"अध्याय १ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
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+ | हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते। | ||
+ | सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत॥१-२१॥ | ||
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पुनि बोले अर्जुन माधव सों, | पुनि बोले अर्जुन माधव सों, | ||
श्री कृष्ण ! मैं ऐसों चाहत हूँ. | श्री कृष्ण ! मैं ऐसों चाहत हूँ. | ||
तनि ठाढ़ो करौ, हे अच्युत रथ, | तनि ठाढ़ो करौ, हे अच्युत रथ, | ||
सेनाउन बीच, विनयवत हूँ | सेनाउन बीच, विनयवत हूँ | ||
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+ | यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्। | ||
+ | कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे॥१-२२॥ | ||
+ | </span> | ||
जिन जुद्धन चाह सों आए यहॉं, | जिन जुद्धन चाह सों आए यहॉं, | ||
तिन- तिन्हीं, देखिबौ चाहत हूँ. | तिन- तिन्हीं, देखिबौ चाहत हूँ. | ||
किन-किन सों जुद्ध मेरौ कत है, | किन-किन सों जुद्ध मेरौ कत है, | ||
किम कौन को जानिबु चाहत हूँ | किम कौन को जानिबु चाहत हूँ | ||
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+ | योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः। | ||
+ | धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः॥१-२३॥ | ||
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हित चाहत को दुरजोधन कौ, | हित चाहत को दुरजोधन कौ, | ||
मैं जानिबु चाहत उन उनकौ. | मैं जानिबु चाहत उन उनकौ. | ||
जिन जुद्धन चाह सों आए यहॉं, | जिन जुद्धन चाह सों आए यहॉं, | ||
मैं देखिबौ चाहत तिन तिनकौ | मैं देखिबौ चाहत तिन तिनकौ | ||
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+ | एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत। | ||
+ | सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥१-२४॥ | ||
+ | </span> | ||
संजय उवाच | संजय उवाच | ||
संजय बोलत, धृतराष्ट्र सुनौ, | संजय बोलत, धृतराष्ट्र सुनौ, | ||
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सेनाउन बीचहिं माधव रथ, | सेनाउन बीचहिं माधव रथ, | ||
ठाढ़ो करि बोले यहि वचना | ठाढ़ो करि बोले यहि वचना | ||
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+ | भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्। | ||
+ | उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति॥१-२५॥ | ||
+ | </span> | ||
रथ भीष्म, द्रोण, आचार्य सबहिं, | रथ भीष्म, द्रोण, आचार्य सबहिं, | ||
निरपन के सम्मुख रोक दियो. | निरपन के सम्मुख रोक दियो. | ||
गुरुजन, कुरु कौ कुरुक्षेत्र मांहीं, | गुरुजन, कुरु कौ कुरुक्षेत्र मांहीं, | ||
कौन्तेय देख बिनु शोक हिये | कौन्तेय देख बिनु शोक हिये | ||
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+ | तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान्। | ||
+ | आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा॥१-२६॥ | ||
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अथ पार्थ पितामह गुरुजन कौ, | अथ पार्थ पितामह गुरुजन कौ, | ||
पुत्रन, पौत्रन और मित्रन कौ. | पुत्रन, पौत्रन और मित्रन कौ. | ||
मामों ससुरों सब भ्रातन कौ, | मामों ससुरों सब भ्रातन कौ, | ||
सेनाउन देखत निजपन कौ | सेनाउन देखत निजपन कौ | ||
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+ | श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि। | ||
+ | तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्॥१-२७॥ | ||
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उत ठाढे सबहिं निज बन्धु सखा. | उत ठाढे सबहिं निज बन्धु सखा. | ||
अवलोकहिं होत मलीन जिया. | अवलोकहिं होत मलीन जिया. | ||
करुना मय चित्त सों पार्थ कहें, | करुना मय चित्त सों पार्थ कहें, | ||
मोरो शोक सों व्याकुल होत हिया | मोरो शोक सों व्याकुल होत हिया | ||
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+ | कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्। | ||
+ | दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥१-२८॥ | ||
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अर्जुन उवाच | अर्जुन उवाच | ||
