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"कैसा प्रहार है / यतींद्रनाथ राही" के अवतरणों में अंतर

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कसमसाती मुट्ठियाँ हैं
+
लग रहा बीमार सूरज
तिलमिलाते हैं षिखर
+
भोर का
पूछते, हिमनद पिघलते हैं
+
कैसा प्रहर है?
कहो!
+
हम क्या करें?
+
  
छोड़ दें ये आदतें
+
मौन तुम हो
छिद्रान्वेशण की ग़लत
+
मौन हम हैं
इन अँधेरों में कहीं पर
+
मौन साधे हैं हवाएँ
रोशनी तो है
+
और ये
जल रहा है एक जुगनू
+
दहशत भरी सी
जो निरन्तर रात भर
+
मौन हैं गुमसुम दिषाएँ
हौसलों के साथ कुछ
+
कौन बोले
दीवानगी तो है।
+
कौन सुनता है
जो धरे हैं देश के हित
+
किसी को अब यहाँ पर
सिर हथेली पर अडिग
+
तुमुल-ध्वनि-कोलाहलों में
पंथ इनके
+
शब्द की सीमा कहाँ पर?
स्वस्ति वाचन
+
धूल में बारूद बिखरी
दीप मंगल के धरे।
+
और
 +
पानी में ज़हर है!
  
रोटियाँ सेकें नहीं
+
आदमी पत्थर हुआ है
यह यज्ञ पावन है
+
याकि केवल यन्त्र है वह
बन सकें
+
हो गया संवेदना से शून्य
समिधा बनें
+
सारा तन्त्र है यह
अक्शत बने, चन्दन बने
+
प्यार-ममता-नेह-नाते
ज्योति के इस प्रज्ज्वलन के
+
खो गए जाने कहाँ सब
याज्ञनिक हैं हम
+
नफरतों के बीज कोई
आहुती के घृत बनें
+
बो गया आकर यहाँ कब?
अर्पण बनें, अर्चन बनें।
+
कौन अपना है पराया
हो विमुग्धित गन्ध मण्डित
+
यह
मन्त्र-गुंजित युगधरा
+
मुखौटों का शहर है।
चिन्तनों में फिर किसी
+
नव ज्योति के
+
निर्झर झरें।
+
  
स्वर हमारे
+
सिर पटकती है अहल्या
तन्त्र प्राणों के
+
राम जाने है कहाँ पर
समर्पित हैं
+
हर पुरुश में छद्म-वेषी
ये उभरते ज्वार सारे बन्ध तोड़ेंगे
+
इन्द्र ही दिखता यहाँ पर
उठ रहे हैं हरदिषा रणभेरियों के स्वर
+
का पुरुष गौतम
अब किसी दशकन्ध की
+
खड़ा है
लंका न छोड़ेंगे
+
शाप का पाखण्ड धारे
धर्म की संस्थापना-हित
+
है कोई
मन्त्रणाएँ हों विफल
+
देवत्व के
तब उचित है
+
कुत्सित मुखौटों को उघारे
शस्त्र की
+
राजपथ भयभीत से
संसाधना को ही वरें।
+
दुष्कर्म पीड़ित
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हर डगर है।
 +
 
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द्रोपदी शकुन्तला हो
 +
या, स्वयं हो जानकी ही
 +
क्यों सदा नारी रही है
 +
पात्र हर अपमान की ही
 +
मौन के इस षून्य पट पर
 +
दहकते हैं प्रश्न कितने
 +
धर सकें
 +
उत्तर इन्हें हम
 +
शब्द ही हैं कहाँ इतने?
 +
है अलामत ज्वार की
 +
तुम समझ बैठे हो
 +
लहर है।
 
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15:40, 12 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

लग रहा बीमार सूरज
भोर का
कैसा प्रहर है?

मौन तुम हो
मौन हम हैं
मौन साधे हैं हवाएँ
और ये
दहशत भरी सी
मौन हैं गुमसुम दिषाएँ
कौन बोले
कौन सुनता है
किसी को अब यहाँ पर
तुमुल-ध्वनि-कोलाहलों में
शब्द की सीमा कहाँ पर?
धूल में बारूद बिखरी
और
पानी में ज़हर है!

आदमी पत्थर हुआ है
याकि केवल यन्त्र है वह
हो गया संवेदना से शून्य
सारा तन्त्र है यह
प्यार-ममता-नेह-नाते
खो गए जाने कहाँ सब
नफरतों के बीज कोई
बो गया आकर यहाँ कब?
कौन अपना है पराया
यह
मुखौटों का शहर है।

सिर पटकती है अहल्या
राम जाने है कहाँ पर
हर पुरुश में छद्म-वेषी
इन्द्र ही दिखता यहाँ पर
का पुरुष गौतम
खड़ा है
शाप का पाखण्ड धारे
है कोई
देवत्व के
कुत्सित मुखौटों को उघारे
राजपथ भयभीत से
दुष्कर्म पीड़ित
हर डगर है।

द्रोपदी शकुन्तला हो
या, स्वयं हो जानकी ही
क्यों सदा नारी रही है
पात्र हर अपमान की ही
मौन के इस षून्य पट पर
दहकते हैं प्रश्न कितने
धर सकें
उत्तर इन्हें हम
शब्द ही हैं कहाँ इतने?
है अलामत ज्वार की
तुम समझ बैठे हो
लहर है।