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"जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर

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|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध  
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[[Category:लम्बी कविता]]
<Poem>
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जीवन के प्रखर समर्थक-से जब प्रश्न चिन्ह
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:बौखला उठे थे दुर्निवार,
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तब एक समंदर के भीतर
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:रवि की उद्भासित छवियों का
+
::गहरा निखार
+
स्वर्णिम लहरों सा झल्लाता
+
:झलमला उठा;
+
मानो भीतर के सौ-सौ अंगारी उत्तर
+
:सब एक साथ
+
::बौखला उठे
+
:::तमतमा उठे !!
+
संघर्ष विचारों का लोहू
+
:पीड़ित विवेक की शिरा-शिरा
+
::में उठा गिरा,
+
मस्तिष्क तंतुओं में प्रदीप्त
+
:वेदना यथार्थों की जागी !!
+
मेरे सुख-दुख ने अकस्मात् भावुकतावश
+
:सुख-दुख के चरणों की
+
::मन ही मन
+
:::यों की 'पालागी' —
+
कण्ठ में ज्ञान संवेदन के,
+
  
आंसू का कांटा फंसा और
+
* [[जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध]]
मन में यह आसमान छाया,
+
* [[जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध]]
जिस में जन-जन के घर-आंगन
+
* [[जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 3 / गजानन माधव मुक्तिबोध]]
:का सूरज भासमान छाया
+
* [[जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध]]
झुरमुर-झुरमुर वह नीम हँसा,
+
* [[जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 5 / गजानन माधव मुक्तिबोध]]
:चिड़िया डोली,
+
* [[जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 6 / गजानन माधव मुक्तिबोध]]
फर-फर आंचल तुमको निहार
+
* [[जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 7 / गजानन माधव मुक्तिबोध]]
 
+
मानो कि मातृ-भाषा बोली —
+
जिनसे गूंजा घर-आंगन
+
खनके मानों बहुओं की चूड़ी के कंगन ।
+
मैं जिस दुनिया में आज बसा,
+
जन-संघर्षों की राहों पर
+
:ज्वालाओं से
+
माँओं का बहनों का सुहाग सिन्दूर हँसा बरसा-बरसा ।
+
 
+
इन भारतीय गृहिणी-निर्झरिणी-नदियों के
+
:घर-घर के भूखे प्राण हँसे ।
+
दिल के आंसू के फव्वारे
+
:लेकिन यह मेरे छन्द
+
बावरे बुरी तरह यों अकुलाकर,
+
 
+
बूढ़े पितृश्री के चरणों में लोट-पोटकर,
+
:ऐसी पावन धूल हुए —
+
बहना के हिय की तुलसी पर
+
 
+
घन छाया कर
+
:मंजरी हुए,
+
भाई के दिल में फूल हुए ।
+
 
+
अपने समुंदरों के विभोर
+
मस्ती के शब्दों में गम्भीर
+
तब मेरा हिन्दुस्तान हँसा ।
+
जन-संघर्षों की राहों पर
+
आंगन के नीमों ने मंजरियाँ बरसायीं ।
+
अम्बर में चमक रही बहन-बिजली ने भी
+
:थी ताकत हिय में सरसायी ।
+
घर-घर के सजल अंधेरे से
+
 
+
मेघों ने कुछ उपदेश लिए,
+
जीवन की नसीहतें पायीं ।
+
जन-संघर्षों की राहों पर
+
:गम्भीर घटाओं ने
+
::युग जीवन सरसाया ।
+
आंसू से भरा हुआ चुम्बन मुझपर बरसाया ।
+
 
+
ज़िंदगी नशा बन घुमड़ी है
+
ज़िंदगी नशे सी छायी है
+
नव-वधुका बन
+
:यह बुद्धिमती
+
ऐसी तेरे घर आई है ।
+
 
+
रे, स्वयं अगरबत्ती से जल,
+
:सुगंध फैला
+
::जिन लोगों ने
+
अपने अंतर में घिरे हुए
+
 
+
गहरी ममता के अगुरू-धूम
+
::के बादल सी
+
मुझको अथाह मस्ती प्रदान की
+
:वह हुलसी, वह अकुलायी
+
इस हृदय-दान की वेला में मेरे भीतर ।
+
 
+
जिनके स्वभाव के गंगाजल ने,
+
:युगों-युगों को तारा है,
+
जिनके कारण यह हिन्दुस्तान हमारा है,
+
 
