"सुधि के मेघ / यतींद्रनाथ राही" के अवतरणों में अंतर
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− | + | वे मादक कोमल ऊष्माएँ | |
− | + | ओस नहायी | |
− | + | किरन कुनकुनी | |
− | + | छुए अंग अलसाए। | |
− | + | अँधियारों में कभी लिखी थी | |
− | + | जो उजियारी प्रणय कथाएँ | |
− | + | भरी दुपहरी बाँचा करती | |
+ | थीं उनको चन्दनी हवाएँ | ||
+ | हरित कछारों में | ||
+ | दिन हिरना | ||
+ | जाने कहों कहाँ भरमाए। | ||
− | + | संस्पर्शों के मौन स्वरों में | |
− | में | + | कितने वाद्य निनाद ध्वनित थे |
− | + | किसी अजाने स्वर्गलोक के | |
− | + | रस के अमृत कलश स्रवित थे | |
− | + | प्राण-प्राण पुलकित | |
− | + | अधरों ने | |
− | + | जब अपने | |
− | + | मधुकोश लुटाए। | |
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− | + | बाँध नहीं पाते शब्दों में | |
− | + | पल-पल पुलकित | |
− | + | वे पावनक्शण | |
− | + | बूँद-बूँद में प्राप्त तृप्ति-सुख | |
− | + | साँस-साँस में अर्पण-अर्पण | |
− | + | उल्लासों के वे मृग-छौने | |
− | + | नहीं लौटकर फिर घर आए। | |
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11:59, 12 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण
रहे सींचते, ऊसर बंजर
हरियाली के दरस न पाए
आज
अषाढ़ी अहसासों पर
सुधि के
सघन मेघ घिर छाए।
रातों को छोटा कर देती
थी लम्बी पगली वार्ताएं
और शीत की ठिठुरन वाली
वे मादक कोमल ऊष्माएँ
ओस नहायी
किरन कुनकुनी
छुए अंग अलसाए।
अँधियारों में कभी लिखी थी
जो उजियारी प्रणय कथाएँ
भरी दुपहरी बाँचा करती
थीं उनको चन्दनी हवाएँ
हरित कछारों में
दिन हिरना
जाने कहों कहाँ भरमाए।
संस्पर्शों के मौन स्वरों में
कितने वाद्य निनाद ध्वनित थे
किसी अजाने स्वर्गलोक के
रस के अमृत कलश स्रवित थे
प्राण-प्राण पुलकित
अधरों ने
जब अपने
मधुकोश लुटाए।
बाँध नहीं पाते शब्दों में
पल-पल पुलकित
वे पावनक्शण
बूँद-बूँद में प्राप्त तृप्ति-सुख
साँस-साँस में अर्पण-अर्पण
उल्लासों के वे मृग-छौने
नहीं लौटकर फिर घर आए।