"उत्तर काण्ड / भाग ३ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर
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+ | छं0-बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती॥ | ||
+ | तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही॥ | ||
+ | कुलवंति निकारहिं नारि सती। गृह आनिहिं चेरी निबेरि गती॥ | ||
+ | सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं॥ | ||
+ | ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपरूप कुटुंब भए तब तें॥ | ||
+ | नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं॥ | ||
+ | धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी॥ | ||
+ | नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो। | ||
+ | कबि बृंद उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी॥ | ||
+ | कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै॥ | ||
+ | दो0-सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड। | ||
+ | मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड॥101(क)॥ | ||
+ | तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत मख दान। | ||
+ | देव न बरषहिं धरनीं बए न जामहिं धान॥101(ख)॥ | ||
− | + | छं0-अबला कच भूषन भूरि छुधा। धनहीन दुखी ममता बहुधा॥ | |
− | + | सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता॥1॥ | |
− | + | नर पीड़ित रोग न भोग कहीं। अभिमान बिरोध अकारनहीं॥ | |
− | + | लघु जीवन संबतु पंच दसा। कलपांत न नास गुमानु असा॥2॥ | |
− | + | कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा। | |
− | + | नहिं तोष बिचार न सीतलता। सब जाति कुजाति भए मगता॥3॥ | |
− | + | इरिषा परुषाच्छर लोलुपता। भरि पूरि रही समता बिगता॥ | |
− | + | सब लोग बियोग बिसोक हुए। बरनाश्रम धर्म अचार गए॥4॥ | |
− | + | दम दान दया नहिं जानपनी। जड़ता परबंचनताति घनी॥ | |
− | + | तनु पोषक नारि नरा सगरे। परनिंदक जे जग मो बगरे॥5॥ | |
− | + | दो0-सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार। | |
− | + | गुनउँ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार॥102(क)॥ | |
− | + | कृतजुग त्रेता द्वापर पूजा मख अरु जोग। | |
− | + | जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग॥102(ख)॥ | |
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− | छं0-अबला कच भूषन भूरि छुधा। धनहीन दुखी ममता | + | |
− | सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न | + | |
− | नर पीड़ित रोग न भोग कहीं। अभिमान बिरोध | + | |
− | लघु जीवन संबतु पंच दसा। कलपांत न नास गुमानु | + | |
− | कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा। | + | |
− | नहिं तोष बिचार न सीतलता। सब जाति कुजाति भए | + | |
− | इरिषा परुषाच्छर लोलुपता। भरि पूरि रही समता | + | |
− | सब लोग बियोग बिसोक हुए। बरनाश्रम धर्म अचार | + | |
− | दम दान दया नहिं जानपनी। जड़ता परबंचनताति | + | |
− | तनु पोषक नारि नरा सगरे। परनिंदक जे जग मो | + | |
− | दो0-सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार। | + | |
− | गुनउँ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास | + | |
− | कृतजुग त्रेता द्वापर पूजा मख अरु जोग। | + | |
− | जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं | + | |
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− | + | कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी॥ | |
+ | त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं॥ | ||
+ | द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा॥ | ||
+ | कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा॥ | ||
+ | कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥ | ||
+ | सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥ | ||
+ | सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं॥ | ||
+ | कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा॥ | ||
+ | दो0-कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास। | ||
+ | गाइ राम गुन गन बिमलँ भव तर बिनहिं प्रयास॥103(क)॥ | ||
+ | प्रगट चारि पद धर्म के कलिल महुँ एक प्रधान। | ||
+ | जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥103(ख)॥ | ||
− | + | नित जुग धर्म होहिं सब केरे। हृदयँ राम माया के प्रेरे॥ | |
− | + | सुद्ध सत्व समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना॥ | |
− | + | सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा। सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा॥ | |
− | + | बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस॥ | |
− | + | तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा॥ | |
− | + | बुध जुग धर्म जानि मन माहीं। तजि अधर्म रति धर्म कराहीं॥ | |
− | + | काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही॥ | |
− | + | नट कृत बिकट कपट खगराया। नट सेवकहि न ब्यापइ माया॥ | |
− | + | दो0-हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं। | |
− | + | भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं॥104(क)॥ | |
− | + | तेहि कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस। | |
− | + | परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस॥104(ख)॥ | |
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− | अस बिचारि | + | |
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− | + | गयउँ उजेनी सुनु उरगारी। दीन मलीन दरिद्र दुखारी॥ | |
− | + | गएँ काल कछु संपति पाई। तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई॥ | |
− | + | बिप्र एक बैदिक सिव पूजा। करइ सदा तेहि काजु न दूजा॥ | |
− | + | परम साधु परमारथ बिंदक। संभु उपासक नहिं हरि निंदक॥ | |
− | + | तेहि सेवउँ मैं कपट समेता। द्विज दयाल अति नीति निकेता॥ | |
− | + | बाहिज नम्र देखि मोहि साईं। बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाईं॥ | |
− | + | संभु मंत्र मोहि द्विजबर दीन्हा। सुभ उपदेस बिबिध बिधि कीन्हा॥ | |
− | + | जपउँ मंत्र सिव मंदिर जाई। हृदयँ दंभ अहमिति अधिकाई॥ | |
+ | दो0-मैं खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह। | ||
+ | हरि जन द्विज देखें जरउँ करउँ बिष्नु कर द्रोह॥105(क)॥ | ||
+ | सो0-गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम। | ||
+ | मोहि उपजइ अति क्रोध दंभिहि नीति कि भावई॥105(ख)॥ | ||
− | + | एक बार गुर लीन्ह बोलाई। मोहि नीति बहु भाँति सिखाई॥ | |
+ | सिव सेवा कर फल सुत सोई। अबिरल भगति राम पद होई॥ | ||
+ | रामहि भजहिं तात सिव धाता। नर पावँर कै केतिक बाता॥ | ||
+ | जासु चरन अज सिव अनुरागी। तातु द्रोहँ सुख चहसि अभागी॥ | ||
+ | हर कहुँ हरि सेवक गुर कहेऊ। सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ॥ | ||
+ | अधम जाति मैं बिद्या पाएँ। भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ॥ | ||
+ | मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती। गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती॥ | ||
+ | अति दयाल गुर स्वल्प न क्रोधा। पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा॥ | ||
+ | जेहि ते नीच बड़ाई पावा। सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा॥ | ||
+ | धूम अनल संभव सुनु भाई। तेहि बुझाव घन पदवी पाई॥ | ||
+ | रज मग परी निरादर रहई। सब कर पद प्रहार नित सहई॥ | ||
+ | मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई। पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई॥ | ||
+ | सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा। बुध नहिं करहिं अधम कर संगा॥ | ||
+ | कबि कोबिद गावहिं असि नीती। खल सन कलह न भल नहिं प्रीती॥ | ||
+ | उदासीन नित रहिअ गोसाईं। खल परिहरिअ स्वान की नाईं॥ | ||
+ | मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई। गुर हित कहइ न मोहि सोहाई॥ | ||
+ | दो0-एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम। | ||
+ | गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम॥106(क)॥ | ||
+ | सो दयाल नहिं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस। | ||
+ | अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस॥106(ख)॥ | ||
− | + | मंदिर माझ भई नभ बानी। रे हतभाग्य अग्य अभिमानी॥ | |
+ | जद्यपि तव गुर कें नहिं क्रोधा। अति कृपाल चित सम्यक बोधा॥ | ||
+ | तदपि साप सठ दैहउँ तोही। नीति बिरोध सोहाइ न मोही॥ | ||
+ | जौं नहिं दंड करौं खल तोरा। भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा॥ | ||
+ | जे सठ गुर सन इरिषा करहीं। रौरव नरक कोटि जुग परहीं॥ | ||
+ | त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा। अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा॥ | ||
+ | बैठ रहेसि अजगर इव पापी। सर्प होहि खल मल मति ब्यापी॥ | ||
+ | महा बिटप कोटर महुँ जाई॥रहु अधमाधम अधगति पाई॥ | ||
+ | दो0-हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप॥ | ||
+ | कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप॥107(क)॥ | ||
+ | करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि। | ||
+ | बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि॥107(ख)॥ | ||
− | + | नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विंभुं ब्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं। | |
− | + | निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरींह। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥ | |
+ | निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं॥ | ||
+ | करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥ | ||
+ | तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं॥ | ||
+ | स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥ | ||
+ | चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं॥ | ||
+ | मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥ | ||
+ | प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं॥ | ||
+ | त्रयःशूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं॥ | ||
+ | कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनान्ददाता पुरारी॥ | ||
+ | चिदानंदसंदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥ | ||
+ | न यावद् उमानाथ पादारविन्दं। भजंतीह लोके परे वा नराणां॥ | ||
+ | न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥ | ||
+ | न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं॥ | ||
+ | जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥ | ||
+ | श्लोक-रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये। | ||
+ | ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥ | ||
+ | दो0–सुनि बिनती सर्बग्य सिव देखि ब्रिप्र अनुरागु। | ||
+ | पुनि मंदिर नभबानी भइ द्विजबर बर मागु॥108(क)॥ | ||
+ | जौं प्रसन्न प्रभु मो पर नाथ दीन पर नेहु। | ||
+ | निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु॥108(ख)॥ | ||
+ | तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान। | ||
+ | तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपा सिंधु भगवान॥108(ग)॥ | ||
+ | संकर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल। | ||
+ | साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल॥108(घ)॥ | ||
− | + | एहि कर होइ परम कल्याना। सोइ करहु अब कृपानिधाना॥ | |
+ | बिप्रगिरा सुनि परहित सानी। एवमस्तु इति भइ नभबानी॥ | ||
+ | जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा। मैं पुनि दीन्ह कोप करि सापा॥ | ||
+ | तदपि तुम्हार साधुता देखी। करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी॥ | ||
+ | छमासील जे पर उपकारी। ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी॥ | ||
+ | मोर श्राप द्विज ब्यर्थ न जाइहि। जन्म सहस अवस्य यह पाइहि॥ | ||
+ | जनमत मरत दुसह दुख होई। अहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई॥ | ||
+ | कवनेउँ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना। सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना॥ | ||
+ | रघुपति पुरीं जन्म तब भयऊ। पुनि तैं मम सेवाँ मन दयऊ॥ | ||
+ | पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें। राम भगति उपजिहि उर तोरें॥ | ||
+ | सुनु मम बचन सत्य अब भाई। हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई॥ | ||
+ | अब जनि करहि बिप्र अपमाना। जानेहु संत अनंत समाना॥ | ||
+ | इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला। कालदंड हरि चक्र कराला॥ | ||
+ | जो इन्ह कर मारा नहिं मरई। बिप्रद्रोह पावक सो जरई॥ | ||
+ | अस बिबेक राखेहु मन माहीं। तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥ | ||
+ | औरउ एक आसिषा मोरी। अप्रतिहत गति होइहि तोरी॥ | ||
+ | दो0-सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि। | ||
+ | मोहि प्रबोधि गयउ गृह संभु चरन उर राखि॥109(क)॥ | ||
+ | प्रेरित काल बिधि गिरि जाइ भयउँ मैं ब्याल। | ||
+ | पुनि प्रयास बिनु सो तनु जजेउँ गएँ कछु काल॥109(ख)॥ | ||
+ | जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि अनायास हरिजान। | ||
+ | जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ पुरान॥109(ग)॥ | ||
+ | सिवँ राखी श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस। | ||
+ | एहि बिधि धरेउँ बिबिध तनु ग्यान न गयउ खगेस॥109(घ)॥ | ||
− | + | त्रिजग देव नर जोइ तनु धरउँ। तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ॥ | |
+ | एक सूल मोहि बिसर न काऊ। गुर कर कोमल सील सुभाऊ॥ | ||
+ | चरम देह द्विज कै मैं पाई। सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई॥ | ||
+ | खेलउँ तहूँ बालकन्ह मीला। करउँ सकल रघुनायक लीला॥ | ||
+ | प्रौढ़ भएँ मोहि पिता पढ़ावा। समझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा॥ | ||
+ | मन ते सकल बासना भागी। केवल राम चरन लय लागी॥ | ||
+ | कहु खगेस अस कवन अभागी। खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी॥ | ||
+ | प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई। हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई॥ | ||
+ | भए कालबस जब पितु माता। मैं बन गयउँ भजन जनत्राता॥ | ||
+ | जहँ जहँ बिपिन मुनीस्वर पावउँ। आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ॥ | ||
+ | बूझत तिन्हहि राम गुन गाहा। कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा॥ | ||
+ | सुनत फिरउँ हरि गुन अनुबादा। अब्याहत गति संभु प्रसादा॥ | ||
+ | छूटी त्रिबिध ईषना गाढ़ी। एक लालसा उर अति बाढ़ी॥ | ||
+ | राम चरन बारिज जब देखौं। तब निज जन्म सफल करि लेखौं॥ | ||
+ | जेहि पूँछउँ सोइ मुनि अस कहई। ईस्वर सर्ब भूतमय अहई॥ | ||
+ | निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई। सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई॥ | ||
+ | दो0-गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग। | ||
+ | रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग॥110(क)॥ | ||
+ | मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन। | ||
+ | देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन॥110(ख)॥ | ||
+ | सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज। | ||
+ | मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज॥110(ग)॥ | ||
+ | तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान। | ||
+ | सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान॥110(घ)॥ | ||
− | आरति श्रीरामायनजी की। कीरति कलित ललित सिय पी | + | तब मुनिष रघुपति गुन गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा॥ |
− | गावत ब्रह्मादिक मुनि नारद। बालमीक बिग्यान बिसारद। | + | ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानि। मोहि परम अधिकारी जानी॥ |
− | सुक सनकादि सेष अरु सारद। बरनि पवनसुत कीरति | + | लागे करन ब्रह्म उपदेसा। अज अद्वेत अगुन हृदयेसा॥ |
− | गावत बेद पुरान अष्टदस। छओ सास्त्र सब ग्रंथन को रस। | + | अकल अनीह अनाम अरुपा। अनुभव गम्य अखंड अनूपा॥ |
− | मुनि जन धन संतन को सरबस। सार अंस संमत सबही | + | मन गोतीत अमल अबिनासी। निर्बिकार निरवधि सुख रासी॥ |
− | गावत संतत संभु भवानी। अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी। | + | सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहि बेदा॥ |
− | ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी। कागभुसुंडि गरुड के ही | + | बिबिध भाँति मोहि मुनि समुझावा। निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा॥ |
− | कलिमल हरनि बिषय रस फीकी। सुभग सिंगार मुक्ति जुबती की। | + | पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा॥ |
− | दलन रोग भव मूरि अमी की। तात मात सब बिधि तुलसी | + | राम भगति जल मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना॥ |
+ | सोइ उपदेस कहहु करि दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया॥ | ||
+ | भरि लोचन बिलोकि अवधेसा। तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा॥ | ||
+ | मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा। खंडि सगुन मत अगुन निरूपा॥ | ||
+ | तब मैं निर्गुन मत कर दूरी। सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी॥ | ||
+ | उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा। मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा॥ | ||
+ | सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ। उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ॥ | ||
+ | अति संघरषन जौं कर कोई। अनल प्रगट चंदन ते होई॥ | ||
+ | दो0–बारंबार सकोप मुनि करइ निरुपन ग्यान। | ||
+ | मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिध अनुमान॥111(क)॥ | ||
+ | क्रोध कि द्वेतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान। | ||
+ | मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान॥111(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | कबहुँ कि दुख सब कर हित ताकें। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें॥ | ||
+ | परद्रोही की होहिं निसंका। कामी पुनि कि रहहिं अकलंका॥ | ||
+ | बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें। कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हें॥ | ||
+ | काहू सुमति कि खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी॥ | ||
+ | भव कि परहिं परमात्मा बिंदक। सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिंदक॥ | ||
+ | राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें॥ | ||
+ | पावन जस कि पुन्य बिनु होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई॥ | ||
+ | लाभु कि किछु हरि भगति समाना। जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना॥ | ||
+ | हानि कि जग एहि सम किछु भाई। भजिअ न रामहि नर तनु पाई॥ | ||
+ | अघ कि पिसुनता सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना॥ | ||
+ | एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ। मुनि उपदेस न सादर सुनऊँ॥ | ||
+ | पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा॥ | ||
+ | मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि। उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि॥ | ||
+ | सत्य बचन बिस्वास न करही। बायस इव सबही ते डरही॥ | ||
+ | सठ स्वपच्छ तब हृदयँ बिसाला। सपदि होहि पच्छी चंडाला॥ | ||
+ | लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई। नहिं कछु भय न दीनता आई॥ | ||
+ | दो0-तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ। | ||
+ | सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ॥112(क)॥ | ||
+ | उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध॥ | ||
+ | निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध॥112(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन। उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन॥ | ||
+ | कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी। लीन्हि प्रेम परिच्छा मोरी॥ | ||
+ | मन बच क्रम मोहि निज जन जाना। मुनि मति पुनि फेरी भगवाना॥ | ||
+ | रिषि मम महत सीलता देखी। राम चरन बिस्वास बिसेषी॥ | ||
+ | अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई। सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई॥ | ||
+ | मम परितोष बिबिध बिधि कीन्हा। हरषित राममंत्र तब दीन्हा॥ | ||
+ | बालकरूप राम कर ध्याना। कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना॥ | ||
+ | सुंदर सुखद मिहि अति भावा। सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा॥ | ||
+ | मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा। रामचरितमानस तब भाषा॥ | ||
+ | सादर मोहि यह कथा सुनाई। पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई॥ | ||
+ | रामचरित सर गुप्त सुहावा। संभु प्रसाद तात मैं पावा॥ | ||
+ | तोहि निज भगत राम कर जानी। ताते मैं सब कहेउँ बखानी॥ | ||
+ | राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं। कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह पाहीं॥ | ||
+ | मुनि मोहि बिबिध भाँति समुझावा। मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा॥ | ||
+ | निज कर कमल परसि मम सीसा। हरषित आसिष दीन्ह मुनीसा॥ | ||
+ | राम भगति अबिरल उर तोरें। बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें॥ | ||