बन्धु सखा बहु ठाढे यहॉं, | बन्धु सखा बहु ठाढे यहॉं, | ||
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तिन देखि हिया मोरो सूखत है, | तिन देखि हिया मोरो सूखत है, | ||
और कांपत अंग शिथिल सारे | और कांपत अंग शिथिल सारे | ||
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+ | सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति। | ||
+ | वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते॥१-२९॥ | ||
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गुरु स्वजन देखि के हे कृष्णा ! | गुरु स्वजन देखि के हे कृष्णा ! | ||
मुख सूखि रह्यो, घबराय जिया . | मुख सूखि रह्यो, घबराय जिया . | ||
तन कंप शिथिल रोमांच भयौ, | तन कंप शिथिल रोमांच भयौ, | ||
मन बुद्धि भ्रमित, भरमाय हिया | मन बुद्धि भ्रमित, भरमाय हिया | ||
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+ | गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते। | ||
+ | न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥१-३०॥ | ||
+ | </span> | ||
अति दाह त्वचा धध कात मोरी, | अति दाह त्वचा धध कात मोरी, | ||
गांडीव हाथ सों जात गिरयो. | गांडीव हाथ सों जात गिरयो. | ||
रहि सकूं खडा समरथ नाहीं, | रहि सकूं खडा समरथ नाहीं, | ||
मन मोरो शोक सों जात घिरयो | मन मोरो शोक सों जात घिरयो | ||
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+ | निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव। | ||
+ | न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे॥१-३१॥ | ||
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लक्षण सगरे, विपरीत मोहे, | लक्षण सगरे, विपरीत मोहे, | ||
यही जुद्ध्हिं केशव दीखत हैं | यही जुद्ध्हिं केशव दीखत हैं | ||
कुल आपुनि मारि के आपुनि सों | कुल आपुनि मारि के आपुनि सों | ||
कल्याण कहाँ, यही दुर्गति है | कल्याण कहाँ, यही दुर्गति है | ||
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+ | न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च। | ||
+ | किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा॥१-३२॥ | ||
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सुख राज विजय की चाह नाहिं, | सुख राज विजय की चाह नाहिं, | ||
यही नैकु न नैकु मोहे चहिबौ, | यही नैकु न नैकु मोहे चहिबौ, | ||
अस राजहूँ भोग गोविन्द सुनौ, | अस राजहूँ भोग गोविन्द सुनौ, | ||
अस जीवन को हम का करिबौ | अस जीवन को हम का करिबौ | ||
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+ | येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च। | ||
+ | त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥१-३३॥ | ||
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सुख राज भोग सब यहि जग के, | सुख राज भोग सब यहि जग के, | ||
जिनके हित मानव होत यथा. | जिनके हित मानव होत यथा. | ||
सब ठाढे प्रान की आस छोड़, | सब ठाढे प्रान की आस छोड़, | ||
केहि कारन जुद्धन होत प्रथा | केहि कारन जुद्धन होत प्रथा | ||
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+ | आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः। | ||
+ | मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबन्धिनस्तथा॥१-३४॥ | ||
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गुरुदेव पितर, दादा, मामा | गुरुदेव पितर, दादा, मामा | ||
निज सुत, पोते, चाचा, ताऊ., | निज सुत, पोते, चाचा, ताऊ., | ||
तस् ही बहुतेरे संबन्धी | तस् ही बहुतेरे संबन्धी | ||
सम्बंधित काहू सों काहू | सम्बंधित काहू सों काहू | ||
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+ | एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन। | ||
+ | अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते॥१-३५॥ | ||
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तिहूँ लोकन राजहूँ मोहे मिलै, | तिहूँ लोकन राजहूँ मोहे मिलै, | ||
हे मधुसूदन ! तबहूँ नाहीं | हे मधुसूदन ! तबहूँ नाहीं | ||
मैं नैकु न मारि सकूं इनकों , | मैं नैकु न मारि सकूं इनकों , | ||
भू के हित तो कबहूँ नाहीं | भू के हित तो कबहूँ नाहीं | ||
