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| {{KKRachna | | {{KKRachna |
− | |रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध | + | |रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध |
− | |संग्रह=
| + | }} |
− | }} | + | [[Category:लम्बी कविता]] |
− | <Poem>
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− | जीवन के प्रखर समर्थक-से जब प्रश्न चिन्ह
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− | :बौखला उठे थे दुर्निवार, | + | |
− | तब एक समंदर के भीतर
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− | :रवि की उद्भासित छवियों का
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− | ::गहरा निखार
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− | स्वर्णिम लहरों सा झल्लाता
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− | :झलमला उठा;
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− | मानो भीतर के सौ-सौ अंगारी उत्तर
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− | :सब एक साथ
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− | ::बौखला उठे
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− | :::तमतमा उठे !!
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− | संघर्ष विचारों का लोहू
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− | :पीड़ित विवेक की शिरा-शिरा
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− | ::में उठा गिरा,
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− | मस्तिष्क तंतुओं में प्रदीप्त
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− | :वेदना यथार्थों की जागी !!
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− | मेरे सुख-दुख ने अकस्मात् भावुकतावश
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− | :सुख-दुख के चरणों की
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− | ::मन ही मन
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− | :::यों की 'पालागी' —
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− | कण्ठ में ज्ञान संवेदन के,
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− | आंसू का कांटा फंसा और
| + | * [[जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध]] |
− | मन में यह आसमान छाया,
| + | * [[जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध]] |
− | जिस में जन-जन के घर-आंगन
| + | * [[जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 3 / गजानन माधव मुक्तिबोध]] |
− | :का सूरज भासमान छाया
| + | * [[जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध]] |
− | झुरमुर-झुरमुर वह नीम हँसा,
| + | * [[जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 5 / गजानन माधव मुक्तिबोध]] |
− | :चिड़िया डोली,
| + | * [[जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 6 / गजानन माधव मुक्तिबोध]] |
− | फर-फर आंचल तुमको निहार
| + | * [[जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 7 / गजानन माधव मुक्तिबोध]] |
− | | + | |
− | मानो कि मातृ-भाषा बोली —
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− | जिनसे गूंजा घर-आंगन
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− | खनके मानों बहुओं की चूड़ी के कंगन ।
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− | मैं जिस दुनिया में आज बसा,
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− | जन-संघर्षों की राहों पर
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− | :ज्वालाओं से
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− | माँओं का बहनों का सुहाग सिन्दूर हँसा बरसा-बरसा ।
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− | इन भारतीय गृहिणी-निर्झरिणी-नदियों के
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− | :घर-घर के भूखे प्राण हँसे ।
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− | दिल के आंसू के फव्वारे
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− | :लेकिन यह मेरे छन्द
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− | बावरे बुरी तरह यों अकुलाकर,
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− | बूढ़े पितृश्री के चरणों में लोट-पोटकर,
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− | :ऐसी पावन धूल हुए —
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− | बहना के हिय की तुलसी पर
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− | | + | |
− | घन छाया कर
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− | :मंजरी हुए,
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− | भाई के दिल में फूल हुए ।
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− | अपने समुंदरों के विभोर
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− | मस्ती के शब्दों में गम्भीर
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− | तब मेरा हिन्दुस्तान हँसा ।
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− | जन-संघर्षों की राहों पर
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− | आंगन के नीमों ने मंजरियाँ बरसायीं ।
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− | अम्बर में चमक रही बहन-बिजली ने भी
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− | :थी ताकत हिय में सरसायी ।
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− | घर-घर के सजल अंधेरे से
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− | | + | |
− | मेघों ने कुछ उपदेश लिए,
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− | जीवन की नसीहतें पायीं ।
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− | जन-संघर्षों की राहों पर
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− | :गम्भीर घटाओं ने
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− | ::युग जीवन सरसाया ।
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− | आंसू से भरा हुआ चुम्बन मुझपर बरसाया ।
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− | ज़िंदगी नशा बन घुमड़ी है
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− | ज़िंदगी नशे सी छायी है
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− | नव-वधुका बन
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− | :यह बुद्धिमती
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− | ऐसी तेरे घर आई है ।
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− | | + | |
− | रे, स्वयं अगरबत्ती से जल,
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− | :सुगंध फैला
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− | ::जिन लोगों ने
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− | अपने अंतर में घिरे हुए
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− | | + | |
− | गहरी ममता के अगुरू-धूम
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− | ::के बादल सी
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− | मुझको अथाह मस्ती प्रदान की
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− | :वह हुलसी, वह अकुलायी
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− | इस हृदय-दान की वेला में मेरे भीतर ।
