भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मुरली तेरा मुरलीधर / प्रेम नारायण 'पंकिल' / पृष्ठ - २७" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेम नारायण ’पंकिल’ }} <poem> भूत मात्र में व्याप्...)
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=प्रेम नारायण ’पंकिल’
+
|रचनाकार=प्रेम नारायण 'पंकिल'
 
}}
 
}}
 
<poem>  
 
<poem>  
 
 
भूत मात्र में व्याप्त ईश का सूत्र न छोड़ कभीं मधुकर  
 
भूत मात्र में व्याप्त ईश का सूत्र न छोड़ कभीं मधुकर  
 
कर्म त्याग संभव न त्याग भी तो है एक कर्म निर्झर
 
कर्म त्याग संभव न त्याग भी तो है एक कर्म निर्झर
पंक्ति 29: पंक्ति 28:
 
बुद्धि न श्रद्धा सदृश पावनी श्रद्धा सम बलवान कहाँ
 
बुद्धि न श्रद्धा सदृश पावनी श्रद्धा सम बलवान कहाँ
 
टेर रहा श्रद्धातरंगिणी  मुरली  तेरा    मुरलीधर।।135।।
 
टेर रहा श्रद्धातरंगिणी  मुरली  तेरा    मुरलीधर।।135।।
<poem/>
+
</poem>

18:45, 21 मई 2009 का अवतरण

 
भूत मात्र में व्याप्त ईश का सूत्र न छोड़ कभीं मधुकर
कर्म त्याग संभव न त्याग भी तो है एक कर्म निर्झर
रज्जु सर्प ताड़न या उससे सभय पलायन व्यर्थ युगल
टेर रहा है तत्वदर्शिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।131।।

आत्मा शिव शव देंह तुम्हारा जीवन ही मरघट मधुकर
नर शरीर की पकड़ कुल्हाड़ी काट अपर काया निर्झर
हो निमित्त अहमिति तज बन जा कृष्ण कराम्बुज की मुरली
टेर रहा है कृपावर्षिणी मुरली तेरा मुरलीधर।।132।।

अरे विचार प्रबल मारुत में झिझक ठिठक ठहरा मधुकर
तेरे गतिमय चिन्तन की भी हुई अदृश्य दिशा निर्झर
ऐसी स्थिति में करुण ईश्वर की कृपा बिना है त्राण कहाँ
टेर रहा है लाललालिता मुरली तेरा मुरलीधर।।133।।

नर गृह में दीवार दोष हैं गुण ही दरवाजा मधुकर
दीवारों से ही टकरा क्यों फोड़ रहा है सिर निर्झर
दृग न खुले या फिरा निरर्थक दोनों ही तो अंधापन
टेर रहा उन्मिलितनयना मुरली तेरा मुरलीधर।।134।।

वस्तु स्वरूप बदलतीं क्षण क्षण मिथ्या इसे न कह मधुकर
लीलाधर की प्रकट भंगिमायें हैं सभी समझ निर्झर
बुद्धि न श्रद्धा सदृश पावनी श्रद्धा सम बलवान कहाँ
टेर रहा श्रद्धातरंगिणी मुरली तेरा मुरलीधर।।135।।