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"नयी-नयी पोशाक बदलकर / निदा फ़ाज़ली" के अवतरणों में अंतर

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शायद कुछ दिन और लगेंगे, ज़ख़्मे-दिल के भरने में,
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नयी-नयी पोशाक बदलकर, मौसम आते-जाते हैं,<br>
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चलती-फिरती धूप-छॉव से, चहरा बाद में बनता है,
फूल कहॉ जाते हैं जब भी जाते हैं लौट आते हैं।<br><br>
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शायद कुछ दिन और लगेंगे, ज़ख़्मे-दिल के भरने में,<br>
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आंखों देखी कहने वाले, पहले भी कम-कम ही थे,
जो अक्सर याद आते थे वो कभी-कभी याद आते हैं।<br><br>
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अब तो सब ही सुनी-सुनाई बातों को दोहराते हैं ।
  
चलती-फिरती धूप-छॉव से, चहरा बाद में बनता है,<br>
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पहले-पहले सभी ख़यालों से तस्वीर बनाते हैं।<br><br>
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कुछ रोते हैं, कुछ इस ग़म से अपनी ग़ज़ल सजाते हैं।
 
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आंखों देखी कहने वाले, पहले भी कम-कम ही थे,<br>
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अब तो सब ही सुनी-सुनाई बातों को दोहराते हैं ।<br><br>
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इस धरती पर आकर सबका, अपना कुछ खो जाता है,<br>
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कुछ रोते हैं, कुछ इस ग़म से अपनी ग़ज़ल सजाते हैं।<br><br>
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19:38, 13 अक्टूबर 2020 के समय का अवतरण

नयी-नयी पोशाक बदलकर, मौसम आते-जाते हैं,
फूल कहॉ जाते हैं जब भी जाते हैं लौट आते हैं।

शायद कुछ दिन और लगेंगे, ज़ख़्मे-दिल के भरने में,
जो अक्सर याद आते थे वो कभी-कभी याद आते हैं।

चलती-फिरती धूप-छॉव से, चहरा बाद में बनता है,
पहले-पहले सभी ख़यालों से तस्वीर बनाते हैं।

आंखों देखी कहने वाले, पहले भी कम-कम ही थे,
अब तो सब ही सुनी-सुनाई बातों को दोहराते हैं ।

इस धरती पर आकर सबका, अपना कुछ खो जाता है,
कुछ रोते हैं, कुछ इस ग़म से अपनी ग़ज़ल सजाते हैं।