयउ कराल कालु | + | की तनु प्रान कि केवल प्राना। बिधि करतबु कछु जाइ न जाना॥ |
− | बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहि | + | चारु चरन नख लेखति धरनी। नूपुर मुखर मधुर कबि बरनी॥ |
− | दारुन दुसह दाहु उर ब्यापा। बरनि न जाहिं बिलाप | + | मनहुँ प्रेम बस बिनती करहीं। हमहि सीय पद जनि परिहरहीं॥ |
− | राम उठाइ मातु उर लाई। कहि मृदु बचन बहुरि | + | मंजु बिलोचन मोचति बारी। बोली देखि राम महतारी॥ |
− | दो0-समाचार तेहि समय सुनि सीय उठी अकुलाइ। | + | तात सुनहु सिय अति सुकुमारी। सासु ससुर परिजनहि पिआरी॥ |
− | + | दो0-पिता जनक भूपाल मनि ससुर भानुकुल भानु। | |
− | + | पति रबिकुल कैरव बिपिन बिधु गुन रूप निधानु॥58॥ | |
− | दीन्हि असीस सासु मृदु बानी। अति सुकुमारि देखि | + | |
− | बैठि नमितमुख सोचति सीता। रूप रासि पति प्रेम | + | मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई॥ |
− | चलन चहत बन जीवननाथू। केहि सुकृती सन होइहि | + | नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानिकिहिं लाई॥ |
− | की तनु प्रान कि केवल प्राना। बिधि करतबु कछु जाइ न | + | कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली। सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली॥ |
− | चारु चरन नख लेखति धरनी। नूपुर मुखर मधुर कबि | + | फूलत फलत भयउ बिधि बामा। जानि न जाइ काह परिनामा॥ |
− | मनहुँ प्रेम बस बिनती करहीं। हमहि सीय पद जनि | + | पलँग पीठ तजि गोद हिंड़ोरा। सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा॥ |
− | मंजु बिलोचन मोचति बारी। बोली देखि राम | + | जिअनमूरि जिमि जोगवत रहऊँ। दीप बाति नहिं टारन कहऊँ॥ |
− | तात सुनहु सिय अति सुकुमारी। सासु ससुर परिजनहि | + | सोइ सिय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा। |
− | दो0-पिता जनक भूपाल मनि ससुर भानुकुल भानु। | + | चंद किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुख नयन सकइ किमि जोरी॥ |
− | + | दो0-करि केहरि निसिचर चरहिं दुष्ट जंतु बन भूरि। | |
− | + | बिष बाटिकाँ कि सोह सुत सुभग सजीवनि मूरि॥59॥ | |
− | मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील | + | |
− | नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानिकिहिं | + | बन हित कोल किरात किसोरी। रचीं बिरंचि बिषय सुख भोरी॥ |
− | कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली। सींचि सनेह सलिल | + | पाइन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ॥ |
− | फूलत फलत भयउ बिधि बामा। जानि न जाइ काह | + | कै तापस तिय कानन जोगू। जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू॥ |
− | पलँग पीठ तजि गोद हिंड़ोरा। सियँ न दीन्ह पगु अवनि | + | सिय बन बसिहि तात केहि भाँती। चित्रलिखित कपि देखि डेराती॥ |
− | जिअनमूरि जिमि जोगवत रहऊँ। दीप बाति नहिं टारन | + | सुरसर सुभग बनज बन चारी। डाबर जोगु कि हंसकुमारी॥ |
− | सोइ सिय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा। | + | अस बिचारि जस आयसु होई। मैं सिख देउँ जानकिहि सोई॥ |
− | चंद किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुख नयन सकइ किमि | + | जौं सिय भवन रहै कह अंबा। मोहि कहँ होइ बहुत अवलंबा॥ |
− | दो0-करि केहरि निसिचर चरहिं दुष्ट जंतु बन भूरि। | + | सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी। सील सनेह सुधाँ जनु सानी॥ |
− | + | दो0-कहि प्रिय बचन बिबेकमय कीन्हि मातु परितोष। | |
− | + | लगे प्रबोधन जानकिहि प्रगटि बिपिन गुन दोष॥60॥ | |
− | बन हित कोल किरात किसोरी। रचीं बिरंचि बिषय सुख | + | |
− | पाइन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहि कलेसु न कानन | + | मासपारायण, चौदहवाँ विश्राम |
− | कै तापस तिय कानन जोगू। जिन्ह तप हेतु तजा सब | + | |
− | सिय बन बसिहि तात केहि भाँती। चित्रलिखित कपि देखि | + | मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समउ समुझि मन माहीं॥ |
− | सुरसर सुभग बनज बन चारी। डाबर जोगु कि | + | राजकुमारि सिखावन सुनहू। आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू॥ |
− | अस बिचारि जस आयसु होई। मैं सिख देउँ जानकिहि | + | आपन मोर नीक जौं चहहू। बचनु हमार मानि गृह रहहू॥ |
− | जौं सिय भवन रहै कह अंबा। मोहि कहँ होइ बहुत | + | आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधि भामिनि भवन भलाई॥ |
− | सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी। सील सनेह सुधाँ जनु | + | एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा। सादर सासु ससुर पद पूजा॥ |
− | दो0-कहि प्रिय बचन बिबेकमय कीन्हि मातु परितोष। | + | जब जब मातु करिहि सुधि मोरी। होइहि प्रेम बिकल मति भोरी॥ |
− | + | तब तब तुम्ह कहि कथा पुरानी। सुंदरि समुझाएहु मृदु बानी॥ | |
− | + | कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही। सुमुखि मातु हित राखउँ तोही॥ | |
− | + | दो0-गुर श्रुति संमत धरम फलु पाइअ बिनहिं कलेस। | |
− | मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समउ समुझि मन | + | हठ बस सब संकट सहे गालव नहुष नरेस॥61॥ |
− | राजकुमारि सिखावन सुनहू। आन भाँति जियँ जनि कछु | + | |
− | आपन मोर नीक जौं चहहू। बचनु हमार मानि गृह | + | मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी॥ |
− | आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधि भामिनि भवन | + | दिवस जात नहिं लागिहि बारा। सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा॥ |
− | एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा। सादर सासु ससुर पद | + | जौ हठ करहु प्रेम बस बामा। तौ तुम्ह दुखु पाउब परिनामा॥ |
− | जब जब मातु करिहि सुधि मोरी। होइहि प्रेम बिकल मति | + | काननु कठिन भयंकरु भारी। घोर घामु हिम बारि बयारी॥ |
− | तब तब तुम्ह कहि कथा पुरानी। सुंदरि समुझाएहु मृदु | + | कुस कंटक मग काँकर नाना। चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना॥ |
− | कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही। सुमुखि मातु हित राखउँ | + | चरन कमल मुदु मंजु तुम्हारे। मारग अगम भूमिधर भारे॥ |
− | दो0-गुर श्रुति संमत धरम फलु पाइअ बिनहिं कलेस। | + | कंदर खोह नदीं नद नारे। अगम अगाध न जाहिं निहारे॥ |
− | + | भालु बाघ बृक केहरि नागा। करहिं नाद सुनि धीरजु भागा॥ | |
− | + | दो0-भूमि सयन बलकल बसन असनु कंद फल मूल। | |
− | मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि | + | ते कि सदा सब दिन मिलिहिं सबुइ समय अनुकूल॥62॥ |
− | दिवस जात नहिं लागिहि बारा। सुंदरि सिखवनु सुनहु | + | |
− | जौ हठ करहु प्रेम बस बामा। तौ तुम्ह दुखु पाउब | + | नर अहार रजनीचर चरहीं। कपट बेष बिधि कोटिक करहीं॥ |
− | काननु कठिन भयंकरु भारी। घोर घामु हिम बारि | + | लागइ अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी॥ |
− | कुस कंटक मग काँकर नाना। चलब पयादेहिं बिनु | + | ब्याल कराल बिहग बन घोरा। निसिचर निकर नारि नर चोरा॥ |
− | चरन कमल मुदु मंजु तुम्हारे। मारग अगम भूमिधर | + | डरपहिं धीर गहन सुधि आएँ। मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ॥ |
− | कंदर खोह नदीं नद नारे। अगम अगाध न जाहिं | + | हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू। सुनि अपजसु मोहि देइहि लोगू॥ |
− | भालु बाघ बृक केहरि नागा। करहिं नाद सुनि धीरजु | + | मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली। जिअइ कि लवन पयोधि मराली॥ |
− | दो0-भूमि सयन बलकल बसन असनु कंद फल मूल। | + | नव रसाल बन बिहरनसीला। सोह कि कोकिल बिपिन करीला॥ |
− | + | रहहु भवन अस हृदयँ बिचारी। चंदबदनि दुखु कानन भारी॥ | |
− | + | दो0-सहज सुह्द गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि॥ | |
− | नर अहार रजनीचर चरहीं। कपट बेष बिधि कोटिक | + | सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि॥63॥ |
− | लागइ अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ | + | |
− | ब्याल कराल बिहग बन घोरा। निसिचर निकर नारि नर | + | सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के। लोचन ललित भरे जल सिय के॥ |
− | डरपहिं धीर गहन सुधि आएँ। मृगलोचनि तुम्ह भीरु | + | सीतल सिख दाहक भइ कैंसें। चकइहि सरद चंद निसि जैंसें॥ |
− | हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू। सुनि अपजसु मोहि देइहि | + | उतरु न आव बिकल बैदेही। तजन चहत सुचि स्वामि सनेही॥ |
− | मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली। जिअइ कि लवन पयोधि | + | बरबस रोकि बिलोचन बारी। धरि धीरजु उर अवनिकुमारी॥ |
− | नव रसाल बन बिहरनसीला। सोह कि कोकिल बिपिन | + | लागि सासु पग कह कर जोरी। छमबि देबि बड़ि अबिनय मोरी॥ |
− | रहहु भवन अस हृदयँ बिचारी। चंदबदनि दुखु कानन | + | दीन्हि प्रानपति मोहि सिख सोई। जेहि बिधि मोर परम हित होई॥ |
− | दो0-सहज सुह्द गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर | + | मैं पुनि समुझि दीखि मन माहीं। पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं॥ |
− | + | दो0- प्राननाथ करुनायतन सुंदर सुखद सुजान। | |
− | + | तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान॥64॥ | |
− | सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के। लोचन ललित भरे जल सिय | + | |
− | सीतल सिख दाहक भइ कैंसें। चकइहि सरद चंद निसि | + | मातु पिता भगिनी प्रिय भाई। प्रिय परिवारु सुह्रद समुदाई॥ |
− | उतरु न आव बिकल बैदेही। तजन चहत सुचि स्वामि | + | सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुंदर सुसील सुखदाई॥ |
− | बरबस रोकि बिलोचन बारी। धरि धीरजु उर | + | जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते॥ |
− | लागि सासु पग कह कर जोरी। छमबि देबि बड़ि अबिनय | + | तनु धनु धामु धरनि पुर राजू। पति बिहीन सबु सोक समाजू॥ |
− | दीन्हि प्रानपति मोहि सिख सोई। जेहि बिधि मोर परम हित | + | भोग रोगसम भूषन भारू। जम जातना सरिस संसारू॥ |
− | मैं पुनि समुझि दीखि मन माहीं। पिय बियोग सम दुखु जग | + | प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं॥ |
− | दो0- प्राननाथ करुनायतन सुंदर सुखद सुजान। | + | जिय बिनु देह नदी बिनु बारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी॥ |
− | + | नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें। सरद बिमल बिधु बदनु निहारें॥ | |
− | + | दो0-खग मृग परिजन नगरु बनु बलकल बिमल दुकूल। | |
− | मातु पिता भगिनी प्रिय भाई। प्रिय परिवारु सुह्रद | + | नाथ साथ सुरसदन सम परनसाल सुख मूल॥65॥ |
− | सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुंदर सुसील | + | |
− | जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहि तरनिहु ते | + | बनदेवीं बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम सारा॥ |
− | तनु धनु धामु धरनि पुर राजू। पति बिहीन सबु सोक | + | कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई॥ |
− | भोग रोगसम भूषन भारू। जम जातना सरिस | + | कंद मूल फल अमिअ अहारू। अवध सौध सत सरिस पहारू॥ |
− | प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु | + | छिनु छिनु प्रभु पद कमल बिलोकि। रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी॥ |
− | जिय बिनु देह नदी बिनु बारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिनु | + | बन दुख नाथ कहे बहुतेरे। भय बिषाद परिताप घनेरे॥ |
− | नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें। सरद बिमल बिधु बदनु | + | प्रभु बियोग लवलेस समाना। सब मिलि होहिं न कृपानिधाना॥ |
− | दो0-खग मृग परिजन नगरु बनु बलकल बिमल दुकूल। | + | अस जियँ जानि सुजान सिरोमनि। लेइअ संग मोहि छाड़िअ जनि॥ |