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− | | + | |
− | जिनके स्वभाव के गंगाजल ने,
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− | :युगों-युगों को तारा है,
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− | जिनके कारण यह हिन्दुस्तान हमारा है,
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− | | + | |
− | कल्याण व्यथाओं मे घुलकर
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− | | + | |
− | जिन लाखों हाथों-पैरों ने यह दुनिया
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− | ::पार लगायी है,
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− | जिनके कि पूत-पावन चरणों में
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− | ::हुलसे मन —
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− | ::से किये निछावर जा सकते
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− | :::सौ-सौ जीवन,
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− | उन जन-जन का दुर्दान्त रुधिर
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− | मेरे भीतर, मेरे भीतर ।
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− | | + | |
− | उनकी बाहों को अपने उर पर
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− | :धारण कर वरमाला-सी
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− | उनकी हिम्मत, उनका धीरज,
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− | | + | |
− | उनकी ताकत
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− | पायी मैंने अपने भीतर ।
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− | कल्याणमयी करुणाओं के
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− | वे सौ-सौ जीवन-चित्र लिखे
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− | मेरे हिय में जाने किसने, जाने कैसे
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− | उनकी उस सहजोत्सर्गमयी
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− | आत्मा के कोमल पंख फँसे
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− | मेरे हिय में,
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− | मँडराता है मेरा जी चारों ओर सदा
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− | ::उनके ही तो ।
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− | यादें उनकी
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− | | + | |
− | कैसी-कैसी बातें लेकर,
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− | जीवन के जाने कितने ही रुधिराक्त प्राण
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− | दुःखान्त साँझ
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− | दुर्दान्त भव्य रातें लेकर
| + | |
− | यादें उनकी
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− | मेरे मन में
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− | ऐसी घुमड़ीं
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− | ऐसी घुमड़ीं
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− | मानो कि गीत के
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− | :किसी विलम्बित सुर में —
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− | उनके घर आने की
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− | :बेर-अबेर खिली,
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− | क्रान्ति की मुस्कराती आँखों —
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− | | + | |
− | पर, लहराती अलकों में बिंध,
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− | आंगन की लाल कन्हेर खिली ।
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− | भूखे चूल्हे के भोले अंगारों में रम,
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− | जनपथ पर मरे शहीदों के
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− | अन्तिम शब्दों बिलम-बिलम,
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− | | + | |
− | लेखक की दुर्दम कलम चली ।
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− | | + | |
− | दुबली चम्पा
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− | :जन संघर्षों में
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− | ::गदरायी,
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− | खण्डर-मकान में फूल खिले, तल में बिखरे
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− | | + | |
− | जीवन संघर्षों में घुमड़े
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− | ::उमड़े चक्की के गीतों में
| + | |
− | कल्याणमयी करुणाओं के
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− | | + | |
− | हिन्दुस्तानी सपने निखरे —
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− | जिस सुर को सुन
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− | कूएँ की सजल मुँडेर हिली
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− | | + | |
− | प्रातः कालीन हवाओं में ।
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− | ::सूरज का लाल-लाल चेहरा
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− | डोला धरती की बाहों में,
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− | | + | |
− | आसक्ति भरा रवि का मुख वह ।
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− | उसकी मेधाओं की ज्वालाएँ ऐसी फैलीं —
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− | उस घास-भरे जंगल-पहाड़-बंजर में
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− | :यों दावाग्नि लगी
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− | मानो बूढ़ी दुनिया के सिर पर आग लगी
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− | सिर जलता है, कन्धे जलते ।
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− | | + | |
− | यह अग्नि-विश्वजित् फैली है जिन लोगों की
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− | :::रे नौजवान,
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− | इतिहास बनानेवाला सिर करके ऊंचा
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− | भौहों पर मेघों-जैसा
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− | :विद्युत भार
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− | :विचारों का लेकर
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− | पृथ्वी की गति के साथ-साथ घूमते हुए
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− | | + | |
− | वे दिशा-काल वन वातावरण-पटल जैसे
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− | चलते जन-जन के साथ
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− | वे हैं आगे वे हैं पीछे ।
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− | अगजाजी खोहों और खदानों के
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− | | + | |
− | तल में
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− | :ज्यों रत्न-द्वीप जलते
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− | त्यों जन-जन के अनपहचाने अन्तस्तल में
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− | जीवन के सत्य-दीप पलते !!
