भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कजली / 44 / प्रेमघन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

13:13, 21 मई 2018 के समय का अवतरण

झूले की कजली

कालिन्दी के कूल कलित कुंजनि कदंब मैं आली रामा।
हरि हरि झूलनि की झूलनि क्या प्यारी-प्यारी रे हरी॥
चमकि रही चंचला चपल, चहुँ ओर गगन छबि छाई रामा।
हरि हरि सघन घटा घन घेरी कारी-कारी रे हरी॥
प्यारी झूलैं पिया झूलावैं गावैं सुख सरसावैं रामा।
हरि हरि संग वारी सब सखियाँ बारी-बारी रे हरी॥
लचनि लंक की संक लली लहि बंक भौंह करि भाखैं रामा।
हरि हरि "बस कर झूलन सों मैं हारी हारी" रे हरी॥
बरसत रस मिलि जुगल प्रेमघन हरसत हिय अनुरागैं रामा।
हरि हरि टरै न छबि अँखियनि तैं टारी रे हरी॥80॥