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"अपनी प्रेमिका से / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर

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इन हवाओं को यह पता नहीं है
 
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तुममें शीत का हिमालय है
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फूटा हूँ अनेक बार मैं,
 
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और मुझे उसकी जो ठण्डी!
 
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जो मुझे नीचे, तुम्हें उपर ले जाती है
 
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काश! इन हवाओं को यह सब पता होता।
 
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तुम जो चारों ओर
 
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बर्फ़ की ऊँचाइयाँ खड़ी किए बैठी हो
 
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(लीन... समाधिस्थ)  
 
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भ्रम में हो।
 
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अहम् है मुझमें भी
 
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चारों ओर मैं भी दीवारें उठा सकता हूँ
 
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और बर्फ़ पिघलेगी
 
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मैंने देखा है
 
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(तुमने भी अनुभव किया होगा)  
 
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मैदानों में बहते हुए उन शान्त निर्झरों को
 
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जो कभी बर्फ़ के बड़े-बड़े पर्वत थे
 
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लेकिन जिन्हें सूरज की गर्मी समतल पर ले आई.
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देखो ना!
 
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मुझमें ही डूबा था सूर्य कभी,
 
मुझमें ही डूबा था सूर्य कभी,
 
सूर्योदय मुझमें ही होना है,
 
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मेरी किरणों से भी बर्फ़ को पिघलना है,
 
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इसी लिए कहता हूँ-
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अकुलाती छाती से सट जाओ,
 
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क्योंकि हमें मिलना है।
 
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13:02, 15 मार्च 2019 के समय का अवतरण

मुझे स्वीकार हैं वे हवाएँ भी
जो तुम्हें शीत देतीं
और मुझे जलाती हैं
किन्तु
इन हवाओं को यह पता नहीं है
मुझमें ज्वालामुखी है
तुममें शीत का हिमालय है।

फूटा हूँ अनेक बार मैं,
पर तुम कभी नहीं पिघली हो,
अनेक अवसरों पर मेरी आकृतियाँ बदलीं
पर तुम्हारे माथे की शिकनें वैसी ही रहीं
तनी हुई.
तुम्हें ज़रूरत है उस हवा की
जो गर्म हो
और मुझे उसकी जो ठण्डी!

फिर भी मुझे स्वीकार है यह परिस्थिति
जो दुखाती है
फिर भी स्वागत है हर उस सीढ़ी का
जो मुझे नीचे, तुम्हें उपर ले जाती है
काश! इन हवाओं को यह सब पता होता।

तुम जो चारों ओर
बर्फ़ की ऊँचाइयाँ खड़ी किए बैठी हो
(लीन... समाधिस्थ)
भ्रम में हो।

अहम् है मुझमें भी
चारों ओर मैं भी दीवारें उठा सकता हूँ
लेकिन क्यों?
मुझे मालूम है
दीवारों को
मेरी आँच जा छुएगी कभी
और बर्फ़ पिघलेगी
पिघलेगी!

मैंने देखा है
(तुमने भी अनुभव किया होगा)
मैदानों में बहते हुए उन शान्त निर्झरों को
जो कभी बर्फ़ के बड़े-बड़े पर्वत थे
लेकिन जिन्हें सूरज की गर्मी समतल पर ले आई।

देखो ना!
मुझमें ही डूबा था सूर्य कभी,
सूर्योदय मुझमें ही होना है,
मेरी किरणों से भी बर्फ़ को पिघलना है,
इसीलिए कहता हूँ-
अकुलाती छाती से सट जाओ,
क्योंकि हमें मिलना है।