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"पटकथा / पृष्ठ 5 / धूमिल" के अवतरणों में अंतर

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और सुनो! नफ़रत और रोशनी<br>
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और सुनो! नफ़रत और रोशनी
सिर्फ़ उनके हिस्से की चीज़ हैं<br>
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सिर्फ़ उनके हिस्से की चीज़ हैं
जिसे जंगल के हाशिये पर<br>
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जिसे जंगल के हाशिये पर
जीने की तमीज है<br>
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जीने की तमीज़ है
इसलिये उठो और अपने भीतर<br>
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इसलिये उठो और अपने भीतर
सोये हुए जंगल को<br>
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सोये हुए जंगल को
आवाज़ दो<br>
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आवाज़ दो
उसे जगाओ और देखो-<br>
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उसे जगाओ और देखो-
कि तुम अकेले नहीं हो<br>
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कि तुम अकेले नहीं हो
और न किसी के मुहताज हो<br>
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और न किसी के मुहताज हो
लाखों हैं जो तुम्हारे इन्तज़ार में खडे़ हैं<br>
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लाखों हैं जो तुम्हारे इन्तज़ार में खडे़ हैं
वहाँ चलो।उनका साथ दो<br>
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वहाँ चलो।
और इस तिलस्म का जादू उतारने में<br>
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उनका साथ दो
उनकी मदद करो और साबित करो<br>
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और इस तिलस्म का जादू उतारने में
कि वे सारी चीज़ें अन्धी हो गयीं हैं<br>
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उनकी मदद करो और साबित करो
जिनमें तुम शरीक नहीं हो…’<br>
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कि वे सारी चीज़ें अन्धी हो गयीं हैं
मैं पूरी तत्परता से उसे सुन रहा था<br>
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जिनमें तुम शरीक नहीं हो…’
एक के बाद दूसरा<br>
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मैं पूरी तत्परता से उसे सुन रहा था
दूसरे के बाद तीसरा<br>
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एक के बाद दूसरा
तीसरे के बाद चौथा<br>
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दूसरे के बाद तीसरा
चौथे के बाद पाँचवाँ…<br>
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तीसरे के बाद चौथा
यानी कि एक के बाद दूसरा विकल्प<br>
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चौथे के बाद पाँचवाँ…
चुन रहा था<br>
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यानी कि एक के बाद दूसरा विकल्प
मगर मैं हिचक रहा था<br>
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चुन रहा था
क्योंकि मेरे पास<br>
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मगर मैं हिचक रहा था
कुल जमा थोड़ी सुविधायें थीं<br>
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क्योंकि मेरे पास
जो मेरी सीमाएँ थीं<br>
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कुल जमा थोड़ी सुविधायें थीं
यद्यपि यह सही है कि मैं<br>
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जो मेरी सीमाएँ थीं
कोई ठण्डा आदमी नहीं है<br>
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यद्यपि यह सही है कि मैं
मुझमें भी आग है-<br>
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कोई ठण्डा आदमी नहीं है
मगर वह<br>
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मुझमें भी आग है-
भभककर बाहर नहीं आती<br>
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मगर वह
क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता हुआ<br>
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भभककर बाहर नहीं आती
एक ‘पूँजीवादी’दिमाग है<br>
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क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता हुआ
जो परिवर्तन तो चाहता है<br>
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एक ‘पूँजीवादी’दिमाग है
मगर आहिस्ता-आहिस्ता<br>
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जो परिवर्तन तो चाहता है
