भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"प्रेम-नेम निफल निवारि उर-अंतर तैं / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
<poem>
 
<poem>
 
प्रेम-नेम निफल निवारि उर-अंतर तैं,
 
प्रेम-नेम निफल निवारि उर-अंतर तैं,
ब्रह्मज्ञान आनंद-निधान भरि लैहैं हम ।
+
::ब्रह्मज्ञान आनंद-निधान भरि लैहैं हम ।
 
कहै रतनाकर सुधाकर-मुखीन-ध्यान,
 
कहै रतनाकर सुधाकर-मुखीन-ध्यान,
आँसुनि सौ धोइ जोति जोइ जरि लैहै हम ॥
+
::आँसुनि सौ धोइ जोति जोइ जरि लैहै हम ॥
 
आवो एक बार धारि गोकुल-गलि की धूरि,
 
आवो एक बार धारि गोकुल-गलि की धूरि,
तब इहिं नीति को प्रतीत धरि लैहैं हम ।
+
::तब इहिं नीति को प्रतीत धरि लैहैं हम ।
 
मन सौं, करेजै सौं, स्रवन-सिर आँखिनि सौं,
 
मन सौं, करेजै सौं, स्रवन-सिर आँखिनि सौं,
ऊधव तिहारी सीख भीख करि लैं ह्वैं हम ॥18॥
+
::ऊधव तिहारी सीख भीख करि लैं ह्वैं हम ॥18॥
 
</poem>
 
</poem>

09:31, 2 मार्च 2010 के समय का अवतरण

प्रेम-नेम निफल निवारि उर-अंतर तैं,
ब्रह्मज्ञान आनंद-निधान भरि लैहैं हम ।
कहै रतनाकर सुधाकर-मुखीन-ध्यान,
आँसुनि सौ धोइ जोति जोइ जरि लैहै हम ॥
आवो एक बार धारि गोकुल-गलि की धूरि,
तब इहिं नीति को प्रतीत धरि लैहैं हम ।
मन सौं, करेजै सौं, स्रवन-सिर आँखिनि सौं,
ऊधव तिहारी सीख भीख करि लैं ह्वैं हम ॥18॥