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− | दावाग्नि-लगे, जंगल के बीचों-बीच बहे
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− | मानो जीवन सरिता
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− | :जलते कूलोंवाली,
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− | इस कष्ट भरे जीवन के विस्तारों में त्यों
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− | बहती है तरुणों की आत्मा प्रतिभाशाली
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− | अपने भीतर प्रतिबिम्बित जीवन-चित्रावलि,
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− | लेकर ज्यों बहते रहते हैं,
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− | ये भारतीय नूतन झरने
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− | अंगारों की धाराओं से
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− | विक्षोभों के उद्वेगों में
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− | संघर्षों के उत्साहों में
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− | :जाने क्या-क्या सहते रहते ।
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− | लहरों की ग्रीवा में सूरज की वरमाला;
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− | जमकर पत्थर बन गए दुखों-सी
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− | :धरती की प्रस्तर-माला
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− | जल-भरे पारदर्शी उर में !!
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− | सम्पूरन मानव की पीड़ित छवियाँ लेकर
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− | जन-जन के पुत्रों के हिय में
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− | :मचले हिन्दुस्तानी झरने
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− | ::मानव युग के ।
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− | इन झरनों की बलखाती धारा के जल में —
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− | लहरों में लहराती धरती
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− | :की बाहों ने
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− | बिम्बित रवि-रंजित नभ को कसकर चूम लिया,
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− | मानव-भविष्य का विजयाकांक्षी आसमान
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− | इन झरनों में
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− | अपने संघर्षी वर्तमान में घूम लिया !!
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− | ऐसा संघर्षी वर्तमान —
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− | :तुम भी तो हो,
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− | मानव-भविष्य का आसमान —
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− | :तुममें भी है,
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− | मानव-दिगन्त के कूलों पर
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− | जिन लक्ष्य अभिप्रायों की दमक रही किरनें
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− | :वे अपनी लाल बुनावट में
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− | :जिन कुसुमों की आकृति बुनने
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− | :के लिए विकल हो उठती हैं —
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− | उसमें से एक फूल है रे, तुम जैसा हो,
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− | वह तुम ही हो.
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− | | + | |
− | इस रिश्ते से, इस नाते से
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− | यह भारतीय आकाश और पृथ्वीतल,
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− | | + | |
− | बंजर ज़मीन के खण्डहर के बरगद-पीपल
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− | ये गलियाँ, राहें घर-मंजिल,
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− | पत्थर, जंगल
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− | पहचानते रहे नित तुमको जिन आँखों से
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− | उन आँखों से मैंने भी तुमको पहचाना,
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− | मानव-दिगन्त के कूलों पर
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− | जिन किरनों का ताना-बाना
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− | :उस रश्मि-रेशमी
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− | :क्षितिज-क्षोभ पर अंकित
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− | नतन-व्यक्तित्वों के सहस्र-दल स्वर्णोज्ज्वल —
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− | आदर्श बिम्ब मानव युग के ।
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− | उनके आलोक-वलय में जग मैंने देखा —
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− | जन-जन के संघर्षों में विकसित
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− | :परिणत होते नूतन मन का ।
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− | ::वह अन्तस्तल . . . . . .