कुछ इस तरह कि चीज़ों की शालीनता<br>
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मगर आहिस्ता-आहिस्ता
बनी रहे।<br>
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कुछ इस तरह कि चीज़ों की शालीनता
कुछ इस तरह कि काँख भी ढकी रहे<br>
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बनी रहे।
और विरोध में उठे हुये हाथ की<br>
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कुछ इस तरह कि काँख भी ढकी रहे
मुट्ठी भी तनी रहे…और यही है कि बात<br>
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और विरोध में उठे हुये हाथ की
फैलने की हद तक<br>
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मुट्ठी भी तनी रहे…और यही है कि बात
आते-आते रुक जाती है<br>
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फैलने की हद तक
क्योंकि हर बार<br>
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आते-आते रुक जाती है
चन्द सुविधाओं के लालच के सामने<br>
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क्योंकि हर बार
अभियोग की भाषा चुक जाती है।<br>
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चन्द सुविधाओं के लालच के सामने
मैं खुद को कुरेद रहा था<br>
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अभियोग की भाषा चुक जाती है।
अपने बहाने उन तमाम लोगों की असफलताओं को<br>
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मैं खुद को कुरेद रहा था
सोच रहा था जो मेरे नजदीक थे।<br>
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अपने बहाने उन तमाम लोगों की असफलताओं को
इस तरह साबुत और सीधे विचारों पर<br>
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सोच रहा था जो मेरे नजदीक थे।
जमी हुई काई और उगी हुई घास को<br>
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इस तरह साबुत और सीधे विचारों पर
खरोंच रहा था,नोंच रहा था<br>
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जमी हुई काई और उगी हुई घास को
पूरे समाज की सीवन उधेड़ते हुये<br>
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खरोंच रहा था,नोंच रहा था
मैंने आदमी के भीतर की मैल<br>
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पूरे समाज की सीवन उधेड़ते हुये
देख ली थी। मेरा सिर<br>
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मैंने आदमी के भीतर की मैल
भिन्ना रहा था<br>
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देख ली थी। मेरा सिर
मेरा हृदय भारी था<br>
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भिन्ना रहा था
मेरा शरीर इस बुरी तरह थका था कि मैं<br>
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मेरा हृदय भारी था
अपनी तरफ़ घूरते उस चेहरे से<br>
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मेरा शरीर इस बुरी तरह थका था कि मैं
थोड़ी देर के लिये<br>
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अपनी तरफ़ घूरते उस चेहरे से
बचना चाह रहा था<br>
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थोड़ी देर के लिये
जो अपनी पैनी आँखों से<br>
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बचना चाह रहा था
मेरी बेबसी और मेरा उथलापन<br>
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जो अपनी पैनी आँखों से
थाह रहा था<br>
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मेरी बेबसी और मेरा उथलापन
प्रस्तावित भीड़ में<br>
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थाह रहा था
शरीक होने के लिये<br>
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प्रस्तावित भीड़ में
अभी मैंने कोई निर्णय नहीं लिया था<br>
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शरीक होने के लिये
अचानक ,उसने मेरा हाथ पकड़कर<br>
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अभी मैंने कोई निर्णय नहीं लिया था
खींच लिया और मैं<br>
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अचानक, उसने मेरा हाथ पकड़कर
जेब में जूतों का टोकन और दिमाग में<br>
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खींच लिया और मैं
ताजे़ अखबार की कतरन लिये हुये<br>
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जेब में जूतों का टोकन और दिमाग में
धड़ाम से-<br>
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ताजे़ अखबार की कतरन लिये हुये
