"मुझे पुकारती हुई पुकार / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर
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+ | <poem> | ||
+ | मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीँ... | ||
+ | प्रलम्बिता अंगार रेख-सा खिंचा | ||
+ | अपार चर्म | ||
+ | वक्ष प्राण का | ||
+ | पुकार खो गई कहीं बिखेर अस्थि के समूह | ||
+ | जीवनानुभूति की गभीर भूमि में। | ||
+ | अपुष्प-पत्र, वक्र-श्याम झाड़-झंखड़ों-घिरे असंख्य ढूह | ||
+ | भग्न निश्चयों-रुंधे विचार-स्पप्न-भाव के | ||
+ | मुझे दिखे | ||
+ | अपूर्त सत्य की क्षुधित | ||
+ | अपूर्ण यत्न की तृषित | ||
+ | अपूर्त जीवनानुभूति-प्राणमूर्ति की समस्त भग्नता दिखी | ||
+ | (कराह भर उठा प्रसार प्राण का अजब) | ||
+ | समस्त भग्नता दिखी | ||
+ | कि ज्यों विरक्त प्रान्त में | ||
+ | उदास-से किसी नगर | ||
+ | सटर-पटर | ||
+ | मलीन, त्यक्त, ज़ंग-लगे कठोर ढेर-- | ||
+ | भग्न वस्तु के समूह | ||
+ | चिलचिल रहे प्रचण्ड धूप में उजाड़... | ||
+ | दिख गए कठोर स्याह | ||
+ | (घोर धूप में) पहाड़ | ||
+ | कठिन-सत्त्व भावना नपुंसका असंज्ञ के | ||
+ | मुझे दिखी विराट् शून्यता अशान्त काँपती | ||
+ | कि इस उजाड़ प्रान्त के प्रसार में रही चमक। | ||
+ | रहा चमक प्रसार... | ||
+ | फाड़ श्याम-मृत्तिका-स्तरावरण उठे सकोण | ||
+ | प्रस्तरी प्रतप्त अंग यत्र-तत्र-सर्वतः | ||
+ | कि ज्यों ढँकी वसुन्धरा-शरीर की समस्त अस्थियाँ खुलीं | ||
+ | रहीं चमक कि चिलचिला रही वहाँ | ||
+ | अचेत सूर्य की सफ़ेद औ' उजाड़ धूप में। | ||
+ | समीरहीन ख़ैबरी | ||
+ | अशान्त घाटियों गई असंग राह | ||
+ | शुष्क पार्वतीय भूमि के उतार औ' उठान की निरर्थ | ||
+ | उच्चता निहारती चली वितृष्ण दृष्टि से | ||
+ | (कि व्यर्थ उच्चता बधिर असंज्ञ यह) | ||
+ | उजाड़ विश्व की कि प्राण की | ||
+ | इसी उदास भूमि में अचक जगा | ||
+ | मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीं। | ||
− | + | दरार पड़ गई तुरत गभीर-दीर्घ | |
− | + | प्राण की गहन धरा प्रतप्त के | |
− | + | अनीर श्याम मृत्तिका शरीर में। | |
− | + | कि भाव स्वप्न-भार में | |
− | + | पुकार के अधीर व्यग्र स्पर्श से बिलख उठे | |
− | + | तिमिर-विविर में पड़ी अशान्त नागिनी-- | |
− | + | छिपी हुई तृषा | |
− | + | अपूर्त स्वप्न-लालसा | |
− | + | तुरत दिखी | |
− | + | कि भूल-चूक धवंसिनी अवावृता हुई। | |
− | + | पुकार ने समस्त खोल दी छिपी प्रवंचना | |
− | + | कहा कि शुष्क है अथाह यह कुआँ | |
− | + | कि अन्धकार-अन्तराल में लगे | |
− | + | महीन श्याम जाल | |
− | + | घृण्य कीट जो कि जोड़ते दीवाल को दीवाल से | |
− | + | व अन्तराल को तला | |
− | + | अमानवी कठोर ईंट-पत्थरों से भरा हुआ | |
− | + | न नीर है, न पीर है, मलीन है | |
− | + | सदा विशून्य शुष्क ही कुआँ रहा। | |
− | + | ||
