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"यादों के दीपक / राकेश खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

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और रात की ज़ुल्फ़ें काली रह रह कर बिखरा जाती हैं<br><br>
 
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इतिहासों के पन्नों में से चित्र निकल जब कोई आता<br>
 
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रिश्तों की कोरी चूनर से जुड़ जाता है कोई नाता<br>
 
पुरबाई जब सावन को ले भुजपाशों में गीत सुनाये<br>
 
पुरबाई जब सावन को ले भुजपाशों में गीत सुनाये<br>
 
रजनीगन्धा की खुशबू जब दबे पाँव कमरे तक आये<br><br>
 
रजनीगन्धा की खुशबू जब दबे पाँव कमरे तक आये<br><br>

16:57, 24 मई 2009 के समय का अवतरण

सिरहाने के तकिये में जब ओस कमल की खो जाती है
राह भटक कर कोई बदली, बिस्तर की छत पर छाती है
लोरी के सुर खिड़की की चौखट के बाहर अटके रहते
और रात की ज़ुल्फ़ें काली रह रह कर बिखरा जाती हैं

तब सपने आवारा होकर अम्बर में उड़ते रहते है
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं

बिम्ब उलझ कर जब संध्या में, सूरज के संग संग ढलते हैं
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं

पनघट की सूनी देहरी पर जब न उतरती गागर कोई
राह ढूँढती इक पगडन्डी रह जाती है पथ में खोई
सुधियों की अमराई में जब कोई बौर नहीं आ पाती
बरगद की फ़ुनगी पर बैठी बुलबुल गीत नहीं जब गाती

और हथेली में किस्मत के लेखे जब बनते मिटते हैं
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं

इतिहासों के पन्नों में से चित्र निकल जब कोई आता
रिश्तों की कोरी चूनर से जुड़ जाता है कोई नाता
पुरबाई जब सावन को ले भुजपाशों में गीत सुनाये
रजनीगन्धा की खुशबू जब दबे पाँव कमरे तक आये

और क्षितिज पर घिरे कुहासे में जब इन्द्रधनुष दिखते हैं
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं