"लंका काण्ड / भाग २ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
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+ | देखि पवनसुत कटक बिहाला। क्रोधवंत जनु धायउ काला॥ | ||
+ | महासैल एक तुरत उपारा। अति रिस मेघनाद पर डारा॥ | ||
+ | आवत देखि गयउ नभ सोई। रथ सारथी तुरग सब खोई॥ | ||
+ | बार बार पचार हनुमाना। निकट न आव मरमु सो जाना॥ | ||
+ | रघुपति निकट गयउ घननादा। नाना भाँति करेसि दुर्बादा॥ | ||
+ | अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे। कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे॥ | ||
+ | देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना। करै लाग माया बिधि नाना॥ | ||
+ | जिमि कोउ करै गरुड़ सैं खेला। डरपावै गहि स्वल्प सपेला॥ | ||
+ | दो0-जासु प्रबल माया बल सिव बिरंचि बड़ छोट। | ||
+ | ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति खोट॥51॥ | ||
− | + | नभ चढ़ि बरष बिपुल अंगारा। महि ते प्रगट होहिं जलधारा॥ | |
− | + | नाना भाँति पिसाच पिसाची। मारु काटु धुनि बोलहिं नाची॥ | |
− | + | बिष्टा पूय रुधिर कच हाड़ा। बरषइ कबहुँ उपल बहु छाड़ा॥ | |
− | + | बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा। सूझ न आपन हाथ पसारा॥ | |
− | + | कपि अकुलाने माया देखें। सब कर मरन बना एहि लेखें॥ | |
− | + | कौतुक देखि राम मुसुकाने। भए सभीत सकल कपि जाने॥ | |
− | + | एक बान काटी सब माया। जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया॥ | |
− | + | कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके। भए प्रबल रन रहहिं न रोके॥ | |
− | + | दो0-आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ। | |
− | + | लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ॥52॥ | |
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− | नभ चढ़ि बरष बिपुल अंगारा। महि ते प्रगट होहिं | + | |
− | नाना भाँति पिसाच पिसाची। मारु काटु धुनि बोलहिं | + | |
− | बिष्टा पूय रुधिर कच हाड़ा। बरषइ कबहुँ उपल बहु | + | |
− | बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा। सूझ न आपन हाथ | + | |
− | कपि अकुलाने माया देखें। सब कर मरन बना एहि | + | |
− | कौतुक देखि राम मुसुकाने। भए सभीत सकल कपि | + | |
− | एक बान काटी सब माया। जिमि दिनकर हर तिमिर | + | |
− | कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके। भए प्रबल रन रहहिं न | + | |
− | दो0-आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ। | + | |
− | लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन | + | |
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− | + | छतज नयन उर बाहु बिसाला। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला॥ | |
− | + | इहाँ दसानन सुभट पठाए। नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए॥ | |
− | + | भूधर नख बिटपायुध धारी। धाए कपि जय राम पुकारी॥ | |
− | + | भिरे सकल जोरिहि सन जोरी। इत उत जय इच्छा नहिं थोरी॥ | |
− | + | मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं। कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं॥ | |
− | + | मारु मारु धरु धरु धरु मारू। सीस तोरि गहि भुजा उपारू॥ | |
− | + | असि रव पूरि रही नव खंडा। धावहिं जहँ तहँ रुंड प्रचंडा॥ | |
− | + | देखहिं कौतुक नभ सुर बृंदा। कबहुँक बिसमय कबहुँ अनंदा॥ | |
− | + | दो0-रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़ाइ। | |
− | + | जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ॥53॥ | |
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− | + | घायल बीर बिराजहिं कैसे। कुसुमित किंसुक के तरु जैसे॥ | |
+ | लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा। भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा॥ | ||
+ | एकहि एक सकइ नहिं जीती। निसिचर छल बल करइ अनीती॥ | ||
+ | क्रोधवंत तब भयउ अनंता। भंजेउ रथ सारथी तुरंता॥ | ||
+ | नाना बिधि प्रहार कर सेषा। राच्छस भयउ प्रान अवसेषा॥ | ||
+ | रावन सुत निज मन अनुमाना। संकठ भयउ हरिहि मम प्राना॥ | ||
+ | बीरघातिनी छाड़िसि साँगी। तेज पुंज लछिमन उर लागी॥ | ||
+ | मुरुछा भई सक्ति के लागें। तब चलि गयउ निकट भय त्यागें॥ | ||
+ | दो0-मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ। | ||
+ | जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसिआइ॥54॥ | ||
− | + | सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू। जारइ भुवन चारिदस आसू॥ | |
+ | सक संग्राम जीति को ताही। सेवहिं सुर नर अग जग जाही॥ | ||
+ | यह कौतूहल जानइ सोई। जा पर कृपा राम कै होई॥ | ||
+ | संध्या भइ फिरि द्वौ बाहनी। लगे सँभारन निज निज अनी॥ | ||
+ | ब्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥ | ||
+ | तब लगि लै आयउ हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना॥ | ||
+ | जामवंत कह बैद सुषेना। लंकाँ रहइ को पठई लेना॥ | ||
+ | धरि लघु रूप गयउ हनुमंता। आनेउ भवन समेत तुरंता॥ | ||
+ | दो0-राम पदारबिंद सिर नायउ आइ सुषेन। | ||
+ | कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन॥55॥ | ||
− | + | राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभंजन सुत बल भाषी॥ | |
+ | उहाँ दूत एक मरमु जनावा। रावन कालनेमि गृह आवा॥ | ||
+ | दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना। पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना॥ | ||
+ | देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा। तासु पंथ को रोकन पारा॥ | ||
+ | भजि रघुपति करु हित आपना। छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना॥ | ||
+ | नील कंज तनु सुंदर स्यामा। हृदयँ राखु लोचनाभिरामा॥ | ||
+ | मैं तैं मोर मूढ़ता त्यागू। महा मोह निसि सूतत जागू॥ | ||
+ | काल ब्याल कर भच्छक जोई। सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई॥ | ||
+ | दो0-सुनि दसकंठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह बिचार। | ||
+ | राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार॥56॥ | ||
− | '''( | + | अस कहि चला रचिसि मग माया। सर मंदिर बर बाग बनाया॥ |
+ | मारुतसुत देखा सुभ आश्रम। मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम॥ | ||
+ | राच्छस कपट बेष तहँ सोहा। मायापति दूतहि चह मोहा॥ | ||
+ | जाइ पवनसुत नायउ माथा। लाग सो कहै राम गुन गाथा॥ | ||
+ | होत महा रन रावन रामहिं। जितहहिं राम न संसय या महिं॥ | ||
+ | इहाँ भएँ मैं देखेउँ भाई। ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई॥ | ||
+ | मागा जल तेहिं दीन्ह कमंडल। कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल॥ | ||
+ | सर मज्जन करि आतुर आवहु। दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु॥ | ||
+ | दो0-सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान। | ||
+ | मारी सो धरि दिव्य तनु चली गगन चढ़ि जान॥57॥ | ||
+ | |||
+ | कपि तव दरस भइउँ निष्पापा। मिटा तात मुनिबर कर सापा॥ | ||
+ | मुनि न होइ यह निसिचर घोरा। मानहु सत्य बचन कपि मोरा॥ | ||
+ | अस कहि गई अपछरा जबहीं। निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं॥ | ||
+ | कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू। पाछें हमहि मंत्र तुम्ह देहू॥ | ||
+ | सिर लंगूर लपेटि पछारा। निज तनु प्रगटेसि मरती बारा॥ | ||
+ | राम राम कहि छाड़ेसि प्राना। सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना॥ | ||
+ | देखा सैल न औषध चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा॥ | ||
+ | गहि गिरि निसि नभ धावत भयऊ। अवधपुरी उपर कपि गयऊ॥ | ||
+ | दो0-देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि। | ||
+ | बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि॥58॥ | ||
+ | |||
+ | परेउ मुरुछि महि लागत सायक। सुमिरत राम राम रघुनायक॥ | ||
+ | सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए। कपि समीप अति आतुर आए॥ | ||
+ | बिकल बिलोकि कीस उर लावा। जागत नहिं बहु भाँति जगावा॥ | ||
+ | मुख मलीन मन भए दुखारी। कहत बचन भरि लोचन बारी॥ | ||
+ | जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा। तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा॥ | ||
+ | जौं मोरें मन बच अरु काया। प्रीति राम पद कमल अमाया॥ | ||
+ | तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला। जौं मो पर रघुपति अनुकूला॥ | ||
+ | सुनत बचन उठि बैठ कपीसा। कहि जय जयति कोसलाधीसा॥ | ||
+ | सो0-लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल। | ||
+ | प्रीति न हृदयँ समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक॥59॥ | ||
+ | |||
+ | तात कुसल कहु सुखनिधान की। सहित अनुज अरु मातु जानकी॥ | ||
+ | कपि सब चरित समास बखाने। भए दुखी मन महुँ पछिताने॥ | ||
+ | अहह दैव मैं कत जग जायउँ। प्रभु के एकहु काज न आयउँ॥ | ||
+ | जानि कुअवसरु मन धरि धीरा। पुनि कपि सन बोले बलबीरा॥ | ||
+ | तात गहरु होइहि तोहि जाता। काजु नसाइहि होत प्रभाता॥ | ||
+ | चढ़ु मम सायक सैल समेता। पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता॥ | ||
+ | सुनि कपि मन उपजा अभिमाना। मोरें भार चलिहि किमि बाना॥ | ||
+ | राम प्रभाव बिचारि बहोरी। बंदि चरन कह कपि कर जोरी॥ | ||
+ | दो0-तव प्रताप उर राखि प्रभु जेहउँ नाथ तुरंत। | ||
+ | अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत॥60(क)॥ | ||
+ | भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार। | ||
+ | मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार॥60(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | उहाँ राम लछिमनहिं निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी॥ | ||
+ | अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ॥ | ||
+ | सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ॥ | ||
+ | मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता॥ | ||
+ | सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई॥ | ||
+ | जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू॥ | ||
+ | सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥ | ||
+ | अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता॥ | ||
+ | जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना॥ | ||
+ | अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जिआवै मोही॥ | ||
+ | जैहउँ अवध कवन मुहु लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई॥ | ||
+ | बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं॥ | ||
+ | अब अपलोकु सोकु सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा॥ | ||
+ | निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा॥ | ||
+ | सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी॥ | ||
+ | उतरु काह दैहउँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई॥ | ||
+ | बहु बिधि सिचत सोच बिमोचन। स्त्रवत सलिल राजिव दल लोचन॥ | ||
+ | उमा एक अखंड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई॥ | ||
+ | सो0-प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर। | ||
+ | आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस॥61॥ | ||
+ | |||
+ | हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥ | ||
+ | तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥ | ||
+ | हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता॥ | ||
+ | कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा। जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा॥ | ||
+ | यह बृत्तांत दसानन सुनेऊ। अति बिषअद पुनि पुनि सिर धुनेऊ॥ | ||
+ | ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा॥ | ||
+ | जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा॥ | ||
+ | कुंभकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई॥ | ||
+ | कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी॥ | ||
+ | तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महामहा जोधा संघारे॥ | ||
+ | दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी॥ | ||
+ | अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा॥ | ||
+ | दो0-सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान। | ||
+ | जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान॥62॥ | ||
+ | |||
+ | भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥ | ||
+ | अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥ | ||
+ | हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक॥ | ||
+ | अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई॥ | ||
+ | कीन्हेहु प्रभू बिरोध तेहि देवक। सिव बिरंचि सुर जाके सेवक॥ | ||
+ | नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबहा॥ | ||
+ | अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई। लोचन सूफल करौ मैं जाई॥ | ||
+ | स्याम गात सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन॥ | ||
+ | दो0-राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक। | ||
+ | रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक॥63॥ | ||
+ | |||
+ | महिष खाइ करि मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समाना॥ | ||
+ | कुंभकरन दुर्मद रन रंगा। चला दुर्ग तजि सेन न संगा॥ | ||
+ | देखि बिभीषनु आगें आयउ। परेउ चरन निज नाम सुनायउ॥ | ||
+ | अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो। रघुपति भक्त जानि मन भायो॥ | ||
+ | तात लात रावन मोहि मारा। कहत परम हित मंत्र बिचारा॥ | ||
+ | तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ। देखि दीन प्रभु के मन भायउँ॥ | ||
+ | सुनु सुत भयउ कालबस रावन। सो कि मान अब परम सिखावन॥ | ||
+ | धन्य धन्य तैं धन्य बिभीषन। भयहु तात निसिचर कुल भूषन॥ | ||
+ | बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर॥ | ||
+ | दो0-बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर। | ||
+ | जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर। 64॥ | ||
+ | |||
+ | बंधु बचन सुनि चला बिभीषन। आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन॥ | ||
+ | नाथ भूधराकार सरीरा। कुंभकरन आवत रनधीरा॥ | ||
+ | एतना कपिन्ह सुना जब काना। किलकिलाइ धाए बलवाना॥ | ||
+ | लिए उठाइ बिटप अरु भूधर। कटकटाइ डारहिं ता ऊपर॥ | ||
+ | कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा। करहिं भालु कपि एक एक बारा॥ | ||
+ | मुर् यो न मन तनु टर् यो न टार् यो। जिमि गज अर्क फलनि को मार्यो॥ | ||
+ | तब मारुतसुत मुठिका हन्यो। पर् यो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो॥ | ||
+ | पुनि उठि तेहिं मारेउ हनुमंता। घुर्मित भूतल परेउ तुरंता॥ | ||
+ | पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि। जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि॥ | ||
+ | चली बलीमुख सेन पराई। अति भय त्रसित न कोउ समुहाई॥ | ||
+ | दो0-अंगदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव। | ||
+ | काँख दाबि कपिराज कहुँ चला अमित बल सींव॥65॥ | ||
+ | |||
+ | उमा करत रघुपति नरलीला। खेलत गरुड़ जिमि अहिगन मीला॥ | ||
+ | भृकुटि भंग जो कालहि खाई। ताहि कि सोहइ ऐसि लराई॥ | ||
+ | जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं। गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिं॥ | ||
+ | मुरुछा गइ मारुतसुत जागा। सुग्रीवहि तब खोजन लागा॥ | ||
+ | सुग्रीवहु कै मुरुछा बीती। निबुक गयउ तेहि मृतक प्रतीती॥ | ||
+ | काटेसि दसन नासिका काना। गरजि अकास चलउ तेहिं जाना॥ | ||
+ | गहेउ चरन गहि भूमि पछारा। अति लाघवँ उठि पुनि तेहि मारा॥ | ||
+ | पुनि आयसु प्रभु पहिं बलवाना। जयति जयति जय कृपानिधाना॥ | ||
+ | नाक कान काटे जियँ जानी। फिरा क्रोध करि भइ मन ग्लानी॥ | ||
+ | सहज भीम पुनि बिनु श्रुति नासा। देखत कपि दल उपजी त्रासा॥ | ||
+ | दो0-जय जय जय रघुबंस मनि धाए कपि दै हूह। | ||
+ | एकहि बार तासु पर छाड़ेन्हि गिरि तरु जूह॥66॥ | ||
+ | |||
+ | कुंभकरन रन रंग बिरुद्धा। सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा॥ | ||
+ | कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई। जनु टीड़ी गिरि गुहाँ समाई॥ | ||
+ | कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा। कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा॥ | ||
+ | मुख नासा श्रवनन्हि कीं बाटा। निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा॥ | ||
+ | रन मद मत्त निसाचर दर्पा। बिस्व ग्रसिहि जनु एहि बिधि अर्पा॥ | ||
+ | मुरे सुभट सब फिरहिं न फेरे। सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे॥ | ||
+ | कुंभकरन कपि फौज बिडारी। सुनि धाई रजनीचर धारी॥ | ||
+ | देखि राम बिकल कटकाई। रिपु अनीक नाना बिधि आई॥ | ||
+ | दो0-सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन। | ||
+ | मैं देखउँ खल बल दलहि बोले राजिवनैन॥67॥ | ||
+ | |||
+ | कर सारंग साजि कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघुनाथा॥ | ||
+ | प्रथम कीन्ह प्रभु धनुष टँकोरा। रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा॥ | ||
+ | सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा। कालसर्प जनु चले सपच्छा॥ | ||
+ | जहँ तहँ चले बिपुल नाराचा। लगे कटन भट बिकट पिसाचा॥ | ||
+ | कटहिं चरन उर सिर भुजदंडा। बहुतक बीर होहिं सत खंडा॥ | ||
+ | घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं। उठि संभारि सुभट पुनि लरहीं॥ | ||
+ | लागत बान जलद जिमि गाजहीं। बहुतक देखी कठिन सर भाजहिं॥ | ||
+ | रुंड प्रचंड मुंड बिनु धावहिं। धरु धरु मारू मारु धुनि गावहिं॥ | ||
+ | दो0-छन महुँ प्रभु के सायकन्हि काटे बिकट पिसाच। | ||
+ | पुनि रघुबीर निषंग महुँ प्रबिसे सब नाराच॥68॥ | ||
+ | |||
+ | कुंभकरन मन दीख बिचारी। हति धन माझ निसाचर धारी॥ | ||
+ | भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा। कियो मृगनायक नाद गँभीरा॥ | ||
+ | कोपि महीधर लेइ उपारी। डारइ जहँ मर्कट भट भारी॥ | ||
+ | आवत देखि सैल प्रभू भारे। सरन्हि काटि रज सम करि डारे॥। | ||
+ | पुनि धनु तानि कोपि रघुनायक। छाँड़े अति कराल बहु सायक॥ | ||
+ | तनु महुँ प्रबिसि निसरि सर जाहीं। जिमि दामिनि घन माझ समाहीं॥ | ||
+ | सोनित स्त्रवत सोह तन कारे। जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे॥ | ||
+ | बिकल बिलोकि भालु कपि धाए। बिहँसा जबहिं निकट कपि आए॥ | ||
+ | दो0-महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस। | ||
+ | महि पटकइ गजराज इव सपथ करइ दससीस॥69॥ | ||
+ | |||
+ | भागे भालु बलीमुख जूथा। बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा॥ | ||
+ | चले भागि कपि भालु भवानी। बिकल पुकारत आरत बानी॥ | ||
+ | यह निसिचर दुकाल सम अहई। कपिकुल देस परन अब चहई॥ | ||
+ | कृपा बारिधर राम खरारी। पाहि पाहि प्रनतारति हारी॥ | ||
+ | सकरुन बचन सुनत भगवाना। चले सुधारि सरासन बाना॥ | ||
+ | राम सेन निज पाछैं घाली। चले सकोप महा बलसाली॥ | ||
+ | खैंचि धनुष सर सत संधाने। छूटे तीर सरीर समाने॥ | ||
+ | लागत सर धावा रिस भरा। कुधर डगमगत डोलति धरा॥ | ||
+ | लीन्ह एक तेहिं सैल उपाटी। रघुकुल तिलक भुजा सोइ काटी॥ | ||
+ | धावा बाम बाहु गिरि धारी। प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी॥ | ||
+ | काटें भुजा सोह खल कैसा। पच्छहीन मंदर गिरि जैसा॥ | ||
+ | उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका। ग्रसन चहत मानहुँ त्रेलोका॥ | ||
+ | दो0-करि चिक्कार घोर अति धावा बदनु पसारि। | ||
+ | गगन सिद्ध सुर त्रासित हा हा हेति पुकारि॥70॥ | ||
+ | |||
+ | सभय देव करुनानिधि जान्यो। श्रवन प्रजंत सरासनु तान्यो॥ | ||
+ | बिसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ। तदपि महाबल भूमि न परेऊ॥ | ||
+ | सरन्हि भरा मुख सन्मुख धावा। काल त्रोन सजीव जनु आवा॥ | ||