+
कल्याण व्यथाओं मे घुलकर
+
 
+
जिन लाखों हाथों-पैरों ने यह दुनिया
+
::पार लगायी है,
+
जिनके कि पूत-पावन चरणों में
+
::हुलसे मन —
+
::से किये निछावर जा सकते
+
:::सौ-सौ जीवन,
+
उन जन-जन का दुर्दान्त रुधिर
+
 
+
मेरे भीतर, मेरे भीतर ।
+
 
+
उनकी बाहों को अपने उर पर
+
:धारण कर वरमाला-सी
+
उनकी हिम्मत, उनका धीरज,
+
 
+
उनकी ताकत
+
पायी मैंने अपने भीतर ।
+
कल्याणमयी करुणाओं के
+
वे सौ-सौ जीवन-चित्र लिखे
+
मेरे हिय में जाने किसने, जाने कैसे
+
उनकी उस सहजोत्सर्गमयी
+
आत्मा के कोमल पंख फँसे
+
मेरे हिय में,
+
मँडराता है मेरा जी चारों ओर सदा
+
::उनके ही तो ।
+
यादें उनकी
+
 
+
कैसी-कैसी बातें लेकर,
+
जीवन के जाने कितने ही रुधिराक्त प्राण
+
दुःखान्त साँझ
+
दुर्दान्त भव्य रातें लेकर
+
यादें उनकी
+
मेरे मन में
+
ऐसी घुमड़ीं
+
ऐसी घुमड़ीं
+
मानो कि गीत के
+
:किसी विलम्बित सुर में —
+
उनके घर आने की
+
:बेर-अबेर खिली,
+
क्रान्ति की मुस्कराती आँखों —
+
 
+
पर, लहराती अलकों में बिंध,
+
आंगन की लाल कन्हेर खिली ।
+
भूखे चूल्हे के भोले अंगारों में रम,
+
जनपथ पर मरे शहीदों के
+
अन्तिम शब्दों बिलम-बिलम,
+
 
+
लेखक की दुर्दम कलम चली ।
+
 
+
दुबली चम्पा
+
:जन संघर्षों में
+
::गदरायी,
+
खण्डर-मकान में फूल खिले, तल में बिखरे
+
 
+
जीवन संघर्षों में घुमड़े
+
::उमड़े चक्की के गीतों में
+
कल्याणमयी करुणाओं के
+
 
+
हिन्दुस्तानी सपने निखरे —
+
 
+
जिस सुर को सुन
+
 
+
कूएँ की सजल मुँडेर हिली
+
 
+
प्रातः कालीन हवाओं में ।
+
::सूरज का लाल-लाल चेहरा
+
डोला धरती की बाहों में,
+
 
+
आसक्ति भरा रवि का मुख वह ।
+
 
+
उसकी मेधाओं की ज्वालाएँ ऐसी फैलीं —
+
 
+
उस घास-भरे जंगल-पहाड़-बंजर में
+
:यों दावाग्नि लगी
+
मानो बूढ़ी दुनिया के सिर पर आग लगी
+
 
+
सिर जलता है, कन्धे जलते ।
+
 
+
यह अग्नि-विश्वजित् फैली है जिन लोगों की
+
:::रे नौजवान,
+
इतिहास बनानेवाला सिर करके ऊंचा
+
 
+
भौहों पर मेघों-जैसा
+
:विद्युत भार
+
:विचारों का लेकर
+
पृथ्वी की गति के साथ-साथ घूमते हुए
+
 
+
वे दिशा-काल वन वातावरण-पटल जैसे
+
 
+
चलते जन-जन के साथ
+
 
+
वे हैं आगे वे हैं पीछे ।
+
 
+
अगजाजी खोहों और खदानों के
+
 
+
तल में
+
:ज्यों रत्न-द्वीप जलते
+
त्यों जन-जन के अनपहचाने अन्तस्तल में
+
 
+
जीवन के सत्य-दीप पलते !!
+
 
+
दावाग्नि-लगे, जंगल के बीचों-बीच बहे
+
 
+
मानो जीवन सरिता
+
:जलते कूलोंवाली,
+
इस कष्ट भरे जीवन के विस्तारों में त्यों
+
 
+
बहती है तरुणों की आत्मा प्रतिभाशाली
+
 
+
अपने भीतर प्रतिबिम्बित जीवन-चित्रावलि,
+
 
+
लेकर ज्यों बहते रहते हैं,
+
 
+
ये भारतीय नूतन झरने
+
 
+
अंगारों की धाराओं से
+
 
+
विक्षोभों के उद्वेगों में
+
 
+
संघर्षों के उत्साहों में
+
:जाने क्या-क्या सहते रहते ।
+
 
+
लहरों की ग्रीवा में सूरज की वरमाला;
+
 
+
जमकर पत्थर बन गए दुखों-सी
+
:धरती की प्रस्तर-माला
+
जल-भरे पारदर्शी उर में !!
+
 
