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तुम आए भी न थे / रूपम मिश्र

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दुख की ऐसी नींद कि जैसे जान ही न हो देह में
तभी एक अकतीत - सा (अजीब-सा, कुछ-कुछ कसैला-सा) सवाल चित में उठा
तुम आए ही कब थे
जो मैं तुम्हारे जाने का शोक मना रही हूँ
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