चौथे आम चुनाव की सीढ़ियों से फिसलकर<br>
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धड़ाम से-
मत-पेटियों के<br>
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चौथे आम चुनाव की सीढ़ियों से फिसलकर
गड़गच्च अँधेरे में गिर पड़ा<br>
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मत-पेटियों के
नींद के भीतर यह दूसरी नींद है<br>
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गड़गच्च अँधेरे में गिर पड़ा
और मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है<br>
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नींद के भीतर यह दूसरी नींद है
सिर्फ एक शोर है<br>
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और मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है
जिसमें कानों के पर्दे फटे जा रहे हैं<br>
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सिर्फ एक शोर है
शासन सुरक्षा रोज़गार शिक्षा …<br>
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जिसमें कानों के पर्दे फटे जा रहे हैं
राष्ट्रधर्म देशहित हिंसा अहिंसा…<br>
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शासन सुरक्षा रोज़गार शिक्षा …
सैन्यशक्ति देशभक्ति आजा़दी वीसा…<br>
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राष्ट्रधर्म देशहित हिंसा अहिंसा…
वाद बिरादरी भूख भीख भाषा…<br>
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सैन्यशक्ति देशभक्ति आजा़दी वीसा…
शान्ति क्रान्ति शीतयुद्ध एटमबम सीमा…<br>
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वाद बिरादरी भूख भीख भाषा…
एकता सीढ़ियाँ साहित्यिक पीढ़ियाँ निराशा…<br>
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शान्ति क्रान्ति शीतयुद्ध एटमबम सीमा…
झाँय-झाँय,खाँय-खाँय,हाय-हाय,साँय-साँय…<br>
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एकता सीढ़ियाँ साहित्यिक पीढ़ियाँ निराशा…
मैंने कानों में ठूँस ली हैं अँगुलियाँ<br>
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झाँय-झाँय,खाँय-खाँय,हाय-हाय,साँय-साँय…
और अँधेरे में गाड़ दी है<br>
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मैंने कानों में ठूँस ली हैं अँगुलियाँ
आंखों की रोशनी।<br>
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और अँधेरे में गाड़ दी है
सब-कुछ अब धीरे-धीरे खुलने लगा है<br>
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आखों की रोशनी।
मत-वर्षा के इस दादुर-शोर में<br>
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सब-कुछ अब धीरे-धीरे खुलने लगा है
मैंने देखा हर तरफ<br>
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मत-वर्षा के इस दादुर-शोर में
रंग-बिरंगे झण्डे फहरा रहे हैं<br>
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मैंने देखा हर तरफ
गिरगिट की तरह रंग बदलते हुये<br>
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रंग-बिरंगे झण्डे फहरा रहे हैं
गुट से गुट टकरा रहे हैं<br>
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गिरगिट की तरह रंग बदलते हुये
वे एक- दूसरे से दाँता-किलकिल कर रहे हैं<br>
+
गुट से गुट टकरा रहे हैं
एक दूसरे को दुर-दुर,बिल-बिल कर रहे हैं<br>
+
वे एक-दूसरे से दाँत-किलकिल कर रहे हैं
हर तरफ तरह -तरह के जन्तु हैं<br>
+
एक दूसरे को दुर-दुर,बिल-बिल कर रहे हैं
श्रीमान् किन्तु हैं<br>
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हर तरफ तरह-तरह के जन्तु हैं
मिस्टर परन्तु हैं<br>
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श्रीमान् किन्तु हैं
कुछ रोगी हैं<br>
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मिस्टर परन्तु हैं
कुछ भोगी हैं<br>
+
कुछ रोगी हैं
कुछ हिंजड़े हैं<br>
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कुछ भोगी हैं
कुछ रोगी हैं<br>
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कुछ हिंजड़े हैं
तिजोरियों के प्रशिक्षित दलाल हैं<br>
+
कुछ रोगी हैं
आँखों के अन्धे हैं<br>
+
तिजोरियों के प्रशिक्षित दलाल हैं
घर के कंगाल हैं<br>
+
आँखों के अन्धे हैं
गूँगे हैं<br>
+
घर के कंगाल हैं
बहरे हैं<br>
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गूँगे हैं
उथले हैं,गहरे हैं।<br>
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बहरे हैं
गिरते हुये लोग हैं<br>
+
उथले हैं,गहरे हैं।
अकड़ते हुये लोग हैं<br>
