भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"गफ़लत में वक़्त अपना न खो होशियार हो / वली दक्कनी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वली दक्कनी }} Category:ग़ज़ल गफ़लत में वक़्त अपना न खो होशि...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
01:38, 28 जून 2008 के समय का अवतरण
गफ़लत में वक़्त अपना न खो होशियार हो, होशियार हो
कब लग रहेगा ख़्वाब में, बेदार हो, बेदार हो
गर देखना है मुद्दआ उस शाहिद—ए—मआनी का रू
ज़ाहिर परस्ताँ सूँ सदा,बेज़ार हो, बेज़ार हो
ज्यों छ्तर दाग़—ए—इश्क़ कूँ रख सर पर अपने अव्वलाँ
तब फ़ौज—ए—अहल—ए—दर्द का सरदार हो, सरदार हो
वो नौ बहार—ए—आशिक़ाँ, है ज्यूँ सहर जग में अयाँ
अय दीदा वक़्त—ए—ख़्वाब नईं बेदार हो, बेदार हो
मतला का मिसरा अय वली, विर्द—ए—ज़बाँ कर रात —दिन
गफ़लत में वक़्त अपना न खो, होशियार हो, होशियार हो