− | + | विराट् झूठ के अनन्त छन्द-सी | |
− | + | भयावनी अशान्त पीत धुन्ध-सी | |
− | + | सदा अगेय | |
− | + | गोपनीय द्वन्द्व-सी असंग जो अपूर्त स्वप्न-लालसा | |
− | + | प्रवेग में उड़े सुतिक्ष्ण बाण पर | |
− | + | अलक्ष्य भार-सी वृथा | |
− | + | जगा रही विरूप चित्र हार का | |
− | + | सधे हुए निजत्व की अभद्र रौद्र हार-सी। | |
− | + | मैं उदास हाथ में | |
− | + | हार की प्रत्प्त रेत मल रहा | |
− | + | निहारता हुआ प्रचण्ड उष्ण गोल दूर के क्षितिज। | |
− | + | ||
− | + | शून्य कक्ष की उदास | |
− | + | श्वासहीन, पीत-वायु शान्ति में | |
− | + | दिवाल पर | |
− | + | सचेष्ट छिपकली | |
− | + | अजान शब्द-शब्द ज्यों करे | |
− | + | कि यों अपार भाव स्वप्न-भार ये | |
− | + | प्रशान्ति गाढ़ में | |
− | दरार पड़ गई तुरत गभीर-दीर्घ | + | प्रशान्ति गाढ़ से |
− | प्राण की गहन धरा प्रतप्त के | + | प्रगाढ़ हो |
− | अनीर श्याम मृत्तिका शरीर में। | + | समस्त प्राण की कथा बखानते |
− | कि भाव स्वप्न-भार में | + | अधीर यन्त्र-वेग से अजीब एकरूप-तान |
− | पुकार के अधीर व्यग्र स्पर्श से बिलख उठे | + | शब्द, शब्द, शब्द में। |
− | तिमिर-विविर में पड़ी अशान्त नागिनी-- | + | |
− | छिपी हुई तृषा | + | मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीं... |
− | अपूर्त स्वप्न-लालसा | + | आज भी नवीन प्रेरणा यहाँ न मर सकी, |
− | तुरत दिखी | + | न जी सकी, परन्तु वह न डर सकी। |
− | कि भूल-चूक धवंसिनी अवावृता हुई। | + | घनान्धकार के कठोर वक्ष |
− | पुकार ने समस्त खोल दी छिपी प्रवंचना | + | दंश-चिह्न-से |
− | कहा कि शुष्क है अथाह यह कुआँ | + | गभीर लाल बिम्ब प्राण-ज्योति के |
− | कि अन्धकार-अन्तराल में लगे | + | गभीर लाल इन्दु-से |
− | महीन श्याम जाल | + | सगर्व भीम शान्ति में उठे अयास मुसकरा |
− | घृण्य कीट जो कि जोड़ते दीवाल को दीवाल से | + | घनान्धकार के भुजंग-बन्ध दीर्घ साँवरे |
− | व अन्तराल को तला | + | विनष्ट हो गए |
− | अमानवी कठोर ईंट-पत्थरों से भरा हुआ | + | प्रबुद्ध ज्वाल में हताश हो। |
− | न नीर है, न पीर है, मलीन है | + | विशाल भव्य वक्ष से |
− | सदा विशून्य शुष्क ही कुआँ रहा। | + | बही अनन्त स्नेह की महान् कृतिमयी व्यथा |
− | विराट् झूठ के अनन्त छन्द-सी | + | बही अशान्त प्राण से महान् मानवी कथा। |
− | भयावनी अशान्त पीत धुन्ध-सी | + | किसी उजाड़ प्रान्त के |
− | सदा अगेय | + | विशाल रिक्त-गर्भ गुम्बजों-घिरे |
− | गोपनीय द्वन्द्व-सी असंग जो अपूर्त स्वप्न-लालसा | + | विहंग जो |
− | प्रवेग में उड़े सुतिक्ष्ण बाण पर | + | अधीर पंख फड़फड़ा दिवाल पर |
− | अलक्ष्य भार-सी वृथा | + | सहायहीन, बद्ध-देह, बद्ध-प्राण |
− | जगा रही विरूप चित्र हार का | + | हारकर न हारते |
− | सधे हुए निजत्व की अभद्र रौद्र हार-सी। | + | अरे, नवीन मार्ग पा खुला हुआ |
