भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"विरह-बिथा की कथा अकथ अथाह महा / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो (४-विरह-बिथा की कथा अकथ अथाह महा / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’ का नाम बदलकर विरह-बिथा की कथा अकथ अथाह महा / ज)
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
<poem>
 
<poem>
 
विरह-बिथा की कथा अकथ अथाह महा,
 
विरह-बिथा की कथा अकथ अथाह महा,
कहत बनै न जो प्रबीन सुकबीनि सौं ।
+
::कहत बनै न जो प्रबीन सुकबीनि सौं ।
 
कहैं रतनाकर बुझावन लगे ज्यौं कान्ह,  
 
कहैं रतनाकर बुझावन लगे ज्यौं कान्ह,  
ऊधौ कौं कहन-हेतु ब्रज-जुवतीनि सौं ॥
+
::ऊधौ कौं कहन-हेतु ब्रज-जुवतीनि सौं ॥
 
गहबरि आयौ गरौ भभरि अचानक त्यौं,
 
गहबरि आयौ गरौ भभरि अचानक त्यौं,
प्रेम परयौ चपल चुचाइ पुतरीनि सौं ।
+
::प्रेम परयौ चपल चुचाइ पुतरीनि सौं ।
 
नैंकु कही बैननि, अनेक कही नैननि सौं,
 
नैंकु कही बैननि, अनेक कही नैननि सौं,
रही-सही सोऊ कहि दीनी हिचकीनिं सौं ॥4॥
+
::रही-सही सोऊ कहि दीनी हिचकीनिं सौं ॥4॥
 
</poem>
 
</poem>

09:38, 2 मार्च 2010 के समय का अवतरण

विरह-बिथा की कथा अकथ अथाह महा,
कहत बनै न जो प्रबीन सुकबीनि सौं ।
कहैं रतनाकर बुझावन लगे ज्यौं कान्ह,
ऊधौ कौं कहन-हेतु ब्रज-जुवतीनि सौं ॥
गहबरि आयौ गरौ भभरि अचानक त्यौं,
प्रेम परयौ चपल चुचाइ पुतरीनि सौं ।
नैंकु कही बैननि, अनेक कही नैननि सौं,
रही-सही सोऊ कहि दीनी हिचकीनिं सौं ॥4॥