+ | तब प्रभु कोपि तीब्र सर लीन्हा। धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा॥ | ||
+ | सो सिर परेउ दसानन आगें। बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें॥ | ||
+ | धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खंडा॥ | ||
+ | परे भूमि जिमि नभ तें भूधर। हेठ दाबि कपि भालु निसाचर॥ | ||
+ | तासु तेज प्रभु बदन समाना। सुर मुनि सबहिं अचंभव माना॥ | ||
+ | सुर दुंदुभीं बजावहिं हरषहिं। अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं॥ | ||
+ | करि बिनती सुर सकल सिधाए। तेही समय देवरिषि आए॥ | ||
+ | गगनोपरि हरि गुन गन गाए। रुचिर बीररस प्रभु मन भाए॥ | ||
+ | बेगि हतहु खल कहि मुनि गए। राम समर महि सोभत भए॥ | ||
+ | छं0-संग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी। | ||
+ | श्रम बिंदु मुख राजीव लोचन अरुन तन सोनित कनी॥ | ||
+ | भुज जुगल फेरत सर सरासन भालु कपि चहु दिसि बने। | ||
+ | कह दास तुलसी कहि न सक छबि सेष जेहि आनन घने॥ | ||
+ | दो0-निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम। | ||
+ | गिरिजा ते नर मंदमति जे न भजहिं श्रीराम॥71॥ | ||
+ | |||
+ | दिन कें अंत फिरीं दोउ अनी। समर भई सुभटन्ह श्रम घनी॥ | ||
+ | राम कृपाँ कपि दल बल बाढ़ा। जिमि तृन पाइ लाग अति डाढ़ा॥ | ||
+ | छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती। निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती॥ | ||
+ | बहु बिलाप दसकंधर करई। बंधु सीस पुनि पुनि उर धरई॥ | ||
+ | रोवहिं नारि हृदय हति पानी। तासु तेज बल बिपुल बखानी॥ | ||
+ | मेघनाद तेहि अवसर आयउ। कहि बहु कथा पिता समुझायउ॥ | ||
+ | देखेहु कालि मोरि मनुसाई। अबहिं बहुत का करौं बड़ाई॥ | ||
+ | इष्टदेव सैं बल रथ पायउँ। सो बल तात न तोहि देखायउँ॥ | ||
+ | एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना। चहुँ दुआर लागे कपि नाना॥ | ||
+ | इत कपि भालु काल सम बीरा। उत रजनीचर अति रनधीरा॥ | ||
+ | लरहिं सुभट निज निज जय हेतू। बरनि न जाइ समर खगकेतू॥ | ||
+ | दो0-मेघनाद मायामय रथ चढ़ि गयउ अकास॥ | ||
+ | गर्जेउ अट्टहास करि भइ कपि कटकहि त्रास॥72॥ | ||
+ | |||
+ | सक्ति सूल तरवारि कृपाना। अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना॥ | ||
+ | डारह परसु परिघ पाषाना। लागेउ बृष्टि करै बहु बाना॥ | ||
+ | दस दिसि रहे बान नभ छाई। मानहुँ मघा मेघ झरि लाई॥ | ||
+ | धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना। जो मारइ तेहि कोउ न जाना॥ | ||
+ | गहि गिरि तरु अकास कपि धावहिं। देखहि तेहि न दुखित फिरि आवहिं॥ | ||
+ | अवघट घाट बाट गिरि कंदर। माया बल कीन्हेसि सर पंजर॥ | ||
+ | जाहिं कहाँ ब्याकुल भए बंदर। सुरपति बंदि परे जनु मंदर॥ | ||
+ | मारुतसुत अंगद नल नीला। कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला॥ | ||
+ | पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन। सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन॥ | ||
+ | पुनि रघुपति सैं जूझे लागा। सर छाँड़इ होइ लागहिं नागा॥ | ||
+ | ब्याल पास बस भए खरारी। स्वबस अनंत एक अबिकारी॥ | ||
+ | नट इव कपट चरित कर नाना। सदा स्वतंत्र एक भगवाना॥ | ||
+ | रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो। नागपास देवन्ह भय पायो॥ | ||
+ | दो0-गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास। | ||
+ | सो कि बंध तर आवइ ब्यापक बिस्व निवास॥73॥ | ||
+ | |||
+ | चरित राम के सगुन भवानी। तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी॥ | ||
+ | अस बिचारि जे तग्य बिरागी। रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी॥ | ||
+ | ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा। पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा॥ | ||
+ | जामवंत कह खल रहु ठाढ़ा। सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढ़ा॥ | ||
+ | बूढ़ जानि सठ छाँड़ेउँ तोही। लागेसि अधम पचारै मोही॥ | ||
+ | अस कहि तरल त्रिसूल चलायो। जामवंत कर गहि सोइ धायो॥ | ||
+ | मारिसि मेघनाद कै छाती। परा भूमि घुर्मित सुरघाती॥ | ||
+ | पुनि रिसान गहि चरन फिरायौ। महि पछारि निज बल देखरायो॥ | ||
+ | बर प्रसाद सो मरइ न मारा। तब गहि पद लंका पर डारा॥ | ||
+ | इहाँ देवरिषि गरुड़ पठायो। राम समीप सपदि सो आयो॥ | ||
+ | दो0-खगपति सब धरि खाए माया नाग बरूथ। | ||
+ | माया बिगत भए सब हरषे बानर जूथ। 74(क)॥ | ||
+ | गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ। | ||
+ | चले तमीचर बिकलतर गढ़ पर चढ़े पराइ॥74(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | मेघनाद के मुरछा जागी। पितहि बिलोकि लाज अति लागी॥ | ||
+ | तुरत गयउ गिरिबर कंदरा। करौं अजय मख अस मन धरा॥ | ||
+ | इहाँ बिभीषन मंत्र बिचारा। सुनहु नाथ बल अतुल उदारा॥ | ||
+ | मेघनाद मख करइ अपावन। खल मायावी देव सतावन॥ | ||
+ | जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि। नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि॥ | ||
+ | सुनि रघुपति अतिसय सुख माना। बोले अंगदादि कपि नाना॥ | ||
+ | लछिमन संग जाहु सब भाई। करहु बिधंस जग्य कर जाई॥ | ||
+ | तुम्ह लछिमन मारेहु रन ओही। देखि सभय सुर दुख अति मोही॥ | ||
+ | मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई। जेहिं छीजै निसिचर सुनु भाई॥ | ||
+ | जामवंत सुग्रीव बिभीषन। सेन समेत रहेहु तीनिउ जन॥ | ||
+ | जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन। कटि निषंग कसि साजि सरासन॥ | ||
+ | प्रभु प्रताप उर धरि रनधीरा। बोले घन इव गिरा गँभीरा॥ | ||
+ | जौं तेहि आजु बधें बिनु आवौं। तौ रघुपति सेवक न कहावौं॥ | ||
+ | जौं सत संकर करहिं सहाई। तदपि हतउँ रघुबीर दोहाई॥ | ||
+ | दो0-रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरंत अनंत। | ||
+ | अंगद नील मयंद नल संग सुभट हनुमंत॥75॥ | ||
+ | |||
+ | जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा। आहुति देत रुधिर अरु भैंसा॥ | ||
+ | कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा। जब न उठइ तब करहिं प्रसंसा॥ | ||
+ | तदपि न उठइ धरेन्हि कच जाई। लातन्हि हति हति चले पराई॥ | ||
+ | लै त्रिसुल धावा कपि भागे। आए जहँ रामानुज आगे॥ | ||
+ | आवा परम क्रोध कर मारा। गर्ज घोर रव बारहिं बारा॥ | ||
+ | कोपि मरुतसुत अंगद धाए। हति त्रिसूल उर धरनि गिराए॥ | ||
+ | प्रभु कहँ छाँड़ेसि सूल प्रचंडा। सर हति कृत अनंत जुग खंडा॥ | ||
+ | उठि बहोरि मारुति जुबराजा। हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा॥ | ||
+ | फिरे बीर रिपु मरइ न मारा। तब धावा करि घोर चिकारा॥ | ||
+ | आवत देखि क्रुद्ध जनु काला। लछिमन छाड़े बिसिख कराला॥ | ||
+ | देखेसि आवत पबि सम बाना। तुरत भयउ खल अंतरधाना॥ | ||
+ | बिबिध बेष धरि करइ लराई। कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई॥ | ||
+ | देखि अजय रिपु डरपे कीसा। परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा॥ | ||
+ | लछिमन मन अस मंत्र दृढ़ावा। एहि पापिहि मैं बहुत खेलावा॥ | ||
+ | सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा। सर संधान कीन्ह करि दापा॥ | ||
+ | छाड़ा बान माझ उर लागा। मरती बार कपटु सब त्यागा॥ | ||
+ | दो0-रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़ेसि प्रान। | ||
+ | धन्य धन्य तव जननी कह अंगद हनुमान॥76॥ | ||
+ | |||
+ | बिनु प्रयास हनुमान उठायो। लंका द्वार राखि पुनि आयो॥ | ||
+ | तासु मरन सुनि सुर गंधर्बा। चढ़ि बिमान आए नभ सर्बा॥ | ||
+ | बरषि सुमन दुंदुभीं बजावहिं। श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिं॥ | ||
+ | जय अनंत जय जगदाधारा। तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा॥ | ||
+ | अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए। लछिमन कृपासिन्धु पहिं आए॥ | ||
+ | सुत बध सुना दसानन जबहीं। मुरुछित भयउ परेउ महि तबहीं॥ | ||
+ | मंदोदरी रुदन कर भारी। उर ताड़न बहु भाँति पुकारी॥ | ||
+ | नगर लोग सब ब्याकुल सोचा। सकल कहहिं दसकंधर पोचा॥ | ||
+ | दो0-तब दसकंठ बिबिध बिधि समुझाईं सब नारि। | ||
+ | नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि॥77॥ | ||
+ | |||
+ | तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन। आपुन मंद कथा सुभ पावन॥ | ||
+ | पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥ | ||
+ | निसा सिरानि भयउ भिनुसारा। लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा॥ | ||
+ | सुभट बोलाइ दसानन बोला। रन सन्मुख जा कर मन डोला॥ | ||
+ | सो अबहीं बरु जाउ पराई। संजुग बिमुख भएँ न भलाई॥ | ||
+ | निज भुज बल मैं बयरु बढ़ावा। देहउँ उतरु जो रिपु चढ़ि आवा॥ | ||
+ | अस कहि मरुत बेग रथ साजा। बाजे सकल जुझाऊ बाजा॥ | ||
+ | चले बीर सब अतुलित बली। जनु कज्जल कै आँधी चली॥ | ||
+ | असगुन अमित होहिं तेहि काला। गनइ न भुजबल गर्ब बिसाला॥ | ||
+ | छं0-अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्त्रवहिं आयुध हाथ ते। | ||
+ | भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते॥ | ||
+ | गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने। | ||
+ | जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने॥ | ||
+ | दो0-ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम। | ||
+ | भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम॥78॥ | ||
+ | |||
+ | चलेउ निसाचर कटकु अपारा। चतुरंगिनी अनी बहु धारा॥ | ||
+ | बिबिध भाँति बाहन रथ जाना। बिपुल बरन पताक ध्वज नाना॥ | ||
+ | चले मत्त गज जूथ घनेरे। प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे॥ | ||
+ | बरन बरद बिरदैत निकाया। समर सूर जानहिं बहु माया॥ | ||
+ | अति बिचित्र बाहिनी बिराजी। बीर बसंत सेन जनु साजी॥ | ||
+ | चलत कटक दिगसिधुंर डगहीं। छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं॥ | ||
+ | उठी रेनु रबि गयउ छपाई। मरुत थकित बसुधा अकुलाई॥ | ||
+ | पनव निसान घोर रव बाजहिं। प्रलय समय के घन जनु गाजहिं॥ | ||
+ | भेरि नफीरि बाज सहनाई। मारू राग सुभट सुखदाई॥ | ||
+ | केहरि नाद बीर सब करहीं। निज निज बल पौरुष उच्चरहीं॥ | ||
+ | कहइ दसानन सुनहु सुभट्टा। मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा॥ | ||
+ | हौं मारिहउँ भूप द्वौ भाई। अस कहि सन्मुख फौज रेंगाई॥ | ||
+ | यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई। धाए करि रघुबीर दोहाई॥ | ||
+ | छं0-धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते। | ||
+ | मानहुँ सपच्छ उड़ाहिं भूधर बृंद नाना बान ते॥ | ||
+ | नख दसन सैल महाद्रुमायुध सबल संक न मानहीं। | ||
+ | जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीं॥ | ||
+ | दो0-दुहु दिसि जय जयकार करि निज निज जोरी जानि। | ||
+ | भिरे बीर इत रामहि उत रावनहि बखानि॥79॥ | ||
+ | |||
+ | रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥ | ||
+ | अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा॥ | ||
+ | नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना॥ | ||
+ | सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना॥ | ||
+ | सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥ | ||
+ | बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥ | ||
+ | ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥ | ||
+ | दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड़ा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥ | ||
+ | अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥ | ||
+ | कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥ | ||
+ | सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥ | ||
+ | दो0-महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर। | ||
+ | जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर॥80(क)॥ | ||
+ | सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कंज। | ||
+ | एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुंज॥80(ख)॥ | ||
+ | उत पचार दसकंधर इत अंगद हनुमान। | ||
+ | लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन॥80(ग)॥ | ||
+ | |||
+ | सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढ़े बिमाना॥ | ||
+ | हमहू उमा रहे तेहि संगा। देखत राम चरित रन रंगा॥ | ||
+ | सुभट समर रस दुहु दिसि माते। कपि जयसील राम बल ताते॥ | ||
+ | एक एक सन भिरहिं पचारहिं। एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं॥ | ||
+ | मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं। सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं॥ | ||
+ | उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं। गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं॥ | ||
+ | निसिचर भट महि गाड़हि भालू। ऊपर ढारि देहिं बहु बालू॥ | ||
+ | बीर बलिमुख जुद्ध बिरुद्धे। देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे॥ | ||
+ | छं0-क्रुद्धे कृतांत समान कपि तन स्त्रवत सोनित राजहीं। | ||
+ | मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवंत घन जिमि गाजहीं॥ | ||
+ | मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं। | ||
+ | चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीं॥ | ||
+ | धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं। | ||
+ | प्रहलादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अंगन खेलहीं॥ | ||
+ | धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही। | ||
+ | जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही॥ | ||
+ | दो0-निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप। | ||
+ | रथ चढ़ि चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करि दाप॥81॥ | ||
+ | |||
+ | धायउ परम क्रुद्ध दसकंधर। सन्मुख चले हूह दै बंदर॥ | ||
+ | गहि कर पादप उपल पहारा। डारेन्हि ता पर एकहिं बारा॥ | ||
+ | लागहिं सैल बज्र तन तासू। खंड खंड होइ फूटहिं आसू॥ | ||
+ | चला न अचल रहा रथ रोपी। रन दुर्मद रावन अति कोपी॥ | ||
+ | इत उत झपटि दपटि कपि जोधा। मर्दै लाग भयउ अति क्रोधा॥ | ||
+ | चले पराइ भालु कपि नाना। त्राहि त्राहि अंगद हनुमाना॥ | ||
+ | पाहि पाहि रघुबीर गोसाई। यह खल खाइ काल की नाई॥ | ||
+ | तेहि देखे कपि सकल पराने। दसहुँ चाप सायक संधाने॥ | ||
+ | छं0-संधानि धनु सर निकर छाड़ेसि उरग जिमि उड़ि लागहीं। | ||
+ | रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदसि कहँ कपि भागहीं॥ | ||
+ | भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे। | ||
+ | रघुबीर करुना सिंधु आरत बंधु जन रच्छक हरे॥ | ||
+ | दो0-निज दल बिकल देखि कटि कसि निषंग धनु हाथ। | ||
+ | लछिमन चले क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ॥82॥ | ||
+ | |||
+ | रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू॥ | ||
+ | खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुड़ावउँ छाती॥ | ||
+ | अस कहि छाड़ेसि बान प्रचंडा। लछिमन किए सकल सत खंडा॥ | ||
+ | कोटिन्ह आयुध रावन डारे। तिल प्रवान करि काटि निवारे॥ | ||
+ | पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा। स्यंदनु भंजि सारथी मारा॥ | ||
+ | सत सत सर मारे दस भाला। गिरि सृंगन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला॥ | ||
+ | पुनि सत सर मारा उर माहीं। परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं॥ | ||
+ | उठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी। छाड़िसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी॥ | ||
+ | छं0-सो ब्रह्म दत्त प्रचंड सक्ति अनंत उर लागी सही। | ||
+ | पर्यो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही॥ | ||
+ | ब्रह्मांड भवन बिराज जाकें एक सिर जिमि रज कनी। | ||
+ | तेहि चह उठावन मूढ़ रावन जान नहिं त्रिभुअन धनी॥ | ||
+ | दो0-देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर। | ||
+ | आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर॥83॥ | ||
+ | |||
+ | जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा॥ | ||
+ | मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा॥ | ||
+ | मुरुछा गै बहोरि सो जागा। कपि बल बिपुल सराहन लागा॥ | ||
+ | धिग धिग मम पौरुष धिग मोही। जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही॥ | ||
+ | अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो। देखि दसानन बिसमय पायो॥ | ||
+ | कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता। तुम्ह कृतांत भच्छक सुर त्राता॥ | ||
+ | सुनत बचन उठि बैठ कृपाला। गई गगन सो सकति कराला॥ | ||
+ | पुनि कोदंड बान गहि धाए। रिपु सन्मुख अति आतुर आए॥ | ||
+ | छं0-आतुर बहोरि बिभंजि स्यंदन सूत हति ब्याकुल कियो। | ||
+ | गिर् यो धरनि दसकंधर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो॥ | ||
+ | सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लंका लै गयो। | ||
+ | रघुबीर बंधु प्रताप पुंज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो॥ | ||
+ | दो0-उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य। | ||
+ | राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य॥84॥ | ||
+ | |||
+ | इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई॥ | ||
+ | नाथ करइ रावन एक जागा। सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा॥ | ||
+ | पठवहु नाथ बेगि भट बंदर। करहिं बिधंस आव दसकंधर॥ | ||
+ | प्रात होत प्रभु सुभट पठाए। हनुमदादि अंगद सब धाए॥ | ||
+ | कौतुक कूदि चढ़े कपि लंका। पैठे रावन भवन असंका॥ | ||
+ | जग्य करत जबहीं सो देखा। सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा॥ | ||
+ | रन ते निलज भाजि गृह आवा। इहाँ आइ बक ध्यान लगावा॥ | ||
+ | अस कहि अंगद मारा लाता। चितव न सठ स्वारथ मन राता॥ | ||
+ | छं0-नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं। | ||
+ | धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं॥ | ||
+ | तब उठेउ क्रुद्ध कृतांत सम गहि चरन बानर डारई। | ||
+ | एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई॥ | ||
+ | दो0-जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास। | ||
+ | चलेउ निसाचर क्रुर्द्ध होइ त्यागि जिवन कै आस॥85॥ | ||
+ | |||
+ | चलत होहिं अति असुभ भयंकर। बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर॥ | ||
+ | भयउ कालबस काहु न माना। कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना॥ | ||
+ | चली तमीचर अनी अपारा। बहु गज रथ पदाति असवारा॥ | ||
+ | प्रभु सन्मुख धाए खल कैंसें। सलभ समूह अनल कहँ जैंसें॥ | ||
+ | इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही। दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही॥ | ||
+ | अब जनि राम खेलावहु एही। अतिसय दुखित होति बैदेही॥ | ||
+ | देव बचन सुनि प्रभु मुसकाना। उठि रघुबीर सुधारे बाना। | ||
+ | जटा जूट दृढ़ बाँधै माथे। सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे॥ | ||
+ | अरुन नयन बारिद तनु स्यामा। अखिल लोक लोचनाभिरामा॥ | ||
+ | कटितट परिकर कस्यो निषंगा। कर कोदंड कठिन सारंगा॥ | ||
+ | छं0-सारंग कर सुंदर निषंग सिलीमुखाकर कटि कस्यो। | ||
+ | भुजदंड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो॥ | ||
+ | कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे। | ||
+ | ब्रह्मांड दिग्गज कमठ अहि महि सिंधु भूधर डगमगे॥ | ||
+ | दो0-सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार। | ||
+ | जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार॥86॥ | ||
+ | |||
+ | एहीं बीच निसाचर अनी। कसमसात आई अति घनी। | ||
+ | देखि चले सन्मुख कपि भट्टा। प्रलयकाल के जनु घन घट्टा॥ | ||
+ | बहु कृपान तरवारि चमंकहिं। जनु दहँ दिसि दामिनीं दमंकहिं॥ | ||
+ | गज रथ तुरग चिकार कठोरा। गर्जहिं मनहुँ बलाहक घोरा॥ | ||
+ | कपि लंगूर बिपुल नभ छाए। मनहुँ इंद्रधनु उए सुहाए॥ | ||
