भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मोर्चे पर विदागीत (संग्रह) / विहाग वैभव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(इस पुस्तक में संकलित रचनाएँ)
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|नाम=मोर्चे पर विदागीत
 
|नाम=मोर्चे पर विदागीत
 
|रचनाकार=[[विहाग वैभव]]
 
|रचनाकार=[[विहाग वैभव]]
|प्रकाशक=राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली -११०००२
+
|प्रकाशक=राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली -110002
|वर्ष=२०२३
+
|वर्ष=2023
 
|भाषा=हिन्दी
 
|भाषा=हिन्दी
 
|विषय=कविता
 
|विषय=कविता
 
|शैली=छन्दमुक्त
 
|शैली=छन्दमुक्त
|पृष्ठ=
+
|पृष्ठ=160
|ISBN=
+
|ISBN=8119159748
 
|विविध=सवर्ण-सत्ता अगर एक दुर्ग है, जो है ही, तो विहाग की ये कविताएँ ठीक उसके सामने खड़े होकर उसके ऊपर किया गया आक्रमण हैं। विहाग अपनी इन कविताओं में दलित-दमन के पीड़ाजनक बिम्बों को उन तमाम कटघरों से निकाल लाए हैं जहाँ उत्पीड़न और दमन को मात्र भोथरी सहानुभूति के छींटों से ठंडा कर सहनीय बना दिया जाता रहा है। उनकी कविताएँ जाति की व्यवस्था से उपजे अब तक के दुख को एक गतिशीलता देना चाहती हैं, वे चाहती हैं वह कहीं पहुँचे, कि यदि जरूरी है तो युद्ध हो, लेकिन उसे केवल अकादमिक विमर्श बनाकर लाभदायक लेकिन दिशाहीन वस्तु में न बदल दिया जाए। विहाग का कवि अपने शत्रु को पहचानता है, उसकी ताकत और कमजोरियों को भी जानता है, ताकत के किन-किन रूपों में उसके अवतार सम्भव हैं; यह भी समझ उन्हें है। इसलिए वे धर्म के ठेकेदारों को भी उसी तुर्शी के साथ रेखांकित करते हैं, जाति के शक्तिशालियों को भी, और बहुमत के शिखरस्थों को भी। ये कविताएँ सिर्फ अपने स्पष्ट इरादों के लिए ही नहीं, पीड़ा की अभिव्यक्त‍ि के लिए अपनी भाषि‍क सामर्थ्य के लिहाज से भी मुख्यधारा से अलग दिखाई पड़ती हैं। अपने आक्रोश को सुचिंतित और विस्फोटक बिम्बों में हथियार की तरह गढ़ देना—यह एक दुर्लभ क्षमता है जो इस संग्रह की लगभग हर कविता में दिखाई पड़ती है। और यह चीज इन्हें कविता से ज़्यादा एक आह्वान में बदल देती है। सवर्ण की सर्वव्यापी, अति-दृश्यमान और आक्रामक मौजूदगी के प्रति वे हर क्षण सचेत हैं और इतिहास के दूरस्थ बिन्दुओं से वर्तमान तक फैली उसकी परम्परा से भिज्ञ भी। उनकी कविताएँ मिथकों के लौह-कोष में सुरक्षित बैठे उन देवताओं तक को अपनी युद्धभूमि में घसीट लाती हैं जिन तक कोई तीर, कोई पत्थर नहीं पहुँचता, और जिन्हें पवित्रता के भय-प्रसारक मैकेनिज़म द्वारा हर आलोचना से बाहर कर दिया जाता रहा है। देश में कोरोना-काल के नाम से जाने गए समय को लेकर इस संग्रह में पाँच कविताएँ हैं, और यह कहना गलत नहीं होगा कि ये कोरोना की शारीरिक-सामाजिक और नैतिक आपदा को लेकर लिखी गईं सबसे अच्छी कविताओं में से हैं।
 
|विविध=सवर्ण-सत्ता अगर एक दुर्ग है, जो है ही, तो विहाग की ये कविताएँ ठीक उसके सामने खड़े होकर उसके ऊपर किया गया आक्रमण हैं। विहाग अपनी इन कविताओं में दलित-दमन के पीड़ाजनक बिम्बों को उन तमाम कटघरों से निकाल लाए हैं जहाँ उत्पीड़न और दमन को मात्र भोथरी सहानुभूति के छींटों से ठंडा कर सहनीय बना दिया जाता रहा है। उनकी कविताएँ जाति की व्यवस्था से उपजे अब तक के दुख को एक गतिशीलता देना चाहती हैं, वे चाहती हैं वह कहीं पहुँचे, कि यदि जरूरी है तो युद्ध हो, लेकिन उसे केवल अकादमिक विमर्श बनाकर लाभदायक लेकिन दिशाहीन वस्तु में न बदल दिया जाए। विहाग का कवि अपने शत्रु को पहचानता है, उसकी ताकत और कमजोरियों को भी जानता है, ताकत के किन-किन रूपों में उसके अवतार सम्भव हैं; यह भी समझ उन्हें है। इसलिए वे धर्म के ठेकेदारों को भी उसी तुर्शी के साथ रेखांकित करते हैं, जाति के शक्तिशालियों को भी, और बहुमत के शिखरस्थों को भी। ये कविताएँ सिर्फ अपने स्पष्ट इरादों के लिए ही नहीं, पीड़ा की अभिव्यक्त‍ि के लिए अपनी भाषि‍क सामर्थ्य के लिहाज से भी मुख्यधारा से अलग दिखाई पड़ती हैं। अपने आक्रोश को सुचिंतित और विस्फोटक बिम्बों में हथियार की तरह गढ़ देना—यह एक दुर्लभ क्षमता है जो इस संग्रह की लगभग हर कविता में दिखाई पड़ती है। और यह चीज इन्हें कविता से ज़्यादा एक आह्वान में बदल देती है। सवर्ण की सर्वव्यापी, अति-दृश्यमान और आक्रामक मौजूदगी के प्रति वे हर क्षण सचेत हैं और इतिहास के दूरस्थ बिन्दुओं से वर्तमान तक फैली उसकी परम्परा से भिज्ञ भी। उनकी कविताएँ मिथकों के लौह-कोष में सुरक्षित बैठे उन देवताओं तक को अपनी युद्धभूमि में घसीट लाती हैं जिन तक कोई तीर, कोई पत्थर नहीं पहुँचता, और जिन्हें पवित्रता के भय-प्रसारक मैकेनिज़म द्वारा हर आलोचना से बाहर कर दिया जाता रहा है। देश में कोरोना-काल के नाम से जाने गए समय को लेकर इस संग्रह में पाँच कविताएँ हैं, और यह कहना गलत नहीं होगा कि ये कोरोना की शारीरिक-सामाजिक और नैतिक आपदा को लेकर लिखी गईं सबसे अच्छी कविताओं में से हैं।
 
