भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कहां पे कौन सी शय है नहीं ये अंदाज़ा / मेहर गेरा" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मेहर गेरा |अनुवादक= |संग्रह=लम्हो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
08:43, 29 सितम्बर 2018 के समय का अवतरण
कहां पे कौन सी शय है नहीं ये अंदाज़ा
बिख़र चुका है मेरी ज़िन्दगी का शीराज़ा
खुला खुला सा है मेरे मकान का माहौल
न कोई छत है न खिड़की न कोई दरवाज़ा
पुराने घाव का अहसास ही नहीं था कम
कि दे दिया है ज़माने ने ज़ख़्म फिर ताज़ा।