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"मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में / निदा फ़ाज़ली" के अवतरणों में अंतर
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मैं ख़ुदा बन के क़हर ढाता हूँ <br> | मैं ख़ुदा बन के क़हर ढाता हूँ <br> |
22:55, 16 दिसम्बर 2008 का अवतरण
शायर: निदा फ़ाज़ली
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मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में
मुझको पहचानते कहाँ हैं लोग
रोज़ मैं चाँद बन के आता हूँ
दिन में सूरज सा जगमगाता हूँ
खनखनाता हूँ माँ के गहनों में
हँसता रहता हूँ छुप के बहनों में
मैं ही मज़दूर के पसीने में
मैं ही बरसात के महीने में
मेरी तस्वीर आँख का आँसू
मेरी तहरीर जिस्म का जादू
तहरीर - लिखावट
मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में
मुझको पहचानते नहीं जब लोग
मैं ज़मीनों को बे-ज़िया करके
आसमानों में लौट जाता हूँ
ज़िया - प्रकाश
मैं ख़ुदा बन के क़हर ढाता हूँ