}}
 
}}
 
====इस पुस्तक में संकलित रचनाएँ====
 
====इस पुस्तक में संकलित रचनाएँ====
 
* [[मोर्चे पर विदागीत / विहाग वैभव]]
 
* [[मोर्चे पर विदागीत / विहाग वैभव]]
 +
* [[तुम्हारी जाति ही है दोस्त / विहाग वैभव]]
 +
* [[मजूर / विहाग वैभव]]
 +
* [[सपने की मुश्किल / विहाग वैभव]]
 +
* [[ईश्वर को किसान होना चाहिए / विहाग वैभव]]
 +
* [[ओझौती जारी है / विहाग वैभव]]

18:41, 9 दिसम्बर 2023 के समय का अवतरण

मोर्चे पर विदागीत
Vihag Vaibhav Book.jpg
रचनाकार विहाग वैभव
प्रकाशक राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली -110002
वर्ष 2023
भाषा हिन्दी
विषय कविता
विधा छन्दमुक्त
पृष्ठ 160
ISBN 8119159748
विविध सवर्ण-सत्ता अगर एक दुर्ग है, जो है ही, तो विहाग की ये कविताएँ ठीक उसके सामने खड़े होकर उसके ऊपर किया गया आक्रमण हैं। विहाग अपनी इन कविताओं में दलित-दमन के पीड़ाजनक बिम्बों को उन तमाम कटघरों से निकाल लाए हैं जहाँ उत्पीड़न और दमन को मात्र भोथरी सहानुभूति के छींटों से ठंडा कर सहनीय बना दिया जाता रहा है। उनकी कविताएँ जाति की व्यवस्था से उपजे अब तक के दुख को एक गतिशीलता देना चाहती हैं, वे चाहती हैं वह कहीं पहुँचे, कि यदि जरूरी है तो युद्ध हो, लेकिन उसे केवल अकादमिक विमर्श बनाकर लाभदायक लेकिन दिशाहीन वस्तु में न बदल दिया जाए। विहाग का कवि अपने शत्रु को पहचानता है, उसकी ताकत और कमजोरियों को भी जानता है, ताकत के किन-किन रूपों में उसके अवतार सम्भव हैं; यह भी समझ उन्हें है। इसलिए वे धर्म के ठेकेदारों को भी उसी तुर्शी के साथ रेखांकित करते हैं, जाति के शक्तिशालियों को भी, और बहुमत के शिखरस्थों को भी। ये कविताएँ सिर्फ अपने स्पष्ट इरादों के लिए ही नहीं, पीड़ा की अभिव्यक्त‍ि के लिए अपनी भाषि‍क सामर्थ्य के लिहाज से भी मुख्यधारा से अलग दिखाई पड़ती हैं। अपने आक्रोश को सुचिंतित और विस्फोटक बिम्बों में हथियार की तरह गढ़ देना—यह एक दुर्लभ क्षमता है जो इस संग्रह की लगभग हर कविता में दिखाई पड़ती है। और यह चीज इन्हें कविता से ज़्यादा एक आह्वान में बदल देती है। सवर्ण की सर्वव्यापी, अति-दृश्यमान और आक्रामक मौजूदगी के प्रति वे हर क्षण सचेत हैं और इतिहास के दूरस्थ बिन्दुओं से वर्तमान तक फैली उसकी परम्परा से भिज्ञ भी। उनकी कविताएँ मिथकों के लौह-कोष में सुरक्षित बैठे उन देवताओं तक को अपनी युद्धभूमि में घसीट लाती हैं जिन तक कोई तीर, कोई पत्थर नहीं पहुँचता, और जिन्हें पवित्रता के भय-प्रसारक मैकेनिज़म द्वारा हर आलोचना से बाहर कर दिया जाता रहा है। देश में कोरोना-काल के नाम से जाने गए समय को लेकर इस संग्रह में पाँच कविताएँ हैं, और यह कहना गलत नहीं होगा कि ये कोरोना की शारीरिक-सामाजिक और नैतिक आपदा को लेकर लिखी गईं सबसे अच्छी कविताओं में से हैं।
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।

इस पुस्तक में संकलित रचनाएँ