+ | उठइ धूरि मानहुँ जलधारा। बान बुंद भै बृष्टि अपारा॥ | ||
+ | दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा। बज्रपात जनु बारहिं बारा॥ | ||
+ | रघुपति कोपि बान झरि लाई। घायल भै निसिचर समुदाई॥ | ||
+ | लागत बान बीर चिक्करहीं। घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीं॥ | ||
+ | स्त्रवहिं सैल जनु निर्झर भारी। सोनित सरि कादर भयकारी॥ | ||
+ | छं0-कादर भयंकर रुधिर सरिता चली परम अपावनी। | ||
+ | दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी॥ | ||
+ | जल जंतुगज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने। | ||
+ | सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरंग चर्म कमठ घने॥ | ||
+ | दो0-बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन। | ||
+ | कादर देखि डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन॥87॥ | ||
+ | |||
+ | मज्जहि भूत पिसाच बेताला। प्रमथ महा झोटिंग कराला॥ | ||
+ | काक कंक लै भुजा उड़ाहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीं॥ | ||
+ | एक कहहिं ऐसिउ सौंघाई। सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई॥ | ||
+ | कहँरत भट घायल तट गिरे। जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे॥ | ||
+ | खैंचहिं गीध आँत तट भए। जनु बंसी खेलत चित दए॥ | ||
+ | बहु भट बहहिं चढ़े खग जाहीं। जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं॥ | ||
+ | जोगिनि भरि भरि खप्पर संचहिं। भूत पिसाच बधू नभ नंचहिं॥ | ||
+ | भट कपाल करताल बजावहिं। चामुंडा नाना बिधि गावहिं॥ | ||
+ | जंबुक निकर कटक्कट कट्टहिं। खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिं॥ | ||
+ | कोटिन्ह रुंड मुंड बिनु डोल्लहिं। सीस परे महि जय जय बोल्लहिं॥ | ||
+ | छं0-बोल्लहिं जो जय जय मुंड रुंड प्रचंड सिर बिनु धावहीं। | ||
+ | खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं॥ | ||
+ | बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए। | ||
+ | संग्राम अंगन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हए॥ | ||
+ | दो0-रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर संघार। | ||
+ | मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार॥88॥ | ||
+ | |||
+ | देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा। उपजा उर अति छोभ बिसेषा॥ | ||
+ | सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा॥ | ||
+ | तेज पुंज रथ दिब्य अनूपा। हरषि चढ़े कोसलपुर भूपा॥ | ||
+ | चंचल तुरग मनोहर चारी। अजर अमर मन सम गतिकारी॥ | ||
+ | रथारूढ़ रघुनाथहि देखी। धाए कपि बलु पाइ बिसेषी॥ | ||
+ | सही न जाइ कपिन्ह कै मारी। तब रावन माया बिस्तारी॥ | ||
+ | सो माया रघुबीरहि बाँची। लछिमन कपिन्ह सो मानी साँची॥ | ||
+ | देखी कपिन्ह निसाचर अनी। अनुज सहित बहु कोसलधनी॥ | ||
+ | छं0-बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे। | ||
+ | जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे॥ | ||
+ | निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसल धनी। | ||
+ | माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी॥ | ||
+ | दो0-बहुरि राम सब तन चितइ बोले बचन गँभीर। | ||
+ | द्वंदजुद्ध देखहु सकल श्रमित भए अति बीर॥89॥ | ||
+ | |||
+ | अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पंकज सिरु नावा॥ | ||
+ | तब लंकेस क्रोध उर छावा। गर्जत तर्जत सन्मुख धावा॥ | ||
+ | जीतेहु जे भट संजुग माहीं। सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीं॥ | ||
+ | रावन नाम जगत जस जाना। लोकप जाकें बंदीखाना॥ | ||
+ | खर दूषन बिराध तुम्ह मारा। बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा॥ | ||
+ | निसिचर निकर सुभट संघारेहु। कुंभकरन घननादहि मारेहु॥ | ||
+ | आजु बयरु सबु लेउँ निबाही। जौं रन भूप भाजि नहिं जाहीं॥ | ||
+ | आजु करउँ खलु काल हवाले। परेहु कठिन रावन के पाले॥ | ||
+ | सुनि दुर्बचन कालबस जाना। बिहँसि बचन कह कृपानिधाना॥ | ||
+ | सत्य सत्य सब तव प्रभुताई। जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई॥ | ||
+ | छं0-जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा। | ||
+ | संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा॥ | ||
+ | एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं। | ||
+ | एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं॥ | ||
+ | दो0-राम बचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान। | ||
+ | बयरु करत नहिं तब डरे अब लागे प्रिय प्रान॥90॥ | ||
+ | |||
+ | कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकंधर। कुलिस समान लाग छाँड़ै सर॥ | ||
+ | नानाकार सिलीमुख धाए। दिसि अरु बिदिस गगन महि छाए॥ | ||
+ | पावक सर छाँड़ेउ रघुबीरा। छन महुँ जरे निसाचर तीरा॥ | ||
+ | छाड़िसि तीब्र सक्ति खिसिआई। बान संग प्रभु फेरि चलाई॥ | ||
+ | कोटिक चक्र त्रिसूल पबारै। बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै॥ | ||
+ | निफल होहिं रावन सर कैसें। खल के सकल मनोरथ जैसें॥ | ||
+ | तब सत बान सारथी मारेसि। परेउ भूमि जय राम पुकारेसि॥ | ||
+ | राम कृपा करि सूत उठावा। तब प्रभु परम क्रोध कहुँ पावा॥ | ||
+ | छं0-भए क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे। | ||
+ | कोदंड धुनि अति चंड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे॥ | ||
+ | मँदोदरी उर कंप कंपति कमठ भू भूधर त्रसे। | ||
+ | चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे॥ | ||
+ | दो0-तानेउ चाप श्रवन लगि छाँड़े बिसिख कराल। | ||
+ | राम मारगन गन चले लहलहात जनु ब्याल॥91॥ | ||
+ | |||
+ | चले बान सपच्छ जनु उरगा। प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा॥ | ||
+ | रथ बिभंजि हति केतु पताका। गर्जा अति अंतर बल थाका॥ | ||
+ | तुरत आन रथ चढ़ि खिसिआना। अस्त्र सस्त्र छाँड़ेसि बिधि नाना॥ | ||
+ | बिफल होहिं सब उद्यम ताके। जिमि परद्रोह निरत मनसा के॥ | ||
+ | तब रावन दस सूल चलावा। बाजि चारि महि मारि गिरावा॥ | ||
+ | तुरग उठाइ कोपि रघुनायक। खैंचि सरासन छाँड़े सायक॥ | ||
+ | रावन सिर सरोज बनचारी। चलि रघुबीर सिलीमुख धारी॥ | ||
+ | दस दस बान भाल दस मारे। निसरि गए चले रुधिर पनारे॥ | ||
+ | स्त्रवत रुधिर धायउ बलवाना। प्रभु पुनि कृत धनु सर संधाना॥ | ||
+ | तीस तीर रघुबीर पबारे। भुजन्हि समेत सीस महि पारे॥ | ||
+ | काटतहीं पुनि भए नबीने। राम बहोरि भुजा सिर छीने॥ | ||
+ | प्रभु बहु बार बाहु सिर हए। कटत झटिति पुनि नूतन भए॥ | ||
+ | पुनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा। अति कौतुकी कोसलाधीसा॥ | ||
+ | रहे छाइ नभ सिर अरु बाहू। मानहुँ अमित केतु अरु राहू॥ | ||
+ | छं0-जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्त्रवत सोनित धावहीं। | ||
+ | रघुबीर तीर प्रचंड लागहिं भूमि गिरन न पावहीं॥ | ||
+ | एक एक सर सिर निकर छेदे नभ उड़त इमि सोहहीं। | ||
+ | जनु कोपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुंतुद पोहहीं॥ | ||
+ | दो0-जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि तिमि होहिं अपार। | ||
+ | सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार॥92॥ | ||
+ | |||
+ | दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढ़ी। बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी॥ | ||
+ | गर्जेउ मूढ़ महा अभिमानी। धायउ दसहु सरासन तानी॥ | ||
+ | समर भूमि दसकंधर कोप्यो। बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो॥ | ||
+ | दंड एक रथ देखि न परेऊ। जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ॥ | ||
+ | हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा। तब प्रभु कोपि कारमुक लीन्हा॥ | ||
+ | सर निवारि रिपु के सिर काटे। ते दिसि बिदिस गगन महि पाटे॥ | ||
+ | काटे सिर नभ मारग धावहिं। जय जय धुनि करि भय उपजावहिं॥ | ||
+ | कहँ लछिमन सुग्रीव कपीसा। कहँ रघुबीर कोसलाधीसा॥ | ||
+ | छं0-कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले। | ||
+ | संधानि धनु रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले॥ | ||
+ | सिर मालिका कर कालिका गहि बृंद बृंदन्हि बहु मिलीं। | ||
+ | करि रुधिर सरि मज्जनु मनहुँ संग्राम बट पूजन चलीं॥ | ||
+ | दो0-पुनि दसकंठ क्रुद्ध होइ छाँड़ी सक्ति प्रचंड। | ||
+ | चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दंड॥93॥ | ||
+ | |||
+ | आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भंजन पन मोरा॥ | ||
+ | तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला॥ | ||
+ | लागि सक्ति मुरुछा कछु भई। प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई॥ | ||
+ | देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो। गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो॥ | ||
+ | रे कुभाग्य सठ मंद कुबुद्धे। तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे॥ | ||
+ | सादर सिव कहुँ सीस चढ़ाए। एक एक के कोटिन्ह पाए॥ | ||
+ | तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो। अब तव कालु सीस पर नाच्यो॥ | ||
+ | राम बिमुख सठ चहसि संपदा। अस कहि हनेसि माझ उर गदा॥ | ||
+ | छं0-उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर् यो। | ||
+ | दस बदन सोनित स्त्रवत पुनि संभारि धायो रिस भर् यो॥ | ||
+ | द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै। | ||
+ | रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै॥ | ||
+ | दो0-उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ। | ||
+ | सो अब भिरत काल ज्यों श्रीरघुबीर प्रभाउ॥94॥ | ||
+ | |||
+ | देखा श्रमित बिभीषनु भारी। धायउ हनूमान गिरि धारी॥ | ||
+ | रथ तुरंग सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेसि लाता॥ | ||
+ | ठाढ़ रहा अति कंपित गाता। गयउ बिभीषनु जहँ जनत्राता॥ | ||
+ | पुनि रावन कपि हतेउ पचारी। चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी॥ | ||
+ | गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना॥ | ||
+ | लरत अकास जुगल सम जोधा। एकहि एकु हनत करि क्रोधा॥ | ||
+ | सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं। कज्जल गिरि सुमेरु जनु लरहीं॥ | ||
+ | बुधि बल निसिचर परइ न पार् यो। तब मारुत सुत प्रभु संभार् यो॥ | ||
+ | छं0-संभारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो। | ||
+ | महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यो॥ | ||
+ | हनुमंत संकट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले। | ||
+ | रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचंड भुज बल दलमले॥ | ||
+ | दो0-तब रघुबीर पचारे धाए कीस प्रचंड। | ||
+ | कपि बल प्रबल देखि तेहिं कीन्ह प्रगट पाषंड॥95॥ | ||
+ | |||
+ | अंतरधान भयउ छन एका। पुनि प्रगटे खल रूप अनेका॥ | ||
+ | रघुपति कटक भालु कपि जेते। जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते॥ | ||
+ | देखे कपिन्ह अमित दससीसा। जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा॥ | ||
+ | भागे बानर धरहिं न धीरा। त्राहि त्राहि लछिमन रघुबीरा॥ | ||
+ | दहँ दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन। गर्जहिं घोर कठोर भयावन॥ | ||
+ | डरे सकल सुर चले पराई। जय कै आस तजहु अब भाई॥ | ||
+ | सब सुर जिते एक दसकंधर। अब बहु भए तकहु गिरि कंदर॥ | ||
+ | रहे बिरंचि संभु मुनि ग्यानी। जिन्ह जिन्ह प्रभु महिमा कछु जानी॥ | ||
+ | छं0-जाना प्रताप ते रहे निर्भय कपिन्ह रिपु माने फुरे। | ||
+ | चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपाल पाहि भयातुरे॥ | ||
+ | हनुमंत अंगद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे। | ||
+ | मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह कपट भू भट अंकुरे॥ | ||
+ | दो0-सुर बानर देखे बिकल हँस्यो कोसलाधीस। | ||
+ | सजि सारंग एक सर हते सकल दससीस॥96॥ | ||
+ | |||
+ | प्रभु छन महुँ माया सब काटी। जिमि रबि उएँ जाहिं तम फाटी॥ | ||
+ | रावनु एकु देखि सुर हरषे। फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे॥ | ||
+ | भुज उठाइ रघुपति कपि फेरे। फिरे एक एकन्ह तब टेरे॥ | ||
+ | प्रभु बलु पाइ भालु कपि धाए। तरल तमकि संजुग महि आए॥ | ||
+ | अस्तुति करत देवतन्हि देखें। भयउँ एक मैं इन्ह के लेखें॥ | ||
+ | सठहु सदा तुम्ह मोर मरायल। अस कहि कोपि गगन पर धायल॥ | ||
+ | हाहाकार करत सुर भागे। खलहु जाहु कहँ मोरें आगे॥ | ||
+ | देखि बिकल सुर अंगद धायो। कूदि चरन गहि भूमि गिरायो॥ | ||
+ | छं0-गहि भूमि पार् यो लात मार् यो बालिसुत प्रभु पहिं गयो। | ||
+ | संभारि उठि दसकंठ घोर कठोर रव गर्जत भयो॥ | ||
+ | करि दाप चाप चढ़ाइ दस संधानि सर बहु बरषई। | ||
+ | किए सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषई॥ | ||
+ | दो0-तब रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप। | ||
+ | काटे बहुत बढ़े पुनि जिमि तीरथ कर पाप। 97॥ | ||
+ | |||
+ | सिर भुज बाढ़ि देखि रिपु केरी। भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी॥ | ||
+ | मरत न मूढ़ कटेउ भुज सीसा। धाए कोपि भालु भट कीसा॥ | ||
+ | बालितनय मारुति नल नीला। बानरराज दुबिद बलसीला॥ | ||
+ | बिटप महीधर करहिं प्रहारा। सोइ गिरि तरु गहि कपिन्ह सो मारा॥ | ||
+ | एक नखन्हि रिपु बपुष बिदारी। भअगि चलहिं एक लातन्ह मारी॥ | ||
+ | तब नल नील सिरन्हि चढ़ि गयऊ। नखन्हि लिलार बिदारत भयऊ॥ | ||
+ | रुधिर देखि बिषाद उर भारी। तिन्हहि धरन कहुँ भुजा पसारी॥ | ||
+ | गहे न जाहिं करन्हि पर फिरहीं। जनु जुग मधुप कमल बन चरहीं॥ | ||
+ | कोपि कूदि द्वौ धरेसि बहोरी। महि पटकत भजे भुजा मरोरी॥ | ||
+ | पुनि सकोप दस धनु कर लीन्हे। सरन्हि मारि घायल कपि कीन्हे॥ | ||
+ | हनुमदादि मुरुछित करि बंदर। पाइ प्रदोष हरष दसकंधर॥ | ||
+ | मुरुछित देखि सकल कपि बीरा। जामवंत धायउ रनधीरा॥ | ||
+ | संग भालु भूधर तरु धारी। मारन लगे पचारि पचारी॥ | ||
+ | भयउ क्रुद्ध रावन बलवाना। गहि पद महि पटकइ भट नाना॥ | ||
+ | देखि भालुपति निज दल घाता। कोपि माझ उर मारेसि लाता॥ | ||
+ | छं0-उर लात घात प्रचंड लागत बिकल रथ ते महि परा। | ||
+ | गहि भालु बीसहुँ कर मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मधुकरा॥ | ||
+ | मुरुछित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयौ। | ||
+ | निसि जानि स्यंदन घालि तेहि तब सूत जतनु करत भयो॥ | ||
+ | दो0-मुरुछा बिगत भालु कपि सब आए प्रभु पास। | ||
+ | निसिचर सकल रावनहि घेरि रहे अति त्रास॥98॥ | ||
+ | |||
+ | मासपारायण, छब्बीसवाँ विश्राम | ||
+ | |||
+ | तेही निसि सीता पहिं जाई। त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई॥ | ||
+ | सिर भुज बाढ़ि सुनत रिपु केरी। सीता उर भइ त्रास घनेरी॥ | ||
+ | मुख मलीन उपजी मन चिंता। त्रिजटा सन बोली तब सीता॥ | ||
+ | होइहि कहा कहसि किन माता। केहि बिधि मरिहि बिस्व दुखदाता॥ | ||
+ | रघुपति सर सिर कटेहुँ न मरई। बिधि बिपरीत चरित सब करई॥ | ||
+ | मोर अभाग्य जिआवत ओही। जेहिं हौ हरि पद कमल बिछोही॥ | ||
+ | जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा। अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा॥ | ||
+ | जेहिं बिधि मोहि दुख दुसह सहाए। लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए॥ | ||
+ | रघुपति बिरह सबिष सर भारी। तकि तकि मार बार बहु मारी॥ | ||
+ | ऐसेहुँ दुख जो राख मम प्राना। सोइ बिधि ताहि जिआव न आना॥ | ||
+ | बहु बिधि कर बिलाप जानकी। करि करि सुरति कृपानिधान की॥ | ||
+ | कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी। उर सर लागत मरइ सुरारी॥ | ||
+ | प्रभु ताते उर हतइ न तेही। एहि के हृदयँ बसति बैदेही॥ | ||
+ | छं0-एहि के हृदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है। | ||
+ | मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है॥ | ||
+ | सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटाँ कहा। | ||
+ | अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुंदरि तजहि संसय महा॥ | ||
+ | दो0-काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान। | ||
+ | तब रावनहि हृदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान॥99॥ | ||
+ | |||
+ | अस कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई॥ | ||
+ | राम सुभाउ सुमिरि बैदेही। उपजी बिरह बिथा अति तेही॥ | ||
+ | निसिहि ससिहि निंदति बहु भाँती। जुग सम भई सिराति न राती॥ | ||
+ | करति बिलाप मनहिं मन भारी। राम बिरहँ जानकी दुखारी॥ | ||
+ | जब अति भयउ बिरह उर दाहू। फरकेउ बाम नयन अरु बाहू॥ | ||
+ | सगुन बिचारि धरी मन धीरा। अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा॥ | ||
+ | इहाँ अर्धनिसि रावनु जागा। निज सारथि सन खीझन लागा॥ | ||
+ | सठ रनभूमि छड़ाइसि मोही। धिग धिग अधम मंदमति तोही॥ | ||
+ | तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा। भौरु भएँ रथ चढ़ि पुनि धावा॥ | ||
+ | सुनि आगवनु दसानन केरा। कपि दल खरभर भयउ घनेरा॥ | ||
+ | जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी। धाए कटकटाइ भट भारी॥ | ||
+ | छं0-धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा। | ||
+ | अति कोप करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा॥ | ||
+ | बिचलाइ दल बलवंत कीसन्ह घेरि पुनि रावनु लियो। | ||
+ | चहुँ दिसि चपेटन्हि मारि नखन्हि बिदारि तनु ब्याकुल कियो॥ | ||
+ | दो0-देखि महा मर्कट प्रबल रावन कीन्ह बिचार। | ||
+ | अंतरहित होइ निमिष महुँ कृत माया बिस्तार॥100॥ | ||
+ | |||
+ | छं0-जब कीन्ह तेहिं पाषंड। भए प्रगट जंतु प्रचंड॥ | ||
+ | बेताल भूत पिसाच। कर धरें धनु नाराच॥1॥ | ||
+ | जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ मनुज कपाल॥ | ||
+ | करि सद्य सोनित पान। नाचहिं करहिं बहु गान॥2॥ | ||
+ | धरु मारु बोलहिं घोर। रहि पूरि धुनि चहुँ ओर॥ | ||
+ | मुख बाइ धावहिं खान। तब लगे कीस परान॥3॥ | ||
+ | जहँ जाहिं मर्कट भागि। तहँ बरत देखहिं आगि॥ | ||
+ | भए बिकल बानर भालु। पुनि लाग बरषै बालु॥4॥ | ||
+ | जहँ तहँ थकित करि कीस। गर्जेउ बहुरि दससीस॥ | ||
+ | लछिमन कपीस समेत। भए सकल बीर अचेत॥5॥ | ||
+ | हा राम हा रघुनाथ। कहि सुभट मीजहिं हाथ॥ | ||
+ | एहि बिधि सकल बल तोरि। तेहिं कीन्ह कपट बहोरि॥6॥ | ||
+ | प्रगटेसि बिपुल हनुमान। धाए गहे पाषान॥ | ||
+ | तिन्ह रामु घेरे जाइ। चहुँ दिसि बरूथ बनाइ॥7॥ | ||
+ | मारहु धरहु जनि जाइ। कटकटहिं पूँछ उठाइ॥ | ||
+ | दहँ दिसि लँगूर बिराज। तेहिं मध्य कोसलराज॥8॥ | ||
+ | छं0-तेहिं मध्य कोसलराज सुंदर स्याम तन सोभा लही। | ||
+ | जनु इंद्रधनुष अनेक की बर बारि तुंग तमालही॥ | ||
+ | प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी। | ||
+ | रघुबीर एकहि तीर कोपि निमेष महुँ माया हरी॥1॥ | ||
+ | माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे। | ||
+ | सर निकर छाड़े राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे॥ | ||
+ | श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं। | ||
+ | सत सेष सारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीं॥2॥ | ||
+ | दो0-ताके गुन गन कछु कहे जड़मति तुलसीदास। | ||
+ | जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उड़इ अकास॥101(क)॥ | ||
+ | काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लंकेस। | ||
+ | प्रभु क्रीड़त सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देखि कलेस॥101(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | काटत बढ़हिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई॥ | ||
+ | मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा॥ | ||
+ | उमा काल मर जाकीं ईछा। सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा॥ | ||
+ | सुनु सरबग्य चराचर नायक। प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक॥ | ||
+ | नाभिकुंड पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकें॥ | ||
