भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 1" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
कवि: [[रामधारी सिंह "दिनकर"]]
+
{{KKGlobal}}
[[Category:कविताएँ]]
+
{{KKRachna
[[Category:रामधारी सिंह "दिनकर"]]
+
|रचनाकार=रामधारी सिंह 'दिनकर'
 
+
|संग्रह= कुरुक्षेत्र / रामधारी सिंह 'दिनकर'
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
+
}}
  
 
समर निंद्य है धर्मराज, पर,<br>
 
समर निंद्य है धर्मराज, पर,<br>

02:01, 25 जनवरी 2008 का अवतरण

समर निंद्य है धर्मराज, पर,
कहो, शान्ति वह क्या है,
जो अनीति पर स्थित होकर भी
बनी हुई सरला है?

सुख-समृद्धि क विपुल कोष
संचित कर कल, बल, छल से,
किसी क्षुधित क ग्रास छीन,
धन लूट किसी निर्बल से।

सब समेट, प्रहरी बिठला कर
कहती कुछ मत बोलो,
शान्ति-सुधा बह रही, न इसमें
गरल क्रान्ति का घोलो।

हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त
अपना मुझको पीने दो,
अचल रहे साम्रज्य शान्ति का,
जियो और जीने दो।

सच है, सत्ता सिमट-सिमट
जिनके हाथों में आयी,
शान्तिभक्त वे साधु पुरुष
क्यों चाहें कभी लड़ाई?

सुख का सम्यक्-रूप विभाजन
जहाँ नीति से, नय से
संभव नहीं; अशान्ति दबी हो
जहाँ खड्ग के भय से,

जहाँ पालते हों अनीति-पद्धति
को सत्ताधारी,
जहाँ सुत्रधर हों समाज के
अन्यायी, अविचारी;

नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के
जहाँ न आदर पायें;
जहाँ सत्य कहनेवालों के
सीस उतारे जायें;

जहाँ खड्ग-बल एकमात्र
आधार बने शासन का;
दबे क्रोध से भभक रहा हो
हृदय जहाँ जन-जन का;

सहते-सहते अनय जहाँ
मर रहा मनुज का मन हो;
समझ कापुरुष अपने को
धिक्कार रहा जन-जन हो;

अहंकार के साथ घृणा का
जहाँ द्वन्द्व हो जारी;
ऊपर शान्ति, तलातल में
हो छिटक रही चिनगारी;

आगामी विस्फोट काल के
मुख पर दमक रहा हो;
इंगित में अंगार विवश
भावों के चमक रहा हो;

पढ कर भी संकेत सजग हों
किन्तु, न सत्ताधारी;
दुर्मति और अनल में दें
आहुतियाँ बारी-बारी;

कभी नये शोषण से, कभी
उपेक्षा, कभी दमन से,
अपमानों से कभी, कभी
शर-वेधक व्यंग्य-वचन से।

दबे हुए आवेग वहाँ यदि
उबल किसी दिन फूटें,
संयम छोड़, काल बन मानव
अन्यायी पर टूटें;

कहो, कौन दायी होगा
उस दारुण जगद्दहन का
अहंकार य घृणा? कौन
दोषी होगा उस रण का?