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+ | निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन। | ||
+ | पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः॥१-३६॥ | ||
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धृतराष्ट्र सुतन कौ मारि हमें, | धृतराष्ट्र सुतन कौ मारि हमें, | ||
कोऊ हर्ष कदापि कहाँ हुइहै . | कोऊ हर्ष कदापि कहाँ हुइहै . | ||
आतता यिन मारि के पाप हमें, | आतता यिन मारि के पाप हमें, | ||
निश्चय ही जनार्दन तो हुइहै | निश्चय ही जनार्दन तो हुइहै | ||
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+ | तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्। | ||
+ | स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव॥१-३७॥ | ||
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अथ माधव कोऊ औचित्य नाहीं, | अथ माधव कोऊ औचित्य नाहीं, | ||
बंधु और बांधव मारण कौ. | बंधु और बांधव मारण कौ. | ||
परिवार स्वजन को मार कबहूँ, | परिवार स्वजन को मार कबहूँ, | ||
सुख होत कहाँ कोऊ प्रानिन कौ | सुख होत कहाँ कोऊ प्रानिन कौ | ||
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+ | यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः। | ||
+ | कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥१-३८॥ | ||
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जद्यपि कुरु लोभ सों भ्रष्ट भयौ, | जद्यपि कुरु लोभ सों भ्रष्ट भयौ, | ||
कुल मित्र विनाश को उद्यत है. | कुल मित्र विनाश को उद्यत है. | ||
नाहीं पाप को नेकु लखाय रह्यो, | नाहीं पाप को नेकु लखाय रह्यो, | ||
रन जुद्ध करावन कौ रत है | रन जुद्ध करावन कौ रत है | ||
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+ | कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्। | ||
+ | कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥१-३९॥ | ||
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सुन मोरे जनार्दन मोरी सुनौ, | सुन मोरे जनार्दन मोरी सुनौ, | ||
कुल नाश को दोष हटावन कौ. | कुल नाश को दोष हटावन कौ. | ||
क्यों नाहीं विचार कियौ चहिबौ, | क्यों नाहीं विचार कियौ चहिबौ, | ||
कुल नाश को पाप बचावन कौ | कुल नाश को पाप बचावन कौ | ||
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+ | कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः। | ||
+ | धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत॥१-४०॥ | ||
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कुल नाश जबहीं हुई जावत है, | कुल नाश जबहीं हुई जावत है, | ||
कुल धरम सनातन नासत हैं. | कुल धरम सनातन नासत हैं. | ||
जब धरम नसावत कुल, कुल के | जब धरम नसावत कुल, कुल के | ||
तब पापहूँ पाँव पसारत हैं | तब पापहूँ पाँव पसारत हैं | ||
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+ | अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः। | ||
+ | स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः॥१-४१॥ | ||
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कुल नाश जबहीं हुई जावत हैं, | कुल नाश जबहीं हुई जावत हैं, | ||
कुल नारिहूँ दूषित होवत हैं. | कुल नारिहूँ दूषित होवत हैं. | ||
जब नारिहूँ दूषित होवत हैं , | जब नारिहूँ दूषित होवत हैं , | ||
तब वर्ण दोष बढ़ी जावत हैं | तब वर्ण दोष बढ़ी जावत हैं | ||
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+ | संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च। | ||
+ | पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥१-४२॥ | ||
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यहि जाति कुजाती कुल घाती, | यहि जाति कुजाती कुल घाती, | ||
कुल, कुल कौ नरक लई जावत है, | कुल, कुल कौ नरक लई जावत है, | ||
यहि सों अति घातक कि इनके, | यहि सों अति घातक कि इनके, | ||
लोग पितर गिर जावत हैं | लोग पितर गिर जावत हैं | ||
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+ | दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः। | ||
+ | उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥१-४३॥ | ||
+ | </span> | ||
इन जाति कुजाति के दोसन सों, | इन जाति कुजाति के दोसन सों, | ||
