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"अध्याय १ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर

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05:11, 17 अक्टूबर 2009 का अवतरण

पुनि बोले अर्जुन माधव सों,
श्री कृष्ण ! मैं ऐसों चाहत हूँ.
तनि ठाढ़ो करौ, हे अच्युत रथ,
सेनाउन बीच, विनयवत हूँ

जिन जुद्धन चाह सों आए यहॉं,
तिन- तिन्हीं, देखिबौ चाहत हूँ.
किन-किन सों जुद्ध मेरौ कत है,
किम कौन को जानिबु चाहत हूँ

हित चाहत को दुरजोधन कौ,
मैं जानिबु चाहत उन उनकौ.
जिन जुद्धन चाह सों आए यहॉं,
मैं देखिबौ चाहत तिन तिनकौ
           
संजय उवाच
संजय बोलत, धृतराष्ट्र सुनौ,
अथ पार्थ की चाह सुनी कृष्णा.
सेनाउन बीचहिं माधव रथ,
ठाढ़ो करि बोले यहि वचना

रथ भीष्म, द्रोण, आचार्य सबहिं,
निरपन के सम्मुख रोक दियो.
गुरुजन, कुरु कौ कुरुक्षेत्र मांहीं,
कौन्तेय देख बिनु शोक हिये

अथ पार्थ पितामह गुरुजन कौ,
पुत्रन, पौत्रन और मित्रन कौ.
मामों ससुरों सब भ्रातन कौ,
सेनाउन देखत निजपन कौ

उत ठाढे सबहिं निज बन्धु सखा.
अवलोकहिं होत मलीन जिया.
करुना मय चित्त सों पार्थ कहें,
मोरो शोक सों व्याकुल होत हिया

अर्जुन उवाच
बन्धु सखा बहु ठाढे यहॉं,
जिन जुद्धन भाव हिया धारे.
तिन देखि हिया मोरो सूखत है,
और कांपत अंग शिथिल सारे

गुरु स्वजन देखि के हे कृष्णा !
मुख सूखि रह्यो, घबराय जिया .
तन कंप शिथिल रोमांच भयौ,
मन बुद्धि भ्रमित, भरमाय हिया

अति दाह त्वचा धध कात मोरी,
गांडीव हाथ सों जात गिरयो.
रहि सकूं खडा समरथ नाहीं,
मन मोरो शोक सों जात घिरयो

लक्षण सगरे, विपरीत मोहे,
यही जुद्ध्हिं केशव दीखत हैं
कुल आपुनि मारि के आपुनि सों
कल्याण कहाँ, यही दुर्गति है

सुख राज विजय की चाह नाहिं,
यही नैकु न नैकु मोहे चहिबौ,
अस राजहूँ भोग गोविन्द सुनौ,
अस जीवन को हम का करिबौ

सुख राज भोग सब यहि जग के,
जिनके हित मानव होत यथा.
सब ठाढे प्रान की आस छोड़,
केहि कारन जुद्धन होत प्रथा

गुरुदेव पितर, दादा, मामा
निज सुत, पोते, चाचा, ताऊ.,
तस् ही बहुतेरे संबन्धी
सम्बंधित काहू सों काहू

तिहूँ लोकन राजहूँ मोहे मिलै,
हे मधुसूदन ! तबहूँ नाहीं
मैं नैकु न मारि सकूं इनकों ,
भू के हित तो कबहूँ नाहीं

धृतराष्ट्र सुतन कौ मारि हमें,
कोऊ हर्ष कदापि कहाँ हुइहै .
आतता यिन मारि के पाप हमें,
निश्चय ही जनार्दन तो हुइहै

अथ माधव कोऊ औचित्य नाहीं,
बंधु और बांधव मारण कौ.
परिवार स्वजन को मार कबहूँ,
सुख होत कहाँ कोऊ प्रानिन कौ

जद्यपि कुरु लोभ सों भ्रष्ट भयौ,
कुल मित्र विनाश को उद्यत है.
नाहीं पाप को नेकु लखाय रह्यो,
रन जुद्ध करावन कौ रत है

सुन मोरे जनार्दन मोरी सुनौ,
कुल नाश को दोष हटावन कौ.
क्यों नाहीं विचार कियौ चहिबौ,
कुल नाश को पाप बचावन कौ

कुल नाश जबहीं हुई जावत है,
कुल धरम सनातन नासत हैं.
जब धरम नसावत कुल, कुल के
तब पापहूँ पाँव पसारत हैं

कुल नाश जबहीं हुई जावत हैं,
कुल नारिहूँ दूषित होवत हैं.
जब नारिहूँ दूषित होवत हैं ,
तब वर्ण दोष बढ़ी जावत हैं

यहि जाति कुजाती कुल घाती,
कुल, कुल कौ नरक लई जावत है,
यहि सों अति घातक कि इनके,
लोग पितर गिर जावत हैं

इन जाति कुजाति के दोसन सों,
कुल जाति के धरम विनासत हैं.
कुल घाति के धरम सनातन जो,
यहि कारन सों ही नसावत हैं

जिनके कुल धरम विनास भये,
तिनके ही नरक मांहीं वास भये .
ऐसों ही जनार्दन जात सुन्यो,
जन ऐसे नरक आवास भये

यहि शोक की बात घनेरी विभो !
सुख राज के लोभ सों पाप करैं.
अथ हेतु भये धिक् ! उद्यत जो,
कुल आपुनि नाश ही आपु करें

धृत राष्ट्र के पुत्र मोहे रन में,
मारें तबहूँ कल्याण मोरों .
मैं शस्त्र हीन हुई, जुद्ध विरत,
न चाहूँ नैकहूँ जुद्ध करौं

रथ मांहीं पाछे बैठि गयो,
रन भूमहीं अर्जुन शोक मना.
शर चाप को त्याग दियो कहिकै,
नाहीं जुद्ध करहूँ कबहूँ कृष्णा!