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"यहाँ खतरे में सब की आबरू है / अजय अज्ञात" के अवतरणों में अंतर

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11:17, 29 सितम्बर 2018 के समय का अवतरण

 
यहाँ खतरे में सब की आबरू है
फ़ज़ा जाने ये कैसी चारसू है

समय के वेग से आगे निकल कर
ख़बर बनने की सब की आर्ज़़ू है

जिसे तुम ढूड़ते हो मंदिरों में
मिला मुझ को वो माँ में हूबहू है

पिता के रूप में मुझ से क़सम से
मसीहा रोज़ होता रूबरू है

किसे छू कर चली आईं हवाएँ
फ़ज़ा भी हो गई अब मुश्कबू है