कुल जाति के धरम विनासत हैं. | कुल जाति के धरम विनासत हैं. | ||
कुल घाति के धरम सनातन जो, | कुल घाति के धरम सनातन जो, | ||
यहि कारन सों ही नसावत हैं | यहि कारन सों ही नसावत हैं | ||
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+ | उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन। | ||
+ | नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥१-४४॥ | ||
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जिनके कुल धरम विनास भये, | जिनके कुल धरम विनास भये, | ||
तिनके ही नरक मांहीं वास भये . | तिनके ही नरक मांहीं वास भये . | ||
ऐसों ही जनार्दन जात सुन्यो, | ऐसों ही जनार्दन जात सुन्यो, | ||
जन ऐसे नरक आवास भये | जन ऐसे नरक आवास भये | ||
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+ | अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्। | ||
+ | यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥१-४५॥ | ||
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यहि शोक की बात घनेरी विभो ! | यहि शोक की बात घनेरी विभो ! | ||
सुख राज के लोभ सों पाप करैं. | सुख राज के लोभ सों पाप करैं. | ||
अथ हेतु भये धिक् ! उद्यत जो, | अथ हेतु भये धिक् ! उद्यत जो, | ||
कुल आपुनि नाश ही आपु करें | कुल आपुनि नाश ही आपु करें | ||
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+ | यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः। | ||
+ | धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥१-४६॥ | ||
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धृत राष्ट्र के पुत्र मोहे रन में, | धृत राष्ट्र के पुत्र मोहे रन में, | ||
मारें तबहूँ कल्याण मोरों . | मारें तबहूँ कल्याण मोरों . | ||
मैं शस्त्र हीन हुई, जुद्ध विरत, | मैं शस्त्र हीन हुई, जुद्ध विरत, | ||
न चाहूँ नैकहूँ जुद्ध करौं | न चाहूँ नैकहूँ जुद्ध करौं | ||
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+ | एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्। | ||
+ | विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥१-४७॥ | ||
+ | </span> | ||
रथ मांहीं पाछे बैठि गयो, | रथ मांहीं पाछे बैठि गयो, | ||
रन भूमहीं अर्जुन शोक मना. | रन भूमहीं अर्जुन शोक मना. |
10:47, 24 नवम्बर 2009 का अवतरण
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत॥१-२१॥
पुनि बोले अर्जुन माधव सों,
श्री कृष्ण ! मैं ऐसों चाहत हूँ.
तनि ठाढ़ो करौ, हे अच्युत रथ,
सेनाउन बीच, विनयवत हूँ
यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे॥१-२२॥
जिन जुद्धन चाह सों आए यहॉं,
तिन- तिन्हीं, देखिबौ चाहत हूँ.
किन-किन सों जुद्ध मेरौ कत है,
किम कौन को जानिबु चाहत हूँ
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः॥१-२३॥
हित चाहत को दुरजोधन कौ,
मैं जानिबु चाहत उन उनकौ.
जिन जुद्धन चाह सों आए यहॉं,
मैं देखिबौ चाहत तिन तिनकौ
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥१-२४॥
संजय उवाच
संजय बोलत, धृतराष्ट्र सुनौ,
अथ पार्थ की चाह सुनी कृष्णा.
सेनाउन बीचहिं माधव रथ,
ठाढ़ो करि बोले यहि वचना
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति॥१-२५॥
रथ भीष्म, द्रोण, आचार्य सबहिं,
निरपन के सम्मुख रोक दियो.
गुरुजन, कुरु कौ कुरुक्षेत्र मांहीं,
कौन्तेय देख बिनु शोक हिये
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा॥१-२६॥
अथ पार्थ पितामह गुरुजन कौ,
पुत्रन, पौत्रन और मित्रन कौ.
मामों ससुरों सब भ्रातन कौ,
सेनाउन देखत निजपन कौ
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्॥१-२७॥
उत ठाढे सबहिं निज बन्धु सखा.
अवलोकहिं होत मलीन जिया.
करुना मय चित्त सों पार्थ कहें,
मोरो शोक सों व्याकुल होत हिया
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥१-२८॥
अर्जुन उवाच
बन्धु सखा बहु ठाढे यहॉं,
जिन जुद्धन भाव हिया धारे.
तिन देखि हिया मोरो सूखत है,
और कांपत अंग शिथिल सारे
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते॥१-२९॥
गुरु स्वजन देखि के हे कृष्णा !
मुख सूखि रह्यो, घबराय जिया .
तन कंप शिथिल रोमांच भयौ,
मन बुद्धि भ्रमित, भरमाय हिया
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥१-३०॥
अति दाह त्वचा धध कात मोरी,
गांडीव हाथ सों जात गिरयो.