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− | संघर्ष-विवेकों की प्रतिभा
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− | अनुभव-गरिमाओं की आभा
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− | | + | |
− | वह क्षमा-दया-करुणा की नीरोज्ज्वल शोभा
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− | सौ सहानुभूतियों की गरमी,
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− | प्राणों में कोई बैठा है कबीर मर्मी
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− | ये पहलू-पांखें, पंखुरियाँ स्वर्णोज्जवल
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− | नूतन नैतिकता का सहस्र-दल खिलता है,
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− | | + | |
− | मानव-व्यक्तित्व-सरोवर में !!
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− | | + | |
− | उस स्वर्ण-सरोवर का जल
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− | :चमक रहा देखो
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− | उस दूर क्षितिज-रेखा पर वह झिलमिला रहा ।
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− | | + | |
− | | + | |
− | ताना-बाना
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− | :मानव दिगंत किरनों का
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− | :मैंने तुममें, जन-जन में जिस दिन पहचाना
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− | उस दिन, उस क्षण
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− | | + | |
− | नीले नभ का सूरज हँसते-हँसते उतरा
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− | :मेरे आंगन,
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− | प्रतिपल अधिकाधिक उज्ज्वल हो
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− | :मधुशील चन्द्र
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− | ::था प्रस्तुत यों
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− | मेरे सम्मुख आया मानो
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− | | + | |
− | मेरा ही मन ।
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− | | + | |
− | वे कहने लगे कि चले आ रहे तारागण
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− | | + | |
− | इस बैठक में, इस कमरे में, इस आंगन में —
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− | | + | |
− | जब कह ही रहा था कि कब इन्हें बुलाया है मैंने, | + | |
− | | + | |
− | तब अकस्मात् आये मेरे जन, मित्र, स्नेह के सम्बन्धन
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− | | + | |
− | नक्षत्र-मंडलों में से तारागण उतरे
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− | | + | |
− | मैदान, धूप, झरने, नदियाँ सम्मुख आयीं,
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− | | + | |
− | मानो जन-जन के जीवन-गुण के रंगों में
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− | | + | |
− | है फैल चली मेरी दुनिया की
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− | :या कि तुम्हारी ही झाँईं ।
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− | तुम क्या जानो मुझको कितना
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− | ::अभिमान हुआ
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− | सन्दर्भ हटा, व्यक्ति का कहीं उल्लेख न कर,
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− | | + | |
− | जब भव्य तुम्हारा संवेदन | + | |
− | | + | |
− | सबके सम्मुख रख सका, तभी
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− | | + | |
− | अनुभवी ज्ञान-संवेदन की दुर्दम पीड़ा
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− | ::झलमला उठी !!
