"द्वितीय अध्याय / प्रथम वल्ली / भाग १ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
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+ | पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भू- <br> | ||
+ | स्तस्मात्पराङ्पश्यति नान्तरात्मन् ।<br> | ||
+ | कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्ष- <br> | ||
+ | दावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ॥ १ ॥<br><br> | ||
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+ | पराचः कामाननुयन्ति बाला- <br> | ||
+ | स्ते मृत्योर्यन्ति विततस्य पाशम् ।<br> | ||
+ | अथ धीरा अमृतत्वं विदित्वा<br> | ||
+ | ध्रुवमध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते ॥ २ ॥<br><br> | ||
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+ | येन रूपं रसं गन्धं शब्दान् स्पर्शाँश्च मैथुनान् ।<br> | ||
+ | एतेनैव विजानाति किमत्र परिशिष्यते ।<br> | ||
+ | एतद्वै तत् ॥ ३ ॥<br><br> | ||
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+ | स्वप्नान्तं जागरितान्तं चोभौ येनानुपश्यति ।<br> | ||
+ | महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ॥ ४ ॥<br><br> | ||
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+ | य इमं मध्वदं वेद आत्मानं जीवमन्तिकात् ।<br> | ||
+ | ईशानं भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते ।<br> | ||
+ | एतद्वै तत् ॥ ५ ॥<br><br> | ||
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+ | यः पूर्वं तपसो जातमद्भ्यः पूर्वमजायत ।<br> | ||
+ | गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तं यो भूतेभिर्व्यपश्यत ।<br> | ||
+ | एतद्वै तत् ॥ ६ ॥<br><br> | ||
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+ | या प्राणेन संभवत्यदितिर्देवतामयी ।<br> | ||
+ | गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तीं या भूतेभिर्व्यजायत ।<br> | ||
+ | एतद्वै तत् ॥ ७ ॥<br><br> | ||
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पंक्ति 79: | पंक्ति 101: | ||
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+ | अरण्योर्निहितो जातवेदा गर्भ इव सुभृतो गर्भिणीभिः ।<br> | ||
+ | दिवे दिवे ईड्यो जागृवद्भिर्हविष्मद्भिर्मनुष्येभिरग्निः ।<br> | ||
+ | एतद्वै तत् ॥ ८ ॥<br><br> | ||
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पंक्ति 89: | पंक्ति 114: | ||
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+ | यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं यत्र च गच्छति ।<br> | ||
+ | तं देवाः सर्वेऽर्पितास्तदु नात्येति कश्चन ।<br> | ||
+ | एतद्वै तत् ॥ ९ ॥<br><br> | ||
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पंक्ति 99: | पंक्ति 127: | ||
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+ | यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह ।<br> | ||
+ | मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ॥ १० ॥<br><br> | ||
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22:17, 5 जुलाई 2008 का अवतरण
पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भू-
स्तस्मात्पराङ्पश्यति नान्तरात्मन् ।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्ष-
दावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ॥ १ ॥
इन्द्रियों की बहिर्मुख वृति, बाह्य जग ही दृश्य है,
यही आत्म भू अखिलेश की, रचना स्वयम अदृश्य है।
कभी कोई कतिपय धीर ज्ञानी, ही परम पड़ चाहते,
इस अनृत जग से विमुख होकर, सत्य को पहचानते॥ [ १ ]
पराचः कामाननुयन्ति बाला-