रहि सकूं खडा समरथ नाहीं,
मन मोरो शोक सों जात घिरयो
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे॥१-३१॥
लक्षण सगरे, विपरीत मोहे,
यही जुद्ध्हिं केशव दीखत हैं
कुल आपुनि मारि के आपुनि सों
कल्याण कहाँ, यही दुर्गति है
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा॥१-३२॥
सुख राज विजय की चाह नाहिं,
यही नैकु न नैकु मोहे चहिबौ,
अस राजहूँ भोग गोविन्द सुनौ,
अस जीवन को हम का करिबौ
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥१-३३॥
सुख राज भोग सब यहि जग के,
जिनके हित मानव होत यथा.
सब ठाढे प्रान की आस छोड़,
केहि कारन जुद्धन होत प्रथा
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबन्धिनस्तथा॥१-३४॥
गुरुदेव पितर, दादा, मामा
निज सुत, पोते, चाचा, ताऊ.,
तस् ही बहुतेरे संबन्धी
सम्बंधित काहू सों काहू
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते॥१-३५॥
तिहूँ लोकन राजहूँ मोहे मिलै,
हे मधुसूदन ! तबहूँ नाहीं
मैं नैकु न मारि सकूं इनकों ,
भू के हित तो कबहूँ नाहीं
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः॥१-३६॥
धृतराष्ट्र सुतन कौ मारि हमें,
कोऊ हर्ष कदापि कहाँ हुइहै .
आतता यिन मारि के पाप हमें,
निश्चय ही जनार्दन तो हुइहै
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव॥१-३७॥
अथ माधव कोऊ औचित्य नाहीं,
बंधु और बांधव मारण कौ.
परिवार स्वजन को मार कबहूँ,
सुख होत कहाँ कोऊ प्रानिन कौ
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥१-३८॥
जद्यपि कुरु लोभ सों भ्रष्ट भयौ,
कुल मित्र विनाश को उद्यत है.
नाहीं पाप को नेकु लखाय रह्यो,
रन जुद्ध करावन कौ रत है
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥१-३९॥
सुन मोरे जनार्दन मोरी सुनौ,
कुल नाश को दोष हटावन कौ.
क्यों नाहीं विचार कियौ चहिबौ,
कुल नाश को पाप बचावन कौ
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत॥१-४०॥
कुल नाश जबहीं हुई जावत है,
कुल धरम सनातन नासत हैं.
जब धरम नसावत कुल, कुल के
तब पापहूँ पाँव पसारत हैं
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः॥१-४१॥
कुल नाश जबहीं हुई जावत हैं,
कुल नारिहूँ दूषित होवत हैं.
जब नारिहूँ दूषित होवत हैं ,
तब वर्ण दोष बढ़ी जावत हैं
संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥१-४२॥
यहि जाति कुजाती कुल घाती,
कुल, कुल कौ नरक लई जावत है,
यहि सों अति घातक कि इनके,
लोग पितर गिर जावत हैं
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥१-४३॥
इन जाति कुजाति के दोसन सों,
कुल जाति के धरम विनासत हैं.
कुल घाति के धरम सनातन जो,
यहि कारन सों ही नसावत हैं
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥१-४४॥
जिनके कुल धरम विनास भये,
तिनके ही नरक मांहीं वास भये .
ऐसों ही जनार्दन जात सुन्यो,
जन ऐसे नरक आवास भये
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥१-४५॥
यहि शोक की बात घनेरी विभो !
सुख राज के लोभ सों पाप करैं.
अथ हेतु भये धिक् ! उद्यत जो,
कुल आपुनि नाश ही आपु करें
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥१-४६॥
धृत राष्ट्र के पुत्र मोहे रन में,
मारें तबहूँ कल्याण मोरों .
मैं शस्त्र हीन हुई, जुद्ध विरत,
न चाहूँ नैकहूँ जुद्ध करौं
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥१-४७॥
रथ मांहीं पाछे बैठि गयो,
रन भूमहीं अर्जुन शोक मना.
शर चाप को त्याग दियो कहिकै,
नाहीं जुद्ध करहूँ कबहूँ कृष्णा!