भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"प्राण-नाथ मत रूठो करूणा-दृग खोलो / प्रेम नारायण 'पंकिल'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेम नारायण 'पंकिल' |संग्रह= }} Category:कविता <poem> प्र…)
 
(कोई अंतर नहीं)

15:35, 1 मार्च 2010 के समय का अवतरण

प्राण-नाथ मत रूठो करूणा-दृग खोलो।
इतने दिन मौन रहे अब तो कुछ बोलो।।

देख लो बुझी कब से नेह-दीप बाती।
प्रभु-विरहित व्यर्थ श्वांस आती है जाती।
मेरे उर प्रांगण में मंद-मंद डोलो-
प्राणनाथ मत रूठो 0..............................।।1।।

रिक्त पड़ी है कब से मेरी उर शैय्या।
सुखासीन हो जावो हे हृदय-रमैया।
इस कृपण के तंदुल की पोटली टटोलो-
प्राणनाथ मत रूठो 0..............................।।2।।

मैं अति समर्थ कठिन पाप की पहेली।
दुर्गुण-बोझिल सिर पर फेर दो हथेली।
सबके सब कुछ हो कुछ मेरे भी हो लो-
प्राणनाथ मत रूठो 0..............................।।3।।

सुधि-संबल दे कर लो अपना अनुगामी।
दिग भ्रमित बिहँग को दो चरण-नीड़ स्वामी।
‘पंकिल’ उर बीच परम प्रेम-रंग धोलो-
प्राणनाथ मत रूठो 0..............................।।4।।