+ | दो0–सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान। | ||
+ | कामरूप इच्धामरन ग्यान बिराग निधान॥113(क)॥ | ||
+ | जेंहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत। | ||
+ | ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत॥113(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | काल कर्म गुन दोष सुभाऊ। कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिहि काऊ॥ | ||
+ | राम रहस्य ललित बिधि नाना। गुप्त प्रगट इतिहास पुराना॥ | ||
+ | बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ। नित नव नेह राम पद होऊ॥ | ||
+ | जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं॥ | ||
+ | सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा। ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा॥ | ||
+ | एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी। यह मम भगत कर्म मन बानी॥ | ||
+ | सुनि नभगिरा हरष मोहि भयऊ। प्रेम मगन सब संसय गयऊ॥ | ||
+ | करि बिनती मुनि आयसु पाई। पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई॥ | ||
+ | हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ। प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ॥ | ||
+ | इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा। बीते कलप सात अरु बीसा॥ | ||
+ | करउँ सदा रघुपति गुन गाना। सादर सुनहिं बिहंग सुजाना॥ | ||
+ | जब जब अवधपुरीं रघुबीरा। धरहिं भगत हित मनुज सरीरा॥ | ||
+ | तब तब जाइ राम पुर रहऊँ। सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ॥ | ||
+ | पुनि उर राखि राम सिसुरूपा। निज आश्रम आवउँ खगभूपा॥ | ||
+ | कथा सकल मैं तुम्हहि सुनाई। काग देह जेहिं कारन पाई॥ | ||
+ | कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी। राम भगति महिमा अति भारी॥ | ||
+ | दो0-ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह। | ||
+ | निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह॥114(क)॥ | ||
+ | भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप। | ||
+ | मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप॥114(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | मासपारायण, उन्तीसवाँ विश्राम | ||
+ | |||
+ | जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं॥ | ||
+ | ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी॥ | ||
+ | सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई॥ | ||
+ | ते सठ महासिंधु बिनु तरनी। पैरि पार चाहहिं जड़ करनी॥ | ||
+ | सुनि भसुंडि के बचन भवानी। बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी॥ | ||
+ | तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीं॥ | ||
+ | सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा। तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा॥ | ||
+ | एक बात प्रभु पूँछउँ तोही। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही॥ | ||
+ | कहहिं संत मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना॥ | ||
+ | सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं। नहिं आदरेहु भगति की नाईं॥ | ||
+ | ग्यानहि भगतिहि अंतर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता॥ | ||
+ | सुनि उरगारि बचन सुख माना। सादर बोलेउ काग सुजाना॥ | ||
+ | भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा॥ | ||
+ | नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर। सावधान सोउ सुनु बिहंगबर॥ | ||
+ | ग्यान बिराग जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना॥ | ||
+ | पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती॥ | ||
+ | दो0–पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर॥ | ||
+ | न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर॥115(क)॥ | ||
+ | सो0-सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि। | ||
+ | बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट॥115(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ। बेद पुरान संत मत भाषउँ॥ | ||
+ | मोह न नारि नारि कें रूपा। पन्नगारि यह रीति अनूपा॥ | ||
+ | माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ। नारि बर्ग जानइ सब कोऊ॥ | ||
+ | पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी॥ | ||
+ | भगतिहि सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया॥ | ||
+ | राम भगति निरुपम निरुपाधी। बसइ जासु उर सदा अबाधी॥ | ||
+ | तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई॥ | ||
+ | अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी। जाचहीं भगति सकल सुख खानी॥ | ||
+ | दो0-यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ। | ||
+ | जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ॥116(क)॥ | ||
+ | औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन। | ||
+ | जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन॥116(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी॥ | ||
+ | ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥ | ||
+ | सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाई॥ | ||
+ | जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई॥ | ||
+ | तब ते जीव भयउ संसारी। छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी॥ | ||
+ | श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई॥ | ||
+ | जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी॥ | ||
+ | अस संजोग ईस जब करई। तबहुँ कदाचित सो निरुअरई॥ | ||
+ | सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई॥ | ||
+ | जप तप ब्रत जम नियम अपारा। जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा॥ | ||
+ | तेइ तृन हरित चरै जब गाई। भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई॥ | ||
+ | नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा॥ | ||
+ | परम धर्ममय पय दुहि भाई। अवटै अनल अकाम बिहाई॥ | ||
+ | तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै। धृति सम जावनु देइ जमावै॥ | ||
+ | मुदिताँ मथैं बिचार मथानी। दम अधार रजु सत्य सुबानी॥ | ||
+ | तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता॥ | ||
+ | दो0-जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ। | ||
+ | बुद्धि सिरावैं ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ॥117(क)॥ | ||
+ | तब बिग्यानरूपिनि बुद्धि बिसद घृत पाइ। | ||
+ | चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ॥117(ख)॥ | ||
+ | तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि। | ||
+ | तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि॥117(ग)॥ | ||
+ | सो0-एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय॥ | ||
+ | जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब॥117(घ)॥ | ||
+ | |||
+ | सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥ | ||
+ | आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥ | ||
+ | प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तम मिटइ अपारा॥ | ||
+ | तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा। उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा॥ | ||
+ | छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई॥ | ||
+ | छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्न अनेक करइ तब माया॥ | ||
+ | रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई॥ | ||
+ | कल बल छल करि जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा॥ | ||
+ | होइ बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी॥ | ||
+ | जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी॥ | ||
+ | इंद्रीं द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना॥ | ||
+ | आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देही कपाट उघारी॥ | ||
+ | जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई॥ | ||
+ | ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा॥ | ||
+ | इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई॥ | ||
+ | बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी॥ | ||
+ | दो0-तब फिरि जीव बिबिध बिधि पावइ संसृति क्लेस। | ||
+ | हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस॥118(क)॥ | ||
+ | कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन बिबेक। | ||
+ | होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक॥118(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा॥ | ||
+ | जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई॥ | ||
+ | अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद॥ | ||
+ | राम भजत सोइ मुकुति गोसाई। अनइच्छित आवइ बरिआई॥ | ||
+ | जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई॥ | ||
+ | तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई॥ | ||
+ | अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने॥ | ||
+ | भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा॥ | ||
+ | भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी॥ | ||
+ | असि हरिभगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई॥ | ||
+ | दो0-सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि॥ | ||
+ | भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि॥119(क)॥ | ||
+ | जो चेतन कहँ ज़ड़ करइ ज़ड़हि करइ चैतन्य। | ||
+ | अस समर्थ रघुनायकहिं भजहिं जीव ते धन्य॥119(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई। सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई॥ | ||
+ | राम भगति चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर॥ | ||
+ | परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती॥ | ||
+ | मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा॥ | ||
+ | प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई॥ | ||
+ | खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं॥ | ||
+ | गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई॥ | ||
+ | ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस सब जीव दुखारी॥ | ||
+ | राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें॥ | ||
+ | चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं॥ | ||
+ | सो मनि जदपि प्रगट जग अहई। राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई॥ | ||
+ | सुगम उपाय पाइबे केरे। नर हतभाग्य देहिं भटमेरे॥ | ||
+ | पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना॥ | ||
+ | मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी॥ | ||
+ | भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी॥ | ||
+ | मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा॥ | ||
+ | राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा॥ | ||
+ | सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई॥ | ||
+ | अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा॥ | ||
+ | दो0-ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं। | ||
+ | कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं॥120(क)॥ | ||
+ | बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि। | ||
+ | जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि॥120(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ॥ | ||
+ | नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न कहहु बखानी॥ | ||
+ | प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा॥ | ||
+ | बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी॥ | ||
+ | संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु॥ | ||
+ | कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला॥ | ||
+ | मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई॥ | ||
+ | तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती॥ | ||
+ | नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥ | ||
+ | नरग स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥ | ||
+ | सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर॥ | ||
+ | काँच किरिच बदलें ते लेही। कर ते डारि परस मनि देहीं॥ | ||
+ | नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥ | ||
+ | पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया॥ | ||
+ | संत सहहिं दुख परहित लागी। परदुख हेतु असंत अभागी॥ | ||
+ | भूर्ज तरू सम संत कृपाला। परहित निति सह बिपति बिसाला॥ | ||
+ | सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई॥ | ||
+ | खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी॥ | ||
+ | पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं॥ | ||
+ | दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू॥ | ||
+ | संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी॥ | ||
+ | परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा॥ | ||
+ | हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्त्र पाव तन सोई॥ | ||
+ | द्विज निंदक बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि॥ | ||
+ | सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी॥ | ||
+ | होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत॥ | ||
+ | सब के निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥ | ||
+ | सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा॥ | ||
+ | मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥ | ||
+ | काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥ | ||
+ | प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई॥ | ||
+ | बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना॥ | ||
+ | ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई॥ | ||
+ | पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥ | ||
+ | अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥ | ||
+ | तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी॥ | ||
+ | जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका॥ | ||
+ | दो0-एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि। | ||
+ | पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥121(क)॥ | ||
+ | नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान। | ||
+ | भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान॥121(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी॥ | ||
+ | मानक रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥ | ||
+ | जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी॥ | ||
+ | बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे॥ | ||
+ | राम कृपाँ नासहि सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संयोगा॥ | ||
+ | सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥ | ||
+ | रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥ | ||
+ | एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥ | ||
+ | जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई। जब उर बल बिराग अधिकाई॥ | ||
+ | सुमति छुधा बाढ़इ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई॥ | ||
+ | बिमल ग्यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई॥ | ||
+ | सिव अज सुक सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद॥ | ||
+ | सब कर मत खगनायक एहा। करिअ राम पद पंकज नेहा॥ | ||
+ | श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं। रघुपति भगति बिना सुख नाहीं॥ | ||
+ | कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बंध्या सुत बरु काहुहि मारा॥ | ||
+ | फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला॥ | ||
+ | तृषा जाइ बरु मृगजल पाना। बरु जामहिं सस सीस बिषाना॥ | ||
+ | अंधकारु बरु रबिहि नसावै। राम बिमुख न जीव सुख पावै॥ | ||
+ | हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई॥ | ||
+ | दो0=बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल। | ||
+ | बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल॥122(क)॥ | ||
+ | मसकहि करइ बिंरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन। | ||
+ | अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन॥122(ख)॥ | ||
+ | श्लोक- विनिच्श्रितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे। | ||
+ | हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते॥122(ग)॥ | ||
+ | |||
+ | कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा। ब्यास समास स्वमति अनुरुपा॥ | ||
+ | श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी॥ | ||
+ | प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही। मोहि से सठ पर ममता जाही॥ | ||
+ | तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा। नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा॥ | ||
+ | पूछिहुँ राम कथा अति पावनि। सुक सनकादि संभु मन भावनि॥ | ||
+ | सत संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा॥ | ||
+ | देखु गरुड़ निज हृदयँ बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी॥ | ||
+ | सकुनाधम सब भाँति अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन॥ | ||
+ | दो0-आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन। | ||
+ | निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन॥123(क)॥ | ||
+ | नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ। | ||
+ | चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ॥123॥ | ||
+ | |||
+ | सुमिरि राम के गुन गन नाना। पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना॥ | ||
+ | महिमा निगम नेति करि गाई। अतुलित बल प्रताप प्रभुताई॥ | ||
+ | सिव अज पूज्य चरन रघुराई। मो पर कृपा परम मृदुलाई॥ | ||
+ | अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ। केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ॥ | ||
+ | साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी॥ | ||
+ | जोगी सूर सुतापस ग्यानी। धर्म निरत पंडित बिग्यानी॥ | ||
+ | तरहिं न बिनु सेएँ मम स्वामी। राम नमामि नमामि नमामी॥ | ||
+ | सरन गएँ मो से अघ रासी। होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी॥ | ||
+ | दो0-जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल। | ||
+ | सो कृपालु मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल॥124(क)॥ | ||
+ | सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह। | ||
+ | बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत संदेह॥124(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | मै कृत्कृत्य भयउँ तव बानी। सुनि रघुबीर भगति रस सानी॥ | ||
+ | राम चरन नूतन रति भई। माया जनित बिपति सब गई॥ | ||
+ | मोह जलधि बोहित तुम्ह भए। मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए॥ | ||
+ | मो पहिं होइ न प्रति उपकारा। बंदउँ तव पद बारहिं बारा॥ | ||
+ | पूरन काम राम अनुरागी। तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी॥ | ||
+ | संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी॥ | ||
+ | संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना॥ | ||
+ | निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता॥ | ||
+ | जीवन जन्म सुफल मम भयऊ। तव प्रसाद संसय सब गयऊ॥ | ||
+ | जानेहु सदा मोहि निज किंकर। पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर॥ | ||
+ | दो0-तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर। | ||
+ | गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर॥125(क)॥ | ||
+ | गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन। | ||
+ | बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान॥125(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | कहेउँ परम पुनीत इतिहासा। सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा॥ | ||
+ | प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा। उपजइ प्रीति राम पद कंजा॥ | ||
+ | मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई॥ | ||
+ | तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई॥ | ||
+ | नाना कर्म धर्म ब्रत दाना। संजम दम जप तप मख नाना॥ | ||
+ | भूत दया द्विज गुर सेवकाई। बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई॥ | ||
+ | जहँ लगि साधन बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी॥ | ||
+ | सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई। राम कृपाँ काहूँ एक पाई॥ | ||
+ | दो0-मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास। | ||
+ | जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास॥126॥ | ||
+ | |||
+ | सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता। सोइ महि मंडित पंडित दाता॥ | ||
+ | धर्म परायन सोइ कुल त्राता। राम चरन जा कर मन राता॥ | ||
+ | नीति निपुन सोइ परम सयाना। श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना॥ | ||
+ | सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा॥ | ||
+ | धन्य देस सो जहँ सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी॥ | ||
+ | धन्य सो भूपु नीति जो करई। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई॥ | ||
+ | सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी॥ | ||
+ | धन्य घरी सोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा॥ | ||
+ | दो0-सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत। | ||
+ | श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत॥127॥ | ||
+ | |||
+ | मति अनुरूप कथा मैं भाषी। जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी॥ | ||
+ | तव मन प्रीति देखि अधिकाई। तब मैं रघुपति कथा सुनाई॥ | ||
+ | यह न कहिअ सठही हठसीलहि। जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि॥ | ||
+ | कहिअ न लोभिहि क्रोधहि कामिहि। जो न भजइ सचराचर स्वामिहि॥ | ||
+ | द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ। सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ॥ | ||
+ | राम कथा के तेइ अधिकारी। जिन्ह कें सतसंगति अति प्यारी॥ | ||
+ | गुर पद प्रीति नीति रत जेई। द्विज सेवक अधिकारी तेई॥ | ||
+ | ता कहँ यह बिसेष सुखदाई। जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई॥ | ||
+ | दो0-राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान। | ||
+ | भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान॥128॥ | ||
+ | |||
+ | राम कथा गिरिजा मैं बरनी। कलि मल समनि मनोमल हरनी॥ | ||
+ | संसृति रोग सजीवन मूरी। राम कथा गावहिं श्रुति सूरी॥ | ||
+ | एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना। रघुपति भगति केर पंथाना॥ | ||
+ | अति हरि कृपा जाहि पर होई। पाउँ देइ एहिं मारग सोई॥ | ||
+ | मन कामना सिद्धि नर पावा। जे यह कथा कपट तजि गावा॥ | ||
+ | कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं॥ | ||
+ | सुनि सब कथा हृदयँ अति भाई। गिरिजा बोली गिरा सुहाई॥ | ||
+ | नाथ कृपाँ मम गत संदेहा। राम चरन उपजेउ नव नेहा॥ | ||
+ | दो0-मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस। | ||
+ | उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस॥129॥ | ||
+ | |||
+ | यह सुभ संभु उमा संबादा। सुख संपादन समन बिषादा॥ | ||
+ | भव भंजन गंजन संदेहा। जन रंजन सज्जन प्रिय एहा॥ | ||
+ | राम उपासक जे जग माहीं। एहि सम प्रिय तिन्ह के कछु नाहीं॥ | ||
+ | रघुपति कृपाँ जथामति गावा। मैं यह पावन चरित सुहावा॥ | ||
+ | एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥ | ||
+ | रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥ | ||
+ | जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना॥ | ||
+ | ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई॥ | ||
+ | छं0-पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना। | ||
+ | गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना॥ | ||
+ | आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे। | ||
+ | कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते॥1॥ | ||
+ | रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं। | ||
+ | कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं॥ | ||
+ | सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै। | ||
+ | दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्रीरघुबर हरै॥2॥ | ||
+ | सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो। | ||
+ | सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को॥ | ||
+ | जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ। | ||
+ | पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ॥3॥ | ||
+ | दो0-मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर। | ||
+ | अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर॥130(क)॥ | ||
+ | कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम। | ||
+ | तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥130(ख)॥ | ||
+ | |||
+ | श्लोक-यत्पूर्व प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं | ||
+ | श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्। | ||
+ | मत्वा तद्रघुनाथमनिरतं स्वान्तस्तमःशान्तये | ||
+ | भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्॥1॥ | ||
+ | पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं | ||
+ | मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्। | ||
+ | श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये | ||
+ | ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥2॥ | ||
+ | |||
+ | मासपारायण, तीसवाँ विश्राम | ||
+ | |||
+ | नवान्हपारायण, नवाँ विश्राम | ||
+ | |||
+ | इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने | ||
+ | |||
+ | सप्तमः सोपानः समाप्तः। | ||
+ | |||
+ | '''(उत्तरकाण्ड समाप्त)''' | ||
+ | |||
+ | '''श्रीरामायनजी की आरती''' | ||
+ | |||
+ | आरति श्रीरामायनजी की। कीरति कलित ललित सिय पी की॥ | ||
+ | गावत ब्रह्मादिक मुनि नारद। बालमीक बिग्यान बिसारद। | ||
+ | सुक सनकादि सेष अरु सारद। बरनि पवनसुत कीरति नीकी॥1॥ | ||
+ | गावत बेद पुरान अष्टदस। छओ सास्त्र सब ग्रंथन को रस। | ||
+ | मुनि जन धन संतन को सरबस। सार अंस संमत सबही की॥2॥ | ||
+ | गावत संतत संभु भवानी। अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी। | ||
+ | ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी। कागभुसुंडि गरुड के ही की॥3॥ | ||
+ | कलिमल हरनि बिषय रस फीकी। सुभग सिंगार मुक्ति जुबती की। | ||
+ | दलन रोग भव मूरि अमी की। तात मात सब बिधि तुलसी की॥4॥ | ||
+ | </poem> |
12:42, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण
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छं0-बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती॥
तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही॥
कुलवंति निकारहिं नारि सती। गृह आनिहिं चेरी निबेरि गती॥
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं॥
ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपरूप कुटुंब भए तब तें॥
नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं॥
धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी॥
नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो।
कबि बृंद उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी॥
कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै॥
दो0-सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड।
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड॥101(क)॥
तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत मख दान।
देव न बरषहिं धरनीं बए न जामहिं धान॥101(ख)॥
छं0-अबला कच भूषन भूरि छुधा। धनहीन दुखी ममता बहुधा॥
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता॥1॥
नर पीड़ित रोग न भोग कहीं। अभिमान बिरोध अकारनहीं॥
लघु जीवन संबतु पंच दसा। कलपांत न नास गुमानु असा॥2॥
कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा।
नहिं तोष बिचार न सीतलता। सब जाति कुजाति भए मगता॥3॥
इरिषा परुषाच्छर लोलुपता। भरि पूरि रही समता बिगता॥
सब लोग बियोग बिसोक हुए। बरनाश्रम धर्म अचार गए॥4॥
दम दान दया नहिं जानपनी। जड़ता परबंचनताति घनी॥
तनु पोषक नारि नरा सगरे। परनिंदक जे जग मो बगरे॥5॥
दो0-सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार।
गुनउँ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार॥102(क)॥
कृतजुग त्रेता द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग॥102(ख)॥
कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी॥
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं॥
द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा॥
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा॥
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥
सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं॥
कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा॥
दो0-कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमलँ भव तर बिनहिं प्रयास॥103(क)॥
प्रगट चारि पद धर्म के कलिल महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥103(ख)॥
नित जुग धर्म होहिं सब केरे। हृदयँ राम माया के प्रेरे॥
सुद्ध सत्व समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना॥
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा। सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा॥
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस॥
तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा॥
बुध जुग धर्म जानि मन माहीं। तजि अधर्म रति धर्म कराहीं॥
काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही॥
नट कृत बिकट कपट खगराया। नट सेवकहि न ब्यापइ माया॥
दो0-हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं॥104(क)॥
तेहि कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस।
परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस॥104(ख)॥
गयउँ उजेनी सुनु उरगारी। दीन मलीन दरिद्र दुखारी॥
गएँ काल कछु संपति पाई। तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई॥
बिप्र एक बैदिक सिव पूजा। करइ सदा तेहि काजु न दूजा॥
परम साधु परमारथ बिंदक। संभु उपासक नहिं हरि निंदक॥
तेहि सेवउँ मैं कपट समेता। द्विज दयाल अति नीति निकेता॥
बाहिज नम्र देखि मोहि साईं। बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाईं॥
संभु मंत्र मोहि द्विजबर दीन्हा। सुभ उपदेस बिबिध बिधि कीन्हा॥
जपउँ मंत्र सिव मंदिर जाई। हृदयँ दंभ अहमिति अधिकाई॥
दो0-मैं खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह।
हरि जन द्विज देखें जरउँ करउँ बिष्नु कर द्रोह॥105(क)॥
सो0-गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम।
मोहि उपजइ अति क्रोध दंभिहि नीति कि भावई॥105(ख)॥
एक बार गुर लीन्ह बोलाई। मोहि नीति बहु भाँति सिखाई॥
सिव सेवा कर फल सुत सोई। अबिरल भगति राम पद होई॥
रामहि भजहिं तात सिव धाता। नर पावँर कै केतिक बाता॥
जासु चरन अज सिव अनुरागी। तातु द्रोहँ सुख चहसि अभागी॥
हर कहुँ हरि सेवक गुर कहेऊ। सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ॥
अधम जाति मैं बिद्या पाएँ। भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ॥
मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती। गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती॥
अति दयाल गुर स्वल्प न क्रोधा। पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा॥
जेहि ते नीच बड़ाई पावा। सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा॥
धूम अनल संभव सुनु भाई। तेहि बुझाव घन पदवी पाई॥
रज मग परी निरादर रहई। सब कर पद प्रहार नित सहई॥
मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई। पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई॥
सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा। बुध नहिं करहिं अधम कर संगा॥
