"भू दान / रमाकांत द्विवेदी 'रमता'" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमाकांत द्विवेदी 'रमता' |अनुवादक= |...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
{{KKCatBhojpuriRachna}} | {{KKCatBhojpuriRachna}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | भारत अइसन | + | भारत अइसन महादेश में पैदल गाँवे-गाँवे। |
− | धरती माँगत घूमत बाड़े बूढ़ बिनावा | + | धरती माँगत घूमत बाड़े बूढ़ बिनावा भावे। |
− | जे ना सहल घाम, बरखा-आ-माघ-पूस के पाला | + | |
− | जेकर हर-हेंगा ना कवहूँ बाबें-दहिन बुझाला | + | जे ना सहल घाम, बरखा-आ-माघ-पूस के पाला, |
− | जेकर धी-पतोह ना जाने कइसे धान रोपाला | + | जेकर हर-हेंगा ना कवहूँ बाबें-दहिन बुझाला, |
− | धनि रे न्याय! इहाँ धरती के मालिक उहे कहाला | + | जेकर धी-पतोह ना जाने कइसे धान रोपाला, |
− | जुग-जुग के दुखिया किसान के बाजिब हक | + | धनि रे न्याय! इहाँ धरती के मालिक उहे कहाला, |
− | धरती माँगत घूमत बाड़े बूढ़ बिनोवा | + | |
− | एने सुबहित सतुआ दूलम, ओने उड़े मलाई | + | जुग-जुग के दुखिया किसान के बाजिब हक दियबावे। |
− | एने सपना फटही कामरि, ओने गरम रजाई | + | धरती माँगत घूमत बाड़े बूढ़ बिनोवा भावे। |
− | बाबू कहते जनम सिराइल, बाबू कूर-कसाई | + | |
− | फाटऽ धरती! इहाँ अबरुआ के मेहरि भउजाई | + | एने सुबहित सतुआ दूलम, ओने उड़े मलाई, |
− | धन के मेटि गुमान, बरोबर एक समान | + | एने सपना फटही कामरि, ओने गरम रजाई, |
− | धरती माँगत घूमत बाड़े बूढ़ बिनोवा | + | बाबू कहते जनम सिराइल, बाबू कूर-कसाई, |
− | + | फाटऽ धरती! इहाँ अबरुआ के मेहरि भउजाई, | |
− | एने लाख-करोड़ों अदिमी बाड़े परल बेकासा | + | |
− | जल्दी जो फाँसिला ना होई, लागी बड़ा तमासा | + | धन के मेटि गुमान, बरोबर एक समान बनावे। |
− | छहसत बा, लाठी-भाला-गँड़ास के लवटी पासा | + | धरती माँगत घूमत बाड़े बूढ़ बिनोवा भावे। |
− | आपुस के फुटमत से घर के | + | |
− | धरती माँगत घूमत बाड़े बूढ़ बिनोवा | + | तेलँगाना खीसी काँपे, दिल्ली देले झाँसा, |
+ | एने लाख-करोड़ों अदिमी बाड़े परल बेकासा, | ||
+ | जल्दी जो फाँसिला ना होई, लागी बड़ा तमासा, | ||
+ | छहसत बा, लाठी-भाला-गँड़ास के लवटी पासा, | ||
+ | |||
+ | आपुस के फुटमत से घर के लँकाकाँड बचावे। | ||
+ | धरती माँगत घूमत बाड़े बूढ़ बिनोवा भावे। | ||
</poem> | </poem> |
17:50, 14 सितम्बर 2017 के समय का अवतरण
भारत अइसन महादेश में पैदल गाँवे-गाँवे।
धरती माँगत घूमत बाड़े बूढ़ बिनावा भावे।
जे ना सहल घाम, बरखा-आ-माघ-पूस के पाला,
जेकर हर-हेंगा ना कवहूँ बाबें-दहिन बुझाला,
जेकर धी-पतोह ना जाने कइसे धान रोपाला,
धनि रे न्याय! इहाँ धरती के मालिक उहे कहाला,
जुग-जुग के दुखिया किसान के बाजिब हक दियबावे।
धरती माँगत घूमत बाड़े बूढ़ बिनोवा भावे।
एने सुबहित सतुआ दूलम, ओने उड़े मलाई,
एने सपना फटही कामरि, ओने गरम रजाई,
बाबू कहते जनम सिराइल, बाबू कूर-कसाई,
फाटऽ धरती! इहाँ अबरुआ के मेहरि भउजाई,
धन के मेटि गुमान, बरोबर एक समान बनावे।
धरती माँगत घूमत बाड़े बूढ़ बिनोवा भावे।
तेलँगाना खीसी काँपे, दिल्ली देले झाँसा,
एने लाख-करोड़ों अदिमी बाड़े परल बेकासा,
जल्दी जो फाँसिला ना होई, लागी बड़ा तमासा,
छहसत बा, लाठी-भाला-गँड़ास के लवटी पासा,
आपुस के फुटमत से घर के लँकाकाँड बचावे।
धरती माँगत घूमत बाड़े बूढ़ बिनोवा भावे।