+ | सुनत बिभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला॥ | ||
+ | असुभ होन लागे तब नाना। रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना॥ | ||
+ | बोलहि खग जग आरति हेतू। प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू॥ | ||
+ | दस दिसि दाह होन अति लागा। भयउ परब बिनु रबि उपरागा॥ | ||
+ | मंदोदरि उर कंपति भारी। प्रतिमा स्त्रवहिं नयन मग बारी॥ | ||
+ | छं0-प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही। | ||
+ | बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही॥ | ||
+ | उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहि जय जए। | ||
+ | सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भए॥ | ||
+ | दो0-खैचि सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस। | ||
+ | रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस॥102॥ | ||
+ | |||
+ | सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा॥ | ||
+ | लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुंड महि नाचा॥ | ||
+ | धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा॥ | ||
+ | गर्जेउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हतौं पचारी॥ | ||
+ | डोली भूमि गिरत दसकंधर। छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर॥ | ||
+ | धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई। चापि भालु मर्कट समुदाई॥ | ||
+ | मंदोदरि आगें भुज सीसा। धरि सर चले जहाँ जगदीसा॥ | ||
+ | प्रबिसे सब निषंग महु जाई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई॥ | ||
+ | तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि संभु चतुरानन॥ | ||
+ | जय जय धुनि पूरी ब्रह्मंडा। जय रघुबीर प्रबल भुजदंडा॥ | ||
+ | बरषहि सुमन देव मुनि बृंदा। जय कृपाल जय जयति मुकुंदा॥ | ||
+ | छं0-जय कृपा कंद मुकंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो। | ||
+ | खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो॥ | ||
+ | सुर सुमन बरषहिं हरष संकुल बाज दुंदुभि गहगही। | ||
+ | संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु सोभा लही॥ | ||
+ | सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं। | ||
+ | जनु नीलगिरि पर तड़ित पटल समेत उड़ुगन भ्राजहीं॥ | ||
+ | भुजदंड सर कोदंड फेरत रुधिर कन तन अति बने। | ||
+ | जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने॥ | ||
+ | दो0-कृपादृष्टि करि प्रभु अभय किए सुर बृंद। | ||
+ | भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकंद॥103॥ | ||
+ | |||
+ | पति सिर देखत मंदोदरी। मुरुछित बिकल धरनि खसि परी॥ | ||
+ | जुबति बृंद रोवत उठि धाईं। तेहि उठाइ रावन पहिं आई॥ | ||
+ | पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे कच नहिं बपुष सँभारा॥ | ||
+ | उर ताड़ना करहिं बिधि नाना। रोवत करहिं प्रताप बखाना॥ | ||
+ | तव बल नाथ डोल नित धरनी। तेज हीन पावक ससि तरनी॥ | ||
+ | सेष कमठ सहि सकहिं न भारा। सो तनु भूमि परेउ भरि छारा॥ | ||
+ | बरुन कुबेर सुरेस समीरा। रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा॥ | ||
+ | भुजबल जितेहु काल जम साईं। आजु परेहु अनाथ की नाईं॥ | ||
+ | जगत बिदित तुम्हारी प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई॥ | ||
+ | राम बिमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कोउ कुल रोवनिहारा॥ | ||
+ | तव बस बिधि प्रपंच सब नाथा। सभय दिसिप नित नावहिं माथा॥ | ||
+ | अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं। राम बिमुख यह अनुचित नाहीं॥ | ||
+ | काल बिबस पति कहा न माना। अग जग नाथु मनुज करि जाना॥ | ||
+ | छं0-जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं। | ||
+ | जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं॥ | ||
+ | आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं। | ||
+ | तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं॥ | ||
+ | दो0-अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन। | ||
+ | जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान॥104॥ | ||
+ | |||
+ | मंदोदरी बचन सुनि काना। सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना॥ | ||
+ | अज महेस नारद सनकादी। जे मुनिबर परमारथबादी॥ | ||
+ | भरि लोचन रघुपतिहि निहारी। प्रेम मगन सब भए सुखारी॥ | ||
+ | रुदन करत देखीं सब नारी। गयउ बिभीषनु मन दुख भारी॥ | ||
+ | बंधु दसा बिलोकि दुख कीन्हा। तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा॥ | ||
+ | लछिमन तेहि बहु बिधि समुझायो। बहुरि बिभीषन प्रभु पहिं आयो॥ | ||
+ | कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका। करहु क्रिया परिहरि सब सोका॥ | ||
+ | कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी। बिधिवत देस काल जियँ जानी॥ | ||
+ | दो0-मंदोदरी आदि सब देइ तिलांजलि ताहि। | ||
+ | भवन गई रघुपति गुन गन बरनत मन माहि॥105॥ | ||
+ | |||
+ | आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो। कृपासिंधु तब अनुज बोलायो॥ | ||
+ | तुम्ह कपीस अंगद नल नीला। जामवंत मारुति नयसीला॥ | ||
+ | सब मिलि जाहु बिभीषन साथा। सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा॥ | ||
+ | पिता बचन मैं नगर न आवउँ। आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ॥ | ||
+ | तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचना। कीन्ही जाइ तिलक की रचना॥ | ||
+ | सादर सिंहासन बैठारी। तिलक सारि अस्तुति अनुसारी॥ | ||
+ | जोरि पानि सबहीं सिर नाए। सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए॥ | ||
+ | तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे। कहि प्रिय बचन सुखी सब कीन्हे॥ | ||
+ | छं0-किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारें रिपु हयो। | ||
+ | पायो बिभीषन राज तिहुँ पुर जसु तुम्हारो नित नयो॥ | ||
+ | मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं। | ||
+ | संसार सिंधु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैं॥ | ||
+ | दो0-प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुंज। | ||
+ | बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कंज॥106॥ | ||
+ | |||
+ | पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना। लंका जाहु कहेउ भगवाना॥ | ||
+ | समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु॥ | ||
+ | तब हनुमंत नगर महुँ आए। सुनि निसिचरी निसाचर धाए॥ | ||
+ | बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही। जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही॥ | ||
+ | दूरहि ते प्रनाम कपि कीन्हा। रघुपति दूत जानकीं चीन्हा॥ | ||
+ | कहहु तात प्रभु कृपानिकेता। कुसल अनुज कपि सेन समेता॥ | ||
+ | सब बिधि कुसल कोसलाधीसा। मातु समर जीत्यो दससीसा॥ | ||
+ | अबिचल राजु बिभीषन पायो। सुनि कपि बचन हरष उर छायो॥ | ||
+ | छं0-अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा। | ||
+ | का देउँ तोहि त्रेलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा॥ | ||
+ | सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं। | ||
+ | रन जीति रिपुदल बंधु जुत पस्यामि राममनामयं॥ | ||
+ | दो0-सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमंत। | ||
+ | सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनंत॥107॥ | ||
+ | |||
+ | अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता॥ | ||
+ | तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई॥ | ||
+ | सुनि संदेसु भानुकुलभूषन। बोलि लिए जुबराज बिभीषन॥ | ||
+ | मारुतसुत के संग सिधावहु। सादर जनकसुतहि लै आवहु॥ | ||
+ | तुरतहिं सकल गए जहँ सीता। सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता॥ | ||
+ | बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो। तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो॥ | ||
+ | बहु प्रकार भूषन पहिराए। सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए॥ | ||
+ | ता पर हरषि चढ़ी बैदेही। सुमिरि राम सुखधाम सनेही॥ | ||
+ | बेतपानि रच्छक चहुँ पासा। चले सकल मन परम हुलासा॥ | ||
+ | देखन भालु कीस सब आए। रच्छक कोपि निवारन धाए॥ | ||
+ | कह रघुबीर कहा मम मानहु। सीतहि सखा पयादें आनहु॥ | ||
+ | देखहुँ कपि जननी की नाईं। बिहसि कहा रघुनाथ गोसाई॥ | ||
+ | सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे। नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे॥ | ||
+ | सीता प्रथम अनल महुँ राखी। प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी॥ | ||
+ | दो0-तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद। | ||
+ | सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद॥108॥ | ||
+ | |||
+ | प्रभु के बचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता॥ | ||
+ | लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी॥ | ||
+ | सुनि लछिमन सीता कै बानी। बिरह बिबेक धरम निति सानी॥ | ||
+ | लोचन सजल जोरि कर दोऊ। प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ॥ | ||
+ | देखि राम रुख लछिमन धाए। पावक प्रगटि काठ बहु लाए॥ | ||
+ | पावक प्रबल देखि बैदेही। हृदयँ हरष नहिं भय कछु तेही॥ | ||
+ | जौं मन बच क्रम मम उर माहीं। तजि रघुबीर आन गति नाहीं॥ | ||
+ | तौ कृसानु सब कै गति जाना। मो कहुँ होउ श्रीखंड समाना॥ | ||
+ | छं0-श्रीखंड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली। | ||
+ | जय कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली॥ | ||
+ | प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुँ जरे। | ||
+ | प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे॥1॥ | ||
+ | धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो। | ||
+ | जिमि छीरसागर इंदिरा रामहि समर्पी आनि सो॥ | ||
+ | सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली। | ||
+ | नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज की कली॥2॥ | ||
+ | दो0-बरषहिं सुमन हरषि सुन बाजहिं गगन निसान। | ||
+ | गावहिं किंनर सुरबधू नाचहिं चढ़ीं बिमान॥109(क)॥ | ||
+ | जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार। | ||
+ | देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार॥109(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई॥ | ||
+ | आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी॥ | ||
+ | दीन बंधु दयाल रघुराया। देव कीन्हि देवन्ह पर दाया॥ | ||
+ | बिस्व द्रोह रत यह खल कामी। निज अघ गयउ कुमारगगामी॥ | ||
+ | तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी। सदा एकरस सहज उदासी॥ | ||
+ | अकल अगुन अज अनघ अनामय। अजित अमोघसक्ति करुनामय॥ | ||
+ | मीन कमठ सूकर नरहरी। बामन परसुराम बपु धरी॥ | ||
+ | जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो। नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो॥ | ||
+ | यह खल मलिन सदा सुरद्रोही। काम लोभ मद रत अति कोही॥ | ||
+ | अधम सिरोमनि तव पद पावा। यह हमरे मन बिसमय आवा॥ | ||
+ | हम देवता परम अधिकारी। स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी॥ | ||
+ | भव प्रबाहँ संतत हम परे। अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे॥ | ||
+ | दो0-करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि। | ||
+ | अति सप्रेम तन पुलकि बिधि अस्तुति करत बहोरि॥110॥ | ||
+ | |||
+ | छं0-जय राम सदा सुखधाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे॥ | ||
+ | भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो॥ | ||
+ | तन काम अनेक अनूप छबी। गुन गावत सिद्ध मुनींद्र कबी॥ | ||
+ | जसु पावन रावन नाग महा। खगनाथ जथा करि कोप गहा॥ | ||
+ | जन रंजन भंजन सोक भयं। गतक्रोध सदा प्रभु बोधमयं॥ | ||
+ | अवतार उदार अपार गुनं। महि भार बिभंजन ग्यानघनं॥ | ||
+ | अज ब्यापकमेकमनादि सदा। करुनाकर राम नमामि मुदा॥ | ||
+ | रघुबंस बिभूषन दूषन हा। कृत भूप बिभीषन दीन रहा॥ | ||
+ | गुन ग्यान निधान अमान अजं। नित राम नमामि बिभुं बिरजं॥ | ||
+ | भुजदंड प्रचंड प्रताप बलं। खल बृंद निकंद महा कुसलं॥ | ||
+ | बिनु कारन दीन दयाल हितं। छबि धाम नमामि रमा सहितं॥ | ||
+ | भव तारन कारन काज परं। मन संभव दारुन दोष हरं॥ | ||
+ | सर चाप मनोहर त्रोन धरं। जरजारुन लोचन भूपबरं॥ | ||
+ | सुख मंदिर सुंदर श्रीरमनं। मद मार मुधा ममता समनं॥ | ||
+ | अनवद्य अखंड न गोचर गो। सबरूप सदा सब होइ न गो॥ | ||
+ | इति बेद बदंति न दंतकथा। रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा॥ | ||
+ | कृतकृत्य बिभो सब बानर ए। निरखंति तवानन सादर ए॥ | ||
+ | धिग जीवन देव सरीर हरे। तव भक्ति बिना भव भूलि परे॥ | ||
+ | अब दीन दयाल दया करिऐ। मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ॥ | ||
+ | जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ। दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ॥ | ||
+ | खल खंडन मंडन रम्य छमा। पद पंकज सेवित संभु उमा॥ | ||
+ | नृप नायक दे बरदानमिदं। चरनांबुज प्रेम सदा सुभदं॥ | ||
+ | दो0-बिनय कीन्हि चतुरानन प्रेम पुलक अति गात। | ||
+ | सोभासिंधु बिलोकत लोचन नहीं अघात॥111॥ | ||
+ | |||
+ | तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए॥ | ||
+ | अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा। आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा॥ | ||
+ | तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ। जीत्यों अजय निसाचर राऊ॥ | ||
+ | सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढ़ी। नयन सलिल रोमावलि ठाढ़ी॥ | ||
+ | रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना। चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना॥ | ||
+ | ताते उमा मोच्छ नहिं पायो। दसरथ भेद भगति मन लायो॥ | ||
+ | सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं। तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं॥ | ||
+ | बार बार करि प्रभुहि प्रनामा। दसरथ हरषि गए सुरधामा॥ | ||
+ | दो0-अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस। | ||
+ | सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस॥112॥ | ||
+ | |||
+ | छं0-जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत बिश्राम॥ | ||
+ | धृत त्रोन बर सर चाप। भुजदंड प्रबल प्रताप॥1॥ | ||
+ | जय दूषनारि खरारि। मर्दन निसाचर धारि॥ | ||
+ | यह दुष्ट मारेउ नाथ। भए देव सकल सनाथ॥2॥ | ||
+ | जय हरन धरनी भार। महिमा उदार अपार॥ | ||
+ | जय रावनारि कृपाल। किए जातुधान बिहाल॥3॥ | ||
+ | लंकेस अति बल गर्ब। किए बस्य सुर गंधर्ब॥ | ||
+ | मुनि सिद्ध नर खग नाग। हठि पंथ सब कें लाग॥4॥ | ||
+ | परद्रोह रत अति दुष्ट। पायो सो फलु पापिष्ट॥ | ||
+ | अब सुनहु दीन दयाल। राजीव नयन बिसाल॥5॥ | ||
+ | मोहि रहा अति अभिमान। नहिं कोउ मोहि समान॥ | ||
+ | अब देखि प्रभु पद कंज। गत मान प्रद दुख पुंज॥6॥ | ||
+ | कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव। अब्यक्त जेहि श्रुति गाव॥ | ||
+ | मोहि भाव कोसल भूप। श्रीराम सगुन सरूप॥7॥ | ||
+ | बैदेहि अनुज समेत। मम हृदयँ करहु निकेत॥ | ||
+ | मोहि जानिए निज दास। दे भक्ति रमानिवास॥8॥ | ||
+ | दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं। | ||
+ | सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकं॥ | ||
+ | सुर बृंद रंजन द्वंद भंजन मनुज तनु अतुलितबलं। | ||
+ | ब्रह्मादि संकर सेब्य राम नमामि करुना कोमलं॥ | ||
+ | दो0-अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल। | ||
+ | काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल॥113॥ | ||
+ | |||
+ | सुनु सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसचरन्हि जे मारे॥ | ||
+ | मम हित लागि तजे इन्ह प्राना। सकल जिआउ सुरेस सुजाना॥ | ||
+ | सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी। अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी॥ | ||
+ | प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई। केवल सक्रहि दीन्हि बड़ाई॥ | ||
+ | सुधा बरषि कपि भालु जिआए। हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए॥ | ||
+ | सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर। जिए भालु कपि नहिं रजनीचर॥ | ||
+ | रामाकार भए तिन्ह के मन। मुक्त भए छूटे भव बंधन॥ | ||
+ | सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा। जिए सकल रघुपति कीं ईछा॥ | ||
+ | राम सरिस को दीन हितकारी। कीन्हे मुकुत निसाचर झारी॥ | ||
+ | खल मल धाम काम रत रावन। गति पाई जो मुनिबर पाव न॥ | ||
+ | दो0-सुमन बरषि सब सुर चले चढ़ि चढ़ि रुचिर बिमान। | ||
+ | देखि सुअवसरु प्रभु पहिं आयउ संभु सुजान॥114(क)॥ | ||
+ | परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि। | ||
+ | पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि॥114(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | छं0-मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक॥ | ||
+ | मोह महा घन पटल प्रभंजन। संसय बिपिन अनल सुर रंजन॥1॥ | ||
+ | अगुन सगुन गुन मंदिर सुंदर। भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर॥ | ||
+ | काम क्रोध मद गज पंचानन। बसहु निरंतर जन मन कानन॥2॥ | ||
+ | बिषय मनोरथ पुंज कंज बन। प्रबल तुषार उदार पार मन॥ | ||
+ | भव बारिधि मंदर परमं दर। बारय तारय संसृति दुस्तर॥3॥ | ||
+ | स्याम गात राजीव बिलोचन। दीन बंधु प्रनतारति मोचन॥ | ||
+ | अनुज जानकी सहित निरंतर। बसहु राम नृप मम उर अंतर॥4॥ | ||
+ | मुनि रंजन महि मंडल मंडन। तुलसिदास प्रभु त्रास बिखंडन॥5॥ | ||
+ | दो0-नाथ जबहिं कोसलपुरीं होइहि तिलक तुम्हार। | ||
+ | कृपासिंधु मैं आउब देखन चरित उदार॥115॥ | ||
+ | |||
+ | करि बिनती जब संभु सिधाए। तब प्रभु निकट बिभीषनु आए॥ | ||
+ | नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी। बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी॥ | ||
+ | सकुल सदल प्रभु रावन मार् यो। पावन जस त्रिभुवन बिस्तार् यो॥ | ||
+ | दीन मलीन हीन मति जाती। मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती॥ | ||
+ | अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे। मज्जनु करिअ समर श्रम छीजे॥ | ||
+ | देखि कोस मंदिर संपदा। देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा॥ | ||
+ | सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ। पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ॥ | ||
+ | सुनत बचन मृदु दीनदयाला। सजल भए द्वौ नयन बिसाला॥ | ||
+ | दो0-तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात। | ||
+ | भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात॥116(क)॥ | ||
+ | तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहि। | ||
+ | देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरउँ तोहि॥116(ख)॥ | ||
+ | बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर। | ||
+ | सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर॥116(ग)॥ | ||
+ | करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं। | ||
+ | पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ संत सब जाहिं॥116(घ)॥ | ||
+ | |||
+ | सुनत बिभीषन बचन राम के। हरषि गहे पद कृपाधाम के॥ | ||
+ | बानर भालु सकल हरषाने। गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने॥ | ||
+ | बहुरि बिभीषन भवन सिधायो। मनि गन बसन बिमान भरायो॥ | ||
+ | लै पुष्पक प्रभु आगें राखा। हँसि करि कृपासिंधु तब भाषा॥ | ||
+ | चढ़ि बिमान सुनु सखा बिभीषन। गगन जाइ बरषहु पट भूषन॥ | ||
+ | नभ पर जाइ बिभीषन तबही। बरषि दिए मनि अंबर सबही॥ | ||
+ | जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेहीं। मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं॥ | ||
