भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रुत बदलते ही हर इक सू मौजिज़े होने लगे / मेहर गेरा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मेहर गेरा |अनुवादक= |संग्रह=लम्हो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

09:10, 29 सितम्बर 2018 के समय का अवतरण

 
रुत बदलते ही हर इक सू मौजिज़े होने लगे
पेड़ थे जितने भी सूखे सब हरे होने लगे

सोचता हूँ चल पडूँ अब उन जंज़ीरों की तरफ
जिनकी दिल-आवेज़ियों के तज़किरे होने लगे

ये सफ़र में आ गया कैसा मुकामे-इंतशार
लोग क्यों इक दूसरे से दूर अब होने लगे

भूलकर सब कुछ समेटे क्यों न हम लम्हों का लम्स
ये भी क्या मिलते ही फिर शिक्वे गिले होने लगे।