+
सम्पूरन मानव की पीड़ित छवियाँ लेकर
+
 
+
जन-जन के पुत्रों के हिय में
+
:मचले हिन्दुस्तानी झरने
+
::मानव युग के ।
+
 
+
 
+
इन झरनों की बलखाती धारा के जल में —
+
 
+
लहरों में लहराती धरती
+
:की बाहों ने
+
बिम्बित रवि-रंजित नभ को कसकर चूम लिया,
+
 
+
मानव-भविष्य का विजयाकांक्षी आसमान
+
 
+
इन झरनों में
+
 
+
अपने संघर्षी वर्तमान में घूम लिया !!
+
 
+
ऐसा संघर्षी वर्तमान —
+
:तुम भी तो हो,
+
 
+
मानव-भविष्य का आसमान —
+
:तुममें भी है,
+
मानव-दिगन्त के कूलों पर
+
 
+
जिन लक्ष्य अभिप्रायों की दमक रही किरनें
+
:वे अपनी लाल बुनावट में
+
:जिन कुसुमों की आकृति बुनने
+
:के लिए विकल हो उठती हैं —
+
उसमें से एक फूल है रे, तुम जैसा हो,
+
 
+
वह तुम ही हो.
+
 
+
इस रिश्ते से, इस नाते से
+
 
+
यह भारतीय आकाश और पृथ्वीतल,
+
 
+
बंजर ज़मीन के खण्डहर के बरगद-पीपल
+
 
+
ये गलियाँ, राहें घर-मंजिल,
+
 
+
पत्थर, जंगल
+
 
+
पहचानते रहे नित तुमको जिन आँखों से
+
 
+
उन आँखों से मैंने भी तुमको पहचाना,
+
 
+
मानव-दिगन्त के कूलों पर
+
 
+
जिन किरनों का ताना-बाना
+
:उस रश्मि-रेशमी
+
:क्षितिज-क्षोभ पर अंकित
+
नतन-व्यक्तित्वों के सहस्र-दल स्वर्णोज्ज्वल —
+
 
+
आदर्श बिम्ब मानव युग के ।
+
 
+
उनके आलोक-वलय में जग मैंने देखा —
+
 
+
जन-जन के संघर्षों में विकसित
+
:परिणत होते नूतन मन का ।
+
::वह अन्तस्तल . . . . . .
+
संघर्ष-विवेकों की प्रतिभा
+
 
+
अनुभव-गरिमाओं की आभा
+
 
+
वह क्षमा-दया-करुणा की नीरोज्ज्वल शोभा
+
 
+
सौ सहानुभूतियों की गरमी,
+
 
+
प्राणों में कोई बैठा है कबीर मर्मी
+
 
+
ये पहलू-पांखें, पंखुरियाँ स्वर्णोज्जवल
+
 
+
नूतन नैतिकता का सहस्र-दल खिलता है,
+
 
+
मानव-व्यक्तित्व-सरोवर में !!
+
 
+
उस स्वर्ण-सरोवर का जल
+
:चमक रहा देखो
+
उस दूर क्षितिज-रेखा पर वह झिलमिला रहा ।
+
 
+
 
+
ताना-बाना
+
:मानव दिगंत किरनों का
+
:मैंने तुममें, जन-जन में जिस दिन पहचाना
+
उस दिन, उस क्षण
+
 
+
नीले नभ का सूरज हँसते-हँसते उतरा
+
:मेरे आंगन,
+
प्रतिपल अधिकाधिक उज्ज्वल हो
+
:मधुशील चन्द्र
+
::था प्रस्तुत यों
+
मेरे सम्मुख आया मानो
+
 
+
मेरा ही मन ।
+
 
+
वे कहने लगे कि चले आ रहे तारागण
+
 
+
इस बैठक में, इस कमरे में, इस आंगन में —
+
 
+
जब कह ही रहा था कि कब इन्हें बुलाया है मैंने,
+
 
+
तब अकस्मात् आये मेरे जन, मित्र, स्नेह के सम्बन्धन
+
 
+
नक्षत्र-मंडलों में से तारागण उतरे
+
 
+
मैदान, धूप, झरने, नदियाँ सम्मुख आयीं,
+
 
+
मानो जन-जन के जीवन-गुण के रंगों में
+
 
+
है फैल चली मेरी दुनिया की
+
:या कि तुम्हारी ही झाँईं ।
+
तुम क्या जानो मुझको कितना
+
::अभिमान हुआ
+
सन्दर्भ हटा, व्यक्ति का कहीं उल्लेख न कर,
+
 