− | + | बिनती बहुत करौं का स्वामी। करुनामय उर अंतरजामी॥ | |
− | + | दो0-राखिअ अवध जो अवधि लगि रहत न जनिअहिं प्रान। | |
− | बनदेवीं बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम | + | दीनबंधु संदर सुखद सील सनेह निधान॥66॥ |
− | कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मंजु मनोज | + | |
− | कंद मूल फल अमिअ अहारू। अवध सौध सत सरिस | + | मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी॥ |
− | छिनु छिनु प्रभु पद कमल बिलोकि। रहिहउँ मुदित दिवस जिमि | + | सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं॥ |
− | बन दुख नाथ कहे बहुतेरे। भय बिषाद परिताप | + | पाय पखारी बैठि तरु छाहीं। करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं॥ |
− | प्रभु बियोग लवलेस समाना। सब मिलि होहिं न | + | श्रम कन सहित स्याम तनु देखें। कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें॥ |
− | अस जियँ जानि सुजान सिरोमनि। लेइअ संग मोहि छाड़िअ | + | सम महि तृन तरुपल्लव डासी। पाग पलोटिहि सब निसि दासी॥ |
− | बिनती बहुत करौं का स्वामी। करुनामय उर | + | बारबार मृदु मूरति जोही। लागहि तात बयारि न मोही। |
− | दो0-राखिअ अवध जो अवधि लगि रहत न जनिअहिं प्रान। | + | को प्रभु सँग मोहि चितवनिहारा। सिंघबधुहि जिमि ससक सिआरा॥ |
− | + | मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू। तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू॥ | |
− | + | दो0-ऐसेउ बचन कठोर सुनि जौं न ह्रदउ बिलगान। | |
− | मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज | + | तौ प्रभु बिषम बियोग दुख सहिहहिं पावँर प्रान॥67॥ |
− | सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम | + | |
− | पाय पखारी बैठि तरु छाहीं। करिहउँ बाउ मुदित मन | + | अस कहि सीय बिकल भइ भारी। बचन बियोगु न सकी सँभारी॥ |
− | श्रम कन सहित स्याम तनु देखें। कहँ दुख समउ प्रानपति | + | देखि दसा रघुपति जियँ जाना। हठि राखें नहिं राखिहि प्राना॥ |
− | सम महि तृन तरुपल्लव डासी। पाग पलोटिहि सब निसि | + | कहेउ कृपाल भानुकुलनाथा। परिहरि सोचु चलहु बन साथा॥ |
− | बारबार मृदु मूरति जोही। लागहि तात बयारि न मोही। | + | नहिं बिषाद कर अवसरु आजू। बेगि करहु बन गवन समाजू॥ |
− | को प्रभु सँग मोहि चितवनिहारा। सिंघबधुहि जिमि ससक | + | कहि प्रिय बचन प्रिया समुझाई। लगे मातु पद आसिष पाई॥ |
− | मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू। तुम्हहि उचित तप मो कहुँ | + | बेगि प्रजा दुख मेटब आई। जननी निठुर बिसरि जनि जाई॥ |
− | दो0-ऐसेउ बचन कठोर सुनि जौं न ह्रदउ बिलगान। | + | फिरहि दसा बिधि बहुरि कि मोरी। देखिहउँ नयन मनोहर जोरी॥ |
− | + | सुदिन सुघरी तात कब होइहि। जननी जिअत बदन बिधु जोइहि॥ | |
− | + | दो0-बहुरि बच्छ कहि लालु कहि रघुपति रघुबर तात। | |
− | + | कबहिं बोलाइ लगाइ हियँ हरषि निरखिहउँ गात॥68॥ | |
− | देखि दसा रघुपति जियँ जाना। हठि राखें नहिं राखिहि | + | |
− | कहेउ कृपाल भानुकुलनाथा। परिहरि सोचु चलहु बन | + | लखि सनेह कातरि महतारी। बचनु न आव बिकल भइ भारी॥ |
− | नहिं बिषाद कर अवसरु आजू। बेगि करहु बन गवन | + | राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना। समउ सनेहु न जाइ बखाना॥ |
− | कहि प्रिय बचन प्रिया समुझाई। लगे मातु पद आसिष | + | तब जानकी सासु पग लागी। सुनिअ माय मैं परम अभागी॥ |
− | बेगि प्रजा दुख मेटब आई। जननी निठुर बिसरि जनि | + | सेवा समय दैअँ बनु दीन्हा। मोर मनोरथु सफल न कीन्हा॥ |
− | फिरहि दसा बिधि बहुरि कि मोरी। देखिहउँ नयन मनोहर | + | तजब छोभु जनि छाड़िअ छोहू। करमु कठिन कछु दोसु न मोहू॥ |
− | सुदिन सुघरी तात कब होइहि। जननी जिअत बदन बिधु | + | सुनि सिय बचन सासु अकुलानी। दसा कवनि बिधि कहौं बखानी॥ |
− | दो0-बहुरि बच्छ कहि लालु कहि रघुपति रघुबर तात। | + | बारहि बार लाइ उर लीन्ही। धरि धीरजु सिख आसिष दीन्ही॥ |
− | + | अचल होउ अहिवातु तुम्हारा। जब लगि गंग जमुन जल धारा॥ | |
− | + | दो0-सीतहि सासु असीस सिख दीन्हि अनेक प्रकार। | |
− | लखि सनेह कातरि महतारी। बचनु न आव बिकल भइ | + | चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार॥69॥ |
− | राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना। समउ सनेहु न जाइ | + | |
− | तब जानकी सासु पग लागी। सुनिअ माय मैं परम | + | समाचार जब लछिमन पाए। ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए॥ |
− | सेवा समय दैअँ बनु दीन्हा। मोर मनोरथु सफल न | + | कंप पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा॥ |
− | तजब छोभु जनि छाड़िअ छोहू। करमु कठिन कछु दोसु न | + | कहि न सकत कछु चितवत ठाढ़े। मीनु दीन जनु जल तें काढ़े॥ |
− | सुनि सिय बचन सासु अकुलानी। दसा कवनि बिधि कहौं | + | सोचु हृदयँ बिधि का होनिहारा। सबु सुखु सुकृत सिरान हमारा॥ |
− | बारहि बार लाइ उर लीन्ही। धरि धीरजु सिख आसिष | + | मो कहुँ काह कहब रघुनाथा। रखिहहिं भवन कि लेहहिं साथा॥ |
− | अचल होउ अहिवातु तुम्हारा। जब लगि गंग जमुन जल | + | राम बिलोकि बंधु कर जोरें। देह गेह सब सन तृनु तोरें॥ |
− | + | बोले बचनु राम नय नागर। सील सनेह सरल सुख सागर॥ | |
− | + | तात प्रेम बस जनि कदराहू। समुझि हृदयँ परिनाम उछाहू॥ | |
− | + | दो0-मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहि सुभायँ। | |
− | समाचार जब लछिमन पाए। ब्याकुल बिलख बदन उठि | + | लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ॥70॥ |
− | कंप पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम | + | |
− | कहि न सकत कछु चितवत ठाढ़े। मीनु दीन जनु जल तें | + | अस जियँ जानि सुनहु सिख भाई। करहु मातु पितु पद सेवकाई॥ |
− | सोचु हृदयँ बिधि का होनिहारा। सबु सुखु सुकृत सिरान | + | भवन भरतु रिपुसूदन नाहीं। राउ बृद्ध मम दुखु मन माहीं॥ |
− | मो कहुँ काह कहब रघुनाथा। रखिहहिं भवन कि लेहहिं | + | मैं बन जाउँ तुम्हहि लेइ साथा। होइ सबहि बिधि अवध अनाथा॥ |
− | राम बिलोकि बंधु कर जोरें। देह गेह सब सन तृनु | + | गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू। सब कहुँ परइ दुसह दुख भारू॥ |
− | बोले बचनु राम नय नागर। सील सनेह सरल सुख | + | रहहु करहु सब कर परितोषू। नतरु तात होइहि बड़ दोषू॥ |
− | तात प्रेम बस जनि कदराहू। समुझि हृदयँ परिनाम | + | जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी॥ |
− | दो0-मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहि सुभायँ। | + | रहहु तात असि नीति बिचारी। सुनत लखनु भए ब्याकुल भारी॥ |
− | + | सिअरें बचन सूखि गए कैंसें। परसत तुहिन तामरसु जैसें॥ | |
− | + | दो0-उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाइ। | |
− | अस जियँ जानि सुनहु सिख भाई। करहु मातु पितु पद | + | नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु त काह बसाइ॥71॥ |
− | भवन भरतु रिपुसूदन नाहीं। राउ बृद्ध मम दुखु मन | + | |
− | मैं बन जाउँ तुम्हहि लेइ साथा। होइ सबहि बिधि अवध | + | दीन्हि मोहि सिख नीकि गोसाईं। लागि अगम अपनी कदराईं॥ |
− | गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू। सब कहुँ परइ दुसह दुख | + | नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहुँ ते अधिकारी॥ |
− | रहहु करहु सब कर परितोषू। नतरु तात होइहि बड़ | + | मैं सिसु प्रभु सनेहँ प्रतिपाला। मंदरु मेरु कि लेहिं मराला॥ |
− | जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक | + | गुर पितु मातु न जानउँ काहू। कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू॥ |
− | रहहु तात असि नीति बिचारी। सुनत लखनु भए ब्याकुल | + | जहँ लगि जगत सनेह सगाई। प्रीति प्रतीति निगम निजु गाई॥ |
− | सिअरें बचन सूखि गए कैंसें। परसत तुहिन तामरसु | + | मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी॥ |
− | दो0-उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाइ। | + | धरम नीति उपदेसिअ ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय जाही॥ |
− | + | मन क्रम बचन चरन रत होई। कृपासिंधु परिहरिअ कि सोई॥ | |
− | + | दो0-करुनासिंधु सुबंध के सुनि मृदु बचन बिनीत। | |
− | दीन्हि मोहि सिख नीकि गोसाईं। लागि अगम अपनी | + | समुझाए उर लाइ प्रभु जानि सनेहँ सभीत॥72॥ |
− | नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहुँ ते | + | |
− | मैं सिसु प्रभु सनेहँ प्रतिपाला। मंदरु मेरु कि लेहिं | + | मागहु बिदा मातु सन जाई। आवहु बेगि चलहु बन भाई॥ |
− | गुर पितु मातु न जानउँ काहू। कहउँ सुभाउ नाथ | + | मुदित भए सुनि रघुबर बानी। भयउ लाभ बड़ गइ बड़ि हानी॥ |
− | जहँ लगि जगत सनेह सगाई। प्रीति प्रतीति निगम निजु | + | हरषित ह्दयँ मातु पहिं आए। मनहुँ अंध फिरि लोचन पाए। |
− | मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर | + | जाइ जननि पग नायउ माथा। मनु रघुनंदन जानकि साथा॥ |
− | धरम नीति उपदेसिअ ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय | + | पूँछे मातु मलिन मन देखी। लखन कही सब कथा बिसेषी॥ |
− | मन क्रम बचन चरन रत होई। कृपासिंधु परिहरिअ कि | + | गई सहमि सुनि बचन कठोरा। मृगी देखि दव जनु चहु ओरा॥ |
− | दो0-करुनासिंधु सुबंध के सुनि मृदु बचन बिनीत। | + | लखन लखेउ भा अनरथ आजू। एहिं सनेह बस करब अकाजू॥ |
− | + | मागत बिदा सभय सकुचाहीं। जाइ संग बिधि कहिहि कि नाही॥ | |
− | + | दो0-समुझि सुमित्राँ राम सिय रूप सुसीलु सुभाउ। | |
− | मागहु बिदा मातु सन जाई। आवहु बेगि चलहु बन | + | नृप सनेहु लखि धुनेउ सिरु पापिनि दीन्ह कुदाउ॥73॥ |
− | मुदित भए सुनि रघुबर बानी। भयउ लाभ बड़ गइ बड़ि | + | |
− | हरषित ह्दयँ मातु पहिं आए। मनहुँ अंध फिरि लोचन पाए। | + | धीरजु धरेउ कुअवसर जानी। सहज सुह्द बोली मृदु बानी॥ |
− | जाइ जननि पग नायउ माथा। मनु रघुनंदन जानकि | + | तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥ |
− | पूँछे मातु मलिन मन देखी। लखन कही सब कथा | + | अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥ |
− | गई सहमि सुनि बचन कठोरा। मृगी देखि दव जनु चहु | + | जौ पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहिं॥ |
− | लखन लखेउ भा अनरथ आजू। एहिं सनेह बस करब | + | गुर पितु मातु बंधु सुर साई। सेइअहिं सकल प्रान की नाईं॥ |
− | मागत बिदा सभय सकुचाहीं। जाइ संग बिधि कहिहि कि | + | रामु प्रानप्रिय जीवन जी के। स्वारथ रहित सखा सबही कै॥ |
− | दो0-समुझि सुमित्राँ राम सिय रूप सुसीलु सुभाउ। | + | पूजनीय प्रिय परम जहाँ तें। सब मानिअहिं राम के नातें॥ |
− | + | अस जियँ जानि संग बन जाहू। लेहु तात जग जीवन लाहू॥ | |
− | + | दो0-भूरि भाग भाजनु भयहु मोहि समेत बलि जाउँ। | |
− | धीरजु धरेउ कुअवसर जानी। सहज सुह्द बोली मृदु | + | जौम तुम्हरें मन छाड़ि छलु कीन्ह राम पद ठाउँ॥74॥ |
− | तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति | + | |
− | अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु | + | पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥ |
− | जौ पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु | + | नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी॥ |
− | गुर पितु मातु बंधु सुर साई। सेइअहिं सकल प्रान की | + | तुम्हरेहिं भाग रामु बन जाहीं। दूसर हेतु तात कछु नाहीं॥ |
− | रामु प्रानप्रिय जीवन जी के। स्वारथ रहित सखा सबही | + | सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू॥ |
− | पूजनीय प्रिय परम जहाँ तें। सब मानिअहिं राम के | + | राग रोषु इरिषा मदु मोहू। जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू॥ |
− | अस जियँ जानि संग बन जाहू। लेहु तात जग जीवन | + | सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई॥ |
− | दो0-भूरि भाग भाजनु भयहु मोहि समेत बलि जाउँ। | + | तुम्ह कहुँ बन सब भाँति सुपासू। सँग पितु मातु रामु सिय जासू॥ |
− | + | जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोइ करेहु इहइ उपदेसू॥ | |
− | + | छं0-उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं। | |
− | पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु | + | पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं। |
− | नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित | + | तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई। |
− | तुम्हरेहिं भाग रामु बन जाहीं। दूसर हेतु तात कछु | + | रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित नित नई॥ |
− | सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज | + | सो0-मातु चरन सिरु नाइ चले तुरत संकित हृदयँ। |
− | राग रोषु इरिषा मदु मोहू। जनि सपनेहुँ इन्ह के बस | + | बागुर बिषम तोराइ मनहुँ भाग मृगु भाग बस॥75॥ |
− | सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु | + | |
− | तुम्ह कहुँ बन सब भाँति सुपासू। सँग पितु मातु रामु सिय | + | गए लखनु जहँ जानकिनाथू। भे मन मुदित पाइ प्रिय साथू॥ |
− | जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोइ करेहु इहइ | + | बंदि राम सिय चरन सुहाए। चले संग नृपमंदिर आए॥ |
− | छं0-उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं। | + | कहहिं परसपर पुर नर नारी। भलि बनाइ बिधि बात बिगारी॥ |
− | + | तन कृस दुखु बदन मलीने। बिकल मनहुँ माखी मधु छीने॥ | |
− | + | कर मीजहिं सिरु धुनि पछिताहीं। जनु बिन पंख बिहग अकुलाहीं॥ | |
− | + | भइ बड़ि भीर भूप दरबारा। बरनि न जाइ बिषादु अपारा॥ | |
− | सो0-मातु चरन सिरु नाइ चले तुरत संकित हृदयँ। | + | सचिवँ उठाइ राउ बैठारे। कहि प्रिय बचन रामु पगु धारे॥ |
− | + | सिय समेत दोउ तनय निहारी। ब्याकुल भयउ भूमिपति भारी॥ | |
− | गए लखनु जहँ जानकिनाथू। भे मन मुदित पाइ प्रिय | + | दो0-सीय सहित सुत सुभग दोउ देखि देखि अकुलाइ। |
− | बंदि राम सिय चरन सुहाए। चले संग नृपमंदिर | + | बारहिं बार सनेह बस राउ लेइ उर लाइ॥76॥ |
− | कहहिं परसपर पुर नर नारी। भलि बनाइ बिधि बात | + | |
− | तन कृस दुखु बदन मलीने। बिकल मनहुँ माखी मधु | + | सकइ न बोलि बिकल नरनाहू। सोक जनित उर दारुन दाहू॥ |
− | कर मीजहिं सिरु धुनि पछिताहीं। जनु बिन पंख बिहग | + | नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा॥ |
− | भइ बड़ि भीर भूप दरबारा। बरनि न जाइ बिषादु | + | पितु असीस आयसु मोहि दीजै। हरष समय बिसमउ कत कीजै॥ |
− | सचिवँ उठाइ राउ बैठारे। कहि प्रिय बचन रामु पगु | + | तात किएँ प्रिय प्रेम प्रमादू। जसु जग जाइ होइ अपबादू॥ |
− | सिय समेत दोउ तनय निहारी। ब्याकुल भयउ भूमिपति | + | सुनि सनेह बस उठि नरनाहाँ। बैठारे रघुपति गहि बाहाँ॥ |
− | दो0-सीय सहित सुत सुभग दोउ देखि देखि अकुलाइ। | + | सुनहु तात तुम्ह कहुँ मुनि कहहीं। रामु चराचर नायक अहहीं॥ |
− | + | सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईस देइ फलु ह्दयँ बिचारी॥ | |
− | + | करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई॥ | |
− | सकइ न बोलि बिकल नरनाहू। सोक जनित उर दारुन | + | दो0–औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु। |
− | नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब | + | अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु॥77॥ |
− | पितु असीस आयसु मोहि दीजै। हरष समय बिसमउ कत | + | |
− | तात किएँ प्रिय प्रेम प्रमादू। जसु जग जाइ होइ | + | रायँ राम राखन हित लागी। बहुत उपाय किए छलु त्यागी॥ |
− | सुनि सनेह बस उठि नरनाहाँ। बैठारे रघुपति गहि | + | लखी राम रुख रहत न जाने। धरम धुरंधर धीर सयाने॥ |
− | सुनहु तात तुम्ह कहुँ मुनि कहहीं। रामु चराचर नायक | + | तब नृप सीय लाइ उर लीन्ही। अति हित बहुत भाँति सिख दीन्ही॥ |
− | सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईस देइ फलु ह्दयँ | + | कहि बन के दुख दुसह सुनाए। सासु ससुर पितु सुख समुझाए॥ |
− | करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु | + | सिय मनु राम चरन अनुरागा। घरु न सुगमु बनु बिषमु न लागा॥ |
− | + | औरउ सबहिं सीय समुझाई। कहि कहि बिपिन बिपति अधिकाई॥ | |
− | + | सचिव नारि गुर नारि सयानी। सहित सनेह कहहिं मृदु बानी॥ | |
− | + | तुम्ह कहुँ तौ न दीन्ह बनबासू। करहु जो कहहिं ससुर गुर सासू॥ | |
− | रायँ राम राखन हित लागी। बहुत उपाय किए छलु | + | दो0–सिख सीतलि हित मधुर मृदु सुनि सीतहि न सोहानि। |
− | लखी राम रुख रहत न जाने। धरम धुरंधर धीर | + | सरद चंद चंदनि लगत जनु चकई अकुलानि॥78॥ |
− | तब नृप सीय लाइ उर लीन्ही। अति हित बहुत भाँति सिख | + | |
− | कहि बन के दुख दुसह सुनाए। सासु ससुर पितु सुख | + | सीय सकुच बस उतरु न देई। सो सुनि तमकि उठी कैकेई॥ |
− | सिय मनु राम चरन अनुरागा। घरु न सुगमु बनु बिषमु न | + | मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगें धरि बोली मृदु बानी॥ |
− | औरउ सबहिं सीय समुझाई। कहि कहि बिपिन बिपति | + | नृपहि प्रान प्रिय तुम्ह रघुबीरा। सील सनेह न छाड़िहि भीरा॥ |
− | सचिव नारि गुर नारि सयानी। सहित सनेह कहहिं मृदु | + | सुकृत सुजसु परलोकु नसाऊ। तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ॥ |
− | तुम्ह कहुँ तौ न दीन्ह बनबासू। करहु जो कहहिं ससुर गुर | + | अस बिचारि सोइ करहु जो भावा। राम जननि सिख सुनि सुखु पावा॥ |
− | + | भूपहि बचन बानसम लागे। करहिं न प्रान पयान अभागे॥ | |
− | + | लोग बिकल मुरुछित नरनाहू। काह करिअ कछु सूझ न काहू॥ | |
− | + | रामु तुरत मुनि बेषु बनाई। चले जनक जननिहि सिरु नाई॥ | |
− | सीय सकुच बस उतरु न देई। सो सुनि तमकि उठी | + | दो0-सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बंधु समेत। |
− | मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगें धरि बोली मृदु | + | बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत॥79॥ |
− | नृपहि प्रान प्रिय तुम्ह रघुबीरा। सील सनेह न छाड़िहि | + | |
− | सुकृत सुजसु परलोकु नसाऊ। तुम्हहि जान बन कहिहि न | + | निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े। देखे लोग बिरह दव दाढ़े॥ |
− | अस बिचारि सोइ करहु जो भावा। राम जननि सिख सुनि सुखु | + | कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए॥ |
− | भूपहि बचन बानसम लागे। करहिं न प्रान पयान | + | गुर सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनय बस कीन्हे॥ |
− | लोग बिकल मुरुछित नरनाहू। काह करिअ कछु सूझ न | + | जाचक दान मान संतोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे॥ |
− | रामु तुरत मुनि बेषु बनाई। चले जनक जननिहि सिरु | + | दासीं दास बोलाइ बहोरी। गुरहि सौंपि बोले कर जोरी॥ |
− | दो0-सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बंधु समेत। | + | सब कै सार सँभार गोसाईं। करबि जनक जननी की नाई॥ |
− | + | बारहिं बार जोरि जुग पानी। कहत रामु सब सन मृदु बानी॥ | |
− | + | सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जेहि तें रहै भुआल सुखारी॥ | |
− | निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े। देखे लोग बिरह दव | + | दो0-मातु सकल मोरे बिरहँ जेहिं न होहिं दुख दीन। |
− | कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर | + | सोइ उपाउ तुम्ह करेहु सब पुर जन परम प्रबीन॥80॥ |
− | गुर सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनय बस | + | |
− | जाचक दान मान संतोषे। मीत पुनीत प्रेम | + | एहि बिधि राम सबहि समुझावा। गुर पद पदुम हरषि सिरु नावा। |
− | दासीं दास बोलाइ बहोरी। गुरहि सौंपि बोले कर | + | गनपती गौरि गिरीसु मनाई। चले असीस पाइ रघुराई॥ |
− | सब कै सार सँभार गोसाईं। करबि जनक जननी की | + | राम चलत अति भयउ बिषादू। सुनि न जाइ पुर आरत नादू॥ |
− | बारहिं बार जोरि जुग पानी। कहत रामु सब सन मृदु | + | कुसगुन लंक अवध अति सोकू। हहरष बिषाद बिबस सुरलोकू॥ |
− | सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जेहि तें रहै भुआल | + | गइ मुरुछा तब भूपति जागे। बोलि सुमंत्रु कहन अस लागे॥ |
− | दो0-मातु सकल मोरे बिरहँ जेहिं न होहिं दुख दीन। | + | रामु चले बन प्रान न जाहीं। केहि सुख लागि रहत तन माहीं। |
− | + | एहि तें कवन ब्यथा बलवाना। जो दुखु पाइ तजहिं तनु प्राना॥ | |
− | + | पुनि धरि धीर कहइ नरनाहू। लै रथु संग सखा तुम्ह जाहू॥ | |
− | एहि बिधि राम सबहि समुझावा। गुर पद पदुम हरषि सिरु नावा। | + | दो0–सुठि सुकुमार कुमार दोउ जनकसुता सुकुमारि। |
− | गनपती गौरि गिरीसु मनाई। चले असीस पाइ | + | रथ चढ़ाइ देखराइ बनु फिरेहु गएँ दिन चारि॥81॥ |
− | राम चलत अति भयउ बिषादू। सुनि न जाइ पुर आरत | + | |
− | कुसगुन लंक अवध अति सोकू। हहरष बिषाद बिबस | + | जौ नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसंध दृढ़ब्रत रघुराई॥ |
− | गइ मुरुछा तब भूपति जागे। बोलि सुमंत्रु कहन अस | + | तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी॥ |
− | रामु चले बन प्रान न जाहीं। केहि सुख लागि रहत तन माहीं। | + | जब सिय कानन देखि डेराई। कहेहु मोरि सिख अवसरु पाई॥ |
− | एहि तें कवन ब्यथा बलवाना। जो दुखु पाइ तजहिं तनु | + | सासु ससुर अस कहेउ सँदेसू। पुत्रि फिरिअ बन बहुत कलेसू॥ |
− | पुनि धरि धीर कहइ नरनाहू। लै रथु संग सखा तुम्ह | + | पितृगृह कबहुँ कबहुँ ससुरारी। रहेहु जहाँ रुचि होइ तुम्हारी॥ |
− | + | एहि बिधि करेहु उपाय कदंबा। फिरइ त होइ प्रान अवलंबा॥ | |
− | + | नाहिं त मोर मरनु परिनामा। कछु न बसाइ भएँ बिधि बामा॥ | |
− | + | अस कहि मुरुछि परा महि राऊ। रामु लखनु सिय आनि देखाऊ॥ | |
− | जौ नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसंध दृढ़ब्रत | + | दो0–पाइ रजायसु नाइ सिरु रथु अति बेग बनाइ। |
− | तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु | + | गयउ जहाँ बाहेर नगर सीय सहित दोउ भाइ॥82॥ |
− | जब सिय कानन देखि डेराई। कहेहु मोरि सिख अवसरु | + | |
− | सासु ससुर अस कहेउ सँदेसू। पुत्रि फिरिअ बन बहुत | + | तब सुमंत्र नृप बचन सुनाए। करि बिनती रथ रामु चढ़ाए॥ |
− | पितृगृह कबहुँ कबहुँ ससुरारी। रहेहु जहाँ रुचि होइ | + | चढ़ि रथ सीय सहित दोउ भाई। चले हृदयँ अवधहि सिरु नाई॥ |
− | एहि बिधि करेहु उपाय कदंबा। फिरइ त होइ प्रान | + | चलत रामु लखि अवध अनाथा। बिकल लोग सब लागे साथा॥ |
− | नाहिं त मोर मरनु परिनामा। कछु न बसाइ भएँ बिधि | + | कृपासिंधु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेम बस पुनि फिरि आवहिं॥ |
− | अस कहि मुरुछि परा महि राऊ। रामु लखनु सिय आनि | + | लागति अवध भयावनि भारी। मानहुँ कालराति अँधिआरी॥ |
− | + | घोर जंतु सम पुर नर नारी। डरपहिं एकहि एक निहारी॥ | |
− | + | घर मसान परिजन जनु भूता। सुत हित मीत मनहुँ जमदूता॥ | |
− | + | बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं। सरित सरोवर देखि न जाहीं॥ | |
− | तब सुमंत्र नृप बचन सुनाए। करि बिनती रथ रामु | + | दो0-हय गय कोटिन्ह केलिमृग पुरपसु चातक मोर। |
− | चढ़ि रथ सीय सहित दोउ भाई। चले हृदयँ अवधहि सिरु | + | पिक रथांग सुक सारिका सारस हंस चकोर॥83॥ |
− | चलत रामु लखि अवध अनाथा। बिकल लोग सब लागे | + | |
− | कृपासिंधु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेम बस पुनि फिरि | + | राम बियोग बिकल सब ठाढ़े। जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढ़े॥ |
− | लागति अवध भयावनि भारी। मानहुँ कालराति | + | नगरु सफल बनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर नारी॥ |