कबि कोबिद गावहिं असि नीती। खल सन कलह न भल नहिं प्रीती॥
उदासीन नित रहिअ गोसाईं। खल परिहरिअ स्वान की नाईं॥
मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई। गुर हित कहइ न मोहि सोहाई॥
दो0-एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम।
गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम॥106(क)॥
सो दयाल नहिं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस।
अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस॥106(ख)॥
मंदिर माझ भई नभ बानी। रे हतभाग्य अग्य अभिमानी॥
जद्यपि तव गुर कें नहिं क्रोधा। अति कृपाल चित सम्यक बोधा॥
तदपि साप सठ दैहउँ तोही। नीति बिरोध सोहाइ न मोही॥
जौं नहिं दंड करौं खल तोरा। भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा॥
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं। रौरव नरक कोटि जुग परहीं॥
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा। अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा॥
बैठ रहेसि अजगर इव पापी। सर्प होहि खल मल मति ब्यापी॥
महा बिटप कोटर महुँ जाई॥रहु अधमाधम अधगति पाई॥
दो0-हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप॥
कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप॥107(क)॥
करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि।
बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि॥107(ख)॥
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विंभुं ब्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरींह। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं॥
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं॥
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥
चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं॥
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं॥
त्रयःशूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनान्ददाता पुरारी॥
चिदानंदसंदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं। भजंतीह लोके परे वा नराणां॥
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं॥
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥
श्लोक-रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥
दो0–सुनि बिनती सर्बग्य सिव देखि ब्रिप्र अनुरागु।
पुनि मंदिर नभबानी भइ द्विजबर बर मागु॥108(क)॥
जौं प्रसन्न प्रभु मो पर नाथ दीन पर नेहु।
निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु॥108(ख)॥
तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान।
तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपा सिंधु भगवान॥108(ग)॥
संकर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल।
साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल॥108(घ)॥
एहि कर होइ परम कल्याना। सोइ करहु अब कृपानिधाना॥
बिप्रगिरा सुनि परहित सानी। एवमस्तु इति भइ नभबानी॥
जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा। मैं पुनि दीन्ह कोप करि सापा॥
तदपि तुम्हार साधुता देखी। करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी॥
छमासील जे पर उपकारी। ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी॥
मोर श्राप द्विज ब्यर्थ न जाइहि। जन्म सहस अवस्य यह पाइहि॥
जनमत मरत दुसह दुख होई। अहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई॥
कवनेउँ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना। सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना॥
रघुपति पुरीं जन्म तब भयऊ। पुनि तैं मम सेवाँ मन दयऊ॥
पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें। राम भगति उपजिहि उर तोरें॥
सुनु मम बचन सत्य अब भाई। हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई॥
अब जनि करहि बिप्र अपमाना। जानेहु संत अनंत समाना॥
इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला। कालदंड हरि चक्र कराला॥
जो इन्ह कर मारा नहिं मरई। बिप्रद्रोह पावक सो जरई॥
अस बिबेक राखेहु मन माहीं। तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
औरउ एक आसिषा मोरी। अप्रतिहत गति होइहि तोरी॥
दो0-सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि।
मोहि प्रबोधि गयउ गृह संभु चरन उर राखि॥109(क)॥
प्रेरित काल बिधि गिरि जाइ भयउँ मैं ब्याल।
पुनि प्रयास बिनु सो तनु जजेउँ गएँ कछु काल॥109(ख)॥
जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि अनायास हरिजान।
जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ पुरान॥109(ग)॥
सिवँ राखी श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस।
एहि बिधि धरेउँ बिबिध तनु ग्यान न गयउ खगेस॥109(घ)॥
त्रिजग देव नर जोइ तनु धरउँ। तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ॥
एक सूल मोहि बिसर न काऊ। गुर कर कोमल सील सुभाऊ॥
चरम देह द्विज कै मैं पाई। सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई॥
खेलउँ तहूँ बालकन्ह मीला। करउँ सकल रघुनायक लीला॥
प्रौढ़ भएँ मोहि पिता पढ़ावा। समझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा॥
मन ते सकल बासना भागी। केवल राम चरन लय लागी॥
कहु खगेस अस कवन अभागी। खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी॥
प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई। हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई॥
भए कालबस जब पितु माता। मैं बन गयउँ भजन जनत्राता॥
जहँ जहँ बिपिन मुनीस्वर पावउँ। आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ॥
बूझत तिन्हहि राम गुन गाहा। कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा॥
सुनत फिरउँ हरि गुन अनुबादा। अब्याहत गति संभु प्रसादा॥
छूटी त्रिबिध ईषना गाढ़ी। एक लालसा उर अति बाढ़ी॥
राम चरन बारिज जब देखौं। तब निज जन्म सफल करि लेखौं॥
जेहि पूँछउँ सोइ मुनि अस कहई। ईस्वर सर्ब भूतमय अहई॥
निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई। सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई॥
दो0-गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग।
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग॥110(क)॥
मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन।
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन॥110(ख)॥
सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज।
मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज॥110(ग)॥
तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान।
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान॥110(घ)॥
तब मुनिष रघुपति गुन गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा॥
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानि। मोहि परम अधिकारी जानी॥
लागे करन ब्रह्म उपदेसा। अज अद्वेत अगुन हृदयेसा॥
अकल अनीह अनाम अरुपा। अनुभव गम्य अखंड अनूपा॥
मन गोतीत अमल अबिनासी। निर्बिकार निरवधि सुख रासी॥
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहि बेदा॥
बिबिध भाँति मोहि मुनि समुझावा। निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा॥
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा॥
राम भगति जल मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना॥
सोइ उपदेस कहहु करि दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया॥
भरि लोचन बिलोकि अवधेसा। तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा॥
मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा। खंडि सगुन मत अगुन निरूपा॥
तब मैं निर्गुन मत कर दूरी। सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी॥
उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा। मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा॥
सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ। उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ॥
अति संघरषन जौं कर कोई। अनल प्रगट चंदन ते होई॥
दो0–बारंबार सकोप मुनि करइ निरुपन ग्यान।
मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिध अनुमान॥111(क)॥
क्रोध कि द्वेतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान॥111(ख)॥
कबहुँ कि दुख सब कर हित ताकें। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें॥
परद्रोही की होहिं निसंका। कामी पुनि कि रहहिं अकलंका॥
बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें। कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हें॥
काहू सुमति कि खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी॥
भव कि परहिं परमात्मा बिंदक। सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिंदक॥
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें॥
पावन जस कि पुन्य बिनु होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई॥
लाभु कि किछु हरि भगति समाना। जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना॥
हानि कि जग एहि सम किछु भाई। भजिअ न रामहि नर तनु पाई॥
अघ कि पिसुनता सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना॥
एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ। मुनि उपदेस न सादर सुनऊँ॥
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा॥
मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि। उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि॥
सत्य बचन बिस्वास न करही। बायस इव सबही ते डरही॥
सठ स्वपच्छ तब हृदयँ बिसाला। सपदि होहि पच्छी चंडाला॥
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई। नहिं कछु भय न दीनता आई॥
दो0-तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ।
सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ॥112(क)॥
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध॥
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध॥112(ख)॥
सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन। उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन॥
कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी। लीन्हि प्रेम परिच्छा मोरी॥
मन बच क्रम मोहि निज जन जाना। मुनि मति पुनि फेरी भगवाना॥
रिषि मम महत सीलता देखी। राम चरन बिस्वास बिसेषी॥
अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई। सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई॥
मम परितोष बिबिध बिधि कीन्हा। हरषित राममंत्र तब दीन्हा॥
बालकरूप राम कर ध्याना। कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना॥
सुंदर सुखद मिहि अति भावा। सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा॥
मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा। रामचरितमानस तब भाषा॥
सादर मोहि यह कथा सुनाई। पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई॥
रामचरित सर गुप्त सुहावा। संभु प्रसाद तात मैं पावा॥
तोहि निज भगत राम कर जानी। ताते मैं सब कहेउँ बखानी॥
राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं। कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह पाहीं॥
मुनि मोहि बिबिध भाँति समुझावा। मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा॥
निज कर कमल परसि मम सीसा। हरषित आसिष दीन्ह मुनीसा॥
राम भगति अबिरल उर तोरें। बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें॥
दो0–सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान।
कामरूप इच्धामरन ग्यान बिराग निधान॥113(क)॥
जेंहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत।
ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत॥113(ख)॥
काल कर्म गुन दोष सुभाऊ। कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिहि काऊ॥
राम रहस्य ललित बिधि नाना। गुप्त प्रगट इतिहास पुराना॥
बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ। नित नव नेह राम पद होऊ॥
जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं॥
सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा। ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा॥
एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी। यह मम भगत कर्म मन बानी॥
सुनि नभगिरा हरष मोहि भयऊ। प्रेम मगन सब संसय गयऊ॥
करि बिनती मुनि आयसु पाई। पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई॥
हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ। प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ॥
इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा। बीते कलप सात अरु बीसा॥
करउँ सदा रघुपति गुन गाना। सादर सुनहिं बिहंग सुजाना॥
जब जब अवधपुरीं रघुबीरा। धरहिं भगत हित मनुज सरीरा॥
तब तब जाइ राम पुर रहऊँ। सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ॥
पुनि उर राखि राम सिसुरूपा। निज आश्रम आवउँ खगभूपा॥
कथा सकल मैं तुम्हहि सुनाई। काग देह जेहिं कारन पाई॥
कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी। राम भगति महिमा अति भारी॥
दो0-ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह।
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह॥114(क)॥
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप॥114(ख)॥
मासपारायण, उन्तीसवाँ विश्राम
जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं॥
ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी॥
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई॥
ते सठ महासिंधु बिनु तरनी। पैरि पार चाहहिं जड़ करनी॥
सुनि भसुंडि के बचन भवानी। बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी॥
तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीं॥
सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा। तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा॥
एक बात प्रभु पूँछउँ तोही। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही॥
कहहिं संत मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना॥
सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं। नहिं आदरेहु भगति की नाईं॥
ग्यानहि भगतिहि अंतर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता॥
सुनि उरगारि बचन सुख माना। सादर बोलेउ काग सुजाना॥
भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा॥
नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर। सावधान सोउ सुनु बिहंगबर॥
ग्यान बिराग जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना॥
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती॥
दो0–पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर॥
न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर॥115(क)॥
सो0-सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि।
बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट॥115(ख)॥
इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ। बेद पुरान संत मत भाषउँ॥
मोह न नारि नारि कें रूपा। पन्नगारि यह रीति अनूपा॥
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ। नारि बर्ग जानइ सब कोऊ॥
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी॥
भगतिहि सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया॥
राम भगति निरुपम निरुपाधी। बसइ जासु उर सदा अबाधी॥
तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई॥
अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी। जाचहीं भगति सकल सुख खानी॥
दो0-यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ।
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ॥116(क)॥
औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन।
जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन॥116(ख)॥
सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी॥
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाई॥
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई॥
तब ते जीव भयउ संसारी। छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी॥
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई॥
जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी॥
अस संजोग ईस जब करई। तबहुँ कदाचित सो निरुअरई॥
सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई॥
जप तप ब्रत जम नियम अपारा। जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा॥
तेइ तृन हरित चरै जब गाई। भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई॥
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा॥
परम धर्ममय पय दुहि भाई। अवटै अनल अकाम बिहाई॥
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै। धृति सम जावनु देइ जमावै॥
मुदिताँ मथैं बिचार मथानी। दम अधार रजु सत्य सुबानी॥
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता॥
दो0-जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ।
बुद्धि सिरावैं ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ॥117(क)॥
तब बिग्यानरूपिनि बुद्धि बिसद घृत पाइ।
चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ॥117(ख)॥
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि।
तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि॥117(ग)॥
सो0-एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय॥
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब॥117(घ)॥
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥
प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तम मिटइ अपारा॥
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा। उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा॥
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई॥
छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्न अनेक करइ तब माया॥
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई॥
कल बल छल करि जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा॥
होइ बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी॥
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी॥
इंद्रीं द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना॥
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देही कपाट उघारी॥
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई॥
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा॥
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई॥
बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी॥
दो0-तब फिरि जीव बिबिध बिधि पावइ संसृति क्लेस।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस॥118(क)॥
कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक॥118(ख)॥
ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा॥
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई॥
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद॥
राम भजत सोइ मुकुति गोसाई। अनइच्छित आवइ बरिआई॥
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई॥
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई॥
अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने॥
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा॥
भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी॥
असि हरिभगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई॥
दो0-सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि॥
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि॥119(क)॥
जो चेतन कहँ ज़ड़ करइ ज़ड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहिं भजहिं जीव ते धन्य॥119(ख)॥
कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई। सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई॥
राम भगति चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर॥
परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती॥
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा॥
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई॥
खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं॥
गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई॥
ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस सब जीव दुखारी॥
राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें॥
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं॥
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई। राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई॥
सुगम उपाय पाइबे केरे। नर हतभाग्य देहिं भटमेरे॥
पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना॥
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी॥
भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी॥
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा॥
राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा॥
सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई॥
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा॥
दो0-ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं।
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं॥120(क)॥
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि॥120(ख)॥
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ॥
नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न कहहु बखानी॥
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा॥
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी॥
संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु॥
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला॥
मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई॥
तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती॥
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥
नरग स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर॥
काँच किरिच बदलें ते लेही। कर ते डारि परस मनि देहीं॥
