भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"चाव सौं चले हौं जोग-चरचा चलाइबै कौं / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर' |संग्रह=उद्धव-शतक / जगन्नाथ…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
18:12, 26 मार्च 2010 के समय का अवतरण
चाव सौं चले हौ जोग-चरचा चलाइबै कौं
चपल चितौनी तैं चुचात चित-चाह है ।
कहै रतनाकर पै पार न बसैहै कछु
हेरत हिरैहैं भरयौ जो उर उछाह है ॥
अंडे लौं टिटहरी के जहै जू बिबेक बहि
फेरि लहिबै की ताके तनक न राह है ।
यह वह सिंधु नाहिं सोखि जो अगस्त्य लियौ
ऊधौ यह गोपिन के प्रेम कौ प्रबाइ है ॥66॥