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"कभी जो आया था पल भर को / जहीर कुरैशी" के अवतरणों में अंतर
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कभी जो आया था पल भर को 'उड़न—छू' बनकर | कभी जो आया था पल भर को 'उड़न—छू' बनकर | ||
− | + | आजतक मन में चमकता है वो जुगनू बनकर | |
− | आजतक मन में चमकता है वो जुगनू बनकर | + | |
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कंठ रुँधते ही, बदल जाता है भाषा का स्वरूप | कंठ रुँधते ही, बदल जाता है भाषा का स्वरूप | ||
+ | शब्द तब फूटते देखे गए आँसू बनकर | ||
− | + | ये प्रजातन्त्र की कुर्सी है उतारो उसको | |
− | + | वो जो आ बैठा है कुर्सी पे स्वयं—भू बनकर | |
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जो भी आता है, भँवर में ही फँसा जाता है | जो भी आता है, भँवर में ही फँसा जाता है | ||
− | + | ज़िन्दगी में कोई आता नहीं चप्पू बनकर | |
− | ज़िन्दगी में कोई आता नहीं चप्पू बनकर | + | |
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ये तो सच है कि किया पिंजरे से आज़ाद मुझे | ये तो सच है कि किया पिंजरे से आज़ाद मुझे | ||
− | + | किंतु 'पर' काट लिए उसने ही ,चाकू बनकर | |
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मैं कोई बैल नहीं हूँ कि जो जोता जाऊँ | मैं कोई बैल नहीं हूँ कि जो जोता जाऊँ | ||
− | + | मेरी गर्दन पे न लद पाओगे कोल्हू बनकर | |
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आज तक जिअने भी आशीष दिए हैं माँ ने | आज तक जिअने भी आशीष दिए हैं माँ ने | ||
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तन गए सिर पे सुरक्षाओं के तंबू बनकर | तन गए सिर पे सुरक्षाओं के तंबू बनकर | ||
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22:23, 21 अप्रैल 2021 के समय का अवतरण
कभी जो आया था पल भर को 'उड़न—छू' बनकर
आजतक मन में चमकता है वो जुगनू बनकर
कंठ रुँधते ही, बदल जाता है भाषा का स्वरूप
शब्द तब फूटते देखे गए आँसू बनकर
ये प्रजातन्त्र की कुर्सी है उतारो उसको
वो जो आ बैठा है कुर्सी पे स्वयं—भू बनकर
जो भी आता है, भँवर में ही फँसा जाता है
ज़िन्दगी में कोई आता नहीं चप्पू बनकर
ये तो सच है कि किया पिंजरे से आज़ाद मुझे
किंतु 'पर' काट लिए उसने ही ,चाकू बनकर
मैं कोई बैल नहीं हूँ कि जो जोता जाऊँ
मेरी गर्दन पे न लद पाओगे कोल्हू बनकर
आज तक जिअने भी आशीष दिए हैं माँ ने
तन गए सिर पे सुरक्षाओं के तंबू बनकर