+
जब भव्य तुम्हारा संवेदन
+
 
+
सबके सम्मुख रख सका, तभी
+
 
+
अनुभवी ज्ञान-संवेदन की दुर्दम पीड़ा
+
::झलमला उठी !!
+
 
+
 
+
ईमानदार संस्कार-मयी
+
 
+
सन्तुलित नयी गहरी चेतना
+
 
+
:अभय होकर अपने
+
वास्तविक मूलगामी निष्कर्षों तक पहुँची
+
 
+
ऐसे निष्कर्ष कि जिनके अनुभव-अस्त्रों से
+
 
+
वैज्ञानिक मानव-शस्त्रों से
+
 
+
मेरे सहचर हैं ढहा रहे
+
 
+
वीरान विरोधी दुर्गों की अखण्ड सत्ता ।
+
 
+
उनके अभ्यन्तर के प्रकाश की कीर्तिकथा
+
 
+
जब मेरे भीतर मंडरायी
+
 
+
मेरी अखबार-नवीसी ने सौ-सौ आंखें पायीं ।
+
 
+
 
+
कागज़ की भूरी छाती पर
+
:नीली स्याही के अक्षर में था प्रकट हुआ
+
 
+
छप्पर के छेदों से सहसा झाँका वह नीला आसमान
+
 
+
वह आसमान जिसमें ज्योतिर्मय
+
:कमल खिला
+
::रवि का ।
+
शब्दों-शब्दों में वाक्यों में
+
 
+
मानवी-अभिप्रायों का सूरज निकला
+
:उसकी विश्वाकुल एक किरन
+
::तुम भी तो हो,
+
धरती के जी को अकुलानेवाली
+
:छवि-मधुरा कविता की
+
:प्यारी-प्यारी सी एक कहन
+
:तुम भी तो हो,
+
वीरान में टूटे विशाल पुल के एक खण्डहर में
+
 
+
उगे आक के फूलों के नीले तारे,
+
 
+
मधु-गन्ध भरी उद्दाम हरी
+
:चम्पा के साथ
+
::उगे प्यारे,
+
मानो जहरीले अनुभव में
+
 
+
मानव-भावों के अमृतमय
+
:शत-प्रतिभाओं के अंगारे,
+
उनकी दुर्दान्त पराकाष्ठा
+
:की एक किरन
+
:तुम भी तो हो !!
+
अपने संघर्षों के कडुए
+
:अनुभव की
+
::छाती के भीतर
+
दुर्दान्त ऐतिहासिक दर्दों की भँवर लिये
+
::तुम-जैसे-जन
+
मेरे जीवन निर्झर के पथरीले तट पर
+
 
+
आ खड़े हुए,
+
 
+
तब मैंने नहीं पुकारा — 'तुम आ जाओ'
+
 
+
तब मैंने नहीं कहा था यों
+
 
+
मेरे मन की जल धारा में
+
 
+
तुम हाथ डुबो,
+
:मुँह धो लो, जल पी लो, अपना
+
:मुख बिम्ब निहारो तुम ।
+
जब मेरे मन की पथरीली
+
 
+
निर्झर धारा के फूलों पर,
+
 
+
गहरी धनिष्ठता की असीम
+
 
+
गम्भीर घटाएँ घुमड़ी थीं,
+
 
+
गम्भीर मेघ-दल उमड़े थे,
+
 
+
औ' जीवन की सीधी सुगन्ध
+
 
+
जब महकी थी
+
:ईमाम-भरे-बेछोर सरल मैदानों पर
+
तब क्यों सहसा
+
:तूफानी मेघों के हिय में
+
:तुम विद्युत की दुर्दान्त व्यथा-सी
+
:डोली थीं,
+
तब मैंने कहा था अपनी आँखों में
+
 
+
भावातिरेक तुम दरसाओ ।
+
 
+
जब आसमान से धरती तक
+
:आकस्मिक एक प्रकाश-बेल
+
:विद्युत की नील विलोल लता-सी
+
:सहसा तुम बेपर्द हुईं
+
जब मेरे-मन-निर्झर-तट पर
+
 