− | घोर जंतु सम पुर नर नारी। डरपहिं एकहि एक | + | बिधि कैकेई किरातिनि कीन्ही। जेंहि दव दुसह दसहुँ दिसि दीन्ही॥ |
− | घर मसान परिजन जनु भूता। सुत हित मीत मनहुँ | + | सहि न सके रघुबर बिरहागी। चले लोग सब ब्याकुल भागी॥ |
− | बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं। सरित सरोवर देखि न | + | सबहिं बिचार कीन्ह मन माहीं। राम लखन सिय बिनु सुखु नाहीं॥ |
− | दो0-हय गय कोटिन्ह केलिमृग पुरपसु चातक मोर। | + | जहाँ रामु तहँ सबुइ समाजू। बिनु रघुबीर अवध नहिं काजू॥ |
− | + | चले साथ अस मंत्रु दृढ़ाई। सुर दुर्लभ सुख सदन बिहाई॥ | |
− | + | राम चरन पंकज प्रिय जिन्हही। बिषय भोग बस करहिं कि तिन्हही॥ | |
− | राम बियोग बिकल सब ठाढ़े। जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि | + | दो0-बालक बृद्ध बिहाइ गृँह लगे लोग सब साथ। |
− | नगरु सफल बनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर | + | तमसा तीर निवासु किय प्रथम दिवस रघुनाथ॥84॥ |
− | बिधि कैकेई किरातिनि कीन्ही। जेंहि दव दुसह दसहुँ दिसि | + | |
− | सहि न सके रघुबर बिरहागी। चले लोग सब ब्याकुल | + | रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी। सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी॥ |
− | सबहिं बिचार कीन्ह मन माहीं। राम लखन सिय बिनु सुखु | + | करुनामय रघुनाथ गोसाँई। बेगि पाइअहिं पीर पराई॥ |
− | जहाँ रामु तहँ सबुइ समाजू। बिनु रघुबीर अवध नहिं | + | कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए। बहुबिधि राम लोग समुझाए॥ |
− | चले साथ अस मंत्रु दृढ़ाई। सुर दुर्लभ सुख सदन | + | किए धरम उपदेस घनेरे। लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे॥ |
− | राम चरन पंकज प्रिय जिन्हही। बिषय भोग बस करहिं कि | + | सीलु सनेहु छाड़ि नहिं जाई। असमंजस बस भे रघुराई॥ |
− | दो0-बालक बृद्ध बिहाइ गृँह लगे लोग सब साथ। | + | लोग सोग श्रम बस गए सोई। कछुक देवमायाँ मति मोई॥ |
− | + | जबहिं जाम जुग जामिनि बीती। राम सचिव सन कहेउ सप्रीती॥ | |
− | + | खोज मारि रथु हाँकहु ताता। आन उपायँ बनिहि नहिं बाता॥ | |
− | रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी। सदय हृदयँ दुखु भयउ | + | दो0-राम लखन सुय जान चढ़ि संभु चरन सिरु नाइ॥ |
− | करुनामय रघुनाथ गोसाँई। बेगि पाइअहिं पीर | + | सचिवँ चलायउ तुरत रथु इत उत खोज दुराइ॥85॥ |
− | कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए। बहुबिधि राम लोग | + | |
− | किए धरम उपदेस घनेरे। लोग प्रेम बस फिरहिं न | + | जागे सकल लोग भएँ भोरू। गे रघुनाथ भयउ अति सोरू॥ |
− | सीलु सनेहु छाड़ि नहिं जाई। असमंजस बस भे | + | रथ कर खोज कतहहुँ नहिं पावहिं। राम राम कहि चहु दिसि धावहिं॥ |
− | लोग सोग श्रम बस गए सोई। कछुक देवमायाँ मति | + | मनहुँ बारिनिधि बूड़ जहाजू। भयउ बिकल बड़ बनिक समाजू॥ |
− | जबहिं जाम जुग जामिनि बीती। राम सचिव सन कहेउ | + | एकहि एक देंहिं उपदेसू। तजे राम हम जानि कलेसू॥ |
− | खोज मारि रथु हाँकहु ताता। आन उपायँ बनिहि नहिं | + | निंदहिं आपु सराहहिं मीना। धिग जीवनु रघुबीर बिहीना॥ |
− | दो0-राम लखन सुय जान चढ़ि संभु चरन सिरु | + | जौं पै प्रिय बियोगु बिधि कीन्हा। तौ कस मरनु न मागें दीन्हा॥ |
− | + | एहि बिधि करत प्रलाप कलापा। आए अवध भरे परितापा॥ | |
− | + | बिषम बियोगु न जाइ बखाना। अवधि आस सब राखहिं प्राना॥ | |
− | जागे सकल लोग भएँ भोरू। गे रघुनाथ भयउ अति | + | दो0-राम दरस हित नेम ब्रत लगे करन नर नारि। |
− | रथ कर खोज कतहहुँ नहिं पावहिं। राम राम कहि चहु दिसि | + | मनहुँ कोक कोकी कमल दीन बिहीन तमारि॥86॥ |
− | मनहुँ बारिनिधि बूड़ जहाजू। भयउ बिकल बड़ बनिक | + | |
− | एकहि एक देंहिं उपदेसू। तजे राम हम जानि | + | सीता सचिव सहित दोउ भाई। सृंगबेरपुर पहुँचे जाई॥ |
− | निंदहिं आपु सराहहिं मीना। धिग जीवनु रघुबीर | + | उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी॥ |
− | जौं पै प्रिय बियोगु बिधि कीन्हा। तौ कस मरनु न मागें | + | लखन सचिवँ सियँ किए प्रनामा। सबहि सहित सुखु पायउ रामा॥ |
− | एहि बिधि करत प्रलाप कलापा। आए अवध भरे | + | गंग सकल मुद मंगल मूला। सब सुख करनि हरनि सब सूला॥ |
− | बिषम बियोगु न जाइ बखाना। अवधि आस सब राखहिं | + | कहि कहि कोटिक कथा प्रसंगा। रामु बिलोकहिं गंग तरंगा॥ |
− | दो0-राम दरस हित नेम ब्रत लगे करन नर नारि। | + | सचिवहि अनुजहि प्रियहि सुनाई। बिबुध नदी महिमा अधिकाई॥ |
− | + | मज्जनु कीन्ह पंथ श्रम गयऊ। सुचि जलु पिअत मुदित मन भयऊ॥ | |
− | + | सुमिरत जाहि मिटइ श्रम भारू। तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू॥ | |
− | सीता सचिव सहित दोउ भाई। सृंगबेरपुर पहुँचे | + | दो0-सुध्द सचिदानंदमय कंद भानुकुल केतु। |
− | उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु | + | चरित करत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु॥87॥ |
− | लखन सचिवँ सियँ किए प्रनामा। सबहि सहित सुखु पायउ | + | |
− | गंग सकल मुद मंगल मूला। सब सुख करनि हरनि सब | + | यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई॥ |
− | कहि कहि कोटिक कथा प्रसंगा। रामु बिलोकहिं गंग | + | लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हिँयँ हरषु अपारा॥ |
− | सचिवहि अनुजहि प्रियहि सुनाई। बिबुध नदी महिमा | + | करि दंडवत भेंट धरि आगें। प्रभुहि बिलोकत अति अनुरागें॥ |
− | मज्जनु कीन्ह पंथ श्रम गयऊ। सुचि जलु पिअत मुदित मन | + | सहज सनेह बिबस रघुराई। पूँछी कुसल निकट बैठाई॥ |
− | सुमिरत जाहि मिटइ श्रम भारू। तेहि श्रम यह लौकिक | + | नाथ कुसल पद पंकज देखें। भयउँ भागभाजन जन लेखें॥ |
− | दो0-सुध्द सचिदानंदमय कंद भानुकुल केतु। | + | देव धरनि धनु धामु तुम्हारा। मैं जनु नीचु सहित परिवारा॥ |
− | + | कृपा करिअ पुर धारिअ पाऊ। थापिय जनु सबु लोगु सिहाऊ॥ | |
− | + | कहेहु सत्य सबु सखा सुजाना। मोहि दीन्ह पितु आयसु आना॥ | |
− | यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बंधु | + | दो0-बरष चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारु। |
− | लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हिँयँ हरषु | + | ग्राम बासु नहिं उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारु॥88॥ |
− | करि दंडवत भेंट धरि आगें। प्रभुहि बिलोकत अति | + | |
− | सहज सनेह बिबस रघुराई। पूँछी कुसल निकट | + | राम लखन सिय रूप निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी॥ |
− | नाथ कुसल पद पंकज देखें। भयउँ भागभाजन जन | + | ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥ |
− | देव धरनि धनु धामु तुम्हारा। मैं जनु नीचु सहित | + | एक कहहिं भल भूपति कीन्हा। लोयन लाहु हमहि बिधि दीन्हा॥ |
− | कृपा करिअ पुर धारिअ पाऊ। थापिय जनु सबु लोगु | + | तब निषादपति उर अनुमाना। तरु सिंसुपा मनोहर जाना॥ |
− | कहेहु सत्य सबु सखा सुजाना। मोहि दीन्ह पितु आयसु | + | लै रघुनाथहि ठाउँ देखावा। कहेउ राम सब भाँति सुहावा॥ |
− | दो0-बरष चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारु। | + | पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर संध्या करन सिधाए॥ |
− | + | गुहँ सँवारि साँथरी डसाई। कुस किसलयमय मृदुल सुहाई॥ | |
− | + | सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना भरि भरि राखेसि पानी॥ | |
− | राम लखन सिय रूप निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर | + | दो0-सिय सुमंत्र भ्राता सहित कंद मूल फल खाइ। |
− | ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक | + | सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय पलोटत भाइ॥89॥ |
− | एक कहहिं भल भूपति कीन्हा। लोयन लाहु हमहि बिधि | + | |
− | तब निषादपति उर अनुमाना। तरु सिंसुपा मनोहर | + | उठे लखनु प्रभु सोवत जानी। कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी॥ |
− | लै रघुनाथहि ठाउँ देखावा। कहेउ राम सब भाँति | + | कछुक दूर सजि बान सरासन। जागन लगे बैठि बीरासन॥ |
− | पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर संध्या करन | + | गुँह बोलाइ पाहरू प्रतीती। ठावँ ठाँव राखे अति प्रीती॥ |
− | गुहँ सँवारि साँथरी डसाई। कुस किसलयमय मृदुल | + | आपु लखन पहिं बैठेउ जाई। कटि भाथी सर चाप चढ़ाई॥ |
− | सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना भरि भरि राखेसि | + | सोवत प्रभुहि निहारि निषादू। भयउ प्रेम बस ह्दयँ बिषादू॥ |
− | दो0-सिय सुमंत्र भ्राता सहित कंद मूल फल खाइ। | + | तनु पुलकित जलु लोचन बहई। बचन सप्रेम लखन सन कहई॥ |
− | + | भूपति भवन सुभायँ सुहावा। सुरपति सदनु न पटतर पावा॥ | |
− | + | मनिमय रचित चारु चौबारे। जनु रतिपति निज हाथ सँवारे॥ | |
− | उठे लखनु प्रभु सोवत जानी। कहि सचिवहि सोवन मृदु | + | दो0-सुचि सुबिचित्र सुभोगमय सुमन सुगंध सुबास। |
− | कछुक दूर सजि बान सरासन। जागन लगे बैठि | + | पलँग मंजु मनिदीप जहँ सब बिधि सकल सुपास॥90॥ |
− | गुँह बोलाइ पाहरू प्रतीती। ठावँ ठाँव राखे अति | + | |
− | आपु लखन पहिं बैठेउ जाई। कटि भाथी सर चाप | + | बिबिध बसन उपधान तुराई। छीर फेन मृदु बिसद सुहाई॥ |
− | सोवत प्रभुहि निहारि निषादू। भयउ प्रेम बस ह्दयँ | + | तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं। निज छबि रति मनोज मदु हरहीं॥ |
− | तनु पुलकित जलु लोचन बहई। बचन सप्रेम लखन सन | + | ते सिय रामु साथरीं सोए। श्रमित बसन बिनु जाहिं न जोए॥ |
− | भूपति भवन सुभायँ सुहावा। सुरपति सदनु न पटतर | + | मातु पिता परिजन पुरबासी। सखा सुसील दास अरु दासी॥ |
− | मनिमय रचित चारु चौबारे। जनु रतिपति निज हाथ | + | जोगवहिं जिन्हहि प्रान की नाई। महि सोवत तेइ राम गोसाईं॥ |
− | दो0-सुचि सुबिचित्र सुभोगमय सुमन सुगंध सुबास। | + | पिता जनक जग बिदित प्रभाऊ। ससुर सुरेस सखा रघुराऊ॥ |
− | + | रामचंदु पति सो बैदेही। सोवत महि बिधि बाम न केही॥ | |
− | + | सिय रघुबीर कि कानन जोगू। करम प्रधान सत्य कह लोगू॥ | |
− | बिबिध बसन उपधान तुराई। छीर फेन मृदु बिसद | + | दो0-कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह। |
− | तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं। निज छबि रति मनोज मदु | + | जेहीं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह॥91॥ |
− | ते सिय रामु साथरीं सोए। श्रमित बसन बिनु जाहिं न | + | |
− | मातु पिता परिजन पुरबासी। सखा सुसील दास अरु | + | भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी। कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी॥ |
− | जोगवहिं जिन्हहि प्रान की नाई। महि सोवत तेइ राम | + | भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी॥ |
− | पिता जनक जग बिदित प्रभाऊ। ससुर सुरेस सखा | + | बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी॥ |
− | रामचंदु पति सो बैदेही। सोवत महि बिधि बाम न | + | काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥ |
− | सिय रघुबीर कि कानन जोगू। करम प्रधान सत्य कह | + | जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥ |
− | दो0-कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह। | + | जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपती बिपति करमु अरु कालू॥ |
− | + | धरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥ | |
− | + | देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं॥ | |
− | भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी। कुमति कीन्ह सब बिस्व | + | दो0-सपनें होइ भिखारि नृप रंकु नाकपति होइ। |
− | भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन | + | जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ॥92॥ |
− | बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस | + | |
− | काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु | + | अस बिचारि नहिं कीजअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू॥ |
− | जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम | + | मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा॥ |
− | जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपती बिपति करमु अरु | + | एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥ |
− | धरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि | + | जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब जब बिषय बिलास बिरागा॥ |
− | देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु | + | होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥ |
− | दो0-सपनें होइ भिखारि नृप रंकु नाकपति होइ। | + | सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू॥ |
− | + | राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा॥ | |
− | + | सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा। | |
− | अस बिचारि नहिं कीजअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ | + | दो0-भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल। |
− | मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक | + | करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहि जग जाल॥93॥ |
− | एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच | + | |
− | जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब जब बिषय बिलास | + | मासपारायण, पंद्रहवा विश्राम |
− | होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन | + | |
− | सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद | + | सखा समुझि अस परिहरि मोहु। सिय रघुबीर चरन रत होहू॥ |
− | राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि | + | कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागे जग मंगल सुखदारा॥ |
− | सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा। | + | सकल सोच करि राम नहावा। सुचि सुजान बट छीर मगावा॥ |
− | दो0-भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल। | + | अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए॥ |
− | + | हृदयँ दाहु अति बदन मलीना। कह कर जोरि बचन अति दीना॥ | |
− | + | नाथ कहेउ अस कोसलनाथा। लै रथु जाहु राम कें साथा॥ | |
− | + | बनु देखाइ सुरसरि अन्हवाई। आनेहु फेरि बेगि दोउ भाई॥ | |
− | सखा समुझि अस परिहरि मोहु। सिय रघुबीर चरन रत | + | लखनु रामु सिय आनेहु फेरी। संसय सकल सँकोच निबेरी॥ |
− | कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागे जग मंगल | + | दो0-नृप अस कहेउ गोसाईँ जस कहइ करौं बलि सोइ। |
− | सकल सोच करि राम नहावा। सुचि सुजान बट छीर | + | करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ॥94॥ |
− | अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल | + | |
− | हृदयँ दाहु अति बदन मलीना। कह कर जोरि बचन अति | + | तात कृपा करि कीजिअ सोई। जातें अवध अनाथ न होई॥ |
− | नाथ कहेउ अस | + | मंत्रहि राम उठाइ प्रबोधा। तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा॥ |
− | बनु देखाइ सुरसरि अन्हवाई। आनेहु फेरि बेगि दोउ | + | सिबि दधीचि हरिचंद नरेसा। सहे धरम हित कोटि कलेसा॥ |
− | लखनु रामु सिय आनेहु फेरी। संसय सकल सँकोच | + | रंतिदेव बलि भूप सुजाना। धरमु धरेउ सहि संकट नाना॥ |
− | दो0-नृप अस कहेउ गोसाईँ जस कहइ करौं बलि सोइ। | + | धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना॥ |
− | + | मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा। तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा॥ | |
− | + | संभावित कहुँ अपजस लाहू। मरन कोटि सम दारुन दाहू॥ | |
− | तात कृपा करि कीजिअ सोई। जातें अवध अनाथ न | + | तुम्ह सन तात बहुत का कहऊँ। दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ॥ |
− | मंत्रहि राम उठाइ प्रबोधा। तात धरम मतु तुम्ह सबु | + | दो0-पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि। |
− | सिबि दधीचि हरिचंद नरेसा। सहे धरम हित कोटि | + | चिंता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि॥95॥ |
− | रंतिदेव बलि भूप सुजाना। धरमु धरेउ सहि संकट | + | |
− | धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान | + | तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें। बिनती करउँ तात कर जोरें॥ |
− | मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा। तजें तिहूँ पुर अपजसु | + | सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच हमारें॥ |
− | संभावित कहुँ अपजस लाहू। मरन कोटि सम दारुन | + | सुनि रघुनाथ सचिव संबादू। भयउ सपरिजन बिकल निषादू॥ |
− | तुम्ह सन तात बहुत का कहऊँ। दिएँ उतरु फिरि पातकु | + | पुनि कछु लखन कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी॥ |
− | दो0-पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि। | + | सकुचि राम निज सपथ देवाई। लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई॥ |
− | + | कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू। सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू॥ | |
− | + | जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया। सोइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया॥ | |
− | तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें। बिनती करउँ तात कर | + | नतरु निपट अवलंब बिहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना॥ |
− | सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच | + | दो0-मइकें ससरें सकल सुख जबहिं जहाँ मनु मान॥ |
− | सुनि रघुनाथ सचिव संबादू। भयउ सपरिजन बिकल | + | तँह तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान॥96॥ |
− | पुनि कछु लखन कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित | + | |
− | सकुचि राम निज सपथ देवाई। लखन सँदेसु कहिअ जनि | + | बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती। आरति प्रीति न सो कहि जाती॥ |
− | कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू। सहि न सकिहि सिय बिपिन | + | पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना॥ |
− | जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया। सोइ रघुबरहि तुम्हहि | + | सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू। फिरतु त सब कर मिटै खभारू॥ |
− | नतरु निपट अवलंब बिहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु | + | सुनि पति बचन कहति बैदेही। सुनहु प्रानपति परम सनेही॥ |
− | दो0-मइकें ससरें सकल सुख जबहिं जहाँ मनु | + | प्रभु करुनामय परम बिबेकी। तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी॥ |
− | + | प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई। कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई॥ | |
− | + | पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई। कहति सचिव सन गिरा सुहाई॥ | |
− | बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती। आरति प्रीति न सो कहि | + | तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी। उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी॥ |
− | पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह सिख कोटि | + | दो0-आरति बस सनमुख भइउँ बिलगु न मानब तात। |
− | सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू। फिरतु त सब कर मिटै | + | आरजसुत पद कमल बिनु बादि जहाँ लगि नात॥97॥ |
− | सुनि पति बचन कहति बैदेही। सुनहु प्रानपति परम | + | |
− | प्रभु करुनामय परम बिबेकी। तनु तजि रहति छाँह किमि | + | पितु बैभव बिलास मैं डीठा। नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा॥ |
− | प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई। कहँ चंद्रिका चंदु तजि | + | सुखनिधान अस पितु गृह मोरें। पिय बिहीन मन भाव न भोरें॥ |
− | पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई। कहति सचिव सन गिरा | + | ससुर चक्कवइ कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ॥ |
− | तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी। उतरु देउँ फिरि अनुचित | + | आगें होइ जेहि सुरपति लेई। अरध सिंघासन आसनु देई॥ |
− | दो0-आरति बस सनमुख भइउँ बिलगु न मानब तात। | + | ससुरु एतादृस अवध निवासू। प्रिय परिवारु मातु सम सासू॥ |
− | + | बिनु रघुपति पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा॥ | |
− | + | अगम पंथ बनभूमि पहारा। करि केहरि सर सरित अपारा॥ | |
− | पितु बैभव बिलास मैं डीठा। नृप मनि मुकुट मिलित पद | + | कोल किरात कुरंग बिहंगा। मोहि सब सुखद प्रानपति संगा॥ |
− | सुखनिधान अस पितु गृह मोरें। पिय बिहीन मन भाव न | + | दो0-सासु ससुर सन मोरि हुँति बिनय करबि परि पायँ॥ |
− | ससुर चक्कवइ कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट | + | मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ॥98॥ |
− | आगें होइ जेहि सुरपति लेई। अरध सिंघासन आसनु | + | |
− | ससुरु एतादृस अवध निवासू। प्रिय परिवारु मातु सम | + | प्राननाथ प्रिय देवर साथा। बीर धुरीन धरें धनु भाथा॥ |
− | बिनु रघुपति पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न | + | नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें। मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरें॥ |
− | अगम पंथ बनभूमि पहारा। करि केहरि सर सरित | + | सुनि सुमंत्रु सिय सीतलि बानी। भयउ बिकल जनु फनि मनि हानी॥ |
− | कोल किरात कुरंग बिहंगा। मोहि सब सुखद प्रानपति | + | नयन सूझ नहिं सुनइ न काना। कहि न सकइ कछु अति अकुलाना॥ |
− | दो0-सासु ससुर सन मोरि हुँति बिनय करबि परि | + | राम प्रबोधु कीन्ह बहु भाँति। तदपि होति नहिं सीतलि छाती॥ |
− | + | जतन अनेक साथ हित कीन्हे। उचित उतर रघुनंदन दीन्हे॥ | |
− | + | मेटि जाइ नहिं राम रजाई। कठिन करम गति कछु न बसाई॥ | |
− | प्राननाथ प्रिय देवर साथा। बीर धुरीन धरें धनु | + | राम लखन सिय पद सिरु नाई। फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई॥ |
− | नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें। मोहि लगि सोचु करिअ जनि | + | दो0–रथ हाँकेउ हय राम तन हेरि हेरि हिहिनाहिं। |
− | सुनि सुमंत्रु सिय सीतलि बानी। भयउ बिकल जनु फनि मनि | + | देखि निषाद बिषादबस धुनहिं सीस पछिताहिं॥99॥ |
− | नयन सूझ नहिं सुनइ न काना। कहि न सकइ कछु अति | + | |
− | राम प्रबोधु कीन्ह बहु भाँति। तदपि होति नहिं सीतलि | + | जासु बियोग बिकल पसु ऐसे। प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें॥ |
− | जतन अनेक साथ हित कीन्हे। उचित उतर रघुनंदन | + | बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए॥ |
− | मेटि जाइ नहिं राम रजाई। कठिन करम गति कछु न | + | मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥ |
− | राम लखन सिय पद सिरु नाई। फिरेउ बनिक जिमि मूर | + | चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥ |
− | + | छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥ | |
− | + | तरनिउ मुनि घरिनि होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥ | |
− | + | एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥ | |
− | जासु बियोग बिकल पसु ऐसे। प्रजा मातु पितु जिइहहिं | + | जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥ |
− | बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब | + | छं0-पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं। |
− | मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं | + | मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं॥ |
− | चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु | + | बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं। |
− | छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ | + | तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥ |
− | तरनिउ मुनि घरिनि होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव | + | सो0-सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे। |
− | एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर | + | बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥100॥ |
− | जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन | + | </poem> |
− | छं0-पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं। | + | |
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12:07, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण
उतरु न देइ दुसह रिस रूखी। मृगिन्ह चितव जनु बाघिनि भूखी॥
ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी। चलीं कहत मतिमंद अभागी॥
राजु करत यह दैअँ बिगोई। कीन्हेसि अस जस करइ न कोई॥
एहि बिधि बिलपहिं पुर नर नारीं। देहिं कुचालिहि कोटिक गारीं॥
जरहिं बिषम जर लेहिं उसासा। कवनि राम बिनु जीवन आसा॥
बिपुल बियोग प्रजा अकुलानी। जनु जलचर गन सूखत पानी॥
अति बिषाद बस लोग लोगाई। गए मातु पहिं रामु गोसाई॥
मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ। मिटा सोचु जनि राखै राऊ॥
दो-नव गयंदु रघुबीर मनु राजु अलान समान।
छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान॥51॥
रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा॥
दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि कीन्हे॥
बार बार मुख चुंबति माता। नयन नेह जलु पुलकित गाता॥
गोद राखि पुनि हृदयँ लगाए। स्त्रवत प्रेनरस पयद सुहाए॥
प्रेमु प्रमोदु न कछु कहि जाई। रंक धनद पदबी जनु पाई॥
सादर सुंदर बदनु निहारी। बोली मधुर बचन महतारी॥
कहहु तात जननी बलिहारी। कबहिं लगन मुद मंगलकारी॥
सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई। जनम लाभ कइ अवधि अघाई॥
दो0- जेहि चाहत नर नारि सब अति आरत एहि भाँति।
जिमि चातक चातकि तृषित बृष्टि सरद रितु स्वाति॥52॥
तात जाउँ बलि बेगि नहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू॥
पितु समीप तब जाएहु भैआ। भइ बड़ि बार जाइ बलि मैआ॥
मातु बचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरु के फूला॥
सुख मकरंद भरे श्रियमूला। निरखि राम मनु भवरुँ न भूला॥
धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी॥
पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू॥
आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता॥
जनि सनेह बस डरपसि भोरें। आनँदु अंब अनुग्रह तोरें॥
दो0-बरष चारिदस बिपिन बसि करि पितु बचन प्रमान।
आइ पाय पुनि देखिहउँ मनु जनि करसि मलान॥53॥
बचन बिनीत मधुर रघुबर के। सर सम लगे मातु उर करके॥
सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी। जिमि जवास परें पावस पानी॥
कहि न जाइ कछु हृदय बिषादू। मनहुँ मृगी सुनि केहरि नादू॥
नयन सजल तन थर थर काँपी। माजहि खाइ मीन जनु मापी॥
धरि धीरजु सुत बदनु निहारी। गदगद बचन कहति महतारी॥
तात पितहि तुम्ह प्रानपिआरे। देखि मुदित नित चरित तुम्हारे॥
राजु देन कहुँ सुभ दिन साधा। कहेउ जान बन केहिं अपराधा॥
तात सुनावहु मोहि निदानू। को दिनकर कुल भयउ कृसानू॥
दो0-निरखि राम रुख सचिवसुत कारनु कहेउ बुझाइ।
सुनि प्रसंगु रहि मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाइ॥54॥
राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू॥
लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब काहू॥
धरम सनेह उभयँ मति घेरी। भइ गति साँप छुछुंदरि केरी॥
राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू। धरमु जाइ अरु बंधु बिरोधू॥
कहउँ जान बन तौ बड़ि हानी। संकट सोच बिबस भइ रानी॥
बहुरि समुझि तिय धरमु सयानी। रामु भरतु दोउ सुत सम जानी॥
सरल सुभाउ राम महतारी। बोली बचन धीर धरि भारी॥
तात जाउँ बलि कीन्हेहु नीका। पितु आयसु सब धरमक टीका॥
दो0-राजु देन कहि दीन्ह बनु मोहि न सो दुख लेसु।
तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचंड कलेसु॥55॥
जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता॥
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौं कानन सत अवध समाना॥
पितु बनदेव मातु बनदेवी। खग मृग चरन सरोरुह सेवी॥
अंतहुँ उचित नृपहि बनबासू। बय बिलोकि हियँ होइ हराँसू॥
बड़भागी बनु अवध अभागी। जो रघुबंसतिलक तुम्ह त्यागी॥
जौं सुत कहौ संग मोहि लेहू। तुम्हरे हृदयँ होइ संदेहू॥
पूत परम प्रिय तुम्ह सबही के। प्रान प्रान के जीवन जी के॥
ते तुम्ह कहहु मातु बन जाऊँ। मैं सुनि बचन बैठि पछिताऊँ॥
दो0-यह बिचारि नहिं करउँ हठ झूठ सनेहु बढ़ाइ।
मानि मातु कर नात बलि सुरति बिसरि जनि जाइ॥56॥
देव पितर सब तुन्हहि गोसाई। राखहुँ पलक नयन की नाई॥
अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना॥
अस बिचारि सोइ करहु उपाई। सबहि जिअत जेहिं भेंटेहु आई॥
जाहु सुखेन बनहि बलि जाऊँ। करि अनाथ जन परिजन गाऊँ॥
सब कर आजु सुकृत फल बीता। भयउ कराल कालु बिपरीता॥
बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहि जानी॥
दारुन दुसह दाहु उर ब्यापा। बरनि न जाहिं बिलाप कलापा॥
राम उठाइ मातु उर लाई। कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई॥
दो0-समाचार तेहि समय सुनि सीय उठी अकुलाइ।
जाइ सासु पद कमल जुग बंदि बैठि सिरु नाइ॥57॥
दीन्हि असीस सासु मृदु बानी। अति सुकुमारि देखि अकुलानी॥
बैठि नमितमुख सोचति सीता। रूप रासि पति प्रेम पुनीता॥
चलन चहत बन जीवननाथू। केहि सुकृती सन होइहि साथू॥
की तनु प्रान कि केवल प्राना। बिधि करतबु कछु जाइ न जाना॥
चारु चरन नख लेखति धरनी। नूपुर मुखर मधुर कबि बरनी॥
मनहुँ प्रेम बस बिनती करहीं। हमहि सीय पद जनि परिहरहीं॥
मंजु बिलोचन मोचति बारी। बोली देखि राम महतारी॥
तात सुनहु सिय अति सुकुमारी। सासु ससुर परिजनहि पिआरी॥
दो0-पिता जनक भूपाल मनि ससुर भानुकुल भानु।
पति रबिकुल कैरव बिपिन बिधु गुन रूप निधानु॥58॥
मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई॥
नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानिकिहिं लाई॥
कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली। सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली॥
फूलत फलत भयउ बिधि बामा। जानि न जाइ काह परिनामा॥
पलँग पीठ तजि गोद हिंड़ोरा। सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा॥
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहऊँ। दीप बाति नहिं टारन कहऊँ॥
सोइ सिय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा।
चंद किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुख नयन सकइ किमि जोरी॥
दो0-करि केहरि निसिचर चरहिं दुष्ट जंतु बन भूरि।
बिष बाटिकाँ कि सोह सुत सुभग सजीवनि मूरि॥59॥
बन हित कोल किरात किसोरी। रचीं बिरंचि बिषय सुख भोरी॥
पाइन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ॥
कै तापस तिय कानन जोगू। जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू॥
सिय बन बसिहि तात केहि भाँती। चित्रलिखित कपि देखि डेराती॥
सुरसर सुभग बनज बन चारी। डाबर जोगु कि हंसकुमारी॥
अस बिचारि जस आयसु होई। मैं सिख देउँ जानकिहि सोई॥
जौं सिय भवन रहै कह अंबा। मोहि कहँ होइ बहुत अवलंबा॥
सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी। सील सनेह सुधाँ जनु सानी॥
दो0-कहि प्रिय बचन बिबेकमय कीन्हि मातु परितोष।
लगे प्रबोधन जानकिहि प्रगटि बिपिन गुन दोष॥60॥
मासपारायण, चौदहवाँ विश्राम
मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समउ समुझि मन माहीं॥
राजकुमारि सिखावन सुनहू। आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू॥
आपन मोर नीक जौं चहहू। बचनु हमार मानि गृह रहहू॥
आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधि भामिनि भवन भलाई॥
एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा। सादर सासु ससुर पद पूजा॥
जब जब मातु करिहि सुधि मोरी। होइहि प्रेम बिकल मति भोरी॥
तब तब तुम्ह कहि कथा पुरानी। सुंदरि समुझाएहु मृदु बानी॥
कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही। सुमुखि मातु हित राखउँ तोही॥
दो0-गुर श्रुति संमत धरम फलु पाइअ बिनहिं कलेस।
हठ बस सब संकट सहे गालव नहुष नरेस॥61॥
मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी॥
दिवस जात नहिं लागिहि बारा। सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा॥
जौ हठ करहु प्रेम बस बामा। तौ तुम्ह दुखु पाउब परिनामा॥
काननु कठिन भयंकरु भारी। घोर घामु हिम बारि बयारी॥
कुस कंटक मग काँकर नाना। चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना॥
चरन कमल मुदु मंजु तुम्हारे। मारग अगम भूमिधर भारे॥
कंदर खोह नदीं नद नारे। अगम अगाध न जाहिं निहारे॥
भालु बाघ बृक केहरि नागा। करहिं नाद सुनि धीरजु भागा॥
दो0-भूमि सयन बलकल बसन असनु कंद फल मूल।
ते कि सदा सब दिन मिलिहिं सबुइ समय अनुकूल॥62॥
नर अहार रजनीचर चरहीं। कपट बेष बिधि कोटिक करहीं॥
लागइ अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी॥
ब्याल कराल बिहग बन घोरा। निसिचर निकर नारि नर चोरा॥
डरपहिं धीर गहन सुधि आएँ। मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ॥
हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू। सुनि अपजसु मोहि देइहि लोगू॥
मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली। जिअइ कि लवन पयोधि मराली॥
नव रसाल बन बिहरनसीला। सोह कि कोकिल बिपिन करीला॥
रहहु भवन अस हृदयँ बिचारी। चंदबदनि दुखु कानन भारी॥
दो0-सहज सुह्द गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि॥
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि॥63॥
सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के। लोचन ललित भरे जल सिय के॥
सीतल सिख दाहक भइ कैंसें। चकइहि सरद चंद निसि जैंसें॥
उतरु न आव बिकल बैदेही। तजन चहत सुचि स्वामि सनेही॥
बरबस रोकि बिलोचन बारी। धरि धीरजु उर अवनिकुमारी॥
लागि सासु पग कह कर जोरी। छमबि देबि बड़ि अबिनय मोरी॥
दीन्हि प्रानपति मोहि सिख सोई। जेहि बिधि मोर परम हित होई॥
मैं पुनि समुझि दीखि मन माहीं। पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं॥
दो0- प्राननाथ करुनायतन सुंदर सुखद सुजान।
तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान॥64॥
मातु पिता भगिनी प्रिय भाई। प्रिय परिवारु सुह्रद समुदाई॥
सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुंदर सुसील सुखदाई॥
जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते॥
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू। पति बिहीन सबु सोक समाजू॥
भोग रोगसम भूषन भारू। जम जातना सरिस संसारू॥
प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं॥
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी॥
नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें। सरद बिमल बिधु बदनु निहारें॥
दो0-खग मृग परिजन नगरु बनु बलकल बिमल दुकूल।
नाथ साथ सुरसदन सम परनसाल सुख मूल॥65॥
बनदेवीं बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम सारा॥
कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई॥
कंद मूल फल अमिअ अहारू। अवध सौध सत सरिस पहारू॥
छिनु छिनु प्रभु पद कमल बिलोकि। रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी॥
बन दुख नाथ कहे बहुतेरे। भय बिषाद परिताप घनेरे॥