− | मैं उदास हाथ में | + | तुरन्त उड़ गए सुनील व्योम में अधीर हो। |
− | हार की प्रत्प्त रेत मल रहा | + | मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई वहीं |
− | निहारता हुआ प्रचण्ड उष्ण गोल दूर के क्षितिज। | + | सँवारती हुई मुझे |
− | शून्य कक्ष की उदास | + | उठी सहास प्रेरणा। |
− | श्वासहीन, पीत-वायु शान्ति में | + | प्रभात भैरवी जगी अभी-अभी।</poem> |
− | दिवाल पर | + | |
− | सचेष्ट छिपकली | + | |
− | अजान शब्द-शब्द ज्यों करे | + | |
− | कि यों अपार भाव स्वप्न-भार ये | + | |
− | प्रशान्ति गाढ़ में | + | |
− | प्रशान्ति गाढ़ से | + | |
− | प्रगाढ़ हो | + | |
− | समस्त प्राण की कथा बखानते | + | |
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− | मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीं... | + | |
− | आज भी नवीन प्रेरणा यहाँ न मर सकी, | + | |
− | न जी सकी, परन्तु वह न डर सकी। | + | |
− | घनान्धकार के कठोर वक्ष | + | |
− | दंश-चिह्न-से | + | |
− | गभीर लाल बिम्ब प्राण-ज्योति के | + | |
− | गभीर लाल इन्दु-से | + | |
− | सगर्व भीम शान्ति में उठे अयास मुसकरा | + | |
− | घनान्धकार के भुजंग-बन्ध दीर्घ साँवरे | + | |
− | विनष्ट हो गए | + | |
− | प्रबुद्ध ज्वाल में हताश हो। | + | |
− | विशाल भव्य वक्ष से | + | |
− | बही अनन्त स्नेह की महान् कृतिमयी व्यथा | + | |
− | बही अशान्त प्राण से महान् मानवी कथा। | + | |
− | किसी उजाड़ प्रान्त के | + | |
− | विशाल रिक्त-गर्भ गुम्बजों-घिरे | + | |
− | विहंग जो | + | |
− | अधीर पंख फड़फड़ा दिवाल पर | + | |
− | सहायहीन, बद्ध-देह, बद्ध-प्राण | + | |
− | हारकर न हारते | + | |
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− | तुरन्त उड़ गए सुनील व्योम में | + | |
− | मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई वहीं | + | |
− | सँवारती हुई मुझे | + | |
− | उठी सहास प्रेरणा। | + | |
− | प्रभात भैरवी जगी अभी-अभी।< | + |
15:25, 19 दिसम्बर 2018 के समय का अवतरण
मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीँ...
प्रलम्बिता अंगार रेख-सा खिंचा
अपार चर्म
वक्ष प्राण का
पुकार खो गई कहीं बिखेर अस्थि के समूह
जीवनानुभूति की गभीर भूमि में।
अपुष्प-पत्र, वक्र-श्याम झाड़-झंखड़ों-घिरे असंख्य ढूह
भग्न निश्चयों-रुंधे विचार-स्पप्न-भाव के
मुझे दिखे
अपूर्त सत्य की क्षुधित
अपूर्ण यत्न की तृषित
अपूर्त जीवनानुभूति-प्राणमूर्ति की समस्त भग्नता दिखी
(कराह भर उठा प्रसार प्राण का अजब)
समस्त भग्नता दिखी
कि ज्यों विरक्त प्रान्त में
उदास-से किसी नगर
सटर-पटर
मलीन, त्यक्त, ज़ंग-लगे कठोर ढेर--
भग्न वस्तु के समूह
चिलचिल रहे प्रचण्ड धूप में उजाड़...
दिख गए कठोर स्याह
(घोर धूप में) पहाड़
कठिन-सत्त्व भावना नपुंसका असंज्ञ के
मुझे दिखी विराट् शून्यता अशान्त काँपती
कि इस उजाड़ प्रान्त के प्रसार में रही चमक।
रहा चमक प्रसार...