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गिरते हुये लोग हैं
भागते हुये लोग हैं<br>
+
अकड़ते हुये लोग हैं
पकड़ते हुये लोग हैं<br>
+
भागते हुये लोग हैं
गरज़ यह कि हर तरह के लोग हैं<br>
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पकड़ते हुये लोग हैं
एक दूसरे से नफ़रत करते हुये वे<br>
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गरज़ यह कि हर तरह के लोग हैं
इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में<br>
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एक दूसरे से नफ़रत करते हुये वे
असंख्य रोग हैं<br>
+
इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में
और उनका एकमात्र इलाज-<br>
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असंख्य रोग हैं
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और उनका एकमात्र इलाज-
 
चुनाव है।
 
चुनाव है।

19:14, 18 फ़रवरी 2022 का अवतरण

साँचा:KKLambiRachana और सुनो! नफ़रत और रोशनी सिर्फ़ उनके हिस्से की चीज़ हैं जिसे जंगल के हाशिये पर जीने की तमीज़ है इसलिये उठो और अपने भीतर सोये हुए जंगल को आवाज़ दो उसे जगाओ और देखो- कि तुम अकेले नहीं हो और न किसी के मुहताज हो लाखों हैं जो तुम्हारे इन्तज़ार में खडे़ हैं वहाँ चलो। उनका साथ दो और इस तिलस्म का जादू उतारने में उनकी मदद करो और साबित करो कि वे सारी चीज़ें अन्धी हो गयीं हैं जिनमें तुम शरीक नहीं हो…’ मैं पूरी तत्परता से उसे सुन रहा था एक के बाद दूसरा दूसरे के बाद तीसरा तीसरे के बाद चौथा चौथे के बाद पाँचवाँ… यानी कि एक के बाद दूसरा विकल्प चुन रहा था मगर मैं हिचक रहा था क्योंकि मेरे पास कुल जमा थोड़ी सुविधायें थीं जो मेरी सीमाएँ थीं यद्यपि यह सही है कि मैं कोई ठण्डा आदमी नहीं है मुझमें भी आग है- मगर वह भभककर बाहर नहीं आती क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता हुआ एक ‘पूँजीवादी’दिमाग है जो परिवर्तन तो चाहता है मगर आहिस्ता-आहिस्ता कुछ इस तरह कि चीज़ों की शालीनता बनी रहे। कुछ इस तरह कि काँख भी ढकी रहे और विरोध में उठे हुये हाथ की मुट्ठी भी तनी रहे…और यही है कि बात फैलने की हद तक आते-आते रुक जाती है क्योंकि हर बार चन्द सुविधाओं के लालच के सामने अभियोग की भाषा चुक जाती है। मैं खुद को कुरेद रहा था अपने बहाने उन तमाम लोगों की असफलताओं को सोच रहा था जो मेरे नजदीक थे। इस तरह साबुत और सीधे विचारों पर जमी हुई काई और उगी हुई घास को खरोंच रहा था,नोंच रहा था पूरे समाज की सीवन उधेड़ते हुये मैंने आदमी के भीतर की मैल देख ली थी। मेरा सिर भिन्ना रहा था मेरा हृदय भारी था मेरा शरीर इस बुरी तरह थका था कि मैं अपनी तरफ़ घूरते उस चेहरे से थोड़ी देर के लिये बचना चाह रहा था जो अपनी पैनी आँखों से मेरी बेबसी और मेरा उथलापन थाह रहा था प्रस्तावित भीड़ में शरीक होने के लिये अभी मैंने कोई निर्णय नहीं लिया था अचानक, उसने मेरा हाथ पकड़कर खींच लिया और मैं जेब में जूतों का टोकन और दिमाग में ताजे़ अखबार की कतरन लिये हुये धड़ाम से- चौथे आम चुनाव की सीढ़ियों से फिसलकर मत-पेटियों के गड़गच्च अँधेरे में गिर पड़ा नींद के भीतर यह दूसरी नींद है और मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है सिर्फ एक शोर है जिसमें कानों के पर्दे फटे जा रहे हैं शासन सुरक्षा रोज़गार शिक्षा … राष्ट्रधर्म देशहित हिंसा अहिंसा… सैन्यशक्ति देशभक्ति आजा़दी वीसा… वाद बिरादरी भूख भीख भाषा… शान्ति क्रान्ति शीतयुद्ध एटमबम सीमा… एकता सीढ़ियाँ साहित्यिक पीढ़ियाँ निराशा… झाँय-झाँय,खाँय-खाँय,हाय-हाय,साँय-साँय… मैंने कानों में ठूँस ली हैं अँगुलियाँ और अँधेरे में गाड़ दी है आखों की रोशनी। सब-कुछ अब धीरे-धीरे खुलने लगा है मत-वर्षा के इस दादुर-शोर में मैंने देखा हर तरफ रंग-बिरंगे झण्डे फहरा रहे हैं गिरगिट की तरह रंग बदलते हुये गुट से गुट टकरा रहे हैं वे एक-दूसरे से दाँत-किलकिल कर रहे हैं एक दूसरे को दुर-दुर,बिल-बिल कर रहे हैं हर तरफ तरह-तरह के जन्तु हैं श्रीमान् किन्तु हैं मिस्टर परन्तु हैं कुछ रोगी हैं कुछ भोगी हैं कुछ हिंजड़े हैं कुछ रोगी हैं तिजोरियों के प्रशिक्षित दलाल हैं आँखों के अन्धे हैं घर के कंगाल हैं गूँगे हैं बहरे हैं उथले हैं,गहरे हैं। गिरते हुये लोग हैं अकड़ते हुये लोग हैं भागते हुये लोग हैं पकड़ते हुये लोग हैं गरज़ यह कि हर तरह के लोग हैं एक दूसरे से नफ़रत करते हुये वे इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में असंख्य रोग हैं और उनका एकमात्र इलाज- चुनाव है।