+ | हँसे रामु श्री अनुज समेता। परम कौतुकी कृपा निकेता॥ | ||
+ | दो0-मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद। | ||
+ | कृपासिंधु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद॥117(क)॥ | ||
+ | उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम। | ||
+ | राम कृपा नहि करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम॥117(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | भालु कपिन्ह पट भूषन पाए। पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए॥ | ||
+ | नाना जिनस देखि सब कीसा। पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा॥ | ||
+ | चितइ सबन्हि पर कीन्हि दाया। बोले मृदुल बचन रघुराया॥ | ||
+ | तुम्हरें बल मैं रावनु मार् यो। तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार् यो॥ | ||
+ | निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू। सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू॥ | ||
+ | सुनत बचन प्रेमाकुल बानर। जोरि पानि बोले सब सादर॥ | ||
+ | प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा। हमरे होत बचन सुनि मोहा॥ | ||
+ | दीन जानि कपि किए सनाथा। तुम्ह त्रेलोक ईस रघुनाथा॥ | ||
+ | सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं। मसक कहूँ खगपति हित करहीं॥ | ||
+ | देखि राम रुख बानर रीछा। प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा॥ | ||
+ | दो0-प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि। | ||
+ | हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि॥118(क)॥ | ||
+ | कपिपति नील रीछपति अंगद नल हनुमान। | ||
+ | सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान॥118(ख)॥ | ||
+ | दो0- कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि। | ||
+ | सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि॥118(ग)॥ | ||
+ | |||
+ | अतिसय प्रीति देख रघुराई। लिन्हे सकल बिमान चढ़ाई॥ | ||
+ | मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो। उत्तर दिसिहि बिमान चलायो॥ | ||
+ | चलत बिमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहइ सबु कोई॥ | ||
+ | सिंहासन अति उच्च मनोहर। श्री समेत प्रभु बैठै ता पर॥ | ||
+ | राजत रामु सहित भामिनी। मेरु सृंग जनु घन दामिनी॥ | ||
+ | रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर। कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर॥ | ||
+ | परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी। सागर सर सरि निर्मल बारी॥ | ||
+ | सगुन होहिं सुंदर चहुँ पासा। मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा॥ | ||
+ | कह रघुबीर देखु रन सीता। लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता॥ | ||
+ | हनूमान अंगद के मारे। रन महि परे निसाचर भारे॥ | ||
+ | कुंभकरन रावन द्वौ भाई। इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई॥ | ||
+ | दो0-इहाँ सेतु बाँध्यो अरु थापेउँ सिव सुख धाम। | ||
+ | सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम॥119(क)॥ | ||
+ | जहँ जहँ कृपासिंधु बन कीन्ह बास बिश्राम। | ||
+ | सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम॥119(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | तुरत बिमान तहाँ चलि आवा। दंडक बन जहँ परम सुहावा॥ | ||
+ | कुंभजादि मुनिनायक नाना। गए रामु सब कें अस्थाना॥ | ||
+ | सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा। चित्रकूट आए जगदीसा॥ | ||
+ | तहँ करि मुनिन्ह केर संतोषा। चला बिमानु तहाँ ते चोखा॥ | ||
+ | बहुरि राम जानकिहि देखाई। जमुना कलि मल हरनि सुहाई॥ | ||
+ | पुनि देखी सुरसरी पुनीता। राम कहा प्रनाम करु सीता॥ | ||
+ | तीरथपति पुनि देखु प्रयागा। निरखत जन्म कोटि अघ भागा॥ | ||
+ | देखु परम पावनि पुनि बेनी। हरनि सोक हरि लोक निसेनी॥ | ||
+ | पुनि देखु अवधपुरी अति पावनि। त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि॥। | ||
+ | दो0-सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम। | ||
+ | सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम॥120(क)॥ | ||
+ | पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह। | ||
+ | कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह॥120(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | प्रभु हनुमंतहि कहा बुझाई। धरि बटु रूप अवधपुर जाई॥ | ||
+ | भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु। समाचार लै तुम्ह चलि आएहु॥ | ||
+ | तुरत पवनसुत गवनत भयउ। तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ॥ | ||
+ | नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही। अस्तुती करि पुनि आसिष दीन्ही॥ | ||
+ | मुनि पद बंदि जुगल कर जोरी। चढ़ि बिमान प्रभु चले बहोरी॥ | ||
+ | इहाँ निषाद सुना प्रभु आए। नाव नाव कहँ लोग बोलाए॥ | ||
+ | सुरसरि नाघि जान तब आयो। उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो॥ | ||
+ | तब सीताँ पूजी सुरसरी। बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी॥ | ||
+ | दीन्हि असीस हरषि मन गंगा। सुंदरि तव अहिवात अभंगा॥ | ||
+ | सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल। आयउ निकट परम सुख संकुल॥ | ||
+ | प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही। परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही॥ | ||
+ | प्रीति परम बिलोकि रघुराई। हरषि उठाइ लियो उर लाई॥ | ||
+ | छं0-लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापती। | ||
+ | बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती। | ||
+ | अब कुसल पद पंकज बिलोकि बिरंचि संकर सेब्य जे। | ||
+ | सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते॥1॥ | ||
+ | सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो। | ||
+ | मतिमंद तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो॥ | ||
+ | यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा। | ||
+ | कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा॥2॥ | ||
+ | दो0-समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान। | ||
+ | बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान॥121(क)॥ | ||
+ | यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार। | ||
+ | श्रीरघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार॥121(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | मासपारायण, सत्ताईसवाँ विश्राम | ||
+ | |||
+ | इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने | ||
+ | |||
+ | षष्ठः सोपानः समाप्तः। | ||
+ | |||
+ | '''(लंका काण्ड समाप्त)''' | ||
+ | </poem> |
12:35, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण
देखि पवनसुत कटक बिहाला। क्रोधवंत जनु धायउ काला॥
महासैल एक तुरत उपारा। अति रिस मेघनाद पर डारा॥
आवत देखि गयउ नभ सोई। रथ सारथी तुरग सब खोई॥
बार बार पचार हनुमाना। निकट न आव मरमु सो जाना॥
रघुपति निकट गयउ घननादा। नाना भाँति करेसि दुर्बादा॥
अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे। कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे॥
देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना। करै लाग माया बिधि नाना॥
जिमि कोउ करै गरुड़ सैं खेला। डरपावै गहि स्वल्प सपेला॥
दो0-जासु प्रबल माया बल सिव बिरंचि बड़ छोट।
ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति खोट॥51॥
नभ चढ़ि बरष बिपुल अंगारा। महि ते प्रगट होहिं जलधारा॥
नाना भाँति पिसाच पिसाची। मारु काटु धुनि बोलहिं नाची॥
बिष्टा पूय रुधिर कच हाड़ा। बरषइ कबहुँ उपल बहु छाड़ा॥
बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा। सूझ न आपन हाथ पसारा॥
कपि अकुलाने माया देखें। सब कर मरन बना एहि लेखें॥
कौतुक देखि राम मुसुकाने। भए सभीत सकल कपि जाने॥
एक बान काटी सब माया। जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया॥
कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके। भए प्रबल रन रहहिं न रोके॥
दो0-आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ॥52॥
छतज नयन उर बाहु बिसाला। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला॥
इहाँ दसानन सुभट पठाए। नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए॥
भूधर नख बिटपायुध धारी। धाए कपि जय राम पुकारी॥
भिरे सकल जोरिहि सन जोरी। इत उत जय इच्छा नहिं थोरी॥
मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं। कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं॥
मारु मारु धरु धरु धरु मारू। सीस तोरि गहि भुजा उपारू॥
असि रव पूरि रही नव खंडा। धावहिं जहँ तहँ रुंड प्रचंडा॥
देखहिं कौतुक नभ सुर बृंदा। कबहुँक बिसमय कबहुँ अनंदा॥
दो0-रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़ाइ।
जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ॥53॥
घायल बीर बिराजहिं कैसे। कुसुमित किंसुक के तरु जैसे॥
लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा। भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा॥
एकहि एक सकइ नहिं जीती। निसिचर छल बल करइ अनीती॥
क्रोधवंत तब भयउ अनंता। भंजेउ रथ सारथी तुरंता॥
नाना बिधि प्रहार कर सेषा। राच्छस भयउ प्रान अवसेषा॥
रावन सुत निज मन अनुमाना। संकठ भयउ हरिहि मम प्राना॥
बीरघातिनी छाड़िसि साँगी। तेज पुंज लछिमन उर लागी॥
मुरुछा भई सक्ति के लागें। तब चलि गयउ निकट भय त्यागें॥
दो0-मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ।
जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसिआइ॥54॥
सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू। जारइ भुवन चारिदस आसू॥
सक संग्राम जीति को ताही। सेवहिं सुर नर अग जग जाही॥
यह कौतूहल जानइ सोई। जा पर कृपा राम कै होई॥
संध्या भइ फिरि द्वौ बाहनी। लगे सँभारन निज निज अनी॥
ब्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥
तब लगि लै आयउ हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना॥
जामवंत कह बैद सुषेना। लंकाँ रहइ को पठई लेना॥
धरि लघु रूप गयउ हनुमंता। आनेउ भवन समेत तुरंता॥
दो0-राम पदारबिंद सिर नायउ आइ सुषेन।
कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन॥55॥
राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभंजन सुत बल भाषी॥
उहाँ दूत एक मरमु जनावा। रावन कालनेमि गृह आवा॥
दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना। पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना॥
देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा। तासु पंथ को रोकन पारा॥
भजि रघुपति करु हित आपना। छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना॥
नील कंज तनु सुंदर स्यामा। हृदयँ राखु लोचनाभिरामा॥
मैं तैं मोर मूढ़ता त्यागू। महा मोह निसि सूतत जागू॥
काल ब्याल कर भच्छक जोई। सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई॥
दो0-सुनि दसकंठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह बिचार।
राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार॥56॥
अस कहि चला रचिसि मग माया। सर मंदिर बर बाग बनाया॥
मारुतसुत देखा सुभ आश्रम। मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम॥
राच्छस कपट बेष तहँ सोहा। मायापति दूतहि चह मोहा॥
जाइ पवनसुत नायउ माथा। लाग सो कहै राम गुन गाथा॥
होत महा रन रावन रामहिं। जितहहिं राम न संसय या महिं॥
इहाँ भएँ मैं देखेउँ भाई। ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई॥
मागा जल तेहिं दीन्ह कमंडल। कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल॥
सर मज्जन करि आतुर आवहु। दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु॥
दो0-सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान।
मारी सो धरि दिव्य तनु चली गगन चढ़ि जान॥57॥
कपि तव दरस भइउँ निष्पापा। मिटा तात मुनिबर कर सापा॥
मुनि न होइ यह निसिचर घोरा। मानहु सत्य बचन कपि मोरा॥
अस कहि गई अपछरा जबहीं। निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं॥
कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू। पाछें हमहि मंत्र तुम्ह देहू॥
सिर लंगूर लपेटि पछारा। निज तनु प्रगटेसि मरती बारा॥
राम राम कहि छाड़ेसि प्राना। सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना॥
देखा सैल न औषध चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा॥
गहि गिरि निसि नभ धावत भयऊ। अवधपुरी उपर कपि गयऊ॥
दो0-देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।
बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि॥58॥
परेउ मुरुछि महि लागत सायक। सुमिरत राम राम रघुनायक॥
सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए। कपि समीप अति आतुर आए॥
बिकल बिलोकि कीस उर लावा। जागत नहिं बहु भाँति जगावा॥
मुख मलीन मन भए दुखारी। कहत बचन भरि लोचन बारी॥
जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा। तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा॥
जौं मोरें मन बच अरु काया। प्रीति राम पद कमल अमाया॥
तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला। जौं मो पर रघुपति अनुकूला॥
सुनत बचन उठि बैठ कपीसा। कहि जय जयति कोसलाधीसा॥
सो0-लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल।
प्रीति न हृदयँ समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक॥59॥
तात कुसल कहु सुखनिधान की। सहित अनुज अरु मातु जानकी॥
कपि सब चरित समास बखाने। भए दुखी मन महुँ पछिताने॥
अहह दैव मैं कत जग जायउँ। प्रभु के एकहु काज न आयउँ॥
जानि कुअवसरु मन धरि धीरा। पुनि कपि सन बोले बलबीरा॥
तात गहरु होइहि तोहि जाता। काजु नसाइहि होत प्रभाता॥
चढ़ु मम सायक सैल समेता। पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता॥
सुनि कपि मन उपजा अभिमाना। मोरें भार चलिहि किमि बाना॥
राम प्रभाव बिचारि बहोरी। बंदि चरन कह कपि कर जोरी॥
दो0-तव प्रताप उर राखि प्रभु जेहउँ नाथ तुरंत।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत॥60(क)॥
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार॥60(ख)॥
उहाँ राम लछिमनहिं निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी॥
अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ॥
सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ॥
मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता॥
सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई॥
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू॥
सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥
अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता॥
जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना॥
अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जिआवै मोही॥
जैहउँ अवध कवन मुहु लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई॥
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं॥
अब अपलोकु सोकु सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा॥
निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा॥
सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी॥
उतरु काह दैहउँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई॥
बहु बिधि सिचत सोच बिमोचन। स्त्रवत सलिल राजिव दल लोचन॥
उमा एक अखंड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई॥
सो0-प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस॥61॥
हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥
तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥
हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता॥
कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा। जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा॥
यह बृत्तांत दसानन सुनेऊ। अति बिषअद पुनि पुनि सिर धुनेऊ॥
ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा॥
जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा॥
कुंभकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई॥
कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी॥
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महामहा जोधा संघारे॥
दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी॥
अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा॥
दो0-सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान।
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान॥62॥
भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥
अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥
हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक॥
अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई॥
कीन्हेहु प्रभू बिरोध तेहि देवक। सिव बिरंचि सुर जाके सेवक॥
नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबहा॥
अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई। लोचन सूफल करौ मैं जाई॥
स्याम गात सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन॥
दो0-राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक।
रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक॥63॥
महिष खाइ करि मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समाना॥
कुंभकरन दुर्मद रन रंगा। चला दुर्ग तजि सेन न संगा॥
देखि बिभीषनु आगें आयउ। परेउ चरन निज नाम सुनायउ॥
अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो। रघुपति भक्त जानि मन भायो॥
तात लात रावन मोहि मारा। कहत परम हित मंत्र बिचारा॥
तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ। देखि दीन प्रभु के मन भायउँ॥
सुनु सुत भयउ कालबस रावन। सो कि मान अब परम सिखावन॥
धन्य धन्य तैं धन्य बिभीषन। भयहु तात निसिचर कुल भूषन॥
बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर॥
दो0-बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर।
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर। 64॥
बंधु बचन सुनि चला बिभीषन। आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन॥
नाथ भूधराकार सरीरा। कुंभकरन आवत रनधीरा॥
एतना कपिन्ह सुना जब काना। किलकिलाइ धाए बलवाना॥
लिए उठाइ बिटप अरु भूधर। कटकटाइ डारहिं ता ऊपर॥
कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा। करहिं भालु कपि एक एक बारा॥
मुर् यो न मन तनु टर् यो न टार् यो। जिमि गज अर्क फलनि को मार्यो॥
तब मारुतसुत मुठिका हन्यो। पर् यो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो॥
पुनि उठि तेहिं मारेउ हनुमंता। घुर्मित भूतल परेउ तुरंता॥
पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि। जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि॥
चली बलीमुख सेन पराई। अति भय त्रसित न कोउ समुहाई॥
दो0-अंगदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव।
काँख दाबि कपिराज कहुँ चला अमित बल सींव॥65॥
उमा करत रघुपति नरलीला। खेलत गरुड़ जिमि अहिगन मीला॥
भृकुटि भंग जो कालहि खाई। ताहि कि सोहइ ऐसि लराई॥
जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं। गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिं॥
मुरुछा गइ मारुतसुत जागा। सुग्रीवहि तब खोजन लागा॥
सुग्रीवहु कै मुरुछा बीती। निबुक गयउ तेहि मृतक प्रतीती॥
काटेसि दसन नासिका काना। गरजि अकास चलउ तेहिं जाना॥
गहेउ चरन गहि भूमि पछारा। अति लाघवँ उठि पुनि तेहि मारा॥
पुनि आयसु प्रभु पहिं बलवाना। जयति जयति जय कृपानिधाना॥
नाक कान काटे जियँ जानी। फिरा क्रोध करि भइ मन ग्लानी॥
सहज भीम पुनि बिनु श्रुति नासा। देखत कपि दल उपजी त्रासा॥
दो0-जय जय जय रघुबंस मनि धाए कपि दै हूह।
एकहि बार तासु पर छाड़ेन्हि गिरि तरु जूह॥66॥
कुंभकरन रन रंग बिरुद्धा। सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा॥
कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई। जनु टीड़ी गिरि गुहाँ समाई॥
कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा। कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा॥
मुख नासा श्रवनन्हि कीं बाटा। निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा॥
रन मद मत्त निसाचर दर्पा। बिस्व ग्रसिहि जनु एहि बिधि अर्पा॥
मुरे सुभट सब फिरहिं न फेरे। सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे॥
कुंभकरन कपि फौज बिडारी। सुनि धाई रजनीचर धारी॥
देखि राम बिकल कटकाई। रिपु अनीक नाना बिधि आई॥
दो0-सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन।
मैं देखउँ खल बल दलहि बोले राजिवनैन॥67॥
कर सारंग साजि कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघुनाथा॥
प्रथम कीन्ह प्रभु धनुष टँकोरा। रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा॥
सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा। कालसर्प जनु चले सपच्छा॥
जहँ तहँ चले बिपुल नाराचा। लगे कटन भट बिकट पिसाचा॥
कटहिं चरन उर सिर भुजदंडा। बहुतक बीर होहिं सत खंडा॥
घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं। उठि संभारि सुभट पुनि लरहीं॥
लागत बान जलद जिमि गाजहीं। बहुतक देखी कठिन सर भाजहिं॥
रुंड प्रचंड मुंड बिनु धावहिं। धरु धरु मारू मारु धुनि गावहिं॥
दो0-छन महुँ प्रभु के सायकन्हि काटे बिकट पिसाच।
पुनि रघुबीर निषंग महुँ प्रबिसे सब नाराच॥68॥
कुंभकरन मन दीख बिचारी। हति धन माझ निसाचर धारी॥
भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा। कियो मृगनायक नाद गँभीरा॥
कोपि महीधर लेइ उपारी। डारइ जहँ मर्कट भट भारी॥
आवत देखि सैल प्रभू भारे। सरन्हि काटि रज सम करि डारे॥।
पुनि धनु तानि कोपि रघुनायक। छाँड़े अति कराल बहु सायक॥
तनु महुँ प्रबिसि निसरि सर जाहीं। जिमि दामिनि घन माझ समाहीं॥
सोनित स्त्रवत सोह तन कारे। जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे॥
बिकल बिलोकि भालु कपि धाए। बिहँसा जबहिं निकट कपि आए॥
दो0-महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस।
महि पटकइ गजराज इव सपथ करइ दससीस॥69॥
भागे भालु बलीमुख जूथा। बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा॥
चले भागि कपि भालु भवानी। बिकल पुकारत आरत बानी॥
यह निसिचर दुकाल सम अहई। कपिकुल देस परन अब चहई॥
कृपा बारिधर राम खरारी। पाहि पाहि प्रनतारति हारी॥
सकरुन बचन सुनत भगवाना। चले सुधारि सरासन बाना॥
राम सेन निज पाछैं घाली। चले सकोप महा बलसाली॥
खैंचि धनुष सर सत संधाने। छूटे तीर सरीर समाने॥
लागत सर धावा रिस भरा। कुधर डगमगत डोलति धरा॥
लीन्ह एक तेहिं सैल उपाटी। रघुकुल तिलक भुजा सोइ काटी॥
धावा बाम बाहु गिरि धारी। प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी॥
काटें भुजा सोह खल कैसा। पच्छहीन मंदर गिरि जैसा॥
उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका। ग्रसन चहत मानहुँ त्रेलोका॥
दो0-करि चिक्कार घोर अति धावा बदनु पसारि।
गगन सिद्ध सुर त्रासित हा हा हेति पुकारि॥70॥
सभय देव करुनानिधि जान्यो। श्रवन प्रजंत सरासनु तान्यो॥
बिसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ। तदपि महाबल भूमि न परेऊ॥
सरन्हि भरा मुख सन्मुख धावा। काल त्रोन सजीव जनु आवा॥
तब प्रभु कोपि तीब्र सर लीन्हा। धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा॥
सो सिर परेउ दसानन आगें। बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें॥
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खंडा॥
परे भूमि जिमि नभ तें भूधर। हेठ दाबि कपि भालु निसाचर॥
तासु तेज प्रभु बदन समाना। सुर मुनि सबहिं अचंभव माना॥
सुर दुंदुभीं बजावहिं हरषहिं। अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं॥
करि बिनती सुर सकल सिधाए। तेही समय देवरिषि आए॥
गगनोपरि हरि गुन गन गाए। रुचिर बीररस प्रभु मन भाए॥
बेगि हतहु खल कहि मुनि गए। राम समर महि सोभत भए॥
छं0-संग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी।
श्रम बिंदु मुख राजीव लोचन अरुन तन सोनित कनी॥
भुज जुगल फेरत सर सरासन भालु कपि चहु दिसि बने।
कह दास तुलसी कहि न सक छबि सेष जेहि आनन घने॥
दो0-निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम।
गिरिजा ते नर मंदमति जे न भजहिं श्रीराम॥71॥
दिन कें अंत फिरीं दोउ अनी। समर भई सुभटन्ह श्रम घनी॥
राम कृपाँ कपि दल बल बाढ़ा। जिमि तृन पाइ लाग अति डाढ़ा॥
छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती। निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती॥
बहु बिलाप दसकंधर करई। बंधु सीस पुनि पुनि उर धरई॥
रोवहिं नारि हृदय हति पानी। तासु तेज बल बिपुल बखानी॥
मेघनाद तेहि अवसर आयउ। कहि बहु कथा पिता समुझायउ॥
देखेहु कालि मोरि मनुसाई। अबहिं बहुत का करौं बड़ाई॥
इष्टदेव सैं बल रथ पायउँ। सो बल तात न तोहि देखायउँ॥
एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना। चहुँ दुआर लागे कपि नाना॥
इत कपि भालु काल सम बीरा। उत रजनीचर अति रनधीरा॥
लरहिं सुभट निज निज जय हेतू। बरनि न जाइ समर खगकेतू॥
दो0-मेघनाद मायामय रथ चढ़ि गयउ अकास॥
गर्जेउ अट्टहास करि भइ कपि कटकहि त्रास॥72॥
सक्ति सूल तरवारि कृपाना। अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना॥
डारह परसु परिघ पाषाना। लागेउ बृष्टि करै बहु बाना॥
दस दिसि रहे बान नभ छाई। मानहुँ मघा मेघ झरि लाई॥
धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना। जो मारइ तेहि कोउ न जाना॥
गहि गिरि तरु अकास कपि धावहिं। देखहि तेहि न दुखित फिरि आवहिं॥
अवघट घाट बाट गिरि कंदर। माया बल कीन्हेसि सर पंजर॥
जाहिं कहाँ ब्याकुल भए बंदर। सुरपति बंदि परे जनु मंदर॥
मारुतसुत अंगद नल नीला। कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला॥
पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन। सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन॥
पुनि रघुपति सैं जूझे लागा। सर छाँड़इ होइ लागहिं नागा॥
ब्याल पास बस भए खरारी। स्वबस अनंत एक अबिकारी॥
नट इव कपट चरित कर नाना। सदा स्वतंत्र एक भगवाना॥
रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो। नागपास देवन्ह भय पायो॥
दो0-गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास।
सो कि बंध तर आवइ ब्यापक बिस्व निवास॥73॥
चरित राम के सगुन भवानी। तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी॥
अस बिचारि जे तग्य बिरागी। रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी॥
ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा। पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा॥
जामवंत कह खल रहु ठाढ़ा। सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढ़ा॥
बूढ़ जानि सठ छाँड़ेउँ तोही। लागेसि अधम पचारै मोही॥
अस कहि तरल त्रिसूल चलायो। जामवंत कर गहि सोइ धायो॥
मारिसि मेघनाद कै छाती। परा भूमि घुर्मित सुरघाती॥
पुनि रिसान गहि चरन फिरायौ। महि पछारि निज बल देखरायो॥
बर प्रसाद सो मरइ न मारा। तब गहि पद लंका पर डारा॥
इहाँ देवरिषि गरुड़ पठायो। राम समीप सपदि सो आयो॥
दो0-खगपति सब धरि खाए माया नाग बरूथ।
माया बिगत भए सब हरषे बानर जूथ। 74(क)॥
गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ।
चले तमीचर बिकलतर गढ़ पर चढ़े पराइ॥74(ख)॥
मेघनाद के मुरछा जागी। पितहि बिलोकि लाज अति लागी॥
तुरत गयउ गिरिबर कंदरा। करौं अजय मख अस मन धरा॥
इहाँ बिभीषन मंत्र बिचारा। सुनहु नाथ बल अतुल उदारा॥
मेघनाद मख करइ अपावन। खल मायावी देव सतावन॥
जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि। नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि॥
सुनि रघुपति अतिसय सुख माना। बोले अंगदादि कपि नाना॥
लछिमन संग जाहु सब भाई। करहु बिधंस जग्य कर जाई॥
तुम्ह लछिमन मारेहु रन ओही। देखि सभय सुर दुख अति मोही॥
मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई। जेहिं छीजै निसिचर सुनु भाई॥
जामवंत सुग्रीव बिभीषन। सेन समेत रहेहु तीनिउ जन॥
जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन। कटि निषंग कसि साजि सरासन॥
प्रभु प्रताप उर धरि रनधीरा। बोले घन इव गिरा गँभीरा॥
जौं तेहि आजु बधें बिनु आवौं। तौ रघुपति सेवक न कहावौं॥
जौं सत संकर करहिं सहाई। तदपि हतउँ रघुबीर दोहाई॥
दो0-रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरंत अनंत।
अंगद नील मयंद नल संग सुभट हनुमंत॥75॥
जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा। आहुति देत रुधिर अरु भैंसा॥
कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा। जब न उठइ तब करहिं प्रसंसा॥
तदपि न उठइ धरेन्हि कच जाई। लातन्हि हति हति चले पराई॥
लै त्रिसुल धावा कपि भागे। आए जहँ रामानुज आगे॥
आवा परम क्रोध कर मारा। गर्ज घोर रव बारहिं बारा॥
कोपि मरुतसुत अंगद धाए। हति त्रिसूल उर धरनि गिराए॥
प्रभु कहँ छाँड़ेसि सूल प्रचंडा। सर हति कृत अनंत जुग खंडा॥
उठि बहोरि मारुति जुबराजा। हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा॥
फिरे बीर रिपु मरइ न मारा। तब धावा करि घोर चिकारा॥
आवत देखि क्रुद्ध जनु काला। लछिमन छाड़े बिसिख कराला॥
देखेसि आवत पबि सम बाना। तुरत भयउ खल अंतरधाना॥
बिबिध बेष धरि करइ लराई। कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई॥
देखि अजय रिपु डरपे कीसा। परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा॥
लछिमन मन अस मंत्र दृढ़ावा। एहि पापिहि मैं बहुत खेलावा॥
सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा। सर संधान कीन्ह करि दापा॥
छाड़ा बान माझ उर लागा। मरती बार कपटु सब त्यागा॥
दो0-रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़ेसि प्रान।
धन्य धन्य तव जननी कह अंगद हनुमान॥76॥
बिनु प्रयास हनुमान उठायो। लंका द्वार राखि पुनि आयो॥
तासु मरन सुनि सुर गंधर्बा। चढ़ि बिमान आए नभ सर्बा॥
बरषि सुमन दुंदुभीं बजावहिं। श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिं॥
जय अनंत जय जगदाधारा। तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा॥
अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए। लछिमन कृपासिन्धु पहिं आए॥
सुत बध सुना दसानन जबहीं। मुरुछित भयउ परेउ महि तबहीं॥
मंदोदरी रुदन कर भारी। उर ताड़न बहु भाँति पुकारी॥
नगर लोग सब ब्याकुल सोचा। सकल कहहिं दसकंधर पोचा॥
दो0-तब दसकंठ बिबिध बिधि समुझाईं सब नारि।
नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि॥77॥
तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन। आपुन मंद कथा सुभ पावन॥
पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥
निसा सिरानि भयउ भिनुसारा। लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा॥
सुभट बोलाइ दसानन बोला। रन सन्मुख जा कर मन डोला॥
सो अबहीं बरु जाउ पराई। संजुग बिमुख भएँ न भलाई॥
निज भुज बल मैं बयरु बढ़ावा। देहउँ उतरु जो रिपु चढ़ि आवा॥
अस कहि मरुत बेग रथ साजा। बाजे सकल जुझाऊ बाजा॥
चले बीर सब अतुलित बली। जनु कज्जल कै आँधी चली॥
असगुन अमित होहिं तेहि काला। गनइ न भुजबल गर्ब बिसाला॥
छं0-अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्त्रवहिं आयुध हाथ ते।
भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते॥
गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने।
जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने॥
दो0-ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।
भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम॥78॥
चलेउ निसाचर कटकु अपारा। चतुरंगिनी अनी बहु धारा॥
बिबिध भाँति बाहन रथ जाना। बिपुल बरन पताक ध्वज नाना॥
चले मत्त गज जूथ घनेरे। प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे॥
बरन बरद बिरदैत निकाया। समर सूर जानहिं बहु माया॥
अति बिचित्र बाहिनी बिराजी। बीर बसंत सेन जनु साजी॥
चलत कटक दिगसिधुंर डगहीं। छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं॥
उठी रेनु रबि गयउ छपाई। मरुत थकित बसुधा अकुलाई॥
पनव निसान घोर रव बाजहिं। प्रलय समय के घन जनु गाजहिं॥
भेरि नफीरि बाज सहनाई। मारू राग सुभट सुखदाई॥
केहरि नाद बीर सब करहीं। निज निज बल पौरुष उच्चरहीं॥
कहइ दसानन सुनहु सुभट्टा। मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा॥
हौं मारिहउँ भूप द्वौ भाई। अस कहि सन्मुख फौज रेंगाई॥
यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई। धाए करि रघुबीर दोहाई॥
छं0-धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते।
मानहुँ सपच्छ उड़ाहिं भूधर बृंद नाना बान ते॥
नख दसन सैल महाद्रुमायुध सबल संक न मानहीं।
जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीं॥
दो0-दुहु दिसि जय जयकार करि निज निज जोरी जानि।
भिरे बीर इत रामहि उत रावनहि बखानि॥79॥
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥
अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा॥
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना॥
सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना॥
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥
ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड़ा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥
अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥
सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥
दो0-महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर॥80(क)॥
सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कंज।
एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुंज॥80(ख)॥
उत पचार दसकंधर इत अंगद हनुमान।
लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन॥80(ग)॥
सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढ़े बिमाना॥
हमहू उमा रहे तेहि संगा। देखत राम चरित रन रंगा॥
सुभट समर रस दुहु दिसि माते। कपि जयसील राम बल ताते॥
एक एक सन भिरहिं पचारहिं। एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं॥
मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं। सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं॥
उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं। गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं॥
निसिचर भट महि गाड़हि भालू। ऊपर ढारि देहिं बहु बालू॥
बीर बलिमुख जुद्ध बिरुद्धे। देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे॥
छं0-क्रुद्धे कृतांत समान कपि तन स्त्रवत सोनित राजहीं।
मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवंत घन जिमि गाजहीं॥
मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं।
चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीं॥
धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं।
प्रहलादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अंगन खेलहीं॥
धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही।
जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही॥
दो0-निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप।
रथ चढ़ि चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करि दाप॥81॥
धायउ परम क्रुद्ध दसकंधर। सन्मुख चले हूह दै बंदर॥
गहि कर पादप उपल पहारा। डारेन्हि ता पर एकहिं बारा॥
लागहिं सैल बज्र तन तासू। खंड खंड होइ फूटहिं आसू॥
चला न अचल रहा रथ रोपी। रन दुर्मद रावन अति कोपी॥
इत उत झपटि दपटि कपि जोधा। मर्दै लाग भयउ अति क्रोधा॥
चले पराइ भालु कपि नाना। त्राहि त्राहि अंगद हनुमाना॥
पाहि पाहि रघुबीर गोसाई। यह खल खाइ काल की नाई॥
तेहि देखे कपि सकल पराने। दसहुँ चाप सायक संधाने॥
छं0-संधानि धनु सर निकर छाड़ेसि उरग जिमि उड़ि लागहीं।
रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदसि कहँ कपि भागहीं॥
भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे।
रघुबीर करुना सिंधु आरत बंधु जन रच्छक हरे॥
दो0-निज दल बिकल देखि कटि कसि निषंग धनु हाथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ॥82॥
रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू॥
खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुड़ावउँ छाती॥
अस कहि छाड़ेसि बान प्रचंडा। लछिमन किए सकल सत खंडा॥
कोटिन्ह आयुध रावन डारे। तिल प्रवान करि काटि निवारे॥
पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा। स्यंदनु भंजि सारथी मारा॥
सत सत सर मारे दस भाला। गिरि सृंगन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला॥
पुनि सत सर मारा उर माहीं। परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं॥
उठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी। छाड़िसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी॥
छं0-सो ब्रह्म दत्त प्रचंड सक्ति अनंत उर लागी सही।
पर्यो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही॥
ब्रह्मांड भवन बिराज जाकें एक सिर जिमि रज कनी।
तेहि चह उठावन मूढ़ रावन जान नहिं त्रिभुअन धनी॥
दो0-देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर।
आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर॥83॥
जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा॥
मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा॥
मुरुछा गै बहोरि सो जागा। कपि बल बिपुल सराहन लागा॥
धिग धिग मम पौरुष धिग मोही। जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही॥
अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो। देखि दसानन बिसमय पायो॥
कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता। तुम्ह कृतांत भच्छक सुर त्राता॥
सुनत बचन उठि बैठ कृपाला। गई गगन सो सकति कराला॥
पुनि कोदंड बान गहि धाए। रिपु सन्मुख अति आतुर आए॥
छं0-आतुर बहोरि बिभंजि स्यंदन सूत हति ब्याकुल कियो।
गिर् यो धरनि दसकंधर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो॥
सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लंका लै गयो।
रघुबीर बंधु प्रताप पुंज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो॥
दो0-उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य।
राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य॥84॥
इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई॥
नाथ करइ रावन एक जागा। सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा॥
पठवहु नाथ बेगि भट बंदर। करहिं बिधंस आव दसकंधर॥
प्रात होत प्रभु सुभट पठाए। हनुमदादि अंगद सब धाए॥
कौतुक कूदि चढ़े कपि लंका। पैठे रावन भवन असंका॥
जग्य करत जबहीं सो देखा। सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा॥
रन ते निलज भाजि गृह आवा। इहाँ आइ बक ध्यान लगावा॥
अस कहि अंगद मारा लाता। चितव न सठ स्वारथ मन राता॥
छं0-नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं।
धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं॥
तब उठेउ क्रुद्ध कृतांत सम गहि चरन बानर डारई।
एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई॥
दो0-जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास।
चलेउ निसाचर क्रुर्द्ध होइ त्यागि जिवन कै आस॥85॥
चलत होहिं अति असुभ भयंकर। बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर॥
भयउ कालबस काहु न माना। कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना॥
चली तमीचर अनी अपारा। बहु गज रथ पदाति असवारा॥
प्रभु सन्मुख धाए खल कैंसें। सलभ समूह अनल कहँ जैंसें॥
इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही। दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही॥
अब जनि राम खेलावहु एही। अतिसय दुखित होति बैदेही॥
देव बचन सुनि प्रभु मुसकाना। उठि रघुबीर सुधारे बाना।
जटा जूट दृढ़ बाँधै माथे। सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे॥
अरुन नयन बारिद तनु स्यामा। अखिल लोक लोचनाभिरामा॥
कटितट परिकर कस्यो निषंगा। कर कोदंड कठिन सारंगा॥
छं0-सारंग कर सुंदर निषंग सिलीमुखाकर कटि कस्यो।
भुजदंड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो॥
कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे।
ब्रह्मांड दिग्गज कमठ अहि महि सिंधु भूधर डगमगे॥
दो0-सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार।
जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार॥86॥
एहीं बीच निसाचर अनी। कसमसात आई अति घनी।
देखि चले सन्मुख कपि भट्टा। प्रलयकाल के जनु घन घट्टा॥
बहु कृपान तरवारि चमंकहिं। जनु दहँ दिसि दामिनीं दमंकहिं॥
गज रथ तुरग चिकार कठोरा। गर्जहिं मनहुँ बलाहक घोरा॥
कपि लंगूर बिपुल नभ छाए। मनहुँ इंद्रधनु उए सुहाए॥
उठइ धूरि मानहुँ जलधारा। बान बुंद भै बृष्टि अपारा॥
दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा। बज्रपात जनु बारहिं बारा॥
रघुपति कोपि बान झरि लाई। घायल भै निसिचर समुदाई॥
लागत बान बीर चिक्करहीं। घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीं॥
स्त्रवहिं सैल जनु निर्झर भारी। सोनित सरि कादर भयकारी॥
छं0-कादर भयंकर रुधिर सरिता चली परम अपावनी।
दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी॥
जल जंतुगज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने।
सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरंग चर्म कमठ घने॥
दो0-बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन।
कादर देखि डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन॥87॥
मज्जहि भूत पिसाच बेताला। प्रमथ महा झोटिंग कराला॥
काक कंक लै भुजा उड़ाहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीं॥
एक कहहिं ऐसिउ सौंघाई। सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई॥
कहँरत भट घायल तट गिरे। जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे॥
खैंचहिं गीध आँत तट भए। जनु बंसी खेलत चित दए॥
बहु भट बहहिं चढ़े खग जाहीं। जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं॥
जोगिनि भरि भरि खप्पर संचहिं। भूत पिसाच बधू नभ नंचहिं॥
भट कपाल करताल बजावहिं। चामुंडा नाना बिधि गावहिं॥
जंबुक निकर कटक्कट कट्टहिं। खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिं॥
कोटिन्ह रुंड मुंड बिनु डोल्लहिं। सीस परे महि जय जय बोल्लहिं॥
छं0-बोल्लहिं जो जय जय मुंड रुंड प्रचंड सिर बिनु धावहीं।
खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं॥
बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए।
संग्राम अंगन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हए॥
दो0-रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर संघार।
मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार॥88॥
देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा। उपजा उर अति छोभ बिसेषा॥
सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा॥
तेज पुंज रथ दिब्य अनूपा। हरषि चढ़े कोसलपुर भूपा॥
चंचल तुरग मनोहर चारी। अजर अमर मन सम गतिकारी॥
रथारूढ़ रघुनाथहि देखी। धाए कपि बलु पाइ बिसेषी॥
सही न जाइ कपिन्ह कै मारी। तब रावन माया बिस्तारी॥
सो माया रघुबीरहि बाँची। लछिमन कपिन्ह सो मानी साँची॥
देखी कपिन्ह निसाचर अनी। अनुज सहित बहु कोसलधनी॥
छं0-बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे।
जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे॥
निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसल धनी।
माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी॥
दो0-बहुरि राम सब तन चितइ बोले बचन गँभीर।
द्वंदजुद्ध देखहु सकल श्रमित भए अति बीर॥89॥
अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पंकज सिरु नावा॥
तब लंकेस क्रोध उर छावा। गर्जत तर्जत सन्मुख धावा॥
जीतेहु जे भट संजुग माहीं। सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीं॥
रावन नाम जगत जस जाना। लोकप जाकें बंदीखाना॥
खर दूषन बिराध तुम्ह मारा। बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा॥
निसिचर निकर सुभट संघारेहु। कुंभकरन घननादहि मारेहु॥
आजु बयरु सबु लेउँ निबाही। जौं रन भूप भाजि नहिं जाहीं॥
आजु करउँ खलु काल हवाले। परेहु कठिन रावन के पाले॥
सुनि दुर्बचन कालबस जाना। बिहँसि बचन कह कृपानिधाना॥
सत्य सत्य सब तव प्रभुताई। जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई॥
छं0-जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा।
संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा॥
एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं।
एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं॥
दो0-राम बचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान।
बयरु करत नहिं तब डरे अब लागे प्रिय प्रान॥90॥
कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकंधर। कुलिस समान लाग छाँड़ै सर॥
नानाकार सिलीमुख धाए। दिसि अरु बिदिस गगन महि छाए॥
पावक सर छाँड़ेउ रघुबीरा। छन महुँ जरे निसाचर तीरा॥
छाड़िसि तीब्र सक्ति खिसिआई। बान संग प्रभु फेरि चलाई॥
कोटिक चक्र त्रिसूल पबारै। बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै॥
निफल होहिं रावन सर कैसें। खल के सकल मनोरथ जैसें॥
तब सत बान सारथी मारेसि। परेउ भूमि जय राम पुकारेसि॥
राम कृपा करि सूत उठावा। तब प्रभु परम क्रोध कहुँ पावा॥
छं0-भए क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे।
कोदंड धुनि अति चंड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे॥
मँदोदरी उर कंप कंपति कमठ भू भूधर त्रसे।
चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे॥
दो0-तानेउ चाप श्रवन लगि छाँड़े बिसिख कराल।
राम मारगन गन चले लहलहात जनु ब्याल॥91॥
चले बान सपच्छ जनु उरगा। प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा॥
रथ बिभंजि हति केतु पताका। गर्जा अति अंतर बल थाका॥
तुरत आन रथ चढ़ि खिसिआना। अस्त्र सस्त्र छाँड़ेसि बिधि नाना॥
बिफल होहिं सब उद्यम ताके। जिमि परद्रोह निरत मनसा के॥
तब रावन दस सूल चलावा। बाजि चारि महि मारि गिरावा॥
तुरग उठाइ कोपि रघुनायक। खैंचि सरासन छाँड़े सायक॥
रावन सिर सरोज बनचारी। चलि रघुबीर सिलीमुख धारी॥
दस दस बान भाल दस मारे। निसरि गए चले रुधिर पनारे॥
स्त्रवत रुधिर धायउ बलवाना। प्रभु पुनि कृत धनु सर संधाना॥
तीस तीर रघुबीर पबारे। भुजन्हि समेत सीस महि पारे॥
काटतहीं पुनि भए नबीने। राम बहोरि भुजा सिर छीने॥
प्रभु बहु बार बाहु सिर हए। कटत झटिति पुनि नूतन भए॥
पुनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा। अति कौतुकी कोसलाधीसा॥
रहे छाइ नभ सिर अरु बाहू। मानहुँ अमित केतु अरु राहू॥
छं0-जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्त्रवत सोनित धावहीं।
रघुबीर तीर प्रचंड लागहिं भूमि गिरन न पावहीं॥
एक एक सर सिर निकर छेदे नभ उड़त इमि सोहहीं।
जनु कोपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुंतुद पोहहीं॥
दो0-जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि तिमि होहिं अपार।
सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार॥92॥
दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढ़ी। बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी॥
गर्जेउ मूढ़ महा अभिमानी। धायउ दसहु सरासन तानी॥
समर भूमि दसकंधर कोप्यो। बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो॥
दंड एक रथ देखि न परेऊ। जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ॥
हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा। तब प्रभु कोपि कारमुक लीन्हा॥
सर निवारि रिपु के सिर काटे। ते दिसि बिदिस गगन महि पाटे॥
काटे सिर नभ मारग धावहिं। जय जय धुनि करि भय उपजावहिं॥
कहँ लछिमन सुग्रीव कपीसा। कहँ रघुबीर कोसलाधीसा॥
छं0-कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले।
संधानि धनु रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले॥
सिर मालिका कर कालिका गहि बृंद बृंदन्हि बहु मिलीं।
करि रुधिर सरि मज्जनु मनहुँ संग्राम बट पूजन चलीं॥
दो0-पुनि दसकंठ क्रुद्ध होइ छाँड़ी सक्ति प्रचंड।
चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दंड॥93॥
आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भंजन पन मोरा॥
तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला॥
लागि सक्ति मुरुछा कछु भई। प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई॥
देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो। गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो॥
रे कुभाग्य सठ मंद कुबुद्धे। तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे॥
सादर सिव कहुँ सीस चढ़ाए। एक एक के कोटिन्ह पाए॥
तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो। अब तव कालु सीस पर नाच्यो॥
राम बिमुख सठ चहसि संपदा। अस कहि हनेसि माझ उर गदा॥
छं0-उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर् यो।
दस बदन सोनित स्त्रवत पुनि संभारि धायो रिस भर् यो॥
द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै।
रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै॥
दो0-उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ।
सो अब भिरत काल ज्यों श्रीरघुबीर प्रभाउ॥94॥
देखा श्रमित बिभीषनु भारी। धायउ हनूमान गिरि धारी॥
रथ तुरंग सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेसि लाता॥
ठाढ़ रहा अति कंपित गाता। गयउ बिभीषनु जहँ जनत्राता॥
पुनि रावन कपि हतेउ पचारी। चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी॥
गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना॥
लरत अकास जुगल सम जोधा। एकहि एकु हनत करि क्रोधा॥
सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं। कज्जल गिरि सुमेरु जनु लरहीं॥
बुधि बल निसिचर परइ न पार् यो। तब मारुत सुत प्रभु संभार् यो॥
छं0-संभारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो।
महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यो॥
हनुमंत संकट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले।
रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचंड भुज बल दलमले॥
दो0-तब रघुबीर पचारे धाए कीस प्रचंड।
कपि बल प्रबल देखि तेहिं कीन्ह प्रगट पाषंड॥95॥
अंतरधान भयउ छन एका। पुनि प्रगटे खल रूप अनेका॥
रघुपति कटक भालु कपि जेते। जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते॥
देखे कपिन्ह अमित दससीसा। जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा॥
भागे बानर धरहिं न धीरा। त्राहि त्राहि लछिमन रघुबीरा॥
दहँ दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन। गर्जहिं घोर कठोर भयावन॥
डरे सकल सुर चले पराई। जय कै आस तजहु अब भाई॥
सब सुर जिते एक दसकंधर। अब बहु भए तकहु गिरि कंदर॥
रहे बिरंचि संभु मुनि ग्यानी। जिन्ह जिन्ह प्रभु महिमा कछु जानी॥
छं0-जाना प्रताप ते रहे निर्भय कपिन्ह रिपु माने फुरे।
चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपाल पाहि भयातुरे॥
हनुमंत अंगद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे।
मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह कपट भू भट अंकुरे॥
दो0-सुर बानर देखे बिकल हँस्यो कोसलाधीस।
सजि सारंग एक सर हते सकल दससीस॥96॥
प्रभु छन महुँ माया सब काटी। जिमि रबि उएँ जाहिं तम फाटी॥
रावनु एकु देखि सुर हरषे। फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे॥
भुज उठाइ रघुपति कपि फेरे। फिरे एक एकन्ह तब टेरे॥
प्रभु बलु पाइ भालु कपि धाए। तरल तमकि संजुग महि आए॥
अस्तुति करत देवतन्हि देखें। भयउँ एक मैं इन्ह के लेखें॥
सठहु सदा तुम्ह मोर मरायल। अस कहि कोपि गगन पर धायल॥
हाहाकार करत सुर भागे। खलहु जाहु कहँ मोरें आगे॥
देखि बिकल सुर अंगद धायो। कूदि चरन गहि भूमि गिरायो॥
छं0-गहि भूमि पार् यो लात मार् यो बालिसुत प्रभु पहिं गयो।
संभारि उठि दसकंठ घोर कठोर रव गर्जत भयो॥
करि दाप चाप चढ़ाइ दस संधानि सर बहु बरषई।
किए सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषई॥
दो0-तब रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप।
काटे बहुत बढ़े पुनि जिमि तीरथ कर पाप। 97॥
सिर भुज बाढ़ि देखि रिपु केरी। भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी॥
मरत न मूढ़ कटेउ भुज सीसा। धाए कोपि भालु भट कीसा॥
बालितनय मारुति नल नीला। बानरराज दुबिद बलसीला॥
बिटप महीधर करहिं प्रहारा। सोइ गिरि तरु गहि कपिन्ह सो मारा॥
एक नखन्हि रिपु बपुष बिदारी। भअगि चलहिं एक लातन्ह मारी॥
तब नल नील सिरन्हि चढ़ि गयऊ। नखन्हि लिलार बिदारत भयऊ॥
रुधिर देखि बिषाद उर भारी। तिन्हहि धरन कहुँ भुजा पसारी॥
गहे न जाहिं करन्हि पर फिरहीं। जनु जुग मधुप कमल बन चरहीं॥
कोपि कूदि द्वौ धरेसि बहोरी। महि पटकत भजे भुजा मरोरी॥
पुनि सकोप दस धनु कर लीन्हे। सरन्हि मारि घायल कपि कीन्हे॥
हनुमदादि मुरुछित करि बंदर। पाइ प्रदोष हरष दसकंधर॥
मुरुछित देखि सकल कपि बीरा। जामवंत धायउ रनधीरा॥
संग भालु भूधर तरु धारी। मारन लगे पचारि पचारी॥
भयउ क्रुद्ध रावन बलवाना। गहि पद महि पटकइ भट नाना॥
देखि भालुपति निज दल घाता। कोपि माझ उर मारेसि लाता॥
छं0-उर लात घात प्रचंड लागत बिकल रथ ते महि परा।
गहि भालु बीसहुँ कर मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मधुकरा॥
मुरुछित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयौ।
निसि जानि स्यंदन घालि तेहि तब सूत जतनु करत भयो॥
दो0-मुरुछा बिगत भालु कपि सब आए प्रभु पास।
निसिचर सकल रावनहि घेरि रहे अति त्रास॥98॥
मासपारायण, छब्बीसवाँ विश्राम
तेही निसि सीता पहिं जाई। त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई॥
सिर भुज बाढ़ि सुनत रिपु केरी। सीता उर भइ त्रास घनेरी॥
मुख मलीन उपजी मन चिंता। त्रिजटा सन बोली तब सीता॥
होइहि कहा कहसि किन माता। केहि बिधि मरिहि बिस्व दुखदाता॥
रघुपति सर सिर कटेहुँ न मरई। बिधि बिपरीत चरित सब करई॥
मोर अभाग्य जिआवत ओही। जेहिं हौ हरि पद कमल बिछोही॥
जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा। अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा॥
जेहिं बिधि मोहि दुख दुसह सहाए। लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए॥
रघुपति बिरह सबिष सर भारी। तकि तकि मार बार बहु मारी॥
ऐसेहुँ दुख जो राख मम प्राना। सोइ बिधि ताहि जिआव न आना॥
बहु बिधि कर बिलाप जानकी। करि करि सुरति कृपानिधान की॥
कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी। उर सर लागत मरइ सुरारी॥
प्रभु ताते उर हतइ न तेही। एहि के हृदयँ बसति बैदेही॥
छं0-एहि के हृदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है।
मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है॥
सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटाँ कहा।
अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुंदरि तजहि संसय महा॥
दो0-काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान।
तब रावनहि हृदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान॥99॥
अस कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई॥
राम सुभाउ सुमिरि बैदेही। उपजी बिरह बिथा अति तेही॥
निसिहि ससिहि निंदति बहु भाँती। जुग सम भई सिराति न राती॥
करति बिलाप मनहिं मन भारी। राम बिरहँ जानकी दुखारी॥
जब अति भयउ बिरह उर दाहू। फरकेउ बाम नयन अरु बाहू॥
सगुन बिचारि धरी मन धीरा। अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा॥
इहाँ अर्धनिसि रावनु जागा। निज सारथि सन खीझन लागा॥
सठ रनभूमि छड़ाइसि मोही। धिग धिग अधम मंदमति तोही॥
तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा। भौरु भएँ रथ चढ़ि पुनि धावा॥
सुनि आगवनु दसानन केरा। कपि दल खरभर भयउ घनेरा॥
जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी। धाए कटकटाइ भट भारी॥
छं0-धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा।
अति कोप करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा॥
बिचलाइ दल बलवंत कीसन्ह घेरि पुनि रावनु लियो।
चहुँ दिसि चपेटन्हि मारि नखन्हि बिदारि तनु ब्याकुल कियो॥
दो0-देखि महा मर्कट प्रबल रावन कीन्ह बिचार।
अंतरहित होइ निमिष महुँ कृत माया बिस्तार॥100॥
छं0-जब कीन्ह तेहिं पाषंड। भए प्रगट जंतु प्रचंड॥
बेताल भूत पिसाच। कर धरें धनु नाराच॥1॥
जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ मनुज कपाल॥
करि सद्य सोनित पान। नाचहिं करहिं बहु गान॥2॥
धरु मारु बोलहिं घोर। रहि पूरि धुनि चहुँ ओर॥
मुख बाइ धावहिं खान। तब लगे कीस परान॥3॥
जहँ जाहिं मर्कट भागि। तहँ बरत देखहिं आगि॥
भए बिकल बानर भालु। पुनि लाग बरषै बालु॥4॥
जहँ तहँ थकित करि कीस। गर्जेउ बहुरि दससीस॥
लछिमन कपीस समेत। भए सकल बीर अचेत॥5॥
हा राम हा रघुनाथ। कहि सुभट मीजहिं हाथ॥
एहि बिधि सकल बल तोरि। तेहिं कीन्ह कपट बहोरि॥6॥
प्रगटेसि बिपुल हनुमान। धाए गहे पाषान॥
तिन्ह रामु घेरे जाइ। चहुँ दिसि बरूथ बनाइ॥7॥
मारहु धरहु जनि जाइ। कटकटहिं पूँछ उठाइ॥
दहँ दिसि लँगूर बिराज। तेहिं मध्य कोसलराज॥8॥
छं0-तेहिं मध्य कोसलराज सुंदर स्याम तन सोभा लही।
जनु इंद्रधनुष अनेक की बर बारि तुंग तमालही॥
प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी।
रघुबीर एकहि तीर कोपि निमेष महुँ माया हरी॥1॥
माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे।
सर निकर छाड़े राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे॥
श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं।
सत सेष सारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीं॥2॥
दो0-ताके गुन गन कछु कहे जड़मति तुलसीदास।
जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उड़इ अकास॥101(क)॥
काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लंकेस।
प्रभु क्रीड़त सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देखि कलेस॥101(ख)॥
काटत बढ़हिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई॥
मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा॥
उमा काल मर जाकीं ईछा। सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा॥
सुनु सरबग्य चराचर नायक। प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक॥
नाभिकुंड पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकें॥
सुनत बिभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला॥
असुभ होन लागे तब नाना। रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना॥
बोलहि खग जग आरति हेतू। प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू॥
दस दिसि दाह होन अति लागा। भयउ परब बिनु रबि उपरागा॥
मंदोदरि उर कंपति भारी। प्रतिमा स्त्रवहिं नयन मग बारी॥
छं0-प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही।
बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही॥
उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहि जय जए।
सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भए॥
दो0-खैचि सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस।
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस॥102॥
सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा॥
लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुंड महि नाचा॥
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा॥
गर्जेउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हतौं पचारी॥
डोली भूमि गिरत दसकंधर। छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर॥
धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई। चापि भालु मर्कट समुदाई॥
मंदोदरि आगें भुज सीसा। धरि सर चले जहाँ जगदीसा॥
प्रबिसे सब निषंग महु जाई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई॥
तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि संभु चतुरानन॥
जय जय धुनि पूरी ब्रह्मंडा। जय रघुबीर प्रबल भुजदंडा॥
बरषहि सुमन देव मुनि बृंदा। जय कृपाल जय जयति मुकुंदा॥
छं0-जय कृपा कंद मुकंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो।
खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो॥
सुर सुमन बरषहिं हरष संकुल बाज दुंदुभि गहगही।
संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु सोभा लही॥
सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं।
जनु नीलगिरि पर तड़ित पटल समेत उड़ुगन भ्राजहीं॥
भुजदंड सर कोदंड फेरत रुधिर कन तन अति बने।
जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने॥
दो0-कृपादृष्टि करि प्रभु अभय किए सुर बृंद।
भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकंद॥103॥
पति सिर देखत मंदोदरी। मुरुछित बिकल धरनि खसि परी॥
जुबति बृंद रोवत उठि धाईं। तेहि उठाइ रावन पहिं आई॥
पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे कच नहिं बपुष सँभारा॥
उर ताड़ना करहिं बिधि नाना। रोवत करहिं प्रताप बखाना॥
तव बल नाथ डोल नित धरनी। तेज हीन पावक ससि तरनी॥
सेष कमठ सहि सकहिं न भारा। सो तनु भूमि परेउ भरि छारा॥
बरुन कुबेर सुरेस समीरा। रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा॥
भुजबल जितेहु काल जम साईं। आजु परेहु अनाथ की नाईं॥
जगत बिदित तुम्हारी प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई॥
राम बिमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कोउ कुल रोवनिहारा॥
तव बस बिधि प्रपंच सब नाथा। सभय दिसिप नित नावहिं माथा॥
अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं। राम बिमुख यह अनुचित नाहीं॥
काल बिबस पति कहा न माना। अग जग नाथु मनुज करि जाना॥
छं0-जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं।
जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं॥
आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं।
तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं॥
दो0-अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन।
जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान॥104॥
मंदोदरी बचन सुनि काना। सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना॥
अज महेस नारद सनकादी। जे मुनिबर परमारथबादी॥
भरि लोचन रघुपतिहि निहारी। प्रेम मगन सब भए सुखारी॥
रुदन करत देखीं सब नारी। गयउ बिभीषनु मन दुख भारी॥
बंधु दसा बिलोकि दुख कीन्हा। तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा॥
लछिमन तेहि बहु बिधि समुझायो। बहुरि बिभीषन प्रभु पहिं आयो॥
कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका। करहु क्रिया परिहरि सब सोका॥
कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी। बिधिवत देस काल जियँ जानी॥
दो0-मंदोदरी आदि सब देइ तिलांजलि ताहि।
भवन गई रघुपति गुन गन बरनत मन माहि॥105॥
आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो। कृपासिंधु तब अनुज बोलायो॥
तुम्ह कपीस अंगद नल नीला। जामवंत मारुति नयसीला॥
सब मिलि जाहु बिभीषन साथा। सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा॥
पिता बचन मैं नगर न आवउँ। आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ॥
तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचना। कीन्ही जाइ तिलक की रचना॥
सादर सिंहासन बैठारी। तिलक सारि अस्तुति अनुसारी॥
जोरि पानि सबहीं सिर नाए। सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए॥
तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे। कहि प्रिय बचन सुखी सब कीन्हे॥
छं0-किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारें रिपु हयो।
पायो बिभीषन राज तिहुँ पुर जसु तुम्हारो नित नयो॥
मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं।
संसार सिंधु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैं॥
दो0-प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुंज।
बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कंज॥106॥
पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना। लंका जाहु कहेउ भगवाना॥
समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु॥
तब हनुमंत नगर महुँ आए। सुनि निसिचरी निसाचर धाए॥
बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही। जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही॥
दूरहि ते प्रनाम कपि कीन्हा। रघुपति दूत जानकीं चीन्हा॥
कहहु तात प्रभु कृपानिकेता। कुसल अनुज कपि सेन समेता॥
सब बिधि कुसल कोसलाधीसा। मातु समर जीत्यो दससीसा॥
अबिचल राजु बिभीषन पायो। सुनि कपि बचन हरष उर छायो॥
छं0-अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा।
का देउँ तोहि त्रेलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा॥
सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं।
रन जीति रिपुदल बंधु जुत पस्यामि राममनामयं॥
दो0-सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमंत।
सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनंत॥107॥
अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता॥
तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई॥
सुनि संदेसु भानुकुलभूषन। बोलि लिए जुबराज बिभीषन॥
मारुतसुत के संग सिधावहु। सादर जनकसुतहि लै आवहु॥
तुरतहिं सकल गए जहँ सीता। सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता॥
बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो। तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो॥
बहु प्रकार भूषन पहिराए। सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए॥
ता पर हरषि चढ़ी बैदेही। सुमिरि राम सुखधाम सनेही॥
बेतपानि रच्छक चहुँ पासा। चले सकल मन परम हुलासा॥
देखन भालु कीस सब आए। रच्छक कोपि निवारन धाए॥
कह रघुबीर कहा मम मानहु। सीतहि सखा पयादें आनहु॥
देखहुँ कपि जननी की नाईं। बिहसि कहा रघुनाथ गोसाई॥
सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे। नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे॥
सीता प्रथम अनल महुँ राखी। प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी॥
दो0-तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद।
सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद॥108॥
प्रभु के बचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता॥
लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी॥
सुनि लछिमन सीता कै बानी। बिरह बिबेक धरम निति सानी॥
लोचन सजल जोरि कर दोऊ। प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ॥
देखि राम रुख लछिमन धाए। पावक प्रगटि काठ बहु लाए॥
पावक प्रबल देखि बैदेही। हृदयँ हरष नहिं भय कछु तेही॥
जौं मन बच क्रम मम उर माहीं। तजि रघुबीर आन गति नाहीं॥
तौ कृसानु सब कै गति जाना। मो कहुँ होउ श्रीखंड समाना॥
छं0-श्रीखंड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली।
जय कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली॥
प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुँ जरे।
प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे॥1॥
धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो।
जिमि छीरसागर इंदिरा रामहि समर्पी आनि सो॥
सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली।
नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज की कली॥2॥
दो0-बरषहिं सुमन हरषि सुन बाजहिं गगन निसान।
गावहिं किंनर सुरबधू नाचहिं चढ़ीं बिमान॥109(क)॥
जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार।
देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार॥109(ख)॥
तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई॥
आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी॥
दीन बंधु दयाल रघुराया। देव कीन्हि देवन्ह पर दाया॥
बिस्व द्रोह रत यह खल कामी। निज अघ गयउ कुमारगगामी॥
तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी। सदा एकरस सहज उदासी॥
अकल अगुन अज अनघ अनामय। अजित अमोघसक्ति करुनामय॥
मीन कमठ सूकर नरहरी। बामन परसुराम बपु धरी॥
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो। नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो॥
यह खल मलिन सदा सुरद्रोही। काम लोभ मद रत अति कोही॥
अधम सिरोमनि तव पद पावा। यह हमरे मन बिसमय आवा॥
हम देवता परम अधिकारी। स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी॥
भव प्रबाहँ संतत हम परे। अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे॥
दो0-करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि।
अति सप्रेम तन पुलकि बिधि अस्तुति करत बहोरि॥110॥
छं0-जय राम सदा सुखधाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे॥
भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो॥
तन काम अनेक अनूप छबी। गुन गावत सिद्ध मुनींद्र कबी॥
जसु पावन रावन नाग महा। खगनाथ जथा करि कोप गहा॥
जन रंजन भंजन सोक भयं। गतक्रोध सदा प्रभु बोधमयं॥
अवतार उदार अपार गुनं। महि भार बिभंजन ग्यानघनं॥
अज ब्यापकमेकमनादि सदा। करुनाकर राम नमामि मुदा॥
रघुबंस बिभूषन दूषन हा। कृत भूप बिभीषन दीन रहा॥
गुन ग्यान निधान अमान अजं। नित राम नमामि बिभुं बिरजं॥
भुजदंड प्रचंड प्रताप बलं। खल बृंद निकंद महा कुसलं॥
बिनु कारन दीन दयाल हितं। छबि धाम नमामि रमा सहितं॥
भव तारन कारन काज परं। मन संभव दारुन दोष हरं॥
सर चाप मनोहर त्रोन धरं। जरजारुन लोचन भूपबरं॥
सुख मंदिर सुंदर श्रीरमनं। मद मार मुधा ममता समनं॥
अनवद्य अखंड न गोचर गो। सबरूप सदा सब होइ न गो॥
इति बेद बदंति न दंतकथा। रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा॥
कृतकृत्य बिभो सब बानर ए। निरखंति तवानन सादर ए॥
धिग जीवन देव सरीर हरे। तव भक्ति बिना भव भूलि परे॥
अब दीन दयाल दया करिऐ। मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ॥
जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ। दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ॥
खल खंडन मंडन रम्य छमा। पद पंकज सेवित संभु उमा॥
नृप नायक दे बरदानमिदं। चरनांबुज प्रेम सदा सुभदं॥
दो0-बिनय कीन्हि चतुरानन प्रेम पुलक अति गात।
सोभासिंधु बिलोकत लोचन नहीं अघात॥111॥
तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए॥
अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा। आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा॥
तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ। जीत्यों अजय निसाचर राऊ॥
सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढ़ी। नयन सलिल रोमावलि ठाढ़ी॥
रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना। चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना॥
ताते उमा मोच्छ नहिं पायो। दसरथ भेद भगति मन लायो॥
सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं। तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं॥
बार बार करि प्रभुहि प्रनामा। दसरथ हरषि गए सुरधामा॥
दो0-अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस।
सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस॥112॥
छं0-जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत बिश्राम॥
धृत त्रोन बर सर चाप। भुजदंड प्रबल प्रताप॥1॥
जय दूषनारि खरारि। मर्दन निसाचर धारि॥
यह दुष्ट मारेउ नाथ। भए देव सकल सनाथ॥2॥
जय हरन धरनी भार। महिमा उदार अपार॥
जय रावनारि कृपाल। किए जातुधान बिहाल॥3॥
लंकेस अति बल गर्ब। किए बस्य सुर गंधर्ब॥
मुनि सिद्ध नर खग नाग। हठि पंथ सब कें लाग॥4॥
परद्रोह रत अति दुष्ट। पायो सो फलु पापिष्ट॥
अब सुनहु दीन दयाल। राजीव नयन बिसाल॥5॥
मोहि रहा अति अभिमान। नहिं कोउ मोहि समान॥
अब देखि प्रभु पद कंज। गत मान प्रद दुख पुंज॥6॥
कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव। अब्यक्त जेहि श्रुति गाव॥
मोहि भाव कोसल भूप। श्रीराम सगुन सरूप॥7॥
बैदेहि अनुज समेत। मम हृदयँ करहु निकेत॥
मोहि जानिए निज दास। दे भक्ति रमानिवास॥8॥
दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं।
सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकं॥
सुर बृंद रंजन द्वंद भंजन मनुज तनु अतुलितबलं।
ब्रह्मादि संकर सेब्य राम नमामि करुना कोमलं॥
दो0-अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल।
काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल॥113॥
सुनु सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसचरन्हि जे मारे॥
मम हित लागि तजे इन्ह प्राना। सकल जिआउ सुरेस सुजाना॥
सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी। अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी॥
प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई। केवल सक्रहि दीन्हि बड़ाई॥
सुधा बरषि कपि भालु जिआए। हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए॥
सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर। जिए भालु कपि नहिं रजनीचर॥
रामाकार भए तिन्ह के मन। मुक्त भए छूटे भव बंधन॥
सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा। जिए सकल रघुपति कीं ईछा॥
राम सरिस को दीन हितकारी। कीन्हे मुकुत निसाचर झारी॥
खल मल धाम काम रत रावन। गति पाई जो मुनिबर पाव न॥
दो0-सुमन बरषि सब सुर चले चढ़ि चढ़ि रुचिर बिमान।
देखि सुअवसरु प्रभु पहिं आयउ संभु सुजान॥114(क)॥
परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि।
पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि॥114(ख)॥
छं0-मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक॥
मोह महा घन पटल प्रभंजन। संसय बिपिन अनल सुर रंजन॥1॥
अगुन सगुन गुन मंदिर सुंदर। भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर॥
काम क्रोध मद गज पंचानन। बसहु निरंतर जन मन कानन॥2॥
बिषय मनोरथ पुंज कंज बन। प्रबल तुषार उदार पार मन॥
भव बारिधि मंदर परमं दर। बारय तारय संसृति दुस्तर॥3॥
स्याम गात राजीव बिलोचन। दीन बंधु प्रनतारति मोचन॥
अनुज जानकी सहित निरंतर। बसहु राम नृप मम उर अंतर॥4॥
मुनि रंजन महि मंडल मंडन। तुलसिदास प्रभु त्रास बिखंडन॥5॥
दो0-नाथ जबहिं कोसलपुरीं होइहि तिलक तुम्हार।
कृपासिंधु मैं आउब देखन चरित उदार॥115॥
करि बिनती जब संभु सिधाए। तब प्रभु निकट बिभीषनु आए॥
नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी। बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी॥
सकुल सदल प्रभु रावन मार् यो। पावन जस त्रिभुवन बिस्तार् यो॥
दीन मलीन हीन मति जाती। मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती॥
अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे। मज्जनु करिअ समर श्रम छीजे॥
देखि कोस मंदिर संपदा। देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा॥
सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ। पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ॥
सुनत बचन मृदु दीनदयाला। सजल भए द्वौ नयन बिसाला॥
दो0-तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात।
भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात॥116(क)॥
तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहि।
देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरउँ तोहि॥116(ख)॥
बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर।
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर॥116(ग)॥
करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं।
पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ संत सब जाहिं॥116(घ)॥
सुनत बिभीषन बचन राम के। हरषि गहे पद कृपाधाम के॥
बानर भालु सकल हरषाने। गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने॥
बहुरि बिभीषन भवन सिधायो। मनि गन बसन बिमान भरायो॥
लै पुष्पक प्रभु आगें राखा। हँसि करि कृपासिंधु तब भाषा॥
चढ़ि बिमान सुनु सखा बिभीषन। गगन जाइ बरषहु पट भूषन॥
नभ पर जाइ बिभीषन तबही। बरषि दिए मनि अंबर सबही॥
जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेहीं। मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं॥
हँसे रामु श्री अनुज समेता। परम कौतुकी कृपा निकेता॥
दो0-मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद।
कृपासिंधु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद॥117(क)॥
उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम।
राम कृपा नहि करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम॥117(ख)॥
भालु कपिन्ह पट भूषन पाए। पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए॥
नाना जिनस देखि सब कीसा। पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा॥
चितइ सबन्हि पर कीन्हि दाया। बोले मृदुल बचन रघुराया॥
तुम्हरें बल मैं रावनु मार् यो। तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार् यो॥
निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू। सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू॥
सुनत बचन प्रेमाकुल बानर। जोरि पानि बोले सब सादर॥
प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा। हमरे होत बचन सुनि मोहा॥
दीन जानि कपि किए सनाथा। तुम्ह त्रेलोक ईस रघुनाथा॥
सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं। मसक कहूँ खगपति हित करहीं॥
देखि राम रुख बानर रीछा। प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा॥
दो0-प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि।
हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि॥118(क)॥
कपिपति नील रीछपति अंगद नल हनुमान।
सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान॥118(ख)॥
दो0- कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि।
सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि॥118(ग)॥
अतिसय प्रीति देख रघुराई। लिन्हे सकल बिमान चढ़ाई॥
मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो। उत्तर दिसिहि बिमान चलायो॥
चलत बिमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहइ सबु कोई॥
सिंहासन अति उच्च मनोहर। श्री समेत प्रभु बैठै ता पर॥
राजत रामु सहित भामिनी। मेरु सृंग जनु घन दामिनी॥
रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर। कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर॥
परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी। सागर सर सरि निर्मल बारी॥
सगुन होहिं सुंदर चहुँ पासा। मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा॥
कह रघुबीर देखु रन सीता। लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता॥
हनूमान अंगद के मारे। रन महि परे निसाचर भारे॥
कुंभकरन रावन द्वौ भाई। इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई॥
दो0-इहाँ सेतु बाँध्यो अरु थापेउँ सिव सुख धाम।
सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम॥119(क)॥
जहँ जहँ कृपासिंधु बन कीन्ह बास बिश्राम।
सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम॥119(ख)॥
तुरत बिमान तहाँ चलि आवा। दंडक बन जहँ परम सुहावा॥
कुंभजादि मुनिनायक नाना। गए रामु सब कें अस्थाना॥
सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा। चित्रकूट आए जगदीसा॥
तहँ करि मुनिन्ह केर संतोषा। चला बिमानु तहाँ ते चोखा॥
बहुरि राम जानकिहि देखाई। जमुना कलि मल हरनि सुहाई॥
पुनि देखी सुरसरी पुनीता। राम कहा प्रनाम करु सीता॥
तीरथपति पुनि देखु प्रयागा। निरखत जन्म कोटि अघ भागा॥
देखु परम पावनि पुनि बेनी। हरनि सोक हरि लोक निसेनी॥
पुनि देखु अवधपुरी अति पावनि। त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि॥।
दो0-सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम।
सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम॥120(क)॥
पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह।
कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह॥120(ख)॥
प्रभु हनुमंतहि कहा बुझाई। धरि बटु रूप अवधपुर जाई॥
भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु। समाचार लै तुम्ह चलि आएहु॥
तुरत पवनसुत गवनत भयउ। तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ॥
नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही। अस्तुती करि पुनि आसिष दीन्ही॥
मुनि पद बंदि जुगल कर जोरी। चढ़ि बिमान प्रभु चले बहोरी॥
इहाँ निषाद सुना प्रभु आए। नाव नाव कहँ लोग बोलाए॥
सुरसरि नाघि जान तब आयो। उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो॥
तब सीताँ पूजी सुरसरी। बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी॥
दीन्हि असीस हरषि मन गंगा। सुंदरि तव अहिवात अभंगा॥
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल। आयउ निकट परम सुख संकुल॥
प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही। परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही॥
प्रीति परम बिलोकि रघुराई। हरषि उठाइ लियो उर लाई॥
छं0-लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापती।
बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती।
अब कुसल पद पंकज बिलोकि बिरंचि संकर सेब्य जे।
सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते॥1॥
सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो।
मतिमंद तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो॥
यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा।
कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा॥2॥
दो0-समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान।
बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान॥121(क)॥
यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार।
श्रीरघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार॥121(ख)॥
मासपारायण, सत्ताईसवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
षष्ठः सोपानः समाप्तः।
(लंका काण्ड समाप्त)