फाड़ श्याम-मृत्तिका-स्तरावरण उठे सकोण
प्रस्तरी प्रतप्त अंग यत्र-तत्र-सर्वतः
कि ज्यों ढँकी वसुन्धरा-शरीर की समस्त अस्थियाँ खुलीं
रहीं चमक कि चिलचिला रही वहाँ
अचेत सूर्य की सफ़ेद औ' उजाड़ धूप में।
समीरहीन ख़ैबरी
अशान्त घाटियों गई असंग राह
शुष्क पार्वतीय भूमि के उतार औ' उठान की निरर्थ
उच्चता निहारती चली वितृष्ण दृष्टि से
(कि व्यर्थ उच्चता बधिर असंज्ञ यह)
उजाड़ विश्व की कि प्राण की
इसी उदास भूमि में अचक जगा
मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीं।
दरार पड़ गई तुरत गभीर-दीर्घ
प्राण की गहन धरा प्रतप्त के
अनीर श्याम मृत्तिका शरीर में।
कि भाव स्वप्न-भार में
पुकार के अधीर व्यग्र स्पर्श से बिलख उठे
तिमिर-विविर में पड़ी अशान्त नागिनी--
छिपी हुई तृषा
अपूर्त स्वप्न-लालसा
तुरत दिखी
कि भूल-चूक धवंसिनी अवावृता हुई।
पुकार ने समस्त खोल दी छिपी प्रवंचना
कहा कि शुष्क है अथाह यह कुआँ
कि अन्धकार-अन्तराल में लगे
महीन श्याम जाल
घृण्य कीट जो कि जोड़ते दीवाल को दीवाल से
व अन्तराल को तला
अमानवी कठोर ईंट-पत्थरों से भरा हुआ
न नीर है, न पीर है, मलीन है
सदा विशून्य शुष्क ही कुआँ रहा।
विराट् झूठ के अनन्त छन्द-सी
भयावनी अशान्त पीत धुन्ध-सी
सदा अगेय
गोपनीय द्वन्द्व-सी असंग जो अपूर्त स्वप्न-लालसा
प्रवेग में उड़े सुतिक्ष्ण बाण पर
अलक्ष्य भार-सी वृथा
जगा रही विरूप चित्र हार का
सधे हुए निजत्व की अभद्र रौद्र हार-सी।
मैं उदास हाथ में
हार की प्रत्प्त रेत मल रहा
निहारता हुआ प्रचण्ड उष्ण गोल दूर के क्षितिज।
शून्य कक्ष की उदास
श्वासहीन, पीत-वायु शान्ति में
दिवाल पर
सचेष्ट छिपकली
अजान शब्द-शब्द ज्यों करे
कि यों अपार भाव स्वप्न-भार ये
प्रशान्ति गाढ़ में
प्रशान्ति गाढ़ से
प्रगाढ़ हो
समस्त प्राण की कथा बखानते
अधीर यन्त्र-वेग से अजीब एकरूप-तान
शब्द, शब्द, शब्द में।
मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीं...
आज भी नवीन प्रेरणा यहाँ न मर सकी,
न जी सकी, परन्तु वह न डर सकी।
घनान्धकार के कठोर वक्ष
दंश-चिह्न-से
गभीर लाल बिम्ब प्राण-ज्योति के
गभीर लाल इन्दु-से
सगर्व भीम शान्ति में उठे अयास मुसकरा
घनान्धकार के भुजंग-बन्ध दीर्घ साँवरे
विनष्ट हो गए
प्रबुद्ध ज्वाल में हताश हो।
विशाल भव्य वक्ष से
बही अनन्त स्नेह की महान् कृतिमयी व्यथा
बही अशान्त प्राण से महान् मानवी कथा।
किसी उजाड़ प्रान्त के
विशाल रिक्त-गर्भ गुम्बजों-घिरे
विहंग जो
अधीर पंख फड़फड़ा दिवाल पर
सहायहीन, बद्ध-देह, बद्ध-प्राण
हारकर न हारते
अरे, नवीन मार्ग पा खुला हुआ
तुरन्त उड़ गए सुनील व्योम में अधीर हो।
मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई वहीं
सँवारती हुई मुझे
उठी सहास प्रेरणा।
प्रभात भैरवी जगी अभी-अभी।