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− | | + | |
− | | + | |
− | ईमानदार संस्कार-मयी
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− | | + | |
− | सन्तुलित नयी गहरी चेतना
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− | | + | |
− | :अभय होकर अपने
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− | वास्तविक मूलगामी निष्कर्षों तक पहुँची
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− | | + | |
− | ऐसे निष्कर्ष कि जिनके अनुभव-अस्त्रों से
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− | | + | |
− | वैज्ञानिक मानव-शस्त्रों से
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− | | + | |
− | मेरे सहचर हैं ढहा रहे
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− | वीरान विरोधी दुर्गों की अखण्ड सत्ता ।
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− | | + | |
− | उनके अभ्यन्तर के प्रकाश की कीर्तिकथा
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− | | + | |
− | जब मेरे भीतर मंडरायी | + | |
− | | + | |
− | मेरी अखबार-नवीसी ने सौ-सौ आंखें पायीं ।
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− | | + | |
− | | + | |
− | कागज़ की भूरी छाती पर
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− | :नीली स्याही के अक्षर में था प्रकट हुआ
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− | | + | |
− | छप्पर के छेदों से सहसा झाँका वह नीला आसमान
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− | | + | |
− | वह आसमान जिसमें ज्योतिर्मय
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− | :कमल खिला
| + | |
− | ::रवि का ।
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− | शब्दों-शब्दों में वाक्यों में
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− | | + | |
− | मानवी-अभिप्रायों का सूरज निकला
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− | :उसकी विश्वाकुल एक किरन
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− | ::तुम भी तो हो,
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− | धरती के जी को अकुलानेवाली
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− | :छवि-मधुरा कविता की
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− | :प्यारी-प्यारी सी एक कहन
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− | :तुम भी तो हो,
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− | वीरान में टूटे विशाल पुल के एक खण्डहर में
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− | | + | |
− | उगे आक के फूलों के नीले तारे,
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− | | + | |
− | मधु-गन्ध भरी उद्दाम हरी
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− | :चम्पा के साथ
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− | ::उगे प्यारे,
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− | मानो जहरीले अनुभव में
| + | |
− | | + | |
− | मानव-भावों के अमृतमय
| + | |
− | :शत-प्रतिभाओं के अंगारे,
| + | |
− | उनकी दुर्दान्त पराकाष्ठा
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− | :की एक किरन
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− | :तुम भी तो हो !!
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− | अपने संघर्षों के कडुए
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− | :अनुभव की
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− | ::छाती के भीतर
| + | |
− | दुर्दान्त ऐतिहासिक दर्दों की भँवर लिये
| + | |
− | ::तुम-जैसे-जन
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− | मेरे जीवन निर्झर के पथरीले तट पर
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− | | + | |
− | आ खड़े हुए,
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− | | + | |
− | तब मैंने नहीं पुकारा — 'तुम आ जाओ'
| + | |
− | | + | |
− | तब मैंने नहीं कहा था यों
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− | | + | |
− | मेरे मन की जल धारा में
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− | | + | |
− | तुम हाथ डुबो,
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− | :मुँह धो लो, जल पी लो, अपना
| + | |
− | :मुख बिम्ब निहारो तुम ।
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− | जब मेरे मन की पथरीली | + | |
− | | + | |
− | निर्झर धारा के फूलों पर,
| + | |
− | | + | |
− | गहरी धनिष्ठता की असीम
| + | |
− | | + | |
− | गम्भीर घटाएँ घुमड़ी थीं,
| + | |
− | | + | |
− | गम्भीर मेघ-दल उमड़े थे,
| + | |
− | | + | |
− | औ' जीवन की सीधी सुगन्ध
| + | |
− | | + | |
− | जब महकी थी | + | |
− | :ईमाम-भरे-बेछोर सरल मैदानों पर
| + | |
− | तब क्यों सहसा
| + | |
− | :तूफानी मेघों के हिय में
| + | |
− | :तुम विद्युत की दुर्दान्त व्यथा-सी
| + | |
− | :डोली थीं,
| + | |
− | तब मैंने कहा था अपनी आँखों में
| + | |
− | | + | |
− | भावातिरेक तुम दरसाओ ।
| + | |
− | | + | |
− | जब आसमान से धरती तक | + | |
− | :आकस्मिक एक प्रकाश-बेल
| + | |
− | :विद्युत की नील विलोल लता-सी
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− | :सहसा तुम बेपर्द हुईं
| + | |
− | जब मेरे-मन-निर्झर-तट पर | + | |
− | | + | |
− | तब मैंने नहीं कहा थी मुझको इस प्रकार
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− | | + | |
− | तुम अपना अंतर का प्राकार बना जाओ ।
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− | | + | |
− | लेकिन संघर्षों के पथ पर
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− | :ऐसे अवसर आते ही हैं,
| + | |
− | :ऐसे सहचर मिलते ही हैं,
| + | |
− | नभ-मण्डल में खुद को उद्घाटित
| + | |
− | :करता चलता है सूरज
| + | |
− | :इस प्रकार,
| + | |
− | जीवन के प्रखर-समर्थक से प्रश्न-चिन्ह
| + | |
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− | बौखला रहे हों दुर्निवार !! | + | |
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− | कोई स्वर ऊँचा उठता हुआ बींधता चला गया ।
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− | उस स्वर को चमचमाती-सी एक तेज़ नोक
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− | जिसने मेरे भीतर की चट्टानी ज़मीन
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− | अपनी विद्युत से यों खो दी, इतनी रन्ध्रिल कर दी कि अरे
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− | उस अन्धकार भूमि से अजब
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− | सौ लाल-लाल जाज्ज्वल्यमान
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− | मणिगण निकले
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− | केवल पल में
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− | देदीप्यमान अंगार हृदय में संभालता हुआ
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− | उठता हूँ
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− | इतने में ही जाने कितनी गहराई में से मैंने देखा
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− | गलियों के श्यामल सूने में
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− | कोई दुबली बालक छाया
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− | असहाय ! रोती चली गयी !!