प्रभु बियोग लवलेस समाना। सब मिलि होहिं न कृपानिधाना॥
अस जियँ जानि सुजान सिरोमनि। लेइअ संग मोहि छाड़िअ जनि॥
बिनती बहुत करौं का स्वामी। करुनामय उर अंतरजामी॥
दो0-राखिअ अवध जो अवधि लगि रहत न जनिअहिं प्रान।
दीनबंधु संदर सुखद सील सनेह निधान॥66॥
मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी॥
सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं॥
पाय पखारी बैठि तरु छाहीं। करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं॥
श्रम कन सहित स्याम तनु देखें। कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें॥
सम महि तृन तरुपल्लव डासी। पाग पलोटिहि सब निसि दासी॥
बारबार मृदु मूरति जोही। लागहि तात बयारि न मोही।
को प्रभु सँग मोहि चितवनिहारा। सिंघबधुहि जिमि ससक सिआरा॥
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू। तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू॥
दो0-ऐसेउ बचन कठोर सुनि जौं न ह्रदउ बिलगान।
तौ प्रभु बिषम बियोग दुख सहिहहिं पावँर प्रान॥67॥
अस कहि सीय बिकल भइ भारी। बचन बियोगु न सकी सँभारी॥
देखि दसा रघुपति जियँ जाना। हठि राखें नहिं राखिहि प्राना॥
कहेउ कृपाल भानुकुलनाथा। परिहरि सोचु चलहु बन साथा॥
नहिं बिषाद कर अवसरु आजू। बेगि करहु बन गवन समाजू॥
कहि प्रिय बचन प्रिया समुझाई। लगे मातु पद आसिष पाई॥
बेगि प्रजा दुख मेटब आई। जननी निठुर बिसरि जनि जाई॥
फिरहि दसा बिधि बहुरि कि मोरी। देखिहउँ नयन मनोहर जोरी॥
सुदिन सुघरी तात कब होइहि। जननी जिअत बदन बिधु जोइहि॥
दो0-बहुरि बच्छ कहि लालु कहि रघुपति रघुबर तात।
कबहिं बोलाइ लगाइ हियँ हरषि निरखिहउँ गात॥68॥
लखि सनेह कातरि महतारी। बचनु न आव बिकल भइ भारी॥
राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना। समउ सनेहु न जाइ बखाना॥
तब जानकी सासु पग लागी। सुनिअ माय मैं परम अभागी॥
सेवा समय दैअँ बनु दीन्हा। मोर मनोरथु सफल न कीन्हा॥
तजब छोभु जनि छाड़िअ छोहू। करमु कठिन कछु दोसु न मोहू॥
सुनि सिय बचन सासु अकुलानी। दसा कवनि बिधि कहौं बखानी॥
बारहि बार लाइ उर लीन्ही। धरि धीरजु सिख आसिष दीन्ही॥
अचल होउ अहिवातु तुम्हारा। जब लगि गंग जमुन जल धारा॥
दो0-सीतहि सासु असीस सिख दीन्हि अनेक प्रकार।
चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार॥69॥
समाचार जब लछिमन पाए। ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए॥
कंप पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा॥
कहि न सकत कछु चितवत ठाढ़े। मीनु दीन जनु जल तें काढ़े॥
सोचु हृदयँ बिधि का होनिहारा। सबु सुखु सुकृत सिरान हमारा॥
मो कहुँ काह कहब रघुनाथा। रखिहहिं भवन कि लेहहिं साथा॥
राम बिलोकि बंधु कर जोरें। देह गेह सब सन तृनु तोरें॥
बोले बचनु राम नय नागर। सील सनेह सरल सुख सागर॥
तात प्रेम बस जनि कदराहू। समुझि हृदयँ परिनाम उछाहू॥
दो0-मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहि सुभायँ।
लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ॥70॥
अस जियँ जानि सुनहु सिख भाई। करहु मातु पितु पद सेवकाई॥
भवन भरतु रिपुसूदन नाहीं। राउ बृद्ध मम दुखु मन माहीं॥
मैं बन जाउँ तुम्हहि लेइ साथा। होइ सबहि बिधि अवध अनाथा॥
गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू। सब कहुँ परइ दुसह दुख भारू॥
रहहु करहु सब कर परितोषू। नतरु तात होइहि बड़ दोषू॥
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी॥
रहहु तात असि नीति बिचारी। सुनत लखनु भए ब्याकुल भारी॥
सिअरें बचन सूखि गए कैंसें। परसत तुहिन तामरसु जैसें॥
दो0-उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाइ।
नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु त काह बसाइ॥71॥
दीन्हि मोहि सिख नीकि गोसाईं। लागि अगम अपनी कदराईं॥
नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहुँ ते अधिकारी॥
मैं सिसु प्रभु सनेहँ प्रतिपाला। मंदरु मेरु कि लेहिं मराला॥
गुर पितु मातु न जानउँ काहू। कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू॥
जहँ लगि जगत सनेह सगाई। प्रीति प्रतीति निगम निजु गाई॥
मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी॥
धरम नीति उपदेसिअ ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय जाही॥
मन क्रम बचन चरन रत होई। कृपासिंधु परिहरिअ कि सोई॥
दो0-करुनासिंधु सुबंध के सुनि मृदु बचन बिनीत।
समुझाए उर लाइ प्रभु जानि सनेहँ सभीत॥72॥
मागहु बिदा मातु सन जाई। आवहु बेगि चलहु बन भाई॥
मुदित भए सुनि रघुबर बानी। भयउ लाभ बड़ गइ बड़ि हानी॥
हरषित ह्दयँ मातु पहिं आए। मनहुँ अंध फिरि लोचन पाए।
जाइ जननि पग नायउ माथा। मनु रघुनंदन जानकि साथा॥
पूँछे मातु मलिन मन देखी। लखन कही सब कथा बिसेषी॥
गई सहमि सुनि बचन कठोरा। मृगी देखि दव जनु चहु ओरा॥
लखन लखेउ भा अनरथ आजू। एहिं सनेह बस करब अकाजू॥
मागत बिदा सभय सकुचाहीं। जाइ संग बिधि कहिहि कि नाही॥
दो0-समुझि सुमित्राँ राम सिय रूप सुसीलु सुभाउ।
नृप सनेहु लखि धुनेउ सिरु पापिनि दीन्ह कुदाउ॥73॥
धीरजु धरेउ कुअवसर जानी। सहज सुह्द बोली मृदु बानी॥
तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥
अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥
जौ पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहिं॥
गुर पितु मातु बंधु सुर साई। सेइअहिं सकल प्रान की नाईं॥
रामु प्रानप्रिय जीवन जी के। स्वारथ रहित सखा सबही कै॥
पूजनीय प्रिय परम जहाँ तें। सब मानिअहिं राम के नातें॥
अस जियँ जानि संग बन जाहू। लेहु तात जग जीवन लाहू॥
दो0-भूरि भाग भाजनु भयहु मोहि समेत बलि जाउँ।
जौम तुम्हरें मन छाड़ि छलु कीन्ह राम पद ठाउँ॥74॥
पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी॥
तुम्हरेहिं भाग रामु बन जाहीं। दूसर हेतु तात कछु नाहीं॥
सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू॥
राग रोषु इरिषा मदु मोहू। जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू॥
सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई॥
तुम्ह कहुँ बन सब भाँति सुपासू। सँग पितु मातु रामु सिय जासू॥
जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोइ करेहु इहइ उपदेसू॥
छं0-उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं।
पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं।
तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई।
रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित नित नई॥
सो0-मातु चरन सिरु नाइ चले तुरत संकित हृदयँ।
बागुर बिषम तोराइ मनहुँ भाग मृगु भाग बस॥75॥
गए लखनु जहँ जानकिनाथू। भे मन मुदित पाइ प्रिय साथू॥
बंदि राम सिय चरन सुहाए। चले संग नृपमंदिर आए॥
कहहिं परसपर पुर नर नारी। भलि बनाइ बिधि बात बिगारी॥
तन कृस दुखु बदन मलीने। बिकल मनहुँ माखी मधु छीने॥
कर मीजहिं सिरु धुनि पछिताहीं। जनु बिन पंख बिहग अकुलाहीं॥
भइ बड़ि भीर भूप दरबारा। बरनि न जाइ बिषादु अपारा॥
सचिवँ उठाइ राउ बैठारे। कहि प्रिय बचन रामु पगु धारे॥
सिय समेत दोउ तनय निहारी। ब्याकुल भयउ भूमिपति भारी॥
दो0-सीय सहित सुत सुभग दोउ देखि देखि अकुलाइ।
बारहिं बार सनेह बस राउ लेइ उर लाइ॥76॥
सकइ न बोलि बिकल नरनाहू। सोक जनित उर दारुन दाहू॥
नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा॥
पितु असीस आयसु मोहि दीजै। हरष समय बिसमउ कत कीजै॥
तात किएँ प्रिय प्रेम प्रमादू। जसु जग जाइ होइ अपबादू॥
सुनि सनेह बस उठि नरनाहाँ। बैठारे रघुपति गहि बाहाँ॥
सुनहु तात तुम्ह कहुँ मुनि कहहीं। रामु चराचर नायक अहहीं॥
सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईस देइ फलु ह्दयँ बिचारी॥
करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई॥
दो0–औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु।
अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु॥77॥
रायँ राम राखन हित लागी। बहुत उपाय किए छलु त्यागी॥
लखी राम रुख रहत न जाने। धरम धुरंधर धीर सयाने॥
तब नृप सीय लाइ उर लीन्ही। अति हित बहुत भाँति सिख दीन्ही॥
कहि बन के दुख दुसह सुनाए। सासु ससुर पितु सुख समुझाए॥
सिय मनु राम चरन अनुरागा। घरु न सुगमु बनु बिषमु न लागा॥
औरउ सबहिं सीय समुझाई। कहि कहि बिपिन बिपति अधिकाई॥
सचिव नारि गुर नारि सयानी। सहित सनेह कहहिं मृदु बानी॥
तुम्ह कहुँ तौ न दीन्ह बनबासू। करहु जो कहहिं ससुर गुर सासू॥
दो0–सिख सीतलि हित मधुर मृदु सुनि सीतहि न सोहानि।
सरद चंद चंदनि लगत जनु चकई अकुलानि॥78॥
सीय सकुच बस उतरु न देई। सो सुनि तमकि उठी कैकेई॥
मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगें धरि बोली मृदु बानी॥
नृपहि प्रान प्रिय तुम्ह रघुबीरा। सील सनेह न छाड़िहि भीरा॥
सुकृत सुजसु परलोकु नसाऊ। तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ॥
अस बिचारि सोइ करहु जो भावा। राम जननि सिख सुनि सुखु पावा॥
भूपहि बचन बानसम लागे। करहिं न प्रान पयान अभागे॥
लोग बिकल मुरुछित नरनाहू। काह करिअ कछु सूझ न काहू॥
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई। चले जनक जननिहि सिरु नाई॥
दो0-सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बंधु समेत।
बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत॥79॥
निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े। देखे लोग बिरह दव दाढ़े॥
कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए॥
गुर सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनय बस कीन्हे॥
जाचक दान मान संतोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे॥
दासीं दास बोलाइ बहोरी। गुरहि सौंपि बोले कर जोरी॥
सब कै सार सँभार गोसाईं। करबि जनक जननी की नाई॥
बारहिं बार जोरि जुग पानी। कहत रामु सब सन मृदु बानी॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जेहि तें रहै भुआल सुखारी॥
दो0-मातु सकल मोरे बिरहँ जेहिं न होहिं दुख दीन।
सोइ उपाउ तुम्ह करेहु सब पुर जन परम प्रबीन॥80॥
एहि बिधि राम सबहि समुझावा। गुर पद पदुम हरषि सिरु नावा।
गनपती गौरि गिरीसु मनाई। चले असीस पाइ रघुराई॥
राम चलत अति भयउ बिषादू। सुनि न जाइ पुर आरत नादू॥
कुसगुन लंक अवध अति सोकू। हहरष बिषाद बिबस सुरलोकू॥
गइ मुरुछा तब भूपति जागे। बोलि सुमंत्रु कहन अस लागे॥
रामु चले बन प्रान न जाहीं। केहि सुख लागि रहत तन माहीं।
एहि तें कवन ब्यथा बलवाना। जो दुखु पाइ तजहिं तनु प्राना॥
पुनि धरि धीर कहइ नरनाहू। लै रथु संग सखा तुम्ह जाहू॥
दो0–सुठि सुकुमार कुमार दोउ जनकसुता सुकुमारि।
रथ चढ़ाइ देखराइ बनु फिरेहु गएँ दिन चारि॥81॥
जौ नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसंध दृढ़ब्रत रघुराई॥
तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी॥
जब सिय कानन देखि डेराई। कहेहु मोरि सिख अवसरु पाई॥
सासु ससुर अस कहेउ सँदेसू। पुत्रि फिरिअ बन बहुत कलेसू॥
पितृगृह कबहुँ कबहुँ ससुरारी। रहेहु जहाँ रुचि होइ तुम्हारी॥
एहि बिधि करेहु उपाय कदंबा। फिरइ त होइ प्रान अवलंबा॥
नाहिं त मोर मरनु परिनामा। कछु न बसाइ भएँ बिधि बामा॥
अस कहि मुरुछि परा महि राऊ। रामु लखनु सिय आनि देखाऊ॥
दो0–पाइ रजायसु नाइ सिरु रथु अति बेग बनाइ।
गयउ जहाँ बाहेर नगर सीय सहित दोउ भाइ॥82॥
तब सुमंत्र नृप बचन सुनाए। करि बिनती रथ रामु चढ़ाए॥
चढ़ि रथ सीय सहित दोउ भाई। चले हृदयँ अवधहि सिरु नाई॥
चलत रामु लखि अवध अनाथा। बिकल लोग सब लागे साथा॥
कृपासिंधु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेम बस पुनि फिरि आवहिं॥
लागति अवध भयावनि भारी। मानहुँ कालराति अँधिआरी॥
घोर जंतु सम पुर नर नारी। डरपहिं एकहि एक निहारी॥
घर मसान परिजन जनु भूता। सुत हित मीत मनहुँ जमदूता॥
बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं। सरित सरोवर देखि न जाहीं॥
दो0-हय गय कोटिन्ह केलिमृग पुरपसु चातक मोर।
पिक रथांग सुक सारिका सारस हंस चकोर॥83॥
राम बियोग बिकल सब ठाढ़े। जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढ़े॥
