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"जंगल की याद मुझे मत दिलाओ / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना" के अवतरणों में अंतर

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अब उन कुल्हाड़ियों की याद रह गयी है
 
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लकड़ी की तरह अब मैं जल रहा हूँ
 
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बिना यह जाने कि जो हाँडी चढ़ी है
 
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उसकी खुदबुद झूठी है
 
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या उससे किसी का पेट भरेगा
 
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आत्मा तृप्त होगी,
 
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बिना यह जाने
 
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कि जो चेहरे मेरे सामने हैं
 
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वे मेरी आँच से
 
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तमतमा रहे हैं
 
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या गुस्से से,
 
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वे मुझे उठा कर् चल पड़ेंगे
 
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झरती पत्तियाँ हैं
 
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जिनसे अब भी मैं चूम लेना चाहता हूँ
 
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इस धरती को
 
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जिसमें मेरी जड़ें थीं!</poem>
जिसमें मेरी जड़ें थीं!
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12:46, 15 सितम्बर 2018 के समय का अवतरण

कुछ धुआँ
कुछ लपटें
कुछ कोयले
कुछ राख छोड़ता
चूल्हे में लकड़ी की तरह मैं जल रहा हूँ,
मुझे जंगल की याद मत दिलाओ!

हरे-भरे जंगल की
जिसमें मैं सम्पूर्ण खड़ा था
चिड़ियाँ मुझ पर बैठ चहचहाती थीं
धामिन मुझ से लिपटी रहती थी
और गुलदार उछलकर मुझ पर बैठ जाता था.
जँगल की याद
अब उन कुल्हाड़ियों की याद रह गयी है
जो मुझ पर चली थीं
उन आरों की जिन्होंने
मेरे टुकड़े-टुकड़े किये थे
मेरी सम्पूर्णता मुझसे छीन ली थी !

चूल्हे में
लकड़ी की तरह अब मैं जल रहा हूँ
बिना यह जाने कि जो हाँडी चढ़ी है
उसकी खुदबुद झूठी है
या उससे किसी का पेट भरेगा
आत्मा तृप्त होगी,
बिना यह जाने
कि जो चेहरे मेरे सामने हैं
वे मेरी आँच से
तमतमा रहे हैं
या गुस्से से,
वे मुझे उठा कर् चल पड़ेंगे
या मुझ पर पानी डाल सो जायेंगे.
मुझे जंगल की याद मत दिलाओ!
एक-एक चिनगारी
झरती पत्तियाँ हैं
जिनसे अब भी मैं चूम लेना चाहता हूँ
इस धरती को
जिसमें मेरी जड़ें थीं!