भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"साँसों की रात थी वह / रवीन्द्र दास" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: इतनी नजदीकियों के बावजूद नहीं हो पा रहा था यकीन कि हम साथ हैं, गो…)
(कोई अंतर नहीं)

10:45, 15 अप्रैल 2010 का अवतरण

इतनी नजदीकियों के बावजूद नहीं हो पा रहा था यकीन

कि हम साथ हैं,

गोकि यह भी मालूम न था

कि साथ होना कहते किसे हैं ?

न कोई सवाल था

और न कोई जवाब ।

बस साँसें थी

दहकती सी , बहकती सी - भागती बदहवास

आँखें भूल चुकी थी देखना

कान सुनना ..........

सारी ताकत समा गई थी साँसों में

याद करो तुम भी

साँसों की रात थी वह।


बेशक बीत गया अरसा

गुजर गया एक जमाना

फिर भी, ओ मेरे तुम !

एक बार फिर मुझे उस रात में ले चलो

वह रात ! सचमुच,


साँसों की रात थी वह।