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− | दुनिया के खड़े डूह दीखे
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− | वीरान चिलचिलाहट में फटे चीथ चमके
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− | थे छोर गरीब साड़ियों के
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− | नन्हे बुरकों की बाहें भीतर फँसी झाड़ियों
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− | उन्हें देखता रहा कि इतने में
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− | ढूहों में से झाड़ी में से ही उधर निकली
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− | वीरान हवा की लहरों पर
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− | पीली-धुंधली उदास गहरी नारी-रेखा
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− | उसकी उंगली पकड़ चलती कोई
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− | बालक-झाईं मैंने देखी
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− | वीरान हवा की लहरों पर
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− | पैरों पर मैं चंचलतर हूँ
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− | जब इसी गली के नुक्कड़ पर
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− | मैंने देखी
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− | वह फक्कड़ भूख उदास प्यास
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− | निःस्वार्थ तृषा
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− | जीने-मरने की तैयारी
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− | मैं गया भूख के घर व प्यास के आँगन में
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− | चिन्ता की काली कुठरी में,
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− | तब मुझे दिखे कार्यरत वहाँ
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− | विज्ञान-ज्ञान
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− | नित सक्रिय हैं
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− | सब विश्लेषण संस्लेषण में
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− | मुझ में बिजली की घूम गई थरथरी
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− | उद्दाम ज्ञान संवेदन की फुरफुरी
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− | हृदय में जगी
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− | तन-मन में कोई जादू की-सी आग लगी
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− | मस्तिष्क तन्तुओं में से प्रदीप्त
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− | :वेदना यथार्थों की जागी
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− | यद्यपि दिन है
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− | सब ओर लगाते आग विद्युत क्षण हैं
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− | किन्तु अंधेरे में —
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− | अपनी उठती-गिरती लौ की लीलाओं में
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− | अपनी छायाओं की लीला देखता रहा
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− | अन्तर आपद्-ग्रस्ता आत्मा
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− | नमकीन धूल के गरम-गरम अनिवार बवण्डर सी घूमी
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− | फिर छितर गयी
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− | या बिखर गयी
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− | पर अजब हुआ
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− | कुछ मटियाले पैरों के उसने पैर छुए
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− | अद्विग्न मनःस्थिति में
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− | जीवन के रज धूसर पद पर
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− | आँखें बन कर, वह बैठ गयी, भीतरी परिस्थिति में ।
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− | मस्तिष्क तन्तुओं में प्रदीप्त वेदना यथार्थों की जागी
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− | वह सड़क बीच
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− | हर राहगीर की छाँह तले
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− | उसका सब कुछ जीने पी लेने को उतावली
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− | यह सोच कि जाने कौन वेष में कहाँ व कितना सच मिले —
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− | वह नत होकर उन्नत होने की बेचैनी !
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