नगरु सफल बनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर नारी॥
बिधि कैकेई किरातिनि कीन्ही। जेंहि दव दुसह दसहुँ दिसि दीन्ही॥
सहि न सके रघुबर बिरहागी। चले लोग सब ब्याकुल भागी॥
सबहिं बिचार कीन्ह मन माहीं। राम लखन सिय बिनु सुखु नाहीं॥
जहाँ रामु तहँ सबुइ समाजू। बिनु रघुबीर अवध नहिं काजू॥
चले साथ अस मंत्रु दृढ़ाई। सुर दुर्लभ सुख सदन बिहाई॥
राम चरन पंकज प्रिय जिन्हही। बिषय भोग बस करहिं कि तिन्हही॥
दो0-बालक बृद्ध बिहाइ गृँह लगे लोग सब साथ।
तमसा तीर निवासु किय प्रथम दिवस रघुनाथ॥84॥
रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी। सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी॥
करुनामय रघुनाथ गोसाँई। बेगि पाइअहिं पीर पराई॥
कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए। बहुबिधि राम लोग समुझाए॥
किए धरम उपदेस घनेरे। लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे॥
सीलु सनेहु छाड़ि नहिं जाई। असमंजस बस भे रघुराई॥
लोग सोग श्रम बस गए सोई। कछुक देवमायाँ मति मोई॥
जबहिं जाम जुग जामिनि बीती। राम सचिव सन कहेउ सप्रीती॥
खोज मारि रथु हाँकहु ताता। आन उपायँ बनिहि नहिं बाता॥
दो0-राम लखन सुय जान चढ़ि संभु चरन सिरु नाइ॥
सचिवँ चलायउ तुरत रथु इत उत खोज दुराइ॥85॥
जागे सकल लोग भएँ भोरू। गे रघुनाथ भयउ अति सोरू॥
रथ कर खोज कतहहुँ नहिं पावहिं। राम राम कहि चहु दिसि धावहिं॥
मनहुँ बारिनिधि बूड़ जहाजू। भयउ बिकल बड़ बनिक समाजू॥
एकहि एक देंहिं उपदेसू। तजे राम हम जानि कलेसू॥
निंदहिं आपु सराहहिं मीना। धिग जीवनु रघुबीर बिहीना॥
जौं पै प्रिय बियोगु बिधि कीन्हा। तौ कस मरनु न मागें दीन्हा॥
एहि बिधि करत प्रलाप कलापा। आए अवध भरे परितापा॥
बिषम बियोगु न जाइ बखाना। अवधि आस सब राखहिं प्राना॥
दो0-राम दरस हित नेम ब्रत लगे करन नर नारि।
मनहुँ कोक कोकी कमल दीन बिहीन तमारि॥86॥
सीता सचिव सहित दोउ भाई। सृंगबेरपुर पहुँचे जाई॥
उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी॥
लखन सचिवँ सियँ किए प्रनामा। सबहि सहित सुखु पायउ रामा॥
गंग सकल मुद मंगल मूला। सब सुख करनि हरनि सब सूला॥
कहि कहि कोटिक कथा प्रसंगा। रामु बिलोकहिं गंग तरंगा॥
सचिवहि अनुजहि प्रियहि सुनाई। बिबुध नदी महिमा अधिकाई॥
मज्जनु कीन्ह पंथ श्रम गयऊ। सुचि जलु पिअत मुदित मन भयऊ॥
सुमिरत जाहि मिटइ श्रम भारू। तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू॥
दो0-सुध्द सचिदानंदमय कंद भानुकुल केतु।
चरित करत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु॥87॥
यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई॥
लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हिँयँ हरषु अपारा॥
करि दंडवत भेंट धरि आगें। प्रभुहि बिलोकत अति अनुरागें॥
सहज सनेह बिबस रघुराई। पूँछी कुसल निकट बैठाई॥
नाथ कुसल पद पंकज देखें। भयउँ भागभाजन जन लेखें॥
देव धरनि धनु धामु तुम्हारा। मैं जनु नीचु सहित परिवारा॥
कृपा करिअ पुर धारिअ पाऊ। थापिय जनु सबु लोगु सिहाऊ॥
कहेहु सत्य सबु सखा सुजाना। मोहि दीन्ह पितु आयसु आना॥
दो0-बरष चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारु।
ग्राम बासु नहिं उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारु॥88॥
राम लखन सिय रूप निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी॥
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥
एक कहहिं भल भूपति कीन्हा। लोयन लाहु हमहि बिधि दीन्हा॥
तब निषादपति उर अनुमाना। तरु सिंसुपा मनोहर जाना॥
लै रघुनाथहि ठाउँ देखावा। कहेउ राम सब भाँति सुहावा॥
पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर संध्या करन सिधाए॥
गुहँ सँवारि साँथरी डसाई। कुस किसलयमय मृदुल सुहाई॥
सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना भरि भरि राखेसि पानी॥
दो0-सिय सुमंत्र भ्राता सहित कंद मूल फल खाइ।
सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय पलोटत भाइ॥89॥
उठे लखनु प्रभु सोवत जानी। कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी॥
कछुक दूर सजि बान सरासन। जागन लगे बैठि बीरासन॥
गुँह बोलाइ पाहरू प्रतीती। ठावँ ठाँव राखे अति प्रीती॥
आपु लखन पहिं बैठेउ जाई। कटि भाथी सर चाप चढ़ाई॥
सोवत प्रभुहि निहारि निषादू। भयउ प्रेम बस ह्दयँ बिषादू॥
तनु पुलकित जलु लोचन बहई। बचन सप्रेम लखन सन कहई॥
भूपति भवन सुभायँ सुहावा। सुरपति सदनु न पटतर पावा॥
मनिमय रचित चारु चौबारे। जनु रतिपति निज हाथ सँवारे॥
दो0-सुचि सुबिचित्र सुभोगमय सुमन सुगंध सुबास।
पलँग मंजु मनिदीप जहँ सब बिधि सकल सुपास॥90॥
बिबिध बसन उपधान तुराई। छीर फेन मृदु बिसद सुहाई॥
तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं। निज छबि रति मनोज मदु हरहीं॥
ते सिय रामु साथरीं सोए। श्रमित बसन बिनु जाहिं न जोए॥
मातु पिता परिजन पुरबासी। सखा सुसील दास अरु दासी॥
जोगवहिं जिन्हहि प्रान की नाई। महि सोवत तेइ राम गोसाईं॥
पिता जनक जग बिदित प्रभाऊ। ससुर सुरेस सखा रघुराऊ॥
रामचंदु पति सो बैदेही। सोवत महि बिधि बाम न केही॥
सिय रघुबीर कि कानन जोगू। करम प्रधान सत्य कह लोगू॥
दो0-कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह।
जेहीं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह॥91॥
भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी। कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी॥
भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी॥
बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी॥
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥
जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपती बिपति करमु अरु कालू॥
धरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं॥
दो0-सपनें होइ भिखारि नृप रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ॥92॥
अस बिचारि नहिं कीजअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू॥
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा॥
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब जब बिषय बिलास बिरागा॥
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥
सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू॥
राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा॥
सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा।
दो0-भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहि जग जाल॥93॥
मासपारायण, पंद्रहवा विश्राम
सखा समुझि अस परिहरि मोहु। सिय रघुबीर चरन रत होहू॥
कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागे जग मंगल सुखदारा॥
सकल सोच करि राम नहावा। सुचि सुजान बट छीर मगावा॥
अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए॥
हृदयँ दाहु अति बदन मलीना। कह कर जोरि बचन अति दीना॥
नाथ कहेउ अस कोसलनाथा। लै रथु जाहु राम कें साथा॥
बनु देखाइ सुरसरि अन्हवाई। आनेहु फेरि बेगि दोउ भाई॥
लखनु रामु सिय आनेहु फेरी। संसय सकल सँकोच निबेरी॥
दो0-नृप अस कहेउ गोसाईँ जस कहइ करौं बलि सोइ।
करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ॥94॥
तात कृपा करि कीजिअ सोई। जातें अवध अनाथ न होई॥
मंत्रहि राम उठाइ प्रबोधा। तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा॥
सिबि दधीचि हरिचंद नरेसा। सहे धरम हित कोटि कलेसा॥
रंतिदेव बलि भूप सुजाना। धरमु धरेउ सहि संकट नाना॥
धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना॥
मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा। तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा॥
संभावित कहुँ अपजस लाहू। मरन कोटि सम दारुन दाहू॥
तुम्ह सन तात बहुत का कहऊँ। दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ॥
दो0-पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि।
चिंता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि॥95॥
तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें। बिनती करउँ तात कर जोरें॥
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच हमारें॥
सुनि रघुनाथ सचिव संबादू। भयउ सपरिजन बिकल निषादू॥
पुनि कछु लखन कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी॥
सकुचि राम निज सपथ देवाई। लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई॥
कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू। सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू॥
जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया। सोइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया॥
नतरु निपट अवलंब बिहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना॥
दो0-मइकें ससरें सकल सुख जबहिं जहाँ मनु मान॥
तँह तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान॥96॥
बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती। आरति प्रीति न सो कहि जाती॥
पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना॥
सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू। फिरतु त सब कर मिटै खभारू॥
सुनि पति बचन कहति बैदेही। सुनहु प्रानपति परम सनेही॥
प्रभु करुनामय परम बिबेकी। तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी॥
प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई। कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई॥
पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई। कहति सचिव सन गिरा सुहाई॥
तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी। उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी॥
दो0-आरति बस सनमुख भइउँ बिलगु न मानब तात।
आरजसुत पद कमल बिनु बादि जहाँ लगि नात॥97॥
पितु बैभव बिलास मैं डीठा। नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा॥
सुखनिधान अस पितु गृह मोरें। पिय बिहीन मन भाव न भोरें॥
ससुर चक्कवइ कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ॥
आगें होइ जेहि सुरपति लेई। अरध सिंघासन आसनु देई॥
ससुरु एतादृस अवध निवासू। प्रिय परिवारु मातु सम सासू॥
बिनु रघुपति पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा॥
अगम पंथ बनभूमि पहारा। करि केहरि सर सरित अपारा॥
कोल किरात कुरंग बिहंगा। मोहि सब सुखद प्रानपति संगा॥
दो0-सासु ससुर सन मोरि हुँति बिनय करबि परि पायँ॥
मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ॥98॥
प्राननाथ प्रिय देवर साथा। बीर धुरीन धरें धनु भाथा॥
नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें। मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरें॥
सुनि सुमंत्रु सिय सीतलि बानी। भयउ बिकल जनु फनि मनि हानी॥
नयन सूझ नहिं सुनइ न काना। कहि न सकइ कछु अति अकुलाना॥
राम प्रबोधु कीन्ह बहु भाँति। तदपि होति नहिं सीतलि छाती॥
जतन अनेक साथ हित कीन्हे। उचित उतर रघुनंदन दीन्हे॥
मेटि जाइ नहिं राम रजाई। कठिन करम गति कछु न बसाई॥
राम लखन सिय पद सिरु नाई। फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई॥
दो0–रथ हाँकेउ हय राम तन हेरि हेरि हिहिनाहिं।
देखि निषाद बिषादबस धुनहिं सीस पछिताहिं॥99॥
जासु बियोग बिकल पसु ऐसे। प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें॥
बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए॥
मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥
छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥
तरनिउ मुनि घरिनि होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥
एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥
जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥
छं0-पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं॥
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥
सो0-सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥100॥