स्ते मृत्योर्यन्ति विततस्य पाशम् ।
अथ धीरा अमृतत्वं विदित्वा
ध्रुवमध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते ॥ २ ॥
- बाह्य भोगों का अनुसरण तो, मूर्ख ही केवल करें,
- वे विविध योनी मृत्यु बन्धन, मैं पर पड़ें और न तरें।
- अति धीर ज्ञानी ही सुमति से, ध्रुव अमर पद जानते,
- परमार्थ साधन मैं लगे, ऋत तत्व को पहचानते॥ [ २ ]
- बाह्य भोगों का अनुसरण तो, मूर्ख ही केवल करें,
येन रूपं रसं गन्धं शब्दान् स्पर्शाँश्च मैथुनान् ।
एतेनैव विजानाति किमत्र परिशिष्यते ।
एतद्वै तत् ॥ ३ ॥
सब शब्द, रस, स्पर्श, मैथुन, गंध रूप की इन्द्रियां,
हैं प्रभु अनुग्रह से सुलभ मानव को सब ज्ञानेन्द्रियों।
नचिकेता प्रिय उसकी दया से ही विदित संसार मैं,
क्या शेष क्षण भंगुर रहा, क्षय क्षणिक जग व्यापार में॥ [ ३ ]
स्वप्नान्तं जागरितान्तं चोभौ येनानुपश्यति ।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ॥ ४ ॥
- स्वप्न और जागृत अवस्था की ज्ञान अनुभव चेतना,
- परमेश प्रभु की ही कृपा से मिली है संवेदना।
- जो सर्वव्यापी श्रेष्ठतम परमात्मा को जानते,
- दुःख शोक किंचित किसी कारण भी न उनको व्यापते॥ [ ४ ]
- स्वप्न और जागृत अवस्था की ज्ञान अनुभव चेतना,
य इमं मध्वदं वेद आत्मानं जीवमन्तिकात् ।
ईशानं भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते ।
एतद्वै तत् ॥ ५ ॥
जिन्हें कर्म फल जीवन प्रदाता का सदा आभास है,
उन्हे वर्तमान भविष्य भूत का स्वामी प्रभु अति पास है।
सबके हृदय स्थित प्रभो का तत्व ज्ञानी ही जानते,
कटु, घृणा, निंदा द्वेष, शून्य हो ब्रह्म को इव मानते॥ [ ५ ]
यः पूर्वं तपसो जातमद्भ्यः पूर्वमजायत ।
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तं यो भूतेभिर्व्यपश्यत ।
एतद्वै तत् ॥ ६ ॥
- प्रगट जल से पूर्व ब्रह्म जो,हिरण्यगर्भ के रूप में,
- है आत्म भू अखिलेश तप से , प्रगट रूप अरूप में।
- ऋत सर्व अंतर्यामी प्रभुवर, एकमेव ही ज्ञात है,
- हृदय रूपी गुफा में, जीवों के प्रभुवर व्याप्त है॥ [ ६ ]
- प्रगट जल से पूर्व ब्रह्म जो,हिरण्यगर्भ के रूप में,
या प्राणेन संभवत्यदितिर्देवतामयी ।
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तीं या भूतेभिर्व्यजायत ।
एतद्वै तत् ॥ ७ ॥
प्राणों सहित जो देवता मयी, अदिति शुचि निष्पन्न है,
सब प्राणियों में निहित हिय की गुफा में आसन्न है।
वह भगवती आद्यंत अद्भुत शक्ति, प्रभु से अभिन्न है,
नचिकेता प्रिय पूछा जो तुमने, यही प्रभुवर धन्य हैं॥ [ ७ ]
अरण्योर्निहितो जातवेदा गर्भ इव सुभृतो गर्भिणीभिः ।
दिवे दिवे ईड्यो जागृवद्भिर्हविष्मद्भिर्मनुष्येभिरग्निः ।
एतद्वै तत् ॥ ८ ॥
- ज्यों गर्भिणी के गर्भ में बालक छिपा है,निहित है,
- त्यों दो अरिनियों के मध्य, अग्नि तत्व इव सन्निहित है।
- हवनीय द्रव्यों से याज्ञिक, करें नित्य जिनकी वंदना,
- वे ही नचिकेता तुम्हारे प्रश्न ब्रह्म की व्यंजना॥ [ ८ ]
- ज्यों गर्भिणी के गर्भ में बालक छिपा है,निहित है,
यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं यत्र च गच्छति ।
तं देवाः सर्वेऽर्पितास्तदु नात्येति कश्चन ।
एतद्वै तत् ॥ ९ ॥
दिनकर जहाँ से उदित होते,अस्त होते हैं जहाँ,
सब देवता अर्पित उसी में,लीं होते हैं वहाँ।
हैं अलंघनीय विधान उसके, भेद उसके अगम्य हैं,
नचिकेता प्रिय ये ही तुम्हारे प्रश्न विषयक ब्रह्म हैं॥ [ ९ ]
यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह ।
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ॥ १० ॥
- परब्रह्म जो भूलोक में,दिवि लोक में भी है वही,
- जो है वहाँ वह ही यहाँ, अनु एक भी प्रभु बिन नहीं।
- जो मोह्वश नानात्व की परिकल्पना में भ्रमित हैं,
- वे जन्म मृत्यु के चक्र में,अगणित युगों तक ग्रसित हैं॥ [ १० ]
- परब्रह्म जो भूलोक में,दिवि लोक में भी है वही,