+
तब मैंने नहीं कहा थी मुझको इस प्रकार
+
 
+
तुम अपना अंतर का प्राकार बना जाओ ।
+
 
+
लेकिन संघर्षों के पथ पर
+
:ऐसे अवसर आते ही हैं,
+
:ऐसे सहचर मिलते ही हैं,
+
नभ-मण्डल में खुद को उद्घाटित
+
:करता चलता है सूरज
+
:इस प्रकार,
+
जीवन के प्रखर-समर्थक से प्रश्न-चिन्ह
+
 
+
बौखला रहे हों दुर्निवार !!
+
 
+
 
+
कोई स्वर ऊँचा उठता हुआ बींधता चला गया ।
+
 
+
उस स्वर को चमचमाती-सी एक तेज़ नोक
+
 
+
जिसने मेरे भीतर की चट्टानी ज़मीन
+
 
+
अपनी विद्युत से यों खो दी, इतनी रन्ध्रिल कर दी कि अरे
+
 
+
उस अन्धकार भूमि से अजब
+
 
+
सौ लाल-लाल जाज्ज्वल्यमान
+
 
+
मणिगण निकले
+
 
+
केवल पल में
+
 
+
देदीप्यमान अंगार हृदय में संभालता हुआ
+
 
+
उठता हूँ
+
 
+
इतने में ही जाने कितनी गहराई में से मैंने देखा
+
 
+
गलियों के श्यामल सूने में
+
 
+
कोई दुबली बालक छाया
+
 
+
असहाय ! रोती चली गयी !!
+
 
+
दुनिया के खड़े डूह दीखे
+
 
+
वीरान चिलचिलाहट में फटे चीथ चमके
+
 
+
थे छोर गरीब साड़ियों के
+
 
+
नन्हे बुरकों की बाहें भीतर फँसी झाड़ियों
+
 
+
उन्हें देखता रहा कि इतने में
+
 
+
ढूहों में से झाड़ी में से ही उधर निकली
+
 
+
वीरान हवा की लहरों पर
+
 
+
पीली-धुंधली उदास गहरी नारी-रेखा
+
 
+
उसकी उंगली पकड़ चलती कोई
+
 
+
बालक-झाईं मैंने देखी
+
 
+
वीरान हवा की लहरों पर
+
 
+
पैरों पर मैं चंचलतर हूँ
+
 
+
जब इसी गली के नुक्कड़ पर
+
 
+
मैंने देखी
+
 
+
वह फक्कड़ भूख उदास प्यास
+
 
+
निःस्वार्थ तृषा
+
 
+
जीने-मरने की तैयारी
+
 
+
मैं गया भूख के घर व प्यास के आँगन में
+
 
+
चिन्ता की काली कुठरी में,
+
 
+
तब मुझे दिखे कार्यरत वहाँ
+
 
+
विज्ञान-ज्ञान
+
 
+
नित सक्रिय हैं
+
 
+
सब विश्लेषण संस्लेषण में
+
 
+
मुझ में बिजली की घूम गई थरथरी
+
 
+
उद्दाम ज्ञान संवेदन की फुरफुरी
+
 
+
हृदय में जगी
+
 
+
तन-मन में कोई जादू की-सी आग लगी
+
 
+
मस्तिष्क तन्तुओं में से प्रदीप्त
+
:वेदना यथार्थों की जागी
+
यद्यपि दिन है
+
 
+
सब ओर लगाते आग विद्युत क्षण हैं
+
 
+
किन्तु अंधेरे में —
+
 
+
अपनी उठती-गिरती लौ की लीलाओं में
+
 
+
अपनी छायाओं की लीला देखता रहा
+
 
+
अन्तर आपद्-ग्रस्ता आत्मा
+
 
+
नमकीन धूल के गरम-गरम अनिवार बवण्डर सी घूमी
+
 
+
फिर छितर गयी
+
 
+
या बिखर गयी
+
 
+
पर अजब हुआ
+
 
+
कुछ मटियाले पैरों के उसने पैर छुए
+
 
+
अद्विग्न मनःस्थिति में
+
 
+
जीवन के रज धूसर पद पर
+
 
+
आँखें बन कर, वह बैठ गयी, भीतरी परिस्थिति में ।
+
 
+
मस्तिष्क तन्तुओं में प्रदीप्त वेदना यथार्थों की जागी
+
 
+
वह सड़क बीच
+
 
+
हर राहगीर की छाँह तले
+
 
+
उसका सब कुछ जीने पी लेने को उतावली
+
 
+
यह सोच कि जाने कौन वेष में कहाँ व कितना सच मिले —
+
 
+
वह नत होकर उन्नत होने की बेचैनी  !
+

11:00, 2 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण