"चैत्र की हवायें और वह लड़की / आलोक श्रीवास्तव-२" के अवतरणों में अंतर
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चैत्र की हवायें थीं बाहर | चैत्र की हवायें थीं बाहर |
12:33, 3 अप्रैल 2009 का अवतरण
और फिर एक बार लौट आया है प्यार
चैत्र की हवायें थीं बाहर
सड़कों पर झुलसे दरख़्तों की परछाइयां
जल चुकी थी पहाड़ी पर की घास
और एक लड़की तपती दोपहरियों
और उमस से भरी शामों में
बसों से चढ़ती-उतरती
नीले दुपट्टे को अपनी छाती पर संभालती
लौटती थी घर
बस में कभी-कभार होतीं उससे बातें
उसकी हंसी, आंखें, उसकी शालीन उड़ती लटों से
मोहित था मैं
निश्छल सादगी बन कर प्यार लौट आया था
बीते वसंत के पेड़ों पर नयी कोपलें थीं
और रात के आकाश पर समूचा चांद
बहुत-बहुत दिनों तक नहीं मिलती वह
मैं उदासी का वज़न उठाये-उठाये उन्हीं रास्तों से गुज़रता
एक झलक पा लेने की उम्मीद में
समुद्र की लहरों से पूछता उसके घर का पता
प्यार और विछोह के अतीत के हर अनुभव से
सघनतर होता दिनोदिन यह प्यार
अजीब-सी कसक बन उठा भीतर
जब सारा शहर रौशनी में डूब जाता
सो जाता सारा शहर
और सिर्फ सागर की लहरें चट्टानों पर गूंजतीं
एक खोयापन हवाओं पर अचानक तारी हो उठता
इन्हीं हवाओं में उलझी उसकी लटें मुझे मुग्ध कर गयीं थीं
दिनों बाद जब वह मिलती
खु़शी रगों में वसंत के फूल बन खिल उठती
हवाओं में उड़ते नीले दुपट्टे और उलझती लटों को
चूम लेने की कामना उमगती
चैत्र की साक्षी में लौटे इस प्यार की कथा अभी जारी है ...
हालांकि अरसे से देखा नहीं है उसे
इसी शहर की भीड़ में कहीं खोया होगा वह चेहरा
किन्हीं हवाओं में चेहरे पर घिर आती उन लटों की गंध होगी
उमस भरी शामों में लौटते दो थके पैर होंगे
अपरिचित मेरी इस उदासी से ।