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया॥
संत सहहिं दुख परहित लागी। परदुख हेतु असंत अभागी॥
भूर्ज तरू सम संत कृपाला। परहित निति सह बिपति बिसाला॥
सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई॥
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी॥
पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं॥
दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू॥
संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी॥
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा॥
हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्त्र पाव तन सोई॥
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि॥
सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी॥
होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत॥
सब के निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा॥
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना॥
ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥
अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी॥
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका॥
दो0-एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥121(क)॥
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान॥121(ख)॥
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी॥
मानक रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥
जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी॥
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे॥
राम कृपाँ नासहि सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संयोगा॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥
जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई। जब उर बल बिराग अधिकाई॥
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई॥
बिमल ग्यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई॥
सिव अज सुक सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद॥
सब कर मत खगनायक एहा। करिअ राम पद पंकज नेहा॥
श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं। रघुपति भगति बिना सुख नाहीं॥
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बंध्या सुत बरु काहुहि मारा॥
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला॥
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना। बरु जामहिं सस सीस बिषाना॥
अंधकारु बरु रबिहि नसावै। राम बिमुख न जीव सुख पावै॥
हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई॥
दो0=बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल॥122(क)॥
मसकहि करइ बिंरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन॥122(ख)॥
श्लोक- विनिच्श्रितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते॥122(ग)॥
कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा। ब्यास समास स्वमति अनुरुपा॥
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी॥
प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही। मोहि से सठ पर ममता जाही॥
तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा। नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा॥
पूछिहुँ राम कथा अति पावनि। सुक सनकादि संभु मन भावनि॥
सत संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा॥
देखु गरुड़ निज हृदयँ बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी॥
सकुनाधम सब भाँति अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन॥
दो0-आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन।
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन॥123(क)॥
नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ।
चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ॥123॥
सुमिरि राम के गुन गन नाना। पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना॥
महिमा निगम नेति करि गाई। अतुलित बल प्रताप प्रभुताई॥
सिव अज पूज्य चरन रघुराई। मो पर कृपा परम मृदुलाई॥
अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ। केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ॥
साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी॥
जोगी सूर सुतापस ग्यानी। धर्म निरत पंडित बिग्यानी॥
तरहिं न बिनु सेएँ मम स्वामी। राम नमामि नमामि नमामी॥
सरन गएँ मो से अघ रासी। होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी॥
दो0-जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल।
सो कृपालु मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल॥124(क)॥
सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह।
बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत संदेह॥124(ख)॥
मै कृत्कृत्य भयउँ तव बानी। सुनि रघुबीर भगति रस सानी॥
राम चरन नूतन रति भई। माया जनित बिपति सब गई॥
मोह जलधि बोहित तुम्ह भए। मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए॥
मो पहिं होइ न प्रति उपकारा। बंदउँ तव पद बारहिं बारा॥
पूरन काम राम अनुरागी। तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी॥
संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी॥
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना॥
निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता॥
जीवन जन्म सुफल मम भयऊ। तव प्रसाद संसय सब गयऊ॥
जानेहु सदा मोहि निज किंकर। पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर॥
दो0-तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर।
गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर॥125(क)॥
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन।
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान॥125(ख)॥
कहेउँ परम पुनीत इतिहासा। सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा॥
प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा। उपजइ प्रीति राम पद कंजा॥
मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई॥
तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई॥
नाना कर्म धर्म ब्रत दाना। संजम दम जप तप मख नाना॥
भूत दया द्विज गुर सेवकाई। बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई॥
जहँ लगि साधन बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी॥
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई। राम कृपाँ काहूँ एक पाई॥
दो0-मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास।
जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास॥126॥
सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता। सोइ महि मंडित पंडित दाता॥
धर्म परायन सोइ कुल त्राता। राम चरन जा कर मन राता॥
नीति निपुन सोइ परम सयाना। श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना॥
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा॥
धन्य देस सो जहँ सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी॥
धन्य सो भूपु नीति जो करई। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई॥
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी॥
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा॥
दो0-सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत॥127॥
मति अनुरूप कथा मैं भाषी। जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी॥
तव मन प्रीति देखि अधिकाई। तब मैं रघुपति कथा सुनाई॥
यह न कहिअ सठही हठसीलहि। जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि॥
कहिअ न लोभिहि क्रोधहि कामिहि। जो न भजइ सचराचर स्वामिहि॥
द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ। सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ॥
राम कथा के तेइ अधिकारी। जिन्ह कें सतसंगति अति प्यारी॥
गुर पद प्रीति नीति रत जेई। द्विज सेवक अधिकारी तेई॥
ता कहँ यह बिसेष सुखदाई। जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई॥
दो0-राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान।
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान॥128॥
राम कथा गिरिजा मैं बरनी। कलि मल समनि मनोमल हरनी॥
संसृति रोग सजीवन मूरी। राम कथा गावहिं श्रुति सूरी॥
एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना। रघुपति भगति केर पंथाना॥
अति हरि कृपा जाहि पर होई। पाउँ देइ एहिं मारग सोई॥
मन कामना सिद्धि नर पावा। जे यह कथा कपट तजि गावा॥
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं॥
सुनि सब कथा हृदयँ अति भाई। गिरिजा बोली गिरा सुहाई॥
नाथ कृपाँ मम गत संदेहा। राम चरन उपजेउ नव नेहा॥
दो0-मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस।
उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस॥129॥
यह सुभ संभु उमा संबादा। सुख संपादन समन बिषादा॥
भव भंजन गंजन संदेहा। जन रंजन सज्जन प्रिय एहा॥
राम उपासक जे जग माहीं। एहि सम प्रिय तिन्ह के कछु नाहीं॥
रघुपति कृपाँ जथामति गावा। मैं यह पावन चरित सुहावा॥
एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥
जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना॥
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई॥
छं0-पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना॥
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते॥1॥
रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं॥
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै।
दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्रीरघुबर हरै॥2॥
सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को॥
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ॥3॥
दो0-मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर॥130(क)॥
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥130(ख)॥
श्लोक-यत्पूर्व प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्।
मत्वा तद्रघुनाथमनिरतं स्वान्तस्तमःशान्तये
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्॥1॥
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥2॥
मासपारायण, तीसवाँ विश्राम
नवान्हपारायण, नवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
सप्तमः सोपानः समाप्तः।
(उत्तरकाण्ड समाप्त)
श्रीरामायनजी की आरती
आरति श्रीरामायनजी की। कीरति कलित ललित सिय पी की॥
गावत ब्रह्मादिक मुनि नारद। बालमीक बिग्यान बिसारद।
सुक सनकादि सेष अरु सारद। बरनि पवनसुत कीरति नीकी॥1॥
गावत बेद पुरान अष्टदस। छओ सास्त्र सब ग्रंथन को रस।
मुनि जन धन संतन को सरबस। सार अंस संमत सबही की॥2॥
गावत संतत संभु भवानी। अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी।
ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी। कागभुसुंडि गरुड के ही की॥3॥
कलिमल हरनि बिषय रस फीकी। सुभग सिंगार मुक्ति जुबती की।
दलन रोग भव मूरि अमी की। तात मात सब बिधि तुलसी की॥4॥