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"दुश्वारी / जावेद अख़्तर" के अवतरणों में अंतर

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कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं<br>
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18:05, 27 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

मैं भूल जाऊँ तुम्हें अब यही मुनासिब है
मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं
यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ
कमबख़्त !
भुला न पाया ये वो सिलसिला जो था ही नहीं
वो इक ख़याल
जो आवाज़ तक गया ही नहीं
वो एक बात
जो मैं कह नहीं सका तुमसे
वो एक रब्त<ref>संबंध</ref>
जो हममें कभी रहा ही नहीं
मुझे है याद वो सब
जो कभी हुआ